दहाये हुए देस का दर्द-32
पूर्वी बिहार और नेपाल में बहने वाली गंगा की सहायक कोशी पूरी दुनिया की एक ऐसी अनोखी नदी है जो अपने यायावरी स्वभाव और प्रचंड वेग के लिए सैकड़ों वर्षोसे कुख्यात है। महाभारत और रामायण में इस नदी का जिक्र है जिसमें इसे ॠषि-मुनियों का पसंदीदा नदी बताया गया है। इसका नाम भी विश्वामित्र मुनी के नाम पर है। कौशिक्य, विश्वामित्र मुनी का ही उपनाम है और जिन्होंने इस नदी के किनारे गहन तपस्या की थी और बाद में लोग उन्हीं के नाम पर इस नदी को कोशी कहने लगे। लेकिन इन ग्रंथों में कोशी की प्रचंडता की बात नहीं है। प्राचीन साहित्यों और अन्य धार्मिक ग्रंथों में भी कोशी का उल्लेख मिलता है, लेकिन कहीं भी इसकी विभीषिका की चर्चा नहीं है। प्राचीन भारत के इतिहास में भी इसकी विभीषिका की चर्चा नहीं है। इससे इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि लगभग 1000 वर्ष के आसपास इस नदी ने अपना चरित्र बदल लिया। शायद मेची और महानंदा से अलग होते ही कोशी ने अपनी स्थिरता खो दीहोगी। कुछ विद्वानों का कहना है कि 1000 वर्ष पूर्व कोशी मेची और महानंदा के साथ मिलकर बह रही थी, जो वर्तमान में पश्चिम बंगाल और नेपाल के रास्ते बह रही है।
कोशी मध्य व पूर्वी हिमालय के लगभग 15-20 हजार वर्ग किलोमीटर जलछाजन क्षेत्र के बरसाती एवं बर्फीले जल और गाद को समेटते हुए और लगभग 250 किलोमीटर का टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता तय कर नेपाल के चतरा (वराह क्षेत्र) से होकर मैदानी इलाके में प्रवेश करती है। चतरा में हिमालय से निकलने वाली दो अन्य नदियां यथा अरुण और मकालू भी कोशी नदी में मिल जाती है। इससे 50 किलोमीटर पहले भी तीन छोटी नदी कोशी में मिलती है। कुल मिलाकर सात छोटी-बड़ी नदी चतरा में एक हो जाती है। यही कारण है कि नेपाल में इसे सप्तकोशी भी कहा जाता है।
मकालू नदी माउंट एवरेस्ट के बिल्कुल पास से निकलती है जबकि अरुण का उद्गम स्थल कंचनजंगा के पास है। चतरा तक नदी का प्रवाह मार्ग निर्धारित और स्थिर रहता है। पिछले एक हजार वर्षों से कोशी चतरा तक एक ही रास्ते से होकर पहुंच रही है। लेकिन चतरा से निकलकर गंगा में मिलने के क्रम में इस नदी का प्रवाह-चरित्र पूरी तरह बदल जाता है। पिछले 282 वर्षों में इस नदी ने चतरा से निकलकर दक्षिण की ओर गंगा में मिलने के क्रम में बड़े पैमाने पर 12 बार और छोटे पैमाने पर दर्जनों दफे अपनी धाराएं बदली हंै। इस क्रम में यह पार्श्वतः (लैटरली) लगभग 110 किलोमीटर पश्चिम की ओर खिसक गयी। यह खिसकाव नदी के किसी एक भाग या सीमित लंबाई में नहीं हुआ, बल्कि यह संपूर्ण खिसकाव (टोटल शिफ्ट) था। सन् 1736 में यह नदी बिहार के वर्तमान पूर्वी जिले किशनगंज, पूर्णिया और कटिहार से होकर बहती थी। वर्ष 1779 में अंग्रेज अभियंता कर्नल रीनेल ने पूर्वोतर भारत के नदियों का एक नक्शा तैयार किया था। इस नक्शे में दिखाया गया है कि कोशी कभी मेची-महानंदा के साथ मिलकर बह रही थी। जबकि वर्ष 1938-40 के आते-आते यह नदी बिहार के वर्तमान सुपौल, मधुबनी, सहरसा,दरभंगा और खगड़िया जिले होकर बहने लगी। इसी बहाव मार्ग पर सनफ 1963 में कोशी को तटबंधों के अंदर कैद कर दिया गया। इसके बाद 17 अगस्त, 2008 तक नदी तटबंधों के बीच से होकर ही बहती रही। हालांकि इस दरम्यान इसने कई बार दोनों तटबंधों को तोड़ा, लेकिन उस पर जल्द नियंत्रण पा लिया गया। ऐसा देखा गया कि कुसहा के पूर्व नदी तटबंध को अपने अतिरिक्त जल की निकासी के लिए तोड़ी थी, उन कटावों से होकर नदी की मुख्य धारा ने बहने की प्रवृत्ति नहीं दिखाई। हालांकि 1984 में नौहट्टा में नदी की एक छोटी धारा जरूर निकलने लगी थी, जो पंद्रह दिन तक कटान से बहती रही और उसके बाद खुद-ब-खुद मुख्य धारा की ओर लौट गयी। लेकिन कुसहा, नेपाल में गत 18 अगस्त को तटबंध टूटने के बाद यह पहला अवसर है जब कोशी अपने स्वभाव के विपरीत पश्चिम के बदले पूर्व की ओर ही खिसक गयी, जहां यह कभी 1920 के दशक में बहती थी। यह कोसी का एक और नया कारनामा है। अगर इसे रेखागणित के हिसाब से देखें तो स्पष्ट होता है कि कोशी एक पेंडुलम का आचरण कर रही है। इसका उत्तरी सिरा (चतरा में) तो कायम हैै लेकिन दक्षिण सिरा लगातार पूर्व और पश्चिम की दिशा में हिल रहा है।
यह घोर निंदा की बात है वैज्ञानिक प्रगति के इस आधुनिक युग में भी कोशी नदी एक रहस्य बनी हुई है और आजतक नदी के इस विचित्र स्वभाव की वास्तविक वजह का अंतिम रूप से पता नहीं लगाया जा सका है। न तो राज्य और न ही केंद्र सरकार ने आजतक नदी के इस विशेष चरित्र की वजह का पता लगाने के लिए कोई विशेष अनुसंधान करवायाऔर न ही किसी विश्वविद्यालय या अन्य संस्थाओं ने। वैसे कोसी के यायावरी स्वभाव को लेकर तरह-तरह के वैज्ञानिक कारण बताये जाते हैं। ज्यादातर अभियंता और विशेषज्ञ इसके लिए कोशी नदी में पानी के साथ आने वाली प्रचुर गाद को जिम्मेदार मानते हैं तो कुछ का मानना है कि इसके पीछे प्रवाह क्षेत्र की भौगोलिक संरचना जिम्मेवार है। गाद को धारा के बदलाव कारण मानने वालों के अनुसार कोशी नदी में प्रतिवर्ष अरबों टन गाद (मिट्टी, बालू, चट्टान और कीचड़) उत्सर्जित होती है। यह गाद लगभग 15 हजार वर्ग किलोमीटर की हिमालयी क्षेत्रफल से एकत्र होकर कोशी नदी में पहुंचती है। पहाड़ी ढलान पर नदी का वेग अत्यंत तीव्र होता है जिस कारण यह धारा के साथ बेरोकटोक बहते हुए चतरा तक चली आती है। लेकिन जैसे ही नदी मैदानी इलाके में प्रवेश करती है धारा का वेग कम होने लगता है और गाद नदी के तल (बेड) में जमा होने लगती है। इस कारण धारा के प्रतिप्रवाह में अंतर्देशीय डेल्टा बनने लगते हैं जो नदी की धारा को पार्श्व की ओर बहने के लिए प्रेरित करता है। ये डेल्टाएं एवं गाद कालांतर में नदी को अपनी धारा से विचलित होने के लिए बाध्य कर देती हैं। इस विचारधारा के समर्थक और नेपाल जल संरक्षण संस्थान के अध्यक्ष एवं कोसी नदी के विशेषज्ञ अभियंता दीपक ग्यावली के अनुसार, तटबंध निर्माण के बाद पिछले पचास वर्षों में तटबंधों के अंदर ही कोसी की सारी गादें जमा होती रही हैं। इनकी मात्रा लगभग दस करोड़ क्यूबिक मीटर प्रति वर्ष है। चूंकि कोशी के हिमालय स्थित जलछाजन क्षेत्र की चट्टान और मिट्टी काफी भुरीभुरी और बलुआई है इस कारण हर वर्ष गाद की मात्रा में बढ़ोतरी होती रहती है। इसके परिणामस्वरूप नदी के तल (बेड) की ऊंचाई पिछले दशकों में आसपास के धरातल से सात-आठ मीटर ऊंची हो गयी है। उधर गंगा नदी की गहराई में भी कमी आयी है,जिसके चलते नदी के मध्य में पानी का भार सबसे ज्यादा होता है। इन कारणों से कोशी धारा बदलने के लिए मजबूर हो रही है। ग्यावली का निष्कर्ष वैज्ञानिक कसौटी पर कितना खरा है, यह तो प्रमाणिक अनुसंधान के बाद ही पता चलेगा। लेकिन कुसहा में कोशी ने जिस तरह अपनी धारा अचानक बदल ली उससे तो उनकी बात सच प्रतीत होती है। क्योंकि कुसहा में बांध टूटने के बाद नदी की 90 प्रतिशत जलराशि नई धारा से होकर बहने लगी है। गत 5 सितंबर को कुल एक लाख 34 हजार घन प्रति सेकेंड (क्यूसेक) निष्कासित जलराशि में से 92 हजार टूटे तटबंध से बह रही थी। गत सितंबर में स्थिति यह थी कि नदी की पुरानी धारा लगभग सूख चुकी थी। कुसहा से महज 12 किलोमीटर की दूरी पर अवस्िथत कोशी बाराज के फाटक तो खुले थे, लेकिन पानी उधर से नहीं बह रहा है। बाराज के प्रतिप्रवाह और सहप्रवाह दोनों में रेत के बड़े-बड़े अंतर्देशीय डेल्टा नजर आते हैं। कोशी बाराज से लेकर खगड़िया स्थित डुमरी पुल तक के पुराने नदी मार्ग को अगर कोई अनजान व्यक्ति देखे तो वह यह अनुमान नहीं लगा सकेगा कि 17 अगस्त तक यहां कोई बड़ी नदी बह रही थी। वहां सिर्फ रेत का ढेर नजर आता है। इससे स्पष्ट है कि नदी के इस मार्ग का तल खतरनाक स्तर तक ऊंचा हो गया है।
कुछ विशेषज्ञ कुसहा प्रकरण को दूसरा तिनाउ हाथिसुन्दे प्रकरण कह रहे हैं। उल्लेखनीय है कि तिनाउ नदी पर सन् 1960 के दशक में नेपाल के बतवाल शहर के नजदीक भारत सरकार ने हाथीसुन्दे बाराज का निर्माण किया था, लेकिन बाद में तिनाउ नदी के मार्ग बदल लेने के कारण यह बाराज निष्क्रिय हो गया था। दूसरी ओर बिहार के जल संसाधन विभाग के वरिष्ठ अभियंता व तटबंध विशेषज्ञ विजय कुमार सिन्हा का मानना है कि कोशी को वापस तटबंध के अंदर मोड़ना संभव है। बकौल सिन्हा, नदी को वापस अपनी धारा में लाने के पहले कुसहा से बाराज तक नदी-तल की गहराई बढ़ानी होगी। इसके अलावा बाराज के दोनों प्रवाह में फैली गाद को भी साफ करना होगा।
कुछ अन्य विशेषज्ञों का मानना है कि कोशी द्वारा मार्ग बदलने के पीछे पूर्वी बिहार का भौगोलिक संरचना भी जिम्मेदार है। इन विशेषज्ञों के अनुसार पूर्वी बिहार की स्थलाकृति एक उत्तल कटोरे जैसी है। जबकि इसके चारों दिशा की जमीन का ऊंची है। नदी पहाड़ से उतरकर कटोरानुमा मैदानी इलाके में पहुंकर लगभग स्थिर हो जाती है। जिस अनुपात में कोशी में जल का आगमन होता है उस अनुपात में निष्कासन नहीं होता। अत्याधिक जल जमा होने की स्थिति में नदी अपनी धारा ही बदल लेती है। हालांकि इस मत के समर्थक काफी कम हैं। लेकिन यह बात सच है कि कोशी नदी का दोनों सिरा बीच वाले भाग की तुलना में ज्यादा ऊंची है। लेकिन इस वजह से बाढ़ आने की बात तो समझ में आती है , लेकिन धारा बदलने की बात स्पष्ट नहीं होती। कोशी परियोजना के अवकाश प्राप्त पूर्व मुख्य अभियंता एल के झा कहते हैं, उत्तल भौगोलिक संरचना का सिद्धांत गलत साबित हो चुका है। वास्तव में कोशी गाद और अंतर्देशीय डेल्टा की वजह से ही अपनी धारा बदलती है।
पूर्वी बिहार और नेपाल में बहने वाली गंगा की सहायक कोशी पूरी दुनिया की एक ऐसी अनोखी नदी है जो अपने यायावरी स्वभाव और प्रचंड वेग के लिए सैकड़ों वर्षोसे कुख्यात है। महाभारत और रामायण में इस नदी का जिक्र है जिसमें इसे ॠषि-मुनियों का पसंदीदा नदी बताया गया है। इसका नाम भी विश्वामित्र मुनी के नाम पर है। कौशिक्य, विश्वामित्र मुनी का ही उपनाम है और जिन्होंने इस नदी के किनारे गहन तपस्या की थी और बाद में लोग उन्हीं के नाम पर इस नदी को कोशी कहने लगे। लेकिन इन ग्रंथों में कोशी की प्रचंडता की बात नहीं है। प्राचीन साहित्यों और अन्य धार्मिक ग्रंथों में भी कोशी का उल्लेख मिलता है, लेकिन कहीं भी इसकी विभीषिका की चर्चा नहीं है। प्राचीन भारत के इतिहास में भी इसकी विभीषिका की चर्चा नहीं है। इससे इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि लगभग 1000 वर्ष के आसपास इस नदी ने अपना चरित्र बदल लिया। शायद मेची और महानंदा से अलग होते ही कोशी ने अपनी स्थिरता खो दीहोगी। कुछ विद्वानों का कहना है कि 1000 वर्ष पूर्व कोशी मेची और महानंदा के साथ मिलकर बह रही थी, जो वर्तमान में पश्चिम बंगाल और नेपाल के रास्ते बह रही है।
कोशी मध्य व पूर्वी हिमालय के लगभग 15-20 हजार वर्ग किलोमीटर जलछाजन क्षेत्र के बरसाती एवं बर्फीले जल और गाद को समेटते हुए और लगभग 250 किलोमीटर का टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता तय कर नेपाल के चतरा (वराह क्षेत्र) से होकर मैदानी इलाके में प्रवेश करती है। चतरा में हिमालय से निकलने वाली दो अन्य नदियां यथा अरुण और मकालू भी कोशी नदी में मिल जाती है। इससे 50 किलोमीटर पहले भी तीन छोटी नदी कोशी में मिलती है। कुल मिलाकर सात छोटी-बड़ी नदी चतरा में एक हो जाती है। यही कारण है कि नेपाल में इसे सप्तकोशी भी कहा जाता है।
मकालू नदी माउंट एवरेस्ट के बिल्कुल पास से निकलती है जबकि अरुण का उद्गम स्थल कंचनजंगा के पास है। चतरा तक नदी का प्रवाह मार्ग निर्धारित और स्थिर रहता है। पिछले एक हजार वर्षों से कोशी चतरा तक एक ही रास्ते से होकर पहुंच रही है। लेकिन चतरा से निकलकर गंगा में मिलने के क्रम में इस नदी का प्रवाह-चरित्र पूरी तरह बदल जाता है। पिछले 282 वर्षों में इस नदी ने चतरा से निकलकर दक्षिण की ओर गंगा में मिलने के क्रम में बड़े पैमाने पर 12 बार और छोटे पैमाने पर दर्जनों दफे अपनी धाराएं बदली हंै। इस क्रम में यह पार्श्वतः (लैटरली) लगभग 110 किलोमीटर पश्चिम की ओर खिसक गयी। यह खिसकाव नदी के किसी एक भाग या सीमित लंबाई में नहीं हुआ, बल्कि यह संपूर्ण खिसकाव (टोटल शिफ्ट) था। सन् 1736 में यह नदी बिहार के वर्तमान पूर्वी जिले किशनगंज, पूर्णिया और कटिहार से होकर बहती थी। वर्ष 1779 में अंग्रेज अभियंता कर्नल रीनेल ने पूर्वोतर भारत के नदियों का एक नक्शा तैयार किया था। इस नक्शे में दिखाया गया है कि कोशी कभी मेची-महानंदा के साथ मिलकर बह रही थी। जबकि वर्ष 1938-40 के आते-आते यह नदी बिहार के वर्तमान सुपौल, मधुबनी, सहरसा,दरभंगा और खगड़िया जिले होकर बहने लगी। इसी बहाव मार्ग पर सनफ 1963 में कोशी को तटबंधों के अंदर कैद कर दिया गया। इसके बाद 17 अगस्त, 2008 तक नदी तटबंधों के बीच से होकर ही बहती रही। हालांकि इस दरम्यान इसने कई बार दोनों तटबंधों को तोड़ा, लेकिन उस पर जल्द नियंत्रण पा लिया गया। ऐसा देखा गया कि कुसहा के पूर्व नदी तटबंध को अपने अतिरिक्त जल की निकासी के लिए तोड़ी थी, उन कटावों से होकर नदी की मुख्य धारा ने बहने की प्रवृत्ति नहीं दिखाई। हालांकि 1984 में नौहट्टा में नदी की एक छोटी धारा जरूर निकलने लगी थी, जो पंद्रह दिन तक कटान से बहती रही और उसके बाद खुद-ब-खुद मुख्य धारा की ओर लौट गयी। लेकिन कुसहा, नेपाल में गत 18 अगस्त को तटबंध टूटने के बाद यह पहला अवसर है जब कोशी अपने स्वभाव के विपरीत पश्चिम के बदले पूर्व की ओर ही खिसक गयी, जहां यह कभी 1920 के दशक में बहती थी। यह कोसी का एक और नया कारनामा है। अगर इसे रेखागणित के हिसाब से देखें तो स्पष्ट होता है कि कोशी एक पेंडुलम का आचरण कर रही है। इसका उत्तरी सिरा (चतरा में) तो कायम हैै लेकिन दक्षिण सिरा लगातार पूर्व और पश्चिम की दिशा में हिल रहा है।
यह घोर निंदा की बात है वैज्ञानिक प्रगति के इस आधुनिक युग में भी कोशी नदी एक रहस्य बनी हुई है और आजतक नदी के इस विचित्र स्वभाव की वास्तविक वजह का अंतिम रूप से पता नहीं लगाया जा सका है। न तो राज्य और न ही केंद्र सरकार ने आजतक नदी के इस विशेष चरित्र की वजह का पता लगाने के लिए कोई विशेष अनुसंधान करवायाऔर न ही किसी विश्वविद्यालय या अन्य संस्थाओं ने। वैसे कोसी के यायावरी स्वभाव को लेकर तरह-तरह के वैज्ञानिक कारण बताये जाते हैं। ज्यादातर अभियंता और विशेषज्ञ इसके लिए कोशी नदी में पानी के साथ आने वाली प्रचुर गाद को जिम्मेदार मानते हैं तो कुछ का मानना है कि इसके पीछे प्रवाह क्षेत्र की भौगोलिक संरचना जिम्मेवार है। गाद को धारा के बदलाव कारण मानने वालों के अनुसार कोशी नदी में प्रतिवर्ष अरबों टन गाद (मिट्टी, बालू, चट्टान और कीचड़) उत्सर्जित होती है। यह गाद लगभग 15 हजार वर्ग किलोमीटर की हिमालयी क्षेत्रफल से एकत्र होकर कोशी नदी में पहुंचती है। पहाड़ी ढलान पर नदी का वेग अत्यंत तीव्र होता है जिस कारण यह धारा के साथ बेरोकटोक बहते हुए चतरा तक चली आती है। लेकिन जैसे ही नदी मैदानी इलाके में प्रवेश करती है धारा का वेग कम होने लगता है और गाद नदी के तल (बेड) में जमा होने लगती है। इस कारण धारा के प्रतिप्रवाह में अंतर्देशीय डेल्टा बनने लगते हैं जो नदी की धारा को पार्श्व की ओर बहने के लिए प्रेरित करता है। ये डेल्टाएं एवं गाद कालांतर में नदी को अपनी धारा से विचलित होने के लिए बाध्य कर देती हैं। इस विचारधारा के समर्थक और नेपाल जल संरक्षण संस्थान के अध्यक्ष एवं कोसी नदी के विशेषज्ञ अभियंता दीपक ग्यावली के अनुसार, तटबंध निर्माण के बाद पिछले पचास वर्षों में तटबंधों के अंदर ही कोसी की सारी गादें जमा होती रही हैं। इनकी मात्रा लगभग दस करोड़ क्यूबिक मीटर प्रति वर्ष है। चूंकि कोशी के हिमालय स्थित जलछाजन क्षेत्र की चट्टान और मिट्टी काफी भुरीभुरी और बलुआई है इस कारण हर वर्ष गाद की मात्रा में बढ़ोतरी होती रहती है। इसके परिणामस्वरूप नदी के तल (बेड) की ऊंचाई पिछले दशकों में आसपास के धरातल से सात-आठ मीटर ऊंची हो गयी है। उधर गंगा नदी की गहराई में भी कमी आयी है,जिसके चलते नदी के मध्य में पानी का भार सबसे ज्यादा होता है। इन कारणों से कोशी धारा बदलने के लिए मजबूर हो रही है। ग्यावली का निष्कर्ष वैज्ञानिक कसौटी पर कितना खरा है, यह तो प्रमाणिक अनुसंधान के बाद ही पता चलेगा। लेकिन कुसहा में कोशी ने जिस तरह अपनी धारा अचानक बदल ली उससे तो उनकी बात सच प्रतीत होती है। क्योंकि कुसहा में बांध टूटने के बाद नदी की 90 प्रतिशत जलराशि नई धारा से होकर बहने लगी है। गत 5 सितंबर को कुल एक लाख 34 हजार घन प्रति सेकेंड (क्यूसेक) निष्कासित जलराशि में से 92 हजार टूटे तटबंध से बह रही थी। गत सितंबर में स्थिति यह थी कि नदी की पुरानी धारा लगभग सूख चुकी थी। कुसहा से महज 12 किलोमीटर की दूरी पर अवस्िथत कोशी बाराज के फाटक तो खुले थे, लेकिन पानी उधर से नहीं बह रहा है। बाराज के प्रतिप्रवाह और सहप्रवाह दोनों में रेत के बड़े-बड़े अंतर्देशीय डेल्टा नजर आते हैं। कोशी बाराज से लेकर खगड़िया स्थित डुमरी पुल तक के पुराने नदी मार्ग को अगर कोई अनजान व्यक्ति देखे तो वह यह अनुमान नहीं लगा सकेगा कि 17 अगस्त तक यहां कोई बड़ी नदी बह रही थी। वहां सिर्फ रेत का ढेर नजर आता है। इससे स्पष्ट है कि नदी के इस मार्ग का तल खतरनाक स्तर तक ऊंचा हो गया है।
कुछ विशेषज्ञ कुसहा प्रकरण को दूसरा तिनाउ हाथिसुन्दे प्रकरण कह रहे हैं। उल्लेखनीय है कि तिनाउ नदी पर सन् 1960 के दशक में नेपाल के बतवाल शहर के नजदीक भारत सरकार ने हाथीसुन्दे बाराज का निर्माण किया था, लेकिन बाद में तिनाउ नदी के मार्ग बदल लेने के कारण यह बाराज निष्क्रिय हो गया था। दूसरी ओर बिहार के जल संसाधन विभाग के वरिष्ठ अभियंता व तटबंध विशेषज्ञ विजय कुमार सिन्हा का मानना है कि कोशी को वापस तटबंध के अंदर मोड़ना संभव है। बकौल सिन्हा, नदी को वापस अपनी धारा में लाने के पहले कुसहा से बाराज तक नदी-तल की गहराई बढ़ानी होगी। इसके अलावा बाराज के दोनों प्रवाह में फैली गाद को भी साफ करना होगा।
कुछ अन्य विशेषज्ञों का मानना है कि कोशी द्वारा मार्ग बदलने के पीछे पूर्वी बिहार का भौगोलिक संरचना भी जिम्मेदार है। इन विशेषज्ञों के अनुसार पूर्वी बिहार की स्थलाकृति एक उत्तल कटोरे जैसी है। जबकि इसके चारों दिशा की जमीन का ऊंची है। नदी पहाड़ से उतरकर कटोरानुमा मैदानी इलाके में पहुंकर लगभग स्थिर हो जाती है। जिस अनुपात में कोशी में जल का आगमन होता है उस अनुपात में निष्कासन नहीं होता। अत्याधिक जल जमा होने की स्थिति में नदी अपनी धारा ही बदल लेती है। हालांकि इस मत के समर्थक काफी कम हैं। लेकिन यह बात सच है कि कोशी नदी का दोनों सिरा बीच वाले भाग की तुलना में ज्यादा ऊंची है। लेकिन इस वजह से बाढ़ आने की बात तो समझ में आती है , लेकिन धारा बदलने की बात स्पष्ट नहीं होती। कोशी परियोजना के अवकाश प्राप्त पूर्व मुख्य अभियंता एल के झा कहते हैं, उत्तल भौगोलिक संरचना का सिद्धांत गलत साबित हो चुका है। वास्तव में कोशी गाद और अंतर्देशीय डेल्टा की वजह से ही अपनी धारा बदलती है।
4 टिप्पणियां:
कोशी के बहाव के बारे में इतनी अच्छी जानकारी को उपलब्ध करने के लिए धन्यवाद !
कोसी के कहर का दर्द वहां के लोग महसूस करते हैं. आपका लेख सचमुच में ज्ञानवर्धक है. इनदिनों में ब्लॉग जगत में कोसी से जुड़े लेखों को इकठा कर रहा हूँ .
शुक्रिया
गिरीन्द्र
09868086126
Girindra bhai, meri subhkaamna aapke sath rahegee. Dhanyawad.
Ranjit
Wow.. bhut achchhi knowledge di hai aapne kosi ke bare me. Thanks 😊
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