सरकार ने तो बहुत पहले सरेंडर कर दिया। उनका संदेश साफ था- कि यह प्रलय है और हम ज्यादा कुछ नहीं कर सकते। कोशी पीड़ित भी सरकार की मंशा जान चुके हैं। लेकिन उन्होंने समर्पण नहीं किया है। उनमें अब भी जिजीविषा जिंदा है। यह बांस पुल उसी का उदाहरण है। कोशी की नयी धारा को पार करने के लिए बिहार के सुपौल जिले के ग्रामीणों ने आपसी मदद से इस बांस के पुल का निर्माण किया है। इस पुल से प्रतिदिन सैकड़ों ग्रामीण आवाजाही कर रहे हैं और जीवन को बचाने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं।
बुधवार, 28 जनवरी 2009
क्यों धारा बदलती है कोशी
दहाये हुए देस का दर्द-32
पूर्वी बिहार और नेपाल में बहने वाली गंगा की सहायक कोशी पूरी दुनिया की एक ऐसी अनोखी नदी है जो अपने यायावरी स्वभाव और प्रचंड वेग के लिए सैकड़ों वर्षोसे कुख्यात है। महाभारत और रामायण में इस नदी का जिक्र है जिसमें इसे ॠषि-मुनियों का पसंदीदा नदी बताया गया है। इसका नाम भी विश्वामित्र मुनी के नाम पर है। कौशिक्य, विश्वामित्र मुनी का ही उपनाम है और जिन्होंने इस नदी के किनारे गहन तपस्या की थी और बाद में लोग उन्हीं के नाम पर इस नदी को कोशी कहने लगे। लेकिन इन ग्रंथों में कोशी की प्रचंडता की बात नहीं है। प्राचीन साहित्यों और अन्य धार्मिक ग्रंथों में भी कोशी का उल्लेख मिलता है, लेकिन कहीं भी इसकी विभीषिका की चर्चा नहीं है। प्राचीन भारत के इतिहास में भी इसकी विभीषिका की चर्चा नहीं है। इससे इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि लगभग 1000 वर्ष के आसपास इस नदी ने अपना चरित्र बदल लिया। शायद मेची और महानंदा से अलग होते ही कोशी ने अपनी स्थिरता खो दीहोगी। कुछ विद्वानों का कहना है कि 1000 वर्ष पूर्व कोशी मेची और महानंदा के साथ मिलकर बह रही थी, जो वर्तमान में पश्चिम बंगाल और नेपाल के रास्ते बह रही है।
कोशी मध्य व पूर्वी हिमालय के लगभग 15-20 हजार वर्ग किलोमीटर जलछाजन क्षेत्र के बरसाती एवं बर्फीले जल और गाद को समेटते हुए और लगभग 250 किलोमीटर का टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता तय कर नेपाल के चतरा (वराह क्षेत्र) से होकर मैदानी इलाके में प्रवेश करती है। चतरा में हिमालय से निकलने वाली दो अन्य नदियां यथा अरुण और मकालू भी कोशी नदी में मिल जाती है। इससे 50 किलोमीटर पहले भी तीन छोटी नदी कोशी में मिलती है। कुल मिलाकर सात छोटी-बड़ी नदी चतरा में एक हो जाती है। यही कारण है कि नेपाल में इसे सप्तकोशी भी कहा जाता है।
मकालू नदी माउंट एवरेस्ट के बिल्कुल पास से निकलती है जबकि अरुण का उद्गम स्थल कंचनजंगा के पास है। चतरा तक नदी का प्रवाह मार्ग निर्धारित और स्थिर रहता है। पिछले एक हजार वर्षों से कोशी चतरा तक एक ही रास्ते से होकर पहुंच रही है। लेकिन चतरा से निकलकर गंगा में मिलने के क्रम में इस नदी का प्रवाह-चरित्र पूरी तरह बदल जाता है। पिछले 282 वर्षों में इस नदी ने चतरा से निकलकर दक्षिण की ओर गंगा में मिलने के क्रम में बड़े पैमाने पर 12 बार और छोटे पैमाने पर दर्जनों दफे अपनी धाराएं बदली हंै। इस क्रम में यह पार्श्वतः (लैटरली) लगभग 110 किलोमीटर पश्चिम की ओर खिसक गयी। यह खिसकाव नदी के किसी एक भाग या सीमित लंबाई में नहीं हुआ, बल्कि यह संपूर्ण खिसकाव (टोटल शिफ्ट) था। सन् 1736 में यह नदी बिहार के वर्तमान पूर्वी जिले किशनगंज, पूर्णिया और कटिहार से होकर बहती थी। वर्ष 1779 में अंग्रेज अभियंता कर्नल रीनेल ने पूर्वोतर भारत के नदियों का एक नक्शा तैयार किया था। इस नक्शे में दिखाया गया है कि कोशी कभी मेची-महानंदा के साथ मिलकर बह रही थी। जबकि वर्ष 1938-40 के आते-आते यह नदी बिहार के वर्तमान सुपौल, मधुबनी, सहरसा,दरभंगा और खगड़िया जिले होकर बहने लगी। इसी बहाव मार्ग पर सनफ 1963 में कोशी को तटबंधों के अंदर कैद कर दिया गया। इसके बाद 17 अगस्त, 2008 तक नदी तटबंधों के बीच से होकर ही बहती रही। हालांकि इस दरम्यान इसने कई बार दोनों तटबंधों को तोड़ा, लेकिन उस पर जल्द नियंत्रण पा लिया गया। ऐसा देखा गया कि कुसहा के पूर्व नदी तटबंध को अपने अतिरिक्त जल की निकासी के लिए तोड़ी थी, उन कटावों से होकर नदी की मुख्य धारा ने बहने की प्रवृत्ति नहीं दिखाई। हालांकि 1984 में नौहट्टा में नदी की एक छोटी धारा जरूर निकलने लगी थी, जो पंद्रह दिन तक कटान से बहती रही और उसके बाद खुद-ब-खुद मुख्य धारा की ओर लौट गयी। लेकिन कुसहा, नेपाल में गत 18 अगस्त को तटबंध टूटने के बाद यह पहला अवसर है जब कोशी अपने स्वभाव के विपरीत पश्चिम के बदले पूर्व की ओर ही खिसक गयी, जहां यह कभी 1920 के दशक में बहती थी। यह कोसी का एक और नया कारनामा है। अगर इसे रेखागणित के हिसाब से देखें तो स्पष्ट होता है कि कोशी एक पेंडुलम का आचरण कर रही है। इसका उत्तरी सिरा (चतरा में) तो कायम हैै लेकिन दक्षिण सिरा लगातार पूर्व और पश्चिम की दिशा में हिल रहा है।
यह घोर निंदा की बात है वैज्ञानिक प्रगति के इस आधुनिक युग में भी कोशी नदी एक रहस्य बनी हुई है और आजतक नदी के इस विचित्र स्वभाव की वास्तविक वजह का अंतिम रूप से पता नहीं लगाया जा सका है। न तो राज्य और न ही केंद्र सरकार ने आजतक नदी के इस विशेष चरित्र की वजह का पता लगाने के लिए कोई विशेष अनुसंधान करवायाऔर न ही किसी विश्वविद्यालय या अन्य संस्थाओं ने। वैसे कोसी के यायावरी स्वभाव को लेकर तरह-तरह के वैज्ञानिक कारण बताये जाते हैं। ज्यादातर अभियंता और विशेषज्ञ इसके लिए कोशी नदी में पानी के साथ आने वाली प्रचुर गाद को जिम्मेदार मानते हैं तो कुछ का मानना है कि इसके पीछे प्रवाह क्षेत्र की भौगोलिक संरचना जिम्मेवार है। गाद को धारा के बदलाव कारण मानने वालों के अनुसार कोशी नदी में प्रतिवर्ष अरबों टन गाद (मिट्टी, बालू, चट्टान और कीचड़) उत्सर्जित होती है। यह गाद लगभग 15 हजार वर्ग किलोमीटर की हिमालयी क्षेत्रफल से एकत्र होकर कोशी नदी में पहुंचती है। पहाड़ी ढलान पर नदी का वेग अत्यंत तीव्र होता है जिस कारण यह धारा के साथ बेरोकटोक बहते हुए चतरा तक चली आती है। लेकिन जैसे ही नदी मैदानी इलाके में प्रवेश करती है धारा का वेग कम होने लगता है और गाद नदी के तल (बेड) में जमा होने लगती है। इस कारण धारा के प्रतिप्रवाह में अंतर्देशीय डेल्टा बनने लगते हैं जो नदी की धारा को पार्श्व की ओर बहने के लिए प्रेरित करता है। ये डेल्टाएं एवं गाद कालांतर में नदी को अपनी धारा से विचलित होने के लिए बाध्य कर देती हैं। इस विचारधारा के समर्थक और नेपाल जल संरक्षण संस्थान के अध्यक्ष एवं कोसी नदी के विशेषज्ञ अभियंता दीपक ग्यावली के अनुसार, तटबंध निर्माण के बाद पिछले पचास वर्षों में तटबंधों के अंदर ही कोसी की सारी गादें जमा होती रही हैं। इनकी मात्रा लगभग दस करोड़ क्यूबिक मीटर प्रति वर्ष है। चूंकि कोशी के हिमालय स्थित जलछाजन क्षेत्र की चट्टान और मिट्टी काफी भुरीभुरी और बलुआई है इस कारण हर वर्ष गाद की मात्रा में बढ़ोतरी होती रहती है। इसके परिणामस्वरूप नदी के तल (बेड) की ऊंचाई पिछले दशकों में आसपास के धरातल से सात-आठ मीटर ऊंची हो गयी है। उधर गंगा नदी की गहराई में भी कमी आयी है,जिसके चलते नदी के मध्य में पानी का भार सबसे ज्यादा होता है। इन कारणों से कोशी धारा बदलने के लिए मजबूर हो रही है। ग्यावली का निष्कर्ष वैज्ञानिक कसौटी पर कितना खरा है, यह तो प्रमाणिक अनुसंधान के बाद ही पता चलेगा। लेकिन कुसहा में कोशी ने जिस तरह अपनी धारा अचानक बदल ली उससे तो उनकी बात सच प्रतीत होती है। क्योंकि कुसहा में बांध टूटने के बाद नदी की 90 प्रतिशत जलराशि नई धारा से होकर बहने लगी है। गत 5 सितंबर को कुल एक लाख 34 हजार घन प्रति सेकेंड (क्यूसेक) निष्कासित जलराशि में से 92 हजार टूटे तटबंध से बह रही थी। गत सितंबर में स्थिति यह थी कि नदी की पुरानी धारा लगभग सूख चुकी थी। कुसहा से महज 12 किलोमीटर की दूरी पर अवस्िथत कोशी बाराज के फाटक तो खुले थे, लेकिन पानी उधर से नहीं बह रहा है। बाराज के प्रतिप्रवाह और सहप्रवाह दोनों में रेत के बड़े-बड़े अंतर्देशीय डेल्टा नजर आते हैं। कोशी बाराज से लेकर खगड़िया स्थित डुमरी पुल तक के पुराने नदी मार्ग को अगर कोई अनजान व्यक्ति देखे तो वह यह अनुमान नहीं लगा सकेगा कि 17 अगस्त तक यहां कोई बड़ी नदी बह रही थी। वहां सिर्फ रेत का ढेर नजर आता है। इससे स्पष्ट है कि नदी के इस मार्ग का तल खतरनाक स्तर तक ऊंचा हो गया है।
कुछ विशेषज्ञ कुसहा प्रकरण को दूसरा तिनाउ हाथिसुन्दे प्रकरण कह रहे हैं। उल्लेखनीय है कि तिनाउ नदी पर सन् 1960 के दशक में नेपाल के बतवाल शहर के नजदीक भारत सरकार ने हाथीसुन्दे बाराज का निर्माण किया था, लेकिन बाद में तिनाउ नदी के मार्ग बदल लेने के कारण यह बाराज निष्क्रिय हो गया था। दूसरी ओर बिहार के जल संसाधन विभाग के वरिष्ठ अभियंता व तटबंध विशेषज्ञ विजय कुमार सिन्हा का मानना है कि कोशी को वापस तटबंध के अंदर मोड़ना संभव है। बकौल सिन्हा, नदी को वापस अपनी धारा में लाने के पहले कुसहा से बाराज तक नदी-तल की गहराई बढ़ानी होगी। इसके अलावा बाराज के दोनों प्रवाह में फैली गाद को भी साफ करना होगा।
कुछ अन्य विशेषज्ञों का मानना है कि कोशी द्वारा मार्ग बदलने के पीछे पूर्वी बिहार का भौगोलिक संरचना भी जिम्मेदार है। इन विशेषज्ञों के अनुसार पूर्वी बिहार की स्थलाकृति एक उत्तल कटोरे जैसी है। जबकि इसके चारों दिशा की जमीन का ऊंची है। नदी पहाड़ से उतरकर कटोरानुमा मैदानी इलाके में पहुंकर लगभग स्थिर हो जाती है। जिस अनुपात में कोशी में जल का आगमन होता है उस अनुपात में निष्कासन नहीं होता। अत्याधिक जल जमा होने की स्थिति में नदी अपनी धारा ही बदल लेती है। हालांकि इस मत के समर्थक काफी कम हैं। लेकिन यह बात सच है कि कोशी नदी का दोनों सिरा बीच वाले भाग की तुलना में ज्यादा ऊंची है। लेकिन इस वजह से बाढ़ आने की बात तो समझ में आती है , लेकिन धारा बदलने की बात स्पष्ट नहीं होती। कोशी परियोजना के अवकाश प्राप्त पूर्व मुख्य अभियंता एल के झा कहते हैं, उत्तल भौगोलिक संरचना का सिद्धांत गलत साबित हो चुका है। वास्तव में कोशी गाद और अंतर्देशीय डेल्टा की वजह से ही अपनी धारा बदलती है।
पूर्वी बिहार और नेपाल में बहने वाली गंगा की सहायक कोशी पूरी दुनिया की एक ऐसी अनोखी नदी है जो अपने यायावरी स्वभाव और प्रचंड वेग के लिए सैकड़ों वर्षोसे कुख्यात है। महाभारत और रामायण में इस नदी का जिक्र है जिसमें इसे ॠषि-मुनियों का पसंदीदा नदी बताया गया है। इसका नाम भी विश्वामित्र मुनी के नाम पर है। कौशिक्य, विश्वामित्र मुनी का ही उपनाम है और जिन्होंने इस नदी के किनारे गहन तपस्या की थी और बाद में लोग उन्हीं के नाम पर इस नदी को कोशी कहने लगे। लेकिन इन ग्रंथों में कोशी की प्रचंडता की बात नहीं है। प्राचीन साहित्यों और अन्य धार्मिक ग्रंथों में भी कोशी का उल्लेख मिलता है, लेकिन कहीं भी इसकी विभीषिका की चर्चा नहीं है। प्राचीन भारत के इतिहास में भी इसकी विभीषिका की चर्चा नहीं है। इससे इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि लगभग 1000 वर्ष के आसपास इस नदी ने अपना चरित्र बदल लिया। शायद मेची और महानंदा से अलग होते ही कोशी ने अपनी स्थिरता खो दीहोगी। कुछ विद्वानों का कहना है कि 1000 वर्ष पूर्व कोशी मेची और महानंदा के साथ मिलकर बह रही थी, जो वर्तमान में पश्चिम बंगाल और नेपाल के रास्ते बह रही है।
कोशी मध्य व पूर्वी हिमालय के लगभग 15-20 हजार वर्ग किलोमीटर जलछाजन क्षेत्र के बरसाती एवं बर्फीले जल और गाद को समेटते हुए और लगभग 250 किलोमीटर का टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता तय कर नेपाल के चतरा (वराह क्षेत्र) से होकर मैदानी इलाके में प्रवेश करती है। चतरा में हिमालय से निकलने वाली दो अन्य नदियां यथा अरुण और मकालू भी कोशी नदी में मिल जाती है। इससे 50 किलोमीटर पहले भी तीन छोटी नदी कोशी में मिलती है। कुल मिलाकर सात छोटी-बड़ी नदी चतरा में एक हो जाती है। यही कारण है कि नेपाल में इसे सप्तकोशी भी कहा जाता है।
मकालू नदी माउंट एवरेस्ट के बिल्कुल पास से निकलती है जबकि अरुण का उद्गम स्थल कंचनजंगा के पास है। चतरा तक नदी का प्रवाह मार्ग निर्धारित और स्थिर रहता है। पिछले एक हजार वर्षों से कोशी चतरा तक एक ही रास्ते से होकर पहुंच रही है। लेकिन चतरा से निकलकर गंगा में मिलने के क्रम में इस नदी का प्रवाह-चरित्र पूरी तरह बदल जाता है। पिछले 282 वर्षों में इस नदी ने चतरा से निकलकर दक्षिण की ओर गंगा में मिलने के क्रम में बड़े पैमाने पर 12 बार और छोटे पैमाने पर दर्जनों दफे अपनी धाराएं बदली हंै। इस क्रम में यह पार्श्वतः (लैटरली) लगभग 110 किलोमीटर पश्चिम की ओर खिसक गयी। यह खिसकाव नदी के किसी एक भाग या सीमित लंबाई में नहीं हुआ, बल्कि यह संपूर्ण खिसकाव (टोटल शिफ्ट) था। सन् 1736 में यह नदी बिहार के वर्तमान पूर्वी जिले किशनगंज, पूर्णिया और कटिहार से होकर बहती थी। वर्ष 1779 में अंग्रेज अभियंता कर्नल रीनेल ने पूर्वोतर भारत के नदियों का एक नक्शा तैयार किया था। इस नक्शे में दिखाया गया है कि कोशी कभी मेची-महानंदा के साथ मिलकर बह रही थी। जबकि वर्ष 1938-40 के आते-आते यह नदी बिहार के वर्तमान सुपौल, मधुबनी, सहरसा,दरभंगा और खगड़िया जिले होकर बहने लगी। इसी बहाव मार्ग पर सनफ 1963 में कोशी को तटबंधों के अंदर कैद कर दिया गया। इसके बाद 17 अगस्त, 2008 तक नदी तटबंधों के बीच से होकर ही बहती रही। हालांकि इस दरम्यान इसने कई बार दोनों तटबंधों को तोड़ा, लेकिन उस पर जल्द नियंत्रण पा लिया गया। ऐसा देखा गया कि कुसहा के पूर्व नदी तटबंध को अपने अतिरिक्त जल की निकासी के लिए तोड़ी थी, उन कटावों से होकर नदी की मुख्य धारा ने बहने की प्रवृत्ति नहीं दिखाई। हालांकि 1984 में नौहट्टा में नदी की एक छोटी धारा जरूर निकलने लगी थी, जो पंद्रह दिन तक कटान से बहती रही और उसके बाद खुद-ब-खुद मुख्य धारा की ओर लौट गयी। लेकिन कुसहा, नेपाल में गत 18 अगस्त को तटबंध टूटने के बाद यह पहला अवसर है जब कोशी अपने स्वभाव के विपरीत पश्चिम के बदले पूर्व की ओर ही खिसक गयी, जहां यह कभी 1920 के दशक में बहती थी। यह कोसी का एक और नया कारनामा है। अगर इसे रेखागणित के हिसाब से देखें तो स्पष्ट होता है कि कोशी एक पेंडुलम का आचरण कर रही है। इसका उत्तरी सिरा (चतरा में) तो कायम हैै लेकिन दक्षिण सिरा लगातार पूर्व और पश्चिम की दिशा में हिल रहा है।
यह घोर निंदा की बात है वैज्ञानिक प्रगति के इस आधुनिक युग में भी कोशी नदी एक रहस्य बनी हुई है और आजतक नदी के इस विचित्र स्वभाव की वास्तविक वजह का अंतिम रूप से पता नहीं लगाया जा सका है। न तो राज्य और न ही केंद्र सरकार ने आजतक नदी के इस विशेष चरित्र की वजह का पता लगाने के लिए कोई विशेष अनुसंधान करवायाऔर न ही किसी विश्वविद्यालय या अन्य संस्थाओं ने। वैसे कोसी के यायावरी स्वभाव को लेकर तरह-तरह के वैज्ञानिक कारण बताये जाते हैं। ज्यादातर अभियंता और विशेषज्ञ इसके लिए कोशी नदी में पानी के साथ आने वाली प्रचुर गाद को जिम्मेदार मानते हैं तो कुछ का मानना है कि इसके पीछे प्रवाह क्षेत्र की भौगोलिक संरचना जिम्मेवार है। गाद को धारा के बदलाव कारण मानने वालों के अनुसार कोशी नदी में प्रतिवर्ष अरबों टन गाद (मिट्टी, बालू, चट्टान और कीचड़) उत्सर्जित होती है। यह गाद लगभग 15 हजार वर्ग किलोमीटर की हिमालयी क्षेत्रफल से एकत्र होकर कोशी नदी में पहुंचती है। पहाड़ी ढलान पर नदी का वेग अत्यंत तीव्र होता है जिस कारण यह धारा के साथ बेरोकटोक बहते हुए चतरा तक चली आती है। लेकिन जैसे ही नदी मैदानी इलाके में प्रवेश करती है धारा का वेग कम होने लगता है और गाद नदी के तल (बेड) में जमा होने लगती है। इस कारण धारा के प्रतिप्रवाह में अंतर्देशीय डेल्टा बनने लगते हैं जो नदी की धारा को पार्श्व की ओर बहने के लिए प्रेरित करता है। ये डेल्टाएं एवं गाद कालांतर में नदी को अपनी धारा से विचलित होने के लिए बाध्य कर देती हैं। इस विचारधारा के समर्थक और नेपाल जल संरक्षण संस्थान के अध्यक्ष एवं कोसी नदी के विशेषज्ञ अभियंता दीपक ग्यावली के अनुसार, तटबंध निर्माण के बाद पिछले पचास वर्षों में तटबंधों के अंदर ही कोसी की सारी गादें जमा होती रही हैं। इनकी मात्रा लगभग दस करोड़ क्यूबिक मीटर प्रति वर्ष है। चूंकि कोशी के हिमालय स्थित जलछाजन क्षेत्र की चट्टान और मिट्टी काफी भुरीभुरी और बलुआई है इस कारण हर वर्ष गाद की मात्रा में बढ़ोतरी होती रहती है। इसके परिणामस्वरूप नदी के तल (बेड) की ऊंचाई पिछले दशकों में आसपास के धरातल से सात-आठ मीटर ऊंची हो गयी है। उधर गंगा नदी की गहराई में भी कमी आयी है,जिसके चलते नदी के मध्य में पानी का भार सबसे ज्यादा होता है। इन कारणों से कोशी धारा बदलने के लिए मजबूर हो रही है। ग्यावली का निष्कर्ष वैज्ञानिक कसौटी पर कितना खरा है, यह तो प्रमाणिक अनुसंधान के बाद ही पता चलेगा। लेकिन कुसहा में कोशी ने जिस तरह अपनी धारा अचानक बदल ली उससे तो उनकी बात सच प्रतीत होती है। क्योंकि कुसहा में बांध टूटने के बाद नदी की 90 प्रतिशत जलराशि नई धारा से होकर बहने लगी है। गत 5 सितंबर को कुल एक लाख 34 हजार घन प्रति सेकेंड (क्यूसेक) निष्कासित जलराशि में से 92 हजार टूटे तटबंध से बह रही थी। गत सितंबर में स्थिति यह थी कि नदी की पुरानी धारा लगभग सूख चुकी थी। कुसहा से महज 12 किलोमीटर की दूरी पर अवस्िथत कोशी बाराज के फाटक तो खुले थे, लेकिन पानी उधर से नहीं बह रहा है। बाराज के प्रतिप्रवाह और सहप्रवाह दोनों में रेत के बड़े-बड़े अंतर्देशीय डेल्टा नजर आते हैं। कोशी बाराज से लेकर खगड़िया स्थित डुमरी पुल तक के पुराने नदी मार्ग को अगर कोई अनजान व्यक्ति देखे तो वह यह अनुमान नहीं लगा सकेगा कि 17 अगस्त तक यहां कोई बड़ी नदी बह रही थी। वहां सिर्फ रेत का ढेर नजर आता है। इससे स्पष्ट है कि नदी के इस मार्ग का तल खतरनाक स्तर तक ऊंचा हो गया है।
कुछ विशेषज्ञ कुसहा प्रकरण को दूसरा तिनाउ हाथिसुन्दे प्रकरण कह रहे हैं। उल्लेखनीय है कि तिनाउ नदी पर सन् 1960 के दशक में नेपाल के बतवाल शहर के नजदीक भारत सरकार ने हाथीसुन्दे बाराज का निर्माण किया था, लेकिन बाद में तिनाउ नदी के मार्ग बदल लेने के कारण यह बाराज निष्क्रिय हो गया था। दूसरी ओर बिहार के जल संसाधन विभाग के वरिष्ठ अभियंता व तटबंध विशेषज्ञ विजय कुमार सिन्हा का मानना है कि कोशी को वापस तटबंध के अंदर मोड़ना संभव है। बकौल सिन्हा, नदी को वापस अपनी धारा में लाने के पहले कुसहा से बाराज तक नदी-तल की गहराई बढ़ानी होगी। इसके अलावा बाराज के दोनों प्रवाह में फैली गाद को भी साफ करना होगा।
कुछ अन्य विशेषज्ञों का मानना है कि कोशी द्वारा मार्ग बदलने के पीछे पूर्वी बिहार का भौगोलिक संरचना भी जिम्मेदार है। इन विशेषज्ञों के अनुसार पूर्वी बिहार की स्थलाकृति एक उत्तल कटोरे जैसी है। जबकि इसके चारों दिशा की जमीन का ऊंची है। नदी पहाड़ से उतरकर कटोरानुमा मैदानी इलाके में पहुंकर लगभग स्थिर हो जाती है। जिस अनुपात में कोशी में जल का आगमन होता है उस अनुपात में निष्कासन नहीं होता। अत्याधिक जल जमा होने की स्थिति में नदी अपनी धारा ही बदल लेती है। हालांकि इस मत के समर्थक काफी कम हैं। लेकिन यह बात सच है कि कोशी नदी का दोनों सिरा बीच वाले भाग की तुलना में ज्यादा ऊंची है। लेकिन इस वजह से बाढ़ आने की बात तो समझ में आती है , लेकिन धारा बदलने की बात स्पष्ट नहीं होती। कोशी परियोजना के अवकाश प्राप्त पूर्व मुख्य अभियंता एल के झा कहते हैं, उत्तल भौगोलिक संरचना का सिद्धांत गलत साबित हो चुका है। वास्तव में कोशी गाद और अंतर्देशीय डेल्टा की वजह से ही अपनी धारा बदलती है।
मंगलवार, 27 जनवरी 2009
पुराने प्रवाह में लायी गयी कोशी
नदी को पुरानी धारा में लौटाने के लिए कॉफर तटबंध के लंबवत नये स्पर्स (ठोकर) बनाये जा रहे हैं। कुसहा के नजदीक मधुबन में निर्माणाधीन एक स्पर। उल्लेखनीय है कि कोशी तटबंधों के स्पर्स भ्रष्टाचार और लापरवाही के कारण जर्जर हो चुके हैं। कुसहा में तटबंध टूटने की एक बड़ी वजह जीर्ण-शीर्ण स्पर्स भी थी।
दहाये हुए देस का दर्द -31
दहाये हुए देस का दर्द -31
कोशी पीड़ितों के लिए आज एक अच्छी खबर है। पिछले तीन महीनों से नदी को अपने पुराने प्रवाह में लाने की कोशिश आज सफल हो गयी है। कल शाम करीब सात बजे पॉयलट चैनल के निर्माण होने के साथ पानी अपने पुराने प्रवाह में यानी हनुमाननगर बराज की ओर बहने लगा था। आज दोपहर की सूचना के मुताबिक अब कुसहा कटान से होकर पानी का बहना लगभग बंद हो गया। नेपाल के बाढ़ डिवीजन के एक वरिष्ठ अभियंता मोहन भट्टराय ने आज इस बात की पुष्टि की। उनका कहना है कि फिलहाल हनुमाननगर बराज से औसतन 11 हजार क्यूसेक पानी डिस्चार्ज हो रहा है। इसके लिए पिछले कुछ दिनों से बड़ी संख्या में मजदूरों को काम पर लगाया गया था। हालांकि यह काम पिछले 10 दिसंबर को ही पूरा किया जाना था, लेकिन कई तरह की बाधाओं और सरकारों की ढुलमूल नीति के कारण मरम्मत के काम में यह देरी हुई।
लेकिन यह आधी सफलता ही है। अभी कुसहा तटबंध के कटाव की मरम्मत बाकी है। उल्लेखनीय है कि 18 अगस्त को कोशी ने नेपाल के कुसहा में तटबंध को तोड़ते हुए अपनी धारा बदल ली थी और नेपाल के दो जिले समेत पूर्वी बिहार में जल प्रलय मचा दिया था। इस विभीषिका ने लाखों लोगों को तबाह कर दिया । हजारों घर बह गये, सैकड़ों लोग मारे गये, हजारों की संख्या में मवेशी मारे गये और लाखों एकड़ जमीन रेत में तब्दील हो गयी। बिहार के अररिया, सुपौल, मधेपुरा और पुर्णिया जिले के लाखों लोग आज भी इसके दर्द झेल रहे हैं।
कुसहा में तटबंध की मरम्मत जितनी जल्द पूरी होगी उतना ही अच्छा होगा। क्योंकि फरवरी में कोशी में पानी के निष्कासन की मात्रा बढ़ जाती है। इस महीने में कोशी में बड़ी मात्रा में बर्फीला पानी आना शुरू हो जाता है। चूंकि पॉयलट चैनल ज्यादा जल राशि को रोकने में सक्षम नहीं है, इसलिए कुसहा की ओर पानी आने का खतरा हमेशा बना रहेगा। सरकार को कुसहा तटबंध की मरम्मत के लिए युद्ध स्तर पर काम कराना होगा। इसके अलावा बराज के दोनों प्रवाह में खासकर चतरा से बराज तक के अप स्ट्रीम में स्पर की मजबूती भी अनिवार्य होगी। क्योंकि नये प्रवाह ने कोशी के बहाव-विज्ञान में जबर्दस्त परिवर्तन ला दिया है। चतरा से कुसहा तक नदी के बेड से गाद साफ हो चुकी है, लेकिन कुसहा से दक्षिण की ओर गाद अपनी पुरानी अवस्था में ही है। इसका मतलब यह हुआ कि पानी स्वाभाविक रूप से दक्षिण की ओर बढ़ना नहीं चाहेगा। ऐसी परिस्थिति में गाद की सफाई अत्यंत जरूरी है। वर्तमान में पश्चिमी तटबंध के स्परों की बीच की दूरी काफी ज्यादा है। इसे घटाना पड़ेगा। उम्मीद किया जाना चाहिए कि कोशी को अपने प्रवाह में लौटाने में लगे अभियंता और सकार इस बात को ध्यान में रखकर काम करेंगे ताकि आने वाले वर्षों में कुसहा प्रहसन को पुनर्मंचन न हो।
मरम्मत के कार्य में लगे सभी मजदूरों, अभियंता और स्थानीय लोगों को मैं व्यक्तिगत रूप से धन्यवाद देता हूं।
लेकिन यह आधी सफलता ही है। अभी कुसहा तटबंध के कटाव की मरम्मत बाकी है। उल्लेखनीय है कि 18 अगस्त को कोशी ने नेपाल के कुसहा में तटबंध को तोड़ते हुए अपनी धारा बदल ली थी और नेपाल के दो जिले समेत पूर्वी बिहार में जल प्रलय मचा दिया था। इस विभीषिका ने लाखों लोगों को तबाह कर दिया । हजारों घर बह गये, सैकड़ों लोग मारे गये, हजारों की संख्या में मवेशी मारे गये और लाखों एकड़ जमीन रेत में तब्दील हो गयी। बिहार के अररिया, सुपौल, मधेपुरा और पुर्णिया जिले के लाखों लोग आज भी इसके दर्द झेल रहे हैं।
कुसहा में तटबंध की मरम्मत जितनी जल्द पूरी होगी उतना ही अच्छा होगा। क्योंकि फरवरी में कोशी में पानी के निष्कासन की मात्रा बढ़ जाती है। इस महीने में कोशी में बड़ी मात्रा में बर्फीला पानी आना शुरू हो जाता है। चूंकि पॉयलट चैनल ज्यादा जल राशि को रोकने में सक्षम नहीं है, इसलिए कुसहा की ओर पानी आने का खतरा हमेशा बना रहेगा। सरकार को कुसहा तटबंध की मरम्मत के लिए युद्ध स्तर पर काम कराना होगा। इसके अलावा बराज के दोनों प्रवाह में खासकर चतरा से बराज तक के अप स्ट्रीम में स्पर की मजबूती भी अनिवार्य होगी। क्योंकि नये प्रवाह ने कोशी के बहाव-विज्ञान में जबर्दस्त परिवर्तन ला दिया है। चतरा से कुसहा तक नदी के बेड से गाद साफ हो चुकी है, लेकिन कुसहा से दक्षिण की ओर गाद अपनी पुरानी अवस्था में ही है। इसका मतलब यह हुआ कि पानी स्वाभाविक रूप से दक्षिण की ओर बढ़ना नहीं चाहेगा। ऐसी परिस्थिति में गाद की सफाई अत्यंत जरूरी है। वर्तमान में पश्चिमी तटबंध के स्परों की बीच की दूरी काफी ज्यादा है। इसे घटाना पड़ेगा। उम्मीद किया जाना चाहिए कि कोशी को अपने प्रवाह में लौटाने में लगे अभियंता और सकार इस बात को ध्यान में रखकर काम करेंगे ताकि आने वाले वर्षों में कुसहा प्रहसन को पुनर्मंचन न हो।
मरम्मत के कार्य में लगे सभी मजदूरों, अभियंता और स्थानीय लोगों को मैं व्यक्तिगत रूप से धन्यवाद देता हूं।
गुरुवार, 22 जनवरी 2009
सोमालिया, बुरूंडी और कांगो जैसे हालात
दहाये हुए देस का दर्द-30
पिछले साल अगस्त महीने में आयी कोशी नदी की प्रलयंकारी बाढ़ को शायद दुनिया भूल गयी होगी, लेकिन पांच महीने बाद भी वहां स्थिति सामान्य नहीं हो सकी है। अभी भी वहां खेतों में नावें चल रही हैं क्योंकि हजारों एकड़ जमीन पानी से भरा हुआ है। जिस क्षेत्र को नदी ने अपनी मुख्य धारा बनायी वे सदा के लिए बर्बाद हो गये हैं। अब उन खेतों में कभी भी खेती नहीं की जा सकेगी। इसके परिणामस्वरूप लाखों लोगों के जीविका का साधन खत्म हो गया है। बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में काम करने वाले स्वयंसेवी संस्थाओं के अनुसार लगभग 500000 लोगों के सामने आजीविका का समस्या खड़ी है और 600000 लोग या तो इलाके से पलायन कर गये हैं या पलायन करने के मूड में है। सुपौल जिले के बीरपुर, बसंतपुर, प्रतापगंज, अररिया जिले के बथनाहा और छातापुर, मधेपुरा जिले के कुमारखंड, जदिया, ग्वालपाड़ा, मुर्लीगंज, सिघेंश्वर, उदाकिशुनगंज प्रखंड के लगभग दो सौ गांव नेस्तनाबूद हो गये हैं। ये गांव कोशी की मुख्य धारा में तब्दील हो गये हैं।
पुनर्वास और राहत के लिए बिहार सरकार ने जो पैकेज की घोषणा की थी, उसकी आहट भी कहीं सुनाई नहीं देती। हां, ऊंट के मुंह में जीरा फोड़न की तरह कभी-कभी कोई राहत राशि और सामग्री कुछ लोगों तक पहुंचा दी जाती है। इस मामले में केंद्र सरकार की भूमिका आश्चर्यजनक रूप से असहयोगात्मक रही है। केंद्र सरकार ने बिहार सरकार की राहत एवं पुनर्वास की परियोजना पर आज तक अपनी राय भी जाहिर नहीं की, जबकि इसे दिल्ली भेजे तीन महीने हो चुके हैं। बर्बादी इतने बड़े पैमाने पर हुई है कि अगर बिहार सरकार अपने संपूर्ण राजकीय संसाधन को भी पुनर्वास और राहत में लगा दे तो भी संसाधन कम पड़ जायेंगे। इस बाढ़ में लगभग 20 लाख घर उजड़े हैं और 20 हजार वर्ग किलोमीटर की उपजाऊ जमीन रेत और नदी में परिवर्तित हो गयी है। लगभग पचास लाख मवेशी मारे गये हैं और सैकड़ों किलोमीटर की पक्की और कच्ची सड़क टूट गयी है। लेकिन केंद्र सरकार या तो इसे समझने के लिए तैयार नहीं है या फिर वह जानबूझकर समस्या को समझना ही नहीं चाहती।
हालांकि अभी तक बिहार सरकार बर्बादी के वास्तविक आंकड़े को सामने लाने में असफल है, लेकिन स्वतंत्र एजेंसियों और विशेषज्ञों ने प्रारंभिक सर्वेक्षण के आधार पर जो आंकड़े सामने रखे हैं, वह इस बाढ़ की विभीषिका की भयानकता का संकेत देते हैं। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस (टिस) ने गत दिनों कोशी बाढ़ की विभीषिका पर एक रिपोर्ट जारी की। इसके मुताबिक, अन्य नदियां बाढ़ में जलोढ़ मिट्टी लाती हैं और खेतों को उपजाऊ बनाती हैं, लेकिन कोशी का स्वभाव इसके विपरीत है। जिन क्षेत्रों को नदी ने मुख्य धारा में तब्दील कर दिया है उनका बंजर होना तय है। टिस के सर्वेक्षण टीम के सदस्य मनीष कुमार झा का कहना है कि बर्बाद हो चुके इलाके के लोगों के जीवन-यापन के लिए फिर से जीवोकोपार्जन का नया ढांचा खड़ा करना होगा। बकौल झा- अकेले मधेपुरा जिले की एक लाख 19 हजार वर्ग हेक्टेयर जमीन नदी के गर्भ में समा गयी है, जो बाढ़ से पहले तक काफी उपजाऊ थी और लाखों लोगों के जीवन-यापन का अकेला आधार थी।
अगर संक्षेप में कहें तो कोशी अंचल के हालात तेजी से युद्धग्रस्त अफ्रीकी देश सोमालिया, बुरूंडी, नाइजीरिया, सूडान और कांगो जैसे होते जा रहा है। जीविकोपार्जन के साधन गंवा चुके लाखों लोग के सामने भुखमरी की समस्या मुंह बाये खड़ी है। कुछ दिन पहले ही अररिया जिले के छातापुर प्रखंड के भीमपुर गांव में एक दलित की भूख से मृत्यु हो गयी। लेकिन इस मृत्यु का सबसे भयानक क्षण तब सामने आया जब ग्रामीणों को उसके शव के अंतिम संस्कार के लिए लकड़ी तक के लाले पड़ गये। अंत में ग्रामीणों ने हिन्दू रिवाजों को भूलाते हुए उसकी शव को नदी में बहा दिया। जो एक अन्य बात कोशी अंचल को युद्धग्रस्त क्षेत्र की शक्ल देती है वह है - सामने खड़ी भीषण सामाजिक संघर्ष की आशंका। जैसे-जैसे पानी खेतों से नीचे की ओर उतर रहे हैं, वैसे-वैसे सामाजिक तनाव बढ़ रहा है। एक खेत के कई दावेदार सामने आ रहे हैं। प्रभुत्वशाली और राजनीतिक संरक्षण प्राप्त लोग इस स्थिति का फायदा उठाकर तमाम खेतों पर अपना दावा पेश कर रहे हैं। चूंकि नदी ने भूमि-माप के सारे मानक और स्तंभों को ध्वस्त कर दिया है, इसलिए जमीनों के वास्तविक मालिक का पता लगाना संभव नहीं हो रहा है। लेकिन प्रशासन का ध्यान इस ओर नहीं है। आने वाले महीने में अगर कुसहा में तटबंध को बांध दिया जायेगा, तो हजारों एकड़ और जमीन पानी से बाहर निकलेगी। उस परिस्थिति में जमीन के वास्तविक हकदार को तय करना निहायत आवश्यक होगा। सरकार को इस कार्य के लिए हजारों की संख्या में भूमि माप और सर्वेक्षण कर्मचारियों को तैनात करने होंगे। अगर इसमें देरी हुई, तो गृह युद्ध जैसे हालात अवश्यसंभावी है। इसके शुरुआती लक्षण दिखने लगे हैं। मधेपुरा और सुपौल जिले में अब तक जमीन पर कब्जा के लिए चार दर्जन संघर्ष हो चुके हैं। जातीय आधार पर जमीन हड़पने वाले गुट तैयार हो रहे हैं।
उधर वोट बैंक की राजनीति अपना काम कर रही है। चूंकि कांग्रेस को इस क्षेत्र में अपने लिए एक भी लोकसभा या विधानसभा की सीट दिखाई नहीं देती और राष्ट्रीय जनता दल को लगता है कि वह तो बाढ़ से उपजे आक्रोश के कारण ही अगले चुनाव में अपनी खोई हुई सीटें हासिल कर लेगी, इसलिए दोनों दलों ने उदासीनता की चादर ओढ़ ली है। सारी समस्याओं के ठीकरे को नीतीश कुमार और उनकी सरकार के सिर पर फोड़कर ही कांग्रेस और राजद अपने कर्त्तव्यों से इतिश्री करने का मन बना चुके हैं। क्या केंद्र सरकार अपने संघीय जिम्मेदारी से पीछे नहीं हट रही है ? यह एक यक्ष सवाल है ? इसी सवाल से कभी नार्थ ईस्ट, तो कभी जम्मू- कश्मीर भी गुजरा था और आज कोशी अंचल के लोग गुजर रहे हैं।
पिछले साल अगस्त महीने में आयी कोशी नदी की प्रलयंकारी बाढ़ को शायद दुनिया भूल गयी होगी, लेकिन पांच महीने बाद भी वहां स्थिति सामान्य नहीं हो सकी है। अभी भी वहां खेतों में नावें चल रही हैं क्योंकि हजारों एकड़ जमीन पानी से भरा हुआ है। जिस क्षेत्र को नदी ने अपनी मुख्य धारा बनायी वे सदा के लिए बर्बाद हो गये हैं। अब उन खेतों में कभी भी खेती नहीं की जा सकेगी। इसके परिणामस्वरूप लाखों लोगों के जीविका का साधन खत्म हो गया है। बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में काम करने वाले स्वयंसेवी संस्थाओं के अनुसार लगभग 500000 लोगों के सामने आजीविका का समस्या खड़ी है और 600000 लोग या तो इलाके से पलायन कर गये हैं या पलायन करने के मूड में है। सुपौल जिले के बीरपुर, बसंतपुर, प्रतापगंज, अररिया जिले के बथनाहा और छातापुर, मधेपुरा जिले के कुमारखंड, जदिया, ग्वालपाड़ा, मुर्लीगंज, सिघेंश्वर, उदाकिशुनगंज प्रखंड के लगभग दो सौ गांव नेस्तनाबूद हो गये हैं। ये गांव कोशी की मुख्य धारा में तब्दील हो गये हैं।
पुनर्वास और राहत के लिए बिहार सरकार ने जो पैकेज की घोषणा की थी, उसकी आहट भी कहीं सुनाई नहीं देती। हां, ऊंट के मुंह में जीरा फोड़न की तरह कभी-कभी कोई राहत राशि और सामग्री कुछ लोगों तक पहुंचा दी जाती है। इस मामले में केंद्र सरकार की भूमिका आश्चर्यजनक रूप से असहयोगात्मक रही है। केंद्र सरकार ने बिहार सरकार की राहत एवं पुनर्वास की परियोजना पर आज तक अपनी राय भी जाहिर नहीं की, जबकि इसे दिल्ली भेजे तीन महीने हो चुके हैं। बर्बादी इतने बड़े पैमाने पर हुई है कि अगर बिहार सरकार अपने संपूर्ण राजकीय संसाधन को भी पुनर्वास और राहत में लगा दे तो भी संसाधन कम पड़ जायेंगे। इस बाढ़ में लगभग 20 लाख घर उजड़े हैं और 20 हजार वर्ग किलोमीटर की उपजाऊ जमीन रेत और नदी में परिवर्तित हो गयी है। लगभग पचास लाख मवेशी मारे गये हैं और सैकड़ों किलोमीटर की पक्की और कच्ची सड़क टूट गयी है। लेकिन केंद्र सरकार या तो इसे समझने के लिए तैयार नहीं है या फिर वह जानबूझकर समस्या को समझना ही नहीं चाहती।
हालांकि अभी तक बिहार सरकार बर्बादी के वास्तविक आंकड़े को सामने लाने में असफल है, लेकिन स्वतंत्र एजेंसियों और विशेषज्ञों ने प्रारंभिक सर्वेक्षण के आधार पर जो आंकड़े सामने रखे हैं, वह इस बाढ़ की विभीषिका की भयानकता का संकेत देते हैं। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस (टिस) ने गत दिनों कोशी बाढ़ की विभीषिका पर एक रिपोर्ट जारी की। इसके मुताबिक, अन्य नदियां बाढ़ में जलोढ़ मिट्टी लाती हैं और खेतों को उपजाऊ बनाती हैं, लेकिन कोशी का स्वभाव इसके विपरीत है। जिन क्षेत्रों को नदी ने मुख्य धारा में तब्दील कर दिया है उनका बंजर होना तय है। टिस के सर्वेक्षण टीम के सदस्य मनीष कुमार झा का कहना है कि बर्बाद हो चुके इलाके के लोगों के जीवन-यापन के लिए फिर से जीवोकोपार्जन का नया ढांचा खड़ा करना होगा। बकौल झा- अकेले मधेपुरा जिले की एक लाख 19 हजार वर्ग हेक्टेयर जमीन नदी के गर्भ में समा गयी है, जो बाढ़ से पहले तक काफी उपजाऊ थी और लाखों लोगों के जीवन-यापन का अकेला आधार थी।
अगर संक्षेप में कहें तो कोशी अंचल के हालात तेजी से युद्धग्रस्त अफ्रीकी देश सोमालिया, बुरूंडी, नाइजीरिया, सूडान और कांगो जैसे होते जा रहा है। जीविकोपार्जन के साधन गंवा चुके लाखों लोग के सामने भुखमरी की समस्या मुंह बाये खड़ी है। कुछ दिन पहले ही अररिया जिले के छातापुर प्रखंड के भीमपुर गांव में एक दलित की भूख से मृत्यु हो गयी। लेकिन इस मृत्यु का सबसे भयानक क्षण तब सामने आया जब ग्रामीणों को उसके शव के अंतिम संस्कार के लिए लकड़ी तक के लाले पड़ गये। अंत में ग्रामीणों ने हिन्दू रिवाजों को भूलाते हुए उसकी शव को नदी में बहा दिया। जो एक अन्य बात कोशी अंचल को युद्धग्रस्त क्षेत्र की शक्ल देती है वह है - सामने खड़ी भीषण सामाजिक संघर्ष की आशंका। जैसे-जैसे पानी खेतों से नीचे की ओर उतर रहे हैं, वैसे-वैसे सामाजिक तनाव बढ़ रहा है। एक खेत के कई दावेदार सामने आ रहे हैं। प्रभुत्वशाली और राजनीतिक संरक्षण प्राप्त लोग इस स्थिति का फायदा उठाकर तमाम खेतों पर अपना दावा पेश कर रहे हैं। चूंकि नदी ने भूमि-माप के सारे मानक और स्तंभों को ध्वस्त कर दिया है, इसलिए जमीनों के वास्तविक मालिक का पता लगाना संभव नहीं हो रहा है। लेकिन प्रशासन का ध्यान इस ओर नहीं है। आने वाले महीने में अगर कुसहा में तटबंध को बांध दिया जायेगा, तो हजारों एकड़ और जमीन पानी से बाहर निकलेगी। उस परिस्थिति में जमीन के वास्तविक हकदार को तय करना निहायत आवश्यक होगा। सरकार को इस कार्य के लिए हजारों की संख्या में भूमि माप और सर्वेक्षण कर्मचारियों को तैनात करने होंगे। अगर इसमें देरी हुई, तो गृह युद्ध जैसे हालात अवश्यसंभावी है। इसके शुरुआती लक्षण दिखने लगे हैं। मधेपुरा और सुपौल जिले में अब तक जमीन पर कब्जा के लिए चार दर्जन संघर्ष हो चुके हैं। जातीय आधार पर जमीन हड़पने वाले गुट तैयार हो रहे हैं।
उधर वोट बैंक की राजनीति अपना काम कर रही है। चूंकि कांग्रेस को इस क्षेत्र में अपने लिए एक भी लोकसभा या विधानसभा की सीट दिखाई नहीं देती और राष्ट्रीय जनता दल को लगता है कि वह तो बाढ़ से उपजे आक्रोश के कारण ही अगले चुनाव में अपनी खोई हुई सीटें हासिल कर लेगी, इसलिए दोनों दलों ने उदासीनता की चादर ओढ़ ली है। सारी समस्याओं के ठीकरे को नीतीश कुमार और उनकी सरकार के सिर पर फोड़कर ही कांग्रेस और राजद अपने कर्त्तव्यों से इतिश्री करने का मन बना चुके हैं। क्या केंद्र सरकार अपने संघीय जिम्मेदारी से पीछे नहीं हट रही है ? यह एक यक्ष सवाल है ? इसी सवाल से कभी नार्थ ईस्ट, तो कभी जम्मू- कश्मीर भी गुजरा था और आज कोशी अंचल के लोग गुजर रहे हैं।
मंगलवार, 20 जनवरी 2009
गुलामी का पाप और मुक्ति का शाप (पहली कड़ी)
(बसने-उजड़ने की नियति-- कोशी तटबंध के अंदर हर साल बनाने पड़ते हैं घर। तस्वीर- मुकेश कुमार की )
दहाये हुए देस का दर्द -29
मुक्ति ! भारत के प्राचीन आध्यात्मिक ग्रंथों में इसकी बहुत चर्चा की गयी है। कुछ पौराणिक कथाओं में इसकी महिमा विस्तार से बतायी गयी है कि कैसे साधु-महात्मा और संन्यासी मुक्ति के लिए वर्षों-वर्षों तक तपस्या करते रहते थे। जब परमेश्वर प्रसन्न होते, तो मुक्ति का वरदान देते थे। वरदान के साथ मनुष्य जीवन- मृत्यु, राग-द्वेष-अनुराग के लौकिक बंधनों से मुक्त हो जाते थे। इसमें परमानंद की प्राप्ति होती थी। वैज्ञानिक सिद्धांत भी कहता है कि ऊर्जा की मौलिक प्रवृत्ति संरक्षित रहने की होती है, वह रूप परिवर्तन की इच्छुक नहीं होती। लेकिन आधुनिक जीवन की जरूरतें इस अवधारणा से पूरी नहीं हो पाती। आधुनिक मानव सभ्यता को वशीकरण में ही परमानंद की प्राप्ति होती है। साम्राज्यवाद और सामंतवाद इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। साम्राज्यवाद और सामंतवाद मानव को मानव द्वारा गुलाम बनाने की इच्छा का विस्तार ही तो है। जब मानव मात्र को अधीन कर मनुष्य का मन नहीं भरा तो उसने नदी, पहाड़, जंगल तक को कैद करना शुरू कर दिया। धरा-गगन में भी सीमा रेखा खींच दी।
क्या कोशी नदी का जलप्रलय मानव के अधीनीकरण की इच्छा के विरूद्ध नद-संग्राम तो नहीं! पिछले पांच महीने से मैं इस सवाल का उत्तर खोजने का प्रयास कर रहा हूं। मेरे दिमाग में कई बातें आ और जा रही हैं। मैंने दो वर्ष पहले कोशी के तटबंध के अंदर के इलाकों की पैदल यात्रा की थी। तटबंध के अंदर के बियावान बस्तियों, दूर-दूर तक फैले रेत और झाड़ियों में घूमता रहा था। तटबंधों में जकड़ी एक नदी की धड़कन सुनने की कोशिश थी, वह यात्रा। अगस्त में कोशी ने जब कुसहा के पास तटबंध को तोड़कर पूर्वी बिहार के चार जिलों में प्रलय मचाया, तो एक बार फिर मैं नदी के साथ-साथ बहता रहा। ये दोनों यात्राएं एक-दूसरे से भिन्न थीं, लेकिन दोनों का इष्ट या फलाफल एक ही था। दोनों जगह नदी रो रही थी और इंसान कराह रहा था। इस साझे दर्द को कलमबद्ध करने का प्रयास है यह पोस्ट; एक रौद्र-रूपा नदी के बयान की तरह, ताकि सनद रहे।
तटबंध के अंदर/ बसने-उजड़ने की अकथ कहानी
वह दो दिसंबर, 2006 की बहुत ठंड सुबह थी। और उस सुबह की रात में एक लंबी बहस हो गयी थी। ससुराल के लोग भौचक्क थे। कोशी तटबंध के अंदर ? क्या करने ? उधर भी कोई भला मानुष जाता है क्या ? उस रेत भरे बियावान बस्तियों में? दिन में ही रहजनी हो जाती है। न सड़क, न पगडंडी, न बिजली न थाना, न बाजार, न दुकान ? भला आपको क्या पड़ी है। मैंने कहा -- जाना है, सो जा रहा हूं। अगर 10 लाख लोग तटबंध के अंदर बारहों महीने रहते हैं, तो मैं दो-चार दिन भी नहीं रह सकता ? सबों ने माथा पीट लिया। पत्नी कुछ बोलना चाहती थी, लेकिन कुछ सोचकर चुप ही रही। मैंने कहा-- सहरसा में टेलीविजन के रिमोट को टिपटिपाकर और साले-सालियों से दिललगी करते हुए दिन बिताने से अच्छा है, कहीं से होकर आ जाऊं। जहां सड़क-रेलवे है वहां तो हर कोई जाता-आता रहता है, कभी ऐसी जगह भी जाया जाये, जहां जाने के लिए न तो सड़क हो और न ही रेलवे। लेन-देन, काज-रोजगार के लिए तो आदमी कहीं भी चला जाता है, कभी बेमतलब, निरूद्देश्य कहीं जाकर भी तो देखें कि कैसा लगता है। उसे मेरी बात समझ में नहीं आयी। लेकिन यह आभास जरूर हो गया कि मेरी यात्रा में एक चाहत है । और जो आपको प्यार करती हो वह आपकी चाहत के मध्य कभी नहीं आती।
परिणाम यह हुआ कि सुबह आठ बजे मैं सुपौल जिले के थरबिटिया रेलवे स्टेशन पर था। अगर सामान्य दिन होता, तो इस वक्त मैं विस्तर पर ही पड़ा होता। यह स्टेशन कोशी नदी की पूर्वी तटबंध के बिल्कुल किनारे पर अवस्थित है। मुझे इतना तो मालूम था कि यह पूर्वी तटबंध है और इससे नीचे उतरते ही कोशी का विशाल दियारा क्षेत्र शुरू हो जाता है, लेकिन किधर बस्तियां हैं और किधर-किधर से आवाजाही होती है, इससे मैं पूरी तरह अनजान था। स्टेशन पर एक चाय दुकानदार से पूछा, तो उसने गांव का नाम पूछा। जब मैंने बताया कि मुझे किसी एक गांव या एक व्यक्ति से नहीं मिलना है, तो वह भौंचक्क रह गया। बोला- घूमने-उमने के लिए तो उधर कोई नहीं जाता। बीहड़ भी कोई घूमने की जगह होती है क्या ? ... कीचड़-रेत-पानी भी कोई देखने की चीज है क्या ? मैंने कहा- बस ऐसे ही... आप यह बताइये किस ओर से अंदर जाया जा सकता है। उसने कहा- कोई एक स्थायी रास्ता नहीं होता, उधर जाने का। जिसको जब जिधर से आसानी होती है, चले जाते हैं। हां, लेकिन अकेले कोई नहीं जाता! आप बांध पर जाकर खड़े हो जाइये, प्रतीक्षा कीजियेगा, घंटा-आधा घंटा में कोई न कोई टोली अंदर जाते दिख जायेगी। उन्हीं लोगों साथ हो लीजिएगा।
मैंने ठीक ऐसा ही किया। स्टेशन से पैदल चलकर तटबंध पर आ गया। पश्चिम की ओर देखा। दूर-दूर तक फैले रेत के सिवा कुछ भी नजर नहीं आया। तटबंध से लगभग आधे किलोमीटर आगे ही नदी की एक धारा बहती दिख रही थी, हालांकि पानी काफी कम था। मैंने सोचा कि अगर अंदर में लोग रहते हैं तो इस धारा को पार करके ही थरबिटिया स्टेशन आते होंगे। और अगर लोग आते-जाते होंगे तो इस धारा को पार करने के लिए कहीं-न-कहीं नाव जरूर लगता होगा। मैं इसी उधेड़बुन में खोया हुआ था कि तटबंध पर एक मोटरसाइकल की आवाज सुनाई दी। जब वह मेरे नजदीक पहुंचा, तो मैंने उसे रुकने का इशारा किया। थोड़ा आगे जाकर वह रूक गया। मैं दौड़कर उसके पास पहुंचा। उसने अपने चेहरे को मफलर में छिपा रखा था। मैंने कहा- आप अंदर जा रहे हैं क्या ? उसने सिर हिलाकर हां में जवाब दिया। पूछा- कहां जाना है ? मैंने कहा- अंदर के गांवों में ... उसने इशारे से पीछे बैठने के लिए कहा ? 1970 के जमाने के उस राजदूत मोटरसाइकल की सीट जगह-जगह से फटी थी, और उसकी आवाज किसी ट्रैक्टर से भी ज्यादा तीखी थी। फिर भी मैं बैठ गया, हालांकि उस युवक के लक्षण मुझे ठीक नहीं लग रहे थे। वह तटबंध पर ही चलता रहा और लगभग डेड़ किलोमीटर आगे जाने के बाद उसने एक जगह हैंडल को मोड़ दिया। लगभग चालीस फीट ऊंचे तटबंध से मोटर साइकल नीचे कटे पेड़ की तरह लुढ़कता चला गया। एक पल के लिए तो मुझे लगा कि जान से गया, लेकिन अगले पल मेरे आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं रहा। यह कोई दुर्घटना नहीं थी। उसने जानबूझकर मोटरसाइकल नीचे उतारा था और बहुत आसानी से इसमें सफलता हासिल कर ली थी। उसके लिए यह एक सामान्य ड्राइविंग थी। धारा के किनारे पहुंचकर उसने गाड़ी रोक दी। पानी की गहराई का जायजा लिया और बोला- यहां पार नहीं हो सकेंगे। आगे चलते हैं। फिर वह धारा के किनारे-किनारे बलुआही खेत में मोटरसाइकल को बढ़ाने लगा, लेकिन लगातार उसकी आंखें पानी की गहराई का जायजा लेती हुई चल रही थी। करीब आधे किलोमीटर चलने के बाद उसने कहा- यहां दो-तीन फीट से ज्यादा नहीं है। यहीं पार करेंगे। मैं ड्राइव करते निकलूंगा, आप-आप पीछे-पीछे आ जाइये। मुझे लगा वह मजाक कर रहा है। क्योंकि मेरा अनुमान था कि पानी किनारे में अगर दो-तीन फीट है तो मध्य में पांच-दस फीट जरूर होगा, इसलिए कोई भी आदमी इसे मोटरसाइकल से पार नहीं कर सकता। लेकिन वह मजाक नहीं कर रहा था। उसने इंजन स्टार्ट किया और पानी में उतर गया। मैंने देखा कि धारा के मध्य में एक जगह उसका संतुलन कुछ सकेंड के लिए खराब हुआ, लेकिन उसने पलक झपकते गाड़ी को फिर नियंत्रित कर लिया। राजदूत की इंजन कराहती रही, लेकिन उसके एक्सलेटर का जोर बढ़ता ही रहा। अगले पल वह उस पैंतीस-चालीस फीट की धारा के उस पार था।
(अगले पोस्ट में जारी)
मुक्ति ! भारत के प्राचीन आध्यात्मिक ग्रंथों में इसकी बहुत चर्चा की गयी है। कुछ पौराणिक कथाओं में इसकी महिमा विस्तार से बतायी गयी है कि कैसे साधु-महात्मा और संन्यासी मुक्ति के लिए वर्षों-वर्षों तक तपस्या करते रहते थे। जब परमेश्वर प्रसन्न होते, तो मुक्ति का वरदान देते थे। वरदान के साथ मनुष्य जीवन- मृत्यु, राग-द्वेष-अनुराग के लौकिक बंधनों से मुक्त हो जाते थे। इसमें परमानंद की प्राप्ति होती थी। वैज्ञानिक सिद्धांत भी कहता है कि ऊर्जा की मौलिक प्रवृत्ति संरक्षित रहने की होती है, वह रूप परिवर्तन की इच्छुक नहीं होती। लेकिन आधुनिक जीवन की जरूरतें इस अवधारणा से पूरी नहीं हो पाती। आधुनिक मानव सभ्यता को वशीकरण में ही परमानंद की प्राप्ति होती है। साम्राज्यवाद और सामंतवाद इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। साम्राज्यवाद और सामंतवाद मानव को मानव द्वारा गुलाम बनाने की इच्छा का विस्तार ही तो है। जब मानव मात्र को अधीन कर मनुष्य का मन नहीं भरा तो उसने नदी, पहाड़, जंगल तक को कैद करना शुरू कर दिया। धरा-गगन में भी सीमा रेखा खींच दी।
क्या कोशी नदी का जलप्रलय मानव के अधीनीकरण की इच्छा के विरूद्ध नद-संग्राम तो नहीं! पिछले पांच महीने से मैं इस सवाल का उत्तर खोजने का प्रयास कर रहा हूं। मेरे दिमाग में कई बातें आ और जा रही हैं। मैंने दो वर्ष पहले कोशी के तटबंध के अंदर के इलाकों की पैदल यात्रा की थी। तटबंध के अंदर के बियावान बस्तियों, दूर-दूर तक फैले रेत और झाड़ियों में घूमता रहा था। तटबंधों में जकड़ी एक नदी की धड़कन सुनने की कोशिश थी, वह यात्रा। अगस्त में कोशी ने जब कुसहा के पास तटबंध को तोड़कर पूर्वी बिहार के चार जिलों में प्रलय मचाया, तो एक बार फिर मैं नदी के साथ-साथ बहता रहा। ये दोनों यात्राएं एक-दूसरे से भिन्न थीं, लेकिन दोनों का इष्ट या फलाफल एक ही था। दोनों जगह नदी रो रही थी और इंसान कराह रहा था। इस साझे दर्द को कलमबद्ध करने का प्रयास है यह पोस्ट; एक रौद्र-रूपा नदी के बयान की तरह, ताकि सनद रहे।
तटबंध के अंदर/ बसने-उजड़ने की अकथ कहानी
वह दो दिसंबर, 2006 की बहुत ठंड सुबह थी। और उस सुबह की रात में एक लंबी बहस हो गयी थी। ससुराल के लोग भौचक्क थे। कोशी तटबंध के अंदर ? क्या करने ? उधर भी कोई भला मानुष जाता है क्या ? उस रेत भरे बियावान बस्तियों में? दिन में ही रहजनी हो जाती है। न सड़क, न पगडंडी, न बिजली न थाना, न बाजार, न दुकान ? भला आपको क्या पड़ी है। मैंने कहा -- जाना है, सो जा रहा हूं। अगर 10 लाख लोग तटबंध के अंदर बारहों महीने रहते हैं, तो मैं दो-चार दिन भी नहीं रह सकता ? सबों ने माथा पीट लिया। पत्नी कुछ बोलना चाहती थी, लेकिन कुछ सोचकर चुप ही रही। मैंने कहा-- सहरसा में टेलीविजन के रिमोट को टिपटिपाकर और साले-सालियों से दिललगी करते हुए दिन बिताने से अच्छा है, कहीं से होकर आ जाऊं। जहां सड़क-रेलवे है वहां तो हर कोई जाता-आता रहता है, कभी ऐसी जगह भी जाया जाये, जहां जाने के लिए न तो सड़क हो और न ही रेलवे। लेन-देन, काज-रोजगार के लिए तो आदमी कहीं भी चला जाता है, कभी बेमतलब, निरूद्देश्य कहीं जाकर भी तो देखें कि कैसा लगता है। उसे मेरी बात समझ में नहीं आयी। लेकिन यह आभास जरूर हो गया कि मेरी यात्रा में एक चाहत है । और जो आपको प्यार करती हो वह आपकी चाहत के मध्य कभी नहीं आती।
परिणाम यह हुआ कि सुबह आठ बजे मैं सुपौल जिले के थरबिटिया रेलवे स्टेशन पर था। अगर सामान्य दिन होता, तो इस वक्त मैं विस्तर पर ही पड़ा होता। यह स्टेशन कोशी नदी की पूर्वी तटबंध के बिल्कुल किनारे पर अवस्थित है। मुझे इतना तो मालूम था कि यह पूर्वी तटबंध है और इससे नीचे उतरते ही कोशी का विशाल दियारा क्षेत्र शुरू हो जाता है, लेकिन किधर बस्तियां हैं और किधर-किधर से आवाजाही होती है, इससे मैं पूरी तरह अनजान था। स्टेशन पर एक चाय दुकानदार से पूछा, तो उसने गांव का नाम पूछा। जब मैंने बताया कि मुझे किसी एक गांव या एक व्यक्ति से नहीं मिलना है, तो वह भौंचक्क रह गया। बोला- घूमने-उमने के लिए तो उधर कोई नहीं जाता। बीहड़ भी कोई घूमने की जगह होती है क्या ? ... कीचड़-रेत-पानी भी कोई देखने की चीज है क्या ? मैंने कहा- बस ऐसे ही... आप यह बताइये किस ओर से अंदर जाया जा सकता है। उसने कहा- कोई एक स्थायी रास्ता नहीं होता, उधर जाने का। जिसको जब जिधर से आसानी होती है, चले जाते हैं। हां, लेकिन अकेले कोई नहीं जाता! आप बांध पर जाकर खड़े हो जाइये, प्रतीक्षा कीजियेगा, घंटा-आधा घंटा में कोई न कोई टोली अंदर जाते दिख जायेगी। उन्हीं लोगों साथ हो लीजिएगा।
मैंने ठीक ऐसा ही किया। स्टेशन से पैदल चलकर तटबंध पर आ गया। पश्चिम की ओर देखा। दूर-दूर तक फैले रेत के सिवा कुछ भी नजर नहीं आया। तटबंध से लगभग आधे किलोमीटर आगे ही नदी की एक धारा बहती दिख रही थी, हालांकि पानी काफी कम था। मैंने सोचा कि अगर अंदर में लोग रहते हैं तो इस धारा को पार करके ही थरबिटिया स्टेशन आते होंगे। और अगर लोग आते-जाते होंगे तो इस धारा को पार करने के लिए कहीं-न-कहीं नाव जरूर लगता होगा। मैं इसी उधेड़बुन में खोया हुआ था कि तटबंध पर एक मोटरसाइकल की आवाज सुनाई दी। जब वह मेरे नजदीक पहुंचा, तो मैंने उसे रुकने का इशारा किया। थोड़ा आगे जाकर वह रूक गया। मैं दौड़कर उसके पास पहुंचा। उसने अपने चेहरे को मफलर में छिपा रखा था। मैंने कहा- आप अंदर जा रहे हैं क्या ? उसने सिर हिलाकर हां में जवाब दिया। पूछा- कहां जाना है ? मैंने कहा- अंदर के गांवों में ... उसने इशारे से पीछे बैठने के लिए कहा ? 1970 के जमाने के उस राजदूत मोटरसाइकल की सीट जगह-जगह से फटी थी, और उसकी आवाज किसी ट्रैक्टर से भी ज्यादा तीखी थी। फिर भी मैं बैठ गया, हालांकि उस युवक के लक्षण मुझे ठीक नहीं लग रहे थे। वह तटबंध पर ही चलता रहा और लगभग डेड़ किलोमीटर आगे जाने के बाद उसने एक जगह हैंडल को मोड़ दिया। लगभग चालीस फीट ऊंचे तटबंध से मोटर साइकल नीचे कटे पेड़ की तरह लुढ़कता चला गया। एक पल के लिए तो मुझे लगा कि जान से गया, लेकिन अगले पल मेरे आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं रहा। यह कोई दुर्घटना नहीं थी। उसने जानबूझकर मोटरसाइकल नीचे उतारा था और बहुत आसानी से इसमें सफलता हासिल कर ली थी। उसके लिए यह एक सामान्य ड्राइविंग थी। धारा के किनारे पहुंचकर उसने गाड़ी रोक दी। पानी की गहराई का जायजा लिया और बोला- यहां पार नहीं हो सकेंगे। आगे चलते हैं। फिर वह धारा के किनारे-किनारे बलुआही खेत में मोटरसाइकल को बढ़ाने लगा, लेकिन लगातार उसकी आंखें पानी की गहराई का जायजा लेती हुई चल रही थी। करीब आधे किलोमीटर चलने के बाद उसने कहा- यहां दो-तीन फीट से ज्यादा नहीं है। यहीं पार करेंगे। मैं ड्राइव करते निकलूंगा, आप-आप पीछे-पीछे आ जाइये। मुझे लगा वह मजाक कर रहा है। क्योंकि मेरा अनुमान था कि पानी किनारे में अगर दो-तीन फीट है तो मध्य में पांच-दस फीट जरूर होगा, इसलिए कोई भी आदमी इसे मोटरसाइकल से पार नहीं कर सकता। लेकिन वह मजाक नहीं कर रहा था। उसने इंजन स्टार्ट किया और पानी में उतर गया। मैंने देखा कि धारा के मध्य में एक जगह उसका संतुलन कुछ सकेंड के लिए खराब हुआ, लेकिन उसने पलक झपकते गाड़ी को फिर नियंत्रित कर लिया। राजदूत की इंजन कराहती रही, लेकिन उसके एक्सलेटर का जोर बढ़ता ही रहा। अगले पल वह उस पैंतीस-चालीस फीट की धारा के उस पार था।
(अगले पोस्ट में जारी)
सोमवार, 12 जनवरी 2009
नेपाल में अब महिला पत्रकार की हत्या
नेपाल में मीडिया और पत्रकारों की समस्या कम होती प्रतीत नहीं होती। अभी कांतिपुर पब्लिकेशन के अखबारों को जबर्दस्ती बंद कराने का मामला ठंडा भी नहीं पड़ा था कि गत रविवार को एक और पत्रकार की हत्या कर दी गयी। दुखद बात यह है कि इस बार अराजकतावादियों ने महिला पत्रकार को निशाना बनाया। इस पत्रकार का नाम उमा सिंह है और वह जनकपुर के निकट धनुषा में रहती थी। फेडरेशन ऑफ नेपाली जर्नलिस्ट (एफएनजे) के अध्यक्ष धर्मेंद्र झा ने इस पर गहरी चिंता व्यक्त की है और कहा है कि लोकतांत्रिक नेपाल में मीडिया को निशाना बनाया जा रहा है।
उल्लेखनीय है कि पिछले चार माह में यह सातवां मामला है जब किसी नेपाली पत्रकार को मौत के घाट उतार दिया गया है। वैसे एफएनजे समेत अन्य नेपाली मीडिया संगठन इसका लगातार विरोध कर रहा है, लेकिन अराजकतावादियों पर इसका कोई असर नहीं पड़ रहा है। नेपाल स्थित मेरे पत्रकार मित्रों का कहना है कि हत्यारों को प्रशासन और सरकार का समर्थन प्राप्त है और वे अपने खिलाफ लिखने वाले पत्रकारों के सफाये में जुटे हैं। इसका मतलब साफ है। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र और अंतर्राष्ट्रीय पत्रकार संगठनों की जिम्मेदारी बनती है कि वह नेपाल की सरकार से बात करें । लोकतंत्र के समर्थकों के लिए नेपाल की ये घटनाएं चिंता का विषय होना चाहिए। लेकिन अभी तक अंतर्राष्ट्रीय मीडिया संगठनों ने इस पर खामोशी ओढ़ रखी है। पता नहीं ये संगठन अपनी भूमिका से भी अवगत हैं या नहीं।
उल्लेखनीय है कि पिछले चार माह में यह सातवां मामला है जब किसी नेपाली पत्रकार को मौत के घाट उतार दिया गया है। वैसे एफएनजे समेत अन्य नेपाली मीडिया संगठन इसका लगातार विरोध कर रहा है, लेकिन अराजकतावादियों पर इसका कोई असर नहीं पड़ रहा है। नेपाल स्थित मेरे पत्रकार मित्रों का कहना है कि हत्यारों को प्रशासन और सरकार का समर्थन प्राप्त है और वे अपने खिलाफ लिखने वाले पत्रकारों के सफाये में जुटे हैं। इसका मतलब साफ है। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र और अंतर्राष्ट्रीय पत्रकार संगठनों की जिम्मेदारी बनती है कि वह नेपाल की सरकार से बात करें । लोकतंत्र के समर्थकों के लिए नेपाल की ये घटनाएं चिंता का विषय होना चाहिए। लेकिन अभी तक अंतर्राष्ट्रीय मीडिया संगठनों ने इस पर खामोशी ओढ़ रखी है। पता नहीं ये संगठन अपनी भूमिका से भी अवगत हैं या नहीं।
शनिवार, 10 जनवरी 2009
बीच बजार बतहिया नाचे
दहाये हुए देश का दर्द -28
झांझर मन में वनझर नाचे
सारा गांव मछिंदर लागे
जहां बंधाती थी बूढ़ी गैया
अब नाव वहां सरकारी लागे
हाय माय कोशिकी, दुहाई माय कोशिकी
सारा गांव मछिंदर लागे
जहां बंधाती थी बूढ़ी गैया
अब नाव वहां सरकारी लागे
हाय माय कोशिकी, दुहाई माय कोशिकी
आश्विन बीते, कार्तिक बीते
हाड़ तोड़ कर पूस निकल गये
माघ की रात बिजुरिया चमके
गहंवर घर में गिद्ध धमके
हाय माय कोशिकी, दुहाई माय कोशिकी
हाड़ तोड़ कर पूस निकल गये
माघ की रात बिजुरिया चमके
गहंवर घर में गिद्ध धमके
हाय माय कोशिकी, दुहाई माय कोशिकी
सारे गाछ के पात बिछुड़ गये
पीपल-बर्गद बांस बन गये
सभी दूब को रेत निगल गये
धनहर खेत धधरता लागे
हाय माय कोशिकी, दुहाई माय कोशिकी
पीपल-बर्गद बांस बन गये
सभी दूब को रेत निगल गये
धनहर खेत धधरता लागे
हाय माय कोशिकी, दुहाई माय कोशिकी
मंदिर बह गये मस्जिद बह गये
घंटी बह गये कंठी बह गये
मौलवी के बधना बह गये
दारू संग-संग चखना बह गये
बीच दोपहरिया बतहिया नाचे
हाय माय कोशिकी, दुहाइ माय कोशिकी
घंटी बह गये कंठी बह गये
मौलवी के बधना बह गये
दारू संग-संग चखना बह गये
बीच दोपहरिया बतहिया नाचे
हाय माय कोशिकी, दुहाइ माय कोशिकी
बीडीओ-मुखिया ढोल बजाये
विधायक-मंत्री जोड़ लगाये
हर दिन डीएम पटना भागे
फन गेहुमन का फैलता जाये
हाय माय कोशिकी, दुहाई माय कोशिकी
(शब्दार्थ ः झांझर- विदीर्ण, वनझर- जंगल की सूखी डाली और पत्ती, मछिंदर- मरी हुई मछली की महक वाली जगह, हाड़- हड्डी, गाछ- पेड़, धधरता- आग की लपट से घिरा हुआ, धनहर- धान की अच्छी उपज वाली जमीन, कंठी- निरामिष लोगों द्वारा बांधे जाने वाला गले की हार, बतहिया- झक्खी महिला)
गुरुवार, 8 जनवरी 2009
सबक लें शिबू सोरेन
झारखंड के मुख्यमंत्री की हार पर पंक्ति याद आती है- दर्द जब हद से गुजर जाता है, तो दबा बन जाता है। अलग झारखंड राज्य आंदोलन के नायक और लोकसभा रिश्वत प्रकरण के खलनायक , शिबू सोरेन को आखिरकार जनता की अदालत ने ठुकरा दिया है। शिबू सोरेन झारखंड के तमाड़ विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव में एक अनजान-से नेता, गोपाल पातर उर्फ राजा पीटर के हाथों पराजित होकर स्वतंत्र भारत के राजनीतिक इतिहास मेें अपना नाम दर्ज करा गये हैं। वह देश के पहले मुख्यमंत्री हैं, जो मुख्यमंत्री रहते विधानसभा के मेंबर नहीं बन पाये। झारखंड की पतनोन्मुख राजनीति के अगुवा बन चुके शिबू सोरेन को लोगों ने यादगार सबक सिखाया। वह आदिवासियों की राजनीति करते थे और आदिवासियों के गढ़ में ही परास्त हो गये। लोगों ने शिबू को रोगग्रस्त झारखंड का दर्द माना और चुनाव में हराकर दबा खोजने का प्रयास किया। बहुत संक्षेप में शिबू की हार को मैं ऐसे ही विश्लेषित कर पा रहा हूं। हालांकि शिबू सोरेन की हार ने विश्लेषण के बहुत सारे विषय पैदा कर दी है। झारखंड समेत पूरे देश में उनकी हार पर चर्चा हो रही है। लेकिन सोरेन की हार ने यह साबित कर दिया है कि जनता सब कुछ देख रही है। उनकी आंखों में लंबे समय तक धूल नहीं झोंका जा सकता। हालांकि शिबू सोरेन ने उनके आंखों और कानों पर परदा डालने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा। चुनाव जीतने के लिए पानी की तरह पैसे बहाये, भूमि पूत्र का राग अलापा, प्रशासनिक मशीनरी का राग अलापा और वादों के पहाड़ खड़ा कर दिए। लेकिन न तो धन काम आया और न ही प्रभुत्व।
लोग पूछेंगे कि आखिर ऐसा क्यों हुआ ? तो इसका जवाब था कि ऐसा होना ही था। अगर ऐसा नहीं होता, तो झारखंड की राजनीति रसातल में पहुंच जाती। हर नेता यह अहम पालने लगता कि राज्य की सर्वोच्च कुर्सी पर उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। शिबू सोरेन इसी मानसिकता के नेता हैं। वह झारखंड को अपनी निजी मिल्कियत मानते हैं। हालांकि यह अलग बात है कि उनकी पार्टी ने कभी भी विधानसभा में बहुमत हासिल नहीं किया। बावजूद इसके वह हमेशा मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने का हठधर्मिता दिखाते रहे। उनकी हठधर्मिता ही थी जिसके कारण मार्च 2005 में झारखंड विधानसभा अभूतपूर्व राजनीतिक नाटक का गवाह बना। सारे प्रयास के बाद भी शिबू सोरेन विधानसभा में बहुमत साबित नहीं कर पाये और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।
बाद में केंद्र की यूपीए सरकार की मजबूरी का लाभ उठाते हुए उन्होंने पिछले अगस्त में येन-केन-प्रकारेन निर्दलीय मुख्यमंत्री मधु कोड़ा को हटाकर मुख्यमंत्री की कुर्सी हथिया ली। लेकिन चार महीने के अपने शासनकाल में ही वे बेहद अलोकप्रिय हो गये। झारखंड एक स्टेट के रूप में पूरी तरह डीफंग था। शासन के सभी केंद्रीय बिन्दु पर उन्होंने अपने पसंदीदा लोगों को भर दिया। यहां तक कि मुख्यमंत्री सचिवालय को उन्होंने पूरी तरह से अपने रिश्तेदारों का बैठकखाना में तब्दील कर दिया। उन्होंने अकर्मण्य लोगों की फौज तैयार कर ली, जिसका एक मात्र कार्य था - सत्ता के जरिए पैसों की उगाही। पहले से ही परेशान झारखंड की जनता के लिए यह जले पर नमक छिड़कने जैसा था। शिबू सोरेन की हार से शायद देश के नेता सबक लें। यह जनादेश बेहाल झारखंड के अक्षम और स्वार्थी नेताओं के लिए भी बड़ा सबक है कि अगर वे नहीं सुधरे तो जनता उन्हें कभी माफ नहीं करेगी।
लोग पूछेंगे कि आखिर ऐसा क्यों हुआ ? तो इसका जवाब था कि ऐसा होना ही था। अगर ऐसा नहीं होता, तो झारखंड की राजनीति रसातल में पहुंच जाती। हर नेता यह अहम पालने लगता कि राज्य की सर्वोच्च कुर्सी पर उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। शिबू सोरेन इसी मानसिकता के नेता हैं। वह झारखंड को अपनी निजी मिल्कियत मानते हैं। हालांकि यह अलग बात है कि उनकी पार्टी ने कभी भी विधानसभा में बहुमत हासिल नहीं किया। बावजूद इसके वह हमेशा मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने का हठधर्मिता दिखाते रहे। उनकी हठधर्मिता ही थी जिसके कारण मार्च 2005 में झारखंड विधानसभा अभूतपूर्व राजनीतिक नाटक का गवाह बना। सारे प्रयास के बाद भी शिबू सोरेन विधानसभा में बहुमत साबित नहीं कर पाये और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।
बाद में केंद्र की यूपीए सरकार की मजबूरी का लाभ उठाते हुए उन्होंने पिछले अगस्त में येन-केन-प्रकारेन निर्दलीय मुख्यमंत्री मधु कोड़ा को हटाकर मुख्यमंत्री की कुर्सी हथिया ली। लेकिन चार महीने के अपने शासनकाल में ही वे बेहद अलोकप्रिय हो गये। झारखंड एक स्टेट के रूप में पूरी तरह डीफंग था। शासन के सभी केंद्रीय बिन्दु पर उन्होंने अपने पसंदीदा लोगों को भर दिया। यहां तक कि मुख्यमंत्री सचिवालय को उन्होंने पूरी तरह से अपने रिश्तेदारों का बैठकखाना में तब्दील कर दिया। उन्होंने अकर्मण्य लोगों की फौज तैयार कर ली, जिसका एक मात्र कार्य था - सत्ता के जरिए पैसों की उगाही। पहले से ही परेशान झारखंड की जनता के लिए यह जले पर नमक छिड़कने जैसा था। शिबू सोरेन की हार से शायद देश के नेता सबक लें। यह जनादेश बेहाल झारखंड के अक्षम और स्वार्थी नेताओं के लिए भी बड़ा सबक है कि अगर वे नहीं सुधरे तो जनता उन्हें कभी माफ नहीं करेगी।
बुधवार, 7 जनवरी 2009
चौठी कमार ने भी खरीदा मोबाइल
सत्तर की उम्र में
पांच मन पटसन, दो मन धान, तीन पसेरी तोड़ी और
बुढ़िया की हंसुली बेचकर
आखिरकार
चौठी कमार ने खरीद ही लिया मोबाइल
पांच मन पटसन, दो मन धान, तीन पसेरी तोड़ी और
बुढ़िया की हंसुली बेचकर
आखिरकार
चौठी कमार ने खरीद ही लिया मोबाइल
सात दिनों तक सुबह-शाम सेर भर दूध पहुंचाया
सरपंच के बेटे को
फिर भी नहीं आया
बटन दबाना और हैल्लो-हैल्लो करना
इसलिए, जब बजता है मोबाइल
तो सरपट भागता है चौठी, सरपंच के घर की ओर
हंसते छोकरों की परवाह किये बगैर
सोचता है चौठी
कौन होगा ?
बलरामा या सीतरामा ?
जो भी हो , चौठी दोनों को शीघ्र गांव लौटने के लिए कहेगा
टूटे घर और बुढ़िया की बीमारी बतायेगा
और हां, सुनायेगा चौठी बड़े लड़के सीतरामा को
चितकवरी बछिया का हाल
कि वह गर्भिन है और जल्द बच्चा देने वाली है
बलरामा को पहले जी भरके गलियायेगा
फिर छोटकी बहु भीमपुर वाली का हाल भी सुना देगा
कि वह बड़ी मुंहजोर हो गयी है
कि उसकी चाल-ढाल ठीक नहीं है
कि वह बात-बात पे मायके भागने की धमकी देती है
खुद नौ बजे तक सोती है और
गाय-भैंस का कुट्टी-सानी बुढ़िया से कराती है
सरपंच के बेटे को
फिर भी नहीं आया
बटन दबाना और हैल्लो-हैल्लो करना
इसलिए, जब बजता है मोबाइल
तो सरपट भागता है चौठी, सरपंच के घर की ओर
हंसते छोकरों की परवाह किये बगैर
सोचता है चौठी
कौन होगा ?
बलरामा या सीतरामा ?
जो भी हो , चौठी दोनों को शीघ्र गांव लौटने के लिए कहेगा
टूटे घर और बुढ़िया की बीमारी बतायेगा
और हां, सुनायेगा चौठी बड़े लड़के सीतरामा को
चितकवरी बछिया का हाल
कि वह गर्भिन है और जल्द बच्चा देने वाली है
बलरामा को पहले जी भरके गलियायेगा
फिर छोटकी बहु भीमपुर वाली का हाल भी सुना देगा
कि वह बड़ी मुंहजोर हो गयी है
कि उसकी चाल-ढाल ठीक नहीं है
कि वह बात-बात पे मायके भागने की धमकी देती है
खुद नौ बजे तक सोती है और
गाय-भैंस का कुट्टी-सानी बुढ़िया से कराती है
तीसवें दिन
मोबाइल घिंघियाया
लेकिन चौठी बैठे रहा
घर के कोने में भीमपुर वाली से देर तक बतियाता रहा- बलरामा
सोचता है चौठी
क्यों बेच दी उसने बुढ़िया की हंसुली
कितना सच है यह झूठ
कि बुढ़ापे में बाप नहीं बना जा सकता
(हंसुली- कोशी अंचल में पहने जाने वाले चांदी का गलहार, पटसन- जूट, तोड़ी- सरसो, कुट्टी-सानी - मवेशी के चारे-पानी का इंतजाम, मुंहजोर- झगड़ालू )
मोबाइल घिंघियाया
लेकिन चौठी बैठे रहा
घर के कोने में भीमपुर वाली से देर तक बतियाता रहा- बलरामा
सोचता है चौठी
क्यों बेच दी उसने बुढ़िया की हंसुली
कितना सच है यह झूठ
कि बुढ़ापे में बाप नहीं बना जा सकता
(हंसुली- कोशी अंचल में पहने जाने वाले चांदी का गलहार, पटसन- जूट, तोड़ी- सरसो, कुट्टी-सानी - मवेशी के चारे-पानी का इंतजाम, मुंहजोर- झगड़ालू )
सोमवार, 5 जनवरी 2009
कुसहा ने ली फिर 35 जान
(4 जनवरी : कुसहा में पायलट चैनल-निर्माण की जद्दोजहद )
(२० अगस्त : कुसहा कटान का भयानक दृश्य )
( 4 जनवरी: नाव हादसा के बाद लाशों की तलाश )
(२० अगस्त : कुसहा कटान का भयानक दृश्य )
( 4 जनवरी: नाव हादसा के बाद लाशों की तलाश )
दहाये हुए देस का दर्द-27
कड़ाके की ठंड से सिकुड़े और कोशी की मार से उजड़े बिहार और नेपाल के 35 लोगों ने कल जल समाधि ले ली। दुर्घटना कुसहा कटान के बिल्कुल नजदीक में घटी । नाव पर 40 लोग सवार थे और अहले सुबह वे नेपाल के श्रीपुर गांव से सुपौल के भंटाबाड़ी बार्डर की ओर आ रहे थे। सभी लोग ग्रामीण थे और दैनिक कार्यों से भंटाबाड़ी की ओर आ रहे थे। दुखद बात यह है कि 40 में से महज पांच लोगों ही बच पाये । देर शाम तक सिर्फ दो लाशें बरामद की जा सकी थी।
उल्लेखनीय है कि उत्तरी बिहार में इन दिनों कड़ाके की ठंड पड़ रही है। ठंड का आलम यह है कि दिन में भी घना कुहासा छाया रहता है और सूर्य का दर्शन दुर्लभ हो गया है । ठंड और कोहरे के कारण लोगों का अपने घर से निकलना भी दूभर हो गया है। लेकिन अगस्त की बाढ़ से बेघर हुए लोगों के पास न तो घर है और न ही खाने-पीने की सामग्री। इसलिए वे अपनी झोपड़ियों में बैठे नहीं रह सकते। चूंकि आवागमन के साधनों और मार्गों को बाढ़ ने पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया है, इसलिए अब लोगों के इधर-उधर आने-जाने एक मात्र साधन नाव रह गया है। लेकिन ये नाव या तो पुराने हैं या फिर कमजोर हैं। इनमें क्षमता से ज्यादा लोग सवार हो जाते हैं, जिसके कारण दुर्घटना की संभावना हमेशा बनी रहती है। बाढ़ के बाद अब तक अकेले सुपौल जिले में छह बड़ी नाव दुर्घटनाएं घट चुकी हैं। डेढ़ महीना पहले ही सुपौल जिले के प्रतापगंज प्रखंड में एक नाव पलट गयी थी जिसमें 34 लोग मारे गये थे। इससे पहले कुमारखंड प्रखंड में ऐसे ही एक बड़े नाव हादसे में 19 लोग असमय मौत के मुंह में समा गये थे।
अब थोड़ा कुसहा का हाल भी जान लीजिए। वहां पायलट चैनल का निर्माण अभी तक पूरा नहीं हो सका है। जबकि इसे 10 दिसंबर तक ही पूरा कर लिया जाना था। इंजीनियरों का कहना है कि मकर संक्रांति से पहले वह पायलट चैनल बना लेंगे। इस चैनल के द्वारा कोशी को पुरानी धारा में लौटाने की योजना है। इसके बाद क्षतिग्रस्त बांध की मरम्मत का काम शुरू होगा। लेकिन मैंने आज तक कभी इनकी बातों पर भरोसा नहीं किया, जिस दिन कुसहा को बांध लिया जायेगा, उसी दिन मुझे विश्वास होगा।
कुसहा में अब पानी काफी कम हो गया है। अगस्त का कुसहा और जनवरी का कुसहा में काफी फर्क महसूस हो रहा है। मैं जब 20 अगस्त को वहां पहुंचा था, तो चारों ओर जल-ही-जल, प्रलय -ही- प्रलय दिख रहा था। आज जल की मात्रा काफी कम हो गयी है। इसलिए इस पोस्ट में मैं कुसहा की दो तस्वीर रख रहा हूं। पहली तस्वीर 4 जनवरी की है और दूसरी 20 अगस्त की। तीसरी तस्वीर कल की नाव दुर्घटना की है।
कड़ाके की ठंड से सिकुड़े और कोशी की मार से उजड़े बिहार और नेपाल के 35 लोगों ने कल जल समाधि ले ली। दुर्घटना कुसहा कटान के बिल्कुल नजदीक में घटी । नाव पर 40 लोग सवार थे और अहले सुबह वे नेपाल के श्रीपुर गांव से सुपौल के भंटाबाड़ी बार्डर की ओर आ रहे थे। सभी लोग ग्रामीण थे और दैनिक कार्यों से भंटाबाड़ी की ओर आ रहे थे। दुखद बात यह है कि 40 में से महज पांच लोगों ही बच पाये । देर शाम तक सिर्फ दो लाशें बरामद की जा सकी थी।
उल्लेखनीय है कि उत्तरी बिहार में इन दिनों कड़ाके की ठंड पड़ रही है। ठंड का आलम यह है कि दिन में भी घना कुहासा छाया रहता है और सूर्य का दर्शन दुर्लभ हो गया है । ठंड और कोहरे के कारण लोगों का अपने घर से निकलना भी दूभर हो गया है। लेकिन अगस्त की बाढ़ से बेघर हुए लोगों के पास न तो घर है और न ही खाने-पीने की सामग्री। इसलिए वे अपनी झोपड़ियों में बैठे नहीं रह सकते। चूंकि आवागमन के साधनों और मार्गों को बाढ़ ने पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया है, इसलिए अब लोगों के इधर-उधर आने-जाने एक मात्र साधन नाव रह गया है। लेकिन ये नाव या तो पुराने हैं या फिर कमजोर हैं। इनमें क्षमता से ज्यादा लोग सवार हो जाते हैं, जिसके कारण दुर्घटना की संभावना हमेशा बनी रहती है। बाढ़ के बाद अब तक अकेले सुपौल जिले में छह बड़ी नाव दुर्घटनाएं घट चुकी हैं। डेढ़ महीना पहले ही सुपौल जिले के प्रतापगंज प्रखंड में एक नाव पलट गयी थी जिसमें 34 लोग मारे गये थे। इससे पहले कुमारखंड प्रखंड में ऐसे ही एक बड़े नाव हादसे में 19 लोग असमय मौत के मुंह में समा गये थे।
अब थोड़ा कुसहा का हाल भी जान लीजिए। वहां पायलट चैनल का निर्माण अभी तक पूरा नहीं हो सका है। जबकि इसे 10 दिसंबर तक ही पूरा कर लिया जाना था। इंजीनियरों का कहना है कि मकर संक्रांति से पहले वह पायलट चैनल बना लेंगे। इस चैनल के द्वारा कोशी को पुरानी धारा में लौटाने की योजना है। इसके बाद क्षतिग्रस्त बांध की मरम्मत का काम शुरू होगा। लेकिन मैंने आज तक कभी इनकी बातों पर भरोसा नहीं किया, जिस दिन कुसहा को बांध लिया जायेगा, उसी दिन मुझे विश्वास होगा।
कुसहा में अब पानी काफी कम हो गया है। अगस्त का कुसहा और जनवरी का कुसहा में काफी फर्क महसूस हो रहा है। मैं जब 20 अगस्त को वहां पहुंचा था, तो चारों ओर जल-ही-जल, प्रलय -ही- प्रलय दिख रहा था। आज जल की मात्रा काफी कम हो गयी है। इसलिए इस पोस्ट में मैं कुसहा की दो तस्वीर रख रहा हूं। पहली तस्वीर 4 जनवरी की है और दूसरी 20 अगस्त की। तीसरी तस्वीर कल की नाव दुर्घटना की है।
शनिवार, 3 जनवरी 2009
वी आर इंडियन, इंडिया इज आवर्स
दो सप्ताह से मुझे इस कार्ड का इंतजार था। पिछले पोस्ट में मैंने इसकी चर्चा भी की थीकि यह देखना दिलचस्प होगा कि पिनाकी राय वर्ष 2008 के राष्ट्रीय हलचलों को अपने ग्रीटिंग कार्ड पर कैसे उकेरते हैं। मुझे उन्होंने दो दिन पहले यह कार्ड भेजा था, लेकिन अति व्यस्तता के कारण इसे मैं आज पोस्ट कर पा रहा हूं। इस कार्ड के बारे में ऐसे तो बहुत लिखा जा सकता है ; शब्दों, चित्रों और रेखाओं के माध्यम से पिनाकी ने इस छोटे-से कार्ड पर देश की डायरी को उतार दिया है। इसके हर शब्द, हर चित्र और रेखांकन बड़े विषयों के दरवाजे खोलते हैं, जिस पर लंबा बहस-विमर्श किया जा सकता है। लेकिन अगर संक्षेप में कहूं , तो मुझे लगता है कि 2008 के आखिरी दिनों में और बाद में भी, जब पत्र-पत्रिकाएं एवं टेलीविजन न्यूज चैनल पूरे वर्ष की प्रमुख घटनाओं को एकत्रित करने की भरपूर कोशिश कर रहे थे लेकिन कोई न कोई कमी रह ही जाती थी; तब ऐसे कार्ड एवं पेटिंग्स उन्हीं कमियों को पूरे करते हैं। क्योंकि यहां घटनाओं का निर्जीव वर्णन नहीं, बल्कि समय के सतत चलायमान पहिये का जीवंत चित्रांकण है। अपने देश, समाज, सरोकार; आपदा, विपदा और उपलब्धि के साथ । यह शब्दो-चित्रों का एक खामोश अभिव्यक्ति जैसी है। ठीक वैसे ही जैसे अगर हम पूरी बात नहीं कह पाते हैं, तो खामोश हो जाते हैं और अक्सर ऐसी खामोशी बहुत कुछ कह जाती है। चेहरे के एक साधारण भाव में पूरी कहानी बयां हो जाती है। अभी मुझे इतना ही कहना था। अब आगे कार्ड है और आप हैं, बस ...
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