गुरुवार, 22 जनवरी 2009

सोमालिया, बुरूंडी और कांगो जैसे हालात


दहाये हुए देस का दर्द-30
पिछले साल अगस्त महीने में आयी कोशी नदी की प्रलयंकारी बाढ़ को शायद दुनिया भूल गयी होगी, लेकिन पांच महीने बाद भी वहां स्थिति सामान्य नहीं हो सकी है। अभी भी वहां खेतों में नावें चल रही हैं क्योंकि हजारों एकड़ जमीन पानी से भरा हुआ है। जिस क्षेत्र को नदी ने अपनी मुख्य धारा बनायी वे सदा के लिए बर्बाद हो गये हैं। अब उन खेतों में कभी भी खेती नहीं की जा सकेगी। इसके परिणामस्वरूप लाखों लोगों के जीविका का साधन खत्म हो गया है। बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में काम करने वाले स्वयंसेवी संस्थाओं के अनुसार लगभग 500000 लोगों के सामने आजीविका का समस्या खड़ी है और 600000 लोग या तो इलाके से पलायन कर गये हैं या पलायन करने के मूड में है। सुपौल जिले के बीरपुर, बसंतपुर, प्रतापगंज, अररिया जिले के बथनाहा और छातापुर, मधेपुरा जिले के कुमारखंड, जदिया, ग्वालपाड़ा, मुर्लीगंज, सिघेंश्वर, उदाकिशुनगंज प्रखंड के लगभग दो सौ गांव नेस्तनाबूद हो गये हैं। ये गांव कोशी की मुख्य धारा में तब्दील हो गये हैं।
पुनर्वास और राहत के लिए बिहार सरकार ने जो पैकेज की घोषणा की थी, उसकी आहट भी कहीं सुनाई नहीं देती। हां, ऊंट के मुंह में जीरा फोड़न की तरह कभी-कभी कोई राहत राशि और सामग्री कुछ लोगों तक पहुंचा दी जाती है। इस मामले में केंद्र सरकार की भूमिका आश्चर्यजनक रूप से असहयोगात्मक रही है। केंद्र सरकार ने बिहार सरकार की राहत एवं पुनर्वास की परियोजना पर आज तक अपनी राय भी जाहिर नहीं की, जबकि इसे दिल्ली भेजे तीन महीने हो चुके हैं। बर्बादी इतने बड़े पैमाने पर हुई है कि अगर बिहार सरकार अपने संपूर्ण राजकीय संसाधन को भी पुनर्वास और राहत में लगा दे तो भी संसाधन कम पड़ जायेंगे। इस बाढ़ में लगभग 20 लाख घर उजड़े हैं और 20 हजार वर्ग किलोमीटर की उपजाऊ जमीन रेत और नदी में परिवर्तित हो गयी है। लगभग पचास लाख मवेशी मारे गये हैं और सैकड़ों किलोमीटर की पक्की और कच्ची सड़क टूट गयी है। लेकिन केंद्र सरकार या तो इसे समझने के लिए तैयार नहीं है या फिर वह जानबूझकर समस्या को समझना ही नहीं चाहती।
हालांकि अभी तक बिहार सरकार बर्बादी के वास्तविक आंकड़े को सामने लाने में असफल है, लेकिन स्वतंत्र एजेंसियों और विशेषज्ञों ने प्रारंभिक सर्वेक्षण के आधार पर जो आंकड़े सामने रखे हैं, वह इस बाढ़ की विभीषिका की भयानकता का संकेत देते हैं। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस (टिस) ने गत दिनों कोशी बाढ़ की विभीषिका पर एक रिपोर्ट जारी की। इसके मुताबिक, अन्य नदियां बाढ़ में जलोढ़ मिट्टी लाती हैं और खेतों को उपजाऊ बनाती हैं, लेकिन कोशी का स्वभाव इसके विपरीत है। जिन क्षेत्रों को नदी ने मुख्य धारा में तब्दील कर दिया है उनका बंजर होना तय है। टिस के सर्वेक्षण टीम के सदस्य मनीष कुमार झा का कहना है कि बर्बाद हो चुके इलाके के लोगों के जीवन-यापन के लिए फिर से जीवोकोपार्जन का नया ढांचा खड़ा करना होगा। बकौल झा- अकेले मधेपुरा जिले की एक लाख 19 हजार वर्ग हेक्टेयर जमीन नदी के गर्भ में समा गयी है, जो बाढ़ से पहले तक काफी उपजाऊ थी और लाखों लोगों के जीवन-यापन का अकेला आधार थी।
अगर संक्षेप में कहें तो कोशी अंचल के हालात तेजी से युद्धग्रस्त अफ्रीकी देश सोमालिया, बुरूंडी, नाइजीरिया, सूडान और कांगो जैसे होते जा रहा है। जीविकोपार्जन के साधन गंवा चुके लाखों लोग के सामने भुखमरी की समस्या मुंह बाये खड़ी है। कुछ दिन पहले ही अररिया जिले के छातापुर प्रखंड के भीमपुर गांव में एक दलित की भूख से मृत्यु हो गयी। लेकिन इस मृत्यु का सबसे भयानक क्षण तब सामने आया जब ग्रामीणों को उसके शव के अंतिम संस्कार के लिए लकड़ी तक के लाले पड़ गये। अंत में ग्रामीणों ने हिन्दू रिवाजों को भूलाते हुए उसकी शव को नदी में बहा दिया। जो एक अन्य बात कोशी अंचल को युद्धग्रस्त क्षेत्र की शक्ल देती है वह है - सामने खड़ी भीषण सामाजिक संघर्ष की आशंका। जैसे-जैसे पानी खेतों से नीचे की ओर उतर रहे हैं, वैसे-वैसे सामाजिक तनाव बढ़ रहा है। एक खेत के कई दावेदार सामने आ रहे हैं। प्रभुत्वशाली और राजनीतिक संरक्षण प्राप्त लोग इस स्थिति का फायदा उठाकर तमाम खेतों पर अपना दावा पेश कर रहे हैं। चूंकि नदी ने भूमि-माप के सारे मानक और स्तंभों को ध्वस्त कर दिया है, इसलिए जमीनों के वास्तविक मालिक का पता लगाना संभव नहीं हो रहा है। लेकिन प्रशासन का ध्यान इस ओर नहीं है। आने वाले महीने में अगर कुसहा में तटबंध को बांध दिया जायेगा, तो हजारों एकड़ और जमीन पानी से बाहर निकलेगी। उस परिस्थिति में जमीन के वास्तविक हकदार को तय करना निहायत आवश्यक होगा। सरकार को इस कार्य के लिए हजारों की संख्या में भूमि माप और सर्वेक्षण कर्मचारियों को तैनात करने होंगे। अगर इसमें देरी हुई, तो गृह युद्ध जैसे हालात अवश्यसंभावी है। इसके शुरुआती लक्षण दिखने लगे हैं। मधेपुरा और सुपौल जिले में अब तक जमीन पर कब्जा के लिए चार दर्जन संघर्ष हो चुके हैं। जातीय आधार पर जमीन हड़पने वाले गुट तैयार हो रहे हैं।
उधर वोट बैंक की राजनीति अपना काम कर रही है। चूंकि कांग्रेस को इस क्षेत्र में अपने लिए एक भी लोकसभा या विधानसभा की सीट दिखाई नहीं देती और राष्ट्रीय जनता दल को लगता है कि वह तो बाढ़ से उपजे आक्रोश के कारण ही अगले चुनाव में अपनी खोई हुई सीटें हासिल कर लेगी, इसलिए दोनों दलों ने उदासीनता की चादर ओढ़ ली है। सारी समस्याओं के ठीकरे को नीतीश कुमार और उनकी सरकार के सिर पर फोड़कर ही कांग्रेस और राजद अपने कर्त्तव्यों से इतिश्री करने का मन बना चुके हैं। क्या केंद्र सरकार अपने संघीय जिम्मेदारी से पीछे नहीं हट रही है ? यह एक यक्ष सवाल है ? इसी सवाल से कभी नार्थ ईस्ट, तो कभी जम्मू- कश्मीर भी गुजरा था और आज कोशी अंचल के लोग गुजर रहे हैं।

1 टिप्पणी:

संगीता पुरी ने कहा…

सचमुच बहुत ही बुरी स्थिति है....