जलना कोयले की नियति है। यह बात दीगर है कि जलने की कहानी हमेशा एक जैसी नहीं होती। बाहर जलने पर यह काला धुआं देता है, लेकिन बंद खदानों में जले तो धुएं का रंग झक-झक सफेद हो जाता है। झारखंड की आगग्रस्त झरिया, कुजू आदि कोलियरी के विशाल भू-भाग में कोयले की यह लीला आज भी जारी है। सफेद धुओं के घने मेघ के साथ हजारों टन कोयले हर दिन भभक-भभककर जल रहे हैं और इलाके को जहरीली सफेद गैसों की टरबाइन में बदल रहे हैं। वैसे झारखंड कोयलांचल के लाखों लोग कोयले के इन काले और सफेद धुओं के साथ जीने-मरने को अभिशप्त हैं। लेकिन किसे पता था कि एक दिन देश की सियासत भी कोयले की राह पर चल पड़ेगी और उसके सफेद धुएं में समूचे देश का दम घुटने लगेगा।
इन दिनों देश में कोल ब्लॉक आवंटन को लेकर सियासी बवंडर मचा हुआ है। कांग्रेस कोल ब्लॉक के आवंटन को सही बताकर सीएजी की रिपोर्ट को ठेंगा दिखा रही है, जबकि भाजपा ने इस घोटाले के विरोध में जमीन-आसमान को सिर पर उठा लिया है। कांग्रेस का कहना है कि आवंटन में कोई अनियमितता नहीं हुई, जबकि भाजपा के नेता सीएजी की रिपोर्ट को सच ठहराते हुए भारी घोटाले का आरोप लगा रहे हैं। लेकिन सच कुछ और है, जिसके बारे में न तो कांग्रेस के नेता बोल रहे हैं और न ही भाजपा के । सच यह है कि दोनों पार्टियां आम लोग को दिग्भ्रमित कर रही हैं।
यह सियासत के बंद खदानों की आग है। अजीब संयोग यह कि इससे उठने वाले धुएं का रंग भी सफेद है। अगर ऐसा नहीं होता तो हंगामा पिछले साल ही बरपा होता जब सरकार ने "खान और खनिज (विकास और नियमन) विधेयक-10' को मंजूरकर नये कानून बनाये थे। ध्यान से देखने पर पता चलता है कि यह कानून खनिज और खनन प्रक्षेत्र में में निर्बाध निजीकरण के लिए ही बनाये गये थे । कुछ विशेषज्ञों ने उस समय कहा था कि यह कानून खनिज व खनन प्रक्षेत्र को निजीकरण के नये दौर में लेकर जायेगा, जिससे सरकार की भूमिका में व्यापक बदलाव होंगे। निर्बाध निजीकरण के नये कानूनों से खनिजों के उत्पादन, प्रसंस्करण, वैल्यू एडिशन और विपणन में सरकार की भूमिका कम होती जायेगी और वह धीरे-धीरे नियंत्रक और नियामक की भूमिका में सीमित होती जायेगी। यही हो भी रहा है। अब सरकार प्राकृतिक संसाधनों के सर्वाधिकारी की भूमिका में नहीं, बल्कि नियंत्रक और नियामक की भूमिका में आ चुकी है। स्वाभाविक रूप से मंत्रालय में बैठे लोग लोगीदार हो गये हैं और उनकी जेब खूब गरम हो रही है, लेकिन देश की प्राकृतिक संपदाएं दोनों हाथों से लूटी जा रही हैं।
ऐसा नहीं है कि 2010 का खनन कानून एक झटके में बन गया। यह सब 2008 की नयी खजिन नीति के ही विस्तार थे, जिसके जरिये देश की खनिज संपदा को निजी हाथों में सौंपने के लिए व्यापक रास्ते तैयार किये गये थे। लेकिन भाजपा ने कभी भी इन नीतियों और विधेयकों का कड़ा विरोध नहीं किया। यह जानते हुए कि निर्बाध निजीकरण की नीतियां देश को भ्रष्टाचार के समंदर में डूबो देंगी, भाजपा समेत अधिकांश विपक्षी दल चुप ही रहे। कहने की जरूरत नहीं कि "मधु कोड़ा', "रेड्डी बंधु',"टू-जी' हो या "कोल-गेट' आदि महाघोटाले प्राकृतिक संसाधनों को निजी हाथों में सौंपने की नीतियों के कारण ही संभव हो सके। भाजपा प्रधानमंत्री से इस्तीफा तो मांग रही है, लेकिन निर्बाध निजीकरण की नीतियों पर खामोश है।
बात फिर घुमकर कोयले की आग पर आती है। विशेषज्ञ मानते हैं कि झरिया, कुजू,रानीगंज कोलियरी के सैंकड़ों एकड़ में लगी भूमिगत आग के लिए "स्लाउटर माइनिंग'' अर्थात अवैज्ञानिक खनन जिम्मेदार है। स्लाउटर माइनिंग ऐसे खनन को कहते हैं, जिसमें खनन की बुनियादी तकनीक का पालन नहीं किया जाता। अतिरिक्त कोयला निकालकर पैसे बनाने की चाहत में अभियंता, अधिकारी खदान को आग के मुहाने पर ले जाकर छोड़ देते हैं। जब आग लग जाती है, तो उसे बुझाने के नाम पर करोड़ों रुपये का वारा-न्यारा होता है। इसलिए अगर खनन अभियंत्रण की शब्दावली में कहें, तो कोल ब्लॉक का आवंटन ही नहीं, बल्कि इस पर मचा सियासी घमासान भी "स्लाउटर'' ही है।
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