दहाये हुए देस का दर्द-87
कोशी के कछार पर स्थित मेरा गांव सिमराही बाजार,
जिला- सुपौल, बिहार आज राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में है। आज यहां
नरेंद्र मोदी के कदम पड़ने वाले हैं,जो पटना विस्फोट में मारे गये भरत रजक
के परिजनों से मिलने उनके घर पहुंच रहे हैं। गांव से आने वाले
मित्रों-परिचितों के फोन बता रहे हैं कि पिछले तीन दिनों से यहां बच्चों से
लेकर बूढ़ों तक हर जुबान पर मोदी-भाजपा का ही नाम है। यह
सुनकर मुझे 27-28 साल पुरानी एक बात याद आ रही है। तब इसी सिमराही बाजार
के माध्यमिक स्कूल में एक शाम कर्पूरी ठाकुर आये थे। ठीक से याद नहीं,
लेकिन यह शायद 1985 या 86 के अगस्त-सितंबर का महीना रहा होगा। पिता जी के
साथ मैं भी चला गया था ठाकुर जी की बैठक में। मैं सात-आठ साल का रहा होगा।
ठाकुर जी इलाके के तमाम वरिष्ठ समाजवादी नेताओं के साथ विचार-विमर्श कर रहे
थे। सारी बात तो याद नहीं, लेकिन एक बात आज भी मुझे याद है। कर्पूरी ठाकुर
ने उस शाम स्थानीय समाजवादी नेताओं से कहा था- मैं कोशी के लोगों के
भाइचारे, सीधापन और सहिष्णुता का मुरीद हूं। सामाजिक सौहार्दता क्या होती
है, यह बात पूरा देश कोशी से सीख सकता है। विभाजन से लेकर अयोध्या तक,
आजादी के पहले से लेकर वर्षों बाद तक देश में कई बबाल हुए, लेकिन कोशी का
सामाजिक सौहार्द हमेशा कायम रहा। अपने चरमोत्कर्ष के दौर में भी भाजपा को
यहां कमल उठानेवाले नहीं मिले।
लेकिन इस बात को पहले कांग्रेस फिर राजद और जद(यू) ने कोई मोल नहीं दिया, जिन्होंने यहां के लोगों के वोट से लंबे समय तक शासन किया। कोशी की समस्या यथावत बनी रही, दुनिया कहां से कहां चली गयी लेकिन कोशी के लोग अठारहवीं सदी का जीवन जीने के लिए मजबूर रहे। सरकारी उपेक्षा की यह कहानी बहुत लंबी है, जिस पर मैंने अपने ब्लाग में कई रिपोर्ट लिखी है। सरकार और विभिन्न दलों ने कोशी के लोगों को बंधुआ मजदूर समझा। अक्सर वे कहते थे- जायेगा कहां ? उनके सीधेपन की कोई कदर नहीं हुई। दूसरी ओर पूरब में बांग्लादेश से बेशुमार घुसपैठियों की आवाजाही होती रही और उन्हें अवैध संरक्षण मिलता रहा। इसके कारण किशनगंज, अररिया, कटिहार के लोगों को असुरक्षा महसूस होने लगी, तो बात पश्चिम की ओर यानी सुपौल, सहरसा, मधेपुरा, पूर्णिया तक फैलती चली गयी। और अब आलम यह है कि यहां भाजपा एक शक्ति हो चुकी है।
लेकिन इस बात को पहले कांग्रेस फिर राजद और जद(यू) ने कोई मोल नहीं दिया, जिन्होंने यहां के लोगों के वोट से लंबे समय तक शासन किया। कोशी की समस्या यथावत बनी रही, दुनिया कहां से कहां चली गयी लेकिन कोशी के लोग अठारहवीं सदी का जीवन जीने के लिए मजबूर रहे। सरकारी उपेक्षा की यह कहानी बहुत लंबी है, जिस पर मैंने अपने ब्लाग में कई रिपोर्ट लिखी है। सरकार और विभिन्न दलों ने कोशी के लोगों को बंधुआ मजदूर समझा। अक्सर वे कहते थे- जायेगा कहां ? उनके सीधेपन की कोई कदर नहीं हुई। दूसरी ओर पूरब में बांग्लादेश से बेशुमार घुसपैठियों की आवाजाही होती रही और उन्हें अवैध संरक्षण मिलता रहा। इसके कारण किशनगंज, अररिया, कटिहार के लोगों को असुरक्षा महसूस होने लगी, तो बात पश्चिम की ओर यानी सुपौल, सहरसा, मधेपुरा, पूर्णिया तक फैलती चली गयी। और अब आलम यह है कि यहां भाजपा एक शक्ति हो चुकी है।