झारखंड के मुख्यमंत्री की हार पर पंक्ति याद आती है- दर्द जब हद से गुजर जाता है, तो दबा बन जाता है। अलग झारखंड राज्य आंदोलन के नायक और लोकसभा रिश्वत प्रकरण के खलनायक , शिबू सोरेन को आखिरकार जनता की अदालत ने ठुकरा दिया है। शिबू सोरेन झारखंड के तमाड़ विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव में एक अनजान-से नेता, गोपाल पातर उर्फ राजा पीटर के हाथों पराजित होकर स्वतंत्र भारत के राजनीतिक इतिहास मेें अपना नाम दर्ज करा गये हैं। वह देश के पहले मुख्यमंत्री हैं, जो मुख्यमंत्री रहते विधानसभा के मेंबर नहीं बन पाये। झारखंड की पतनोन्मुख राजनीति के अगुवा बन चुके शिबू सोरेन को लोगों ने यादगार सबक सिखाया। वह आदिवासियों की राजनीति करते थे और आदिवासियों के गढ़ में ही परास्त हो गये। लोगों ने शिबू को रोगग्रस्त झारखंड का दर्द माना और चुनाव में हराकर दबा खोजने का प्रयास किया। बहुत संक्षेप में शिबू की हार को मैं ऐसे ही विश्लेषित कर पा रहा हूं। हालांकि शिबू सोरेन की हार ने विश्लेषण के बहुत सारे विषय पैदा कर दी है। झारखंड समेत पूरे देश में उनकी हार पर चर्चा हो रही है। लेकिन सोरेन की हार ने यह साबित कर दिया है कि जनता सब कुछ देख रही है। उनकी आंखों में लंबे समय तक धूल नहीं झोंका जा सकता। हालांकि शिबू सोरेन ने उनके आंखों और कानों पर परदा डालने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा। चुनाव जीतने के लिए पानी की तरह पैसे बहाये, भूमि पूत्र का राग अलापा, प्रशासनिक मशीनरी का राग अलापा और वादों के पहाड़ खड़ा कर दिए। लेकिन न तो धन काम आया और न ही प्रभुत्व।
लोग पूछेंगे कि आखिर ऐसा क्यों हुआ ? तो इसका जवाब था कि ऐसा होना ही था। अगर ऐसा नहीं होता, तो झारखंड की राजनीति रसातल में पहुंच जाती। हर नेता यह अहम पालने लगता कि राज्य की सर्वोच्च कुर्सी पर उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। शिबू सोरेन इसी मानसिकता के नेता हैं। वह झारखंड को अपनी निजी मिल्कियत मानते हैं। हालांकि यह अलग बात है कि उनकी पार्टी ने कभी भी विधानसभा में बहुमत हासिल नहीं किया। बावजूद इसके वह हमेशा मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने का हठधर्मिता दिखाते रहे। उनकी हठधर्मिता ही थी जिसके कारण मार्च 2005 में झारखंड विधानसभा अभूतपूर्व राजनीतिक नाटक का गवाह बना। सारे प्रयास के बाद भी शिबू सोरेन विधानसभा में बहुमत साबित नहीं कर पाये और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।
बाद में केंद्र की यूपीए सरकार की मजबूरी का लाभ उठाते हुए उन्होंने पिछले अगस्त में येन-केन-प्रकारेन निर्दलीय मुख्यमंत्री मधु कोड़ा को हटाकर मुख्यमंत्री की कुर्सी हथिया ली। लेकिन चार महीने के अपने शासनकाल में ही वे बेहद अलोकप्रिय हो गये। झारखंड एक स्टेट के रूप में पूरी तरह डीफंग था। शासन के सभी केंद्रीय बिन्दु पर उन्होंने अपने पसंदीदा लोगों को भर दिया। यहां तक कि मुख्यमंत्री सचिवालय को उन्होंने पूरी तरह से अपने रिश्तेदारों का बैठकखाना में तब्दील कर दिया। उन्होंने अकर्मण्य लोगों की फौज तैयार कर ली, जिसका एक मात्र कार्य था - सत्ता के जरिए पैसों की उगाही। पहले से ही परेशान झारखंड की जनता के लिए यह जले पर नमक छिड़कने जैसा था। शिबू सोरेन की हार से शायद देश के नेता सबक लें। यह जनादेश बेहाल झारखंड के अक्षम और स्वार्थी नेताओं के लिए भी बड़ा सबक है कि अगर वे नहीं सुधरे तो जनता उन्हें कभी माफ नहीं करेगी।
लोग पूछेंगे कि आखिर ऐसा क्यों हुआ ? तो इसका जवाब था कि ऐसा होना ही था। अगर ऐसा नहीं होता, तो झारखंड की राजनीति रसातल में पहुंच जाती। हर नेता यह अहम पालने लगता कि राज्य की सर्वोच्च कुर्सी पर उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। शिबू सोरेन इसी मानसिकता के नेता हैं। वह झारखंड को अपनी निजी मिल्कियत मानते हैं। हालांकि यह अलग बात है कि उनकी पार्टी ने कभी भी विधानसभा में बहुमत हासिल नहीं किया। बावजूद इसके वह हमेशा मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने का हठधर्मिता दिखाते रहे। उनकी हठधर्मिता ही थी जिसके कारण मार्च 2005 में झारखंड विधानसभा अभूतपूर्व राजनीतिक नाटक का गवाह बना। सारे प्रयास के बाद भी शिबू सोरेन विधानसभा में बहुमत साबित नहीं कर पाये और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।
बाद में केंद्र की यूपीए सरकार की मजबूरी का लाभ उठाते हुए उन्होंने पिछले अगस्त में येन-केन-प्रकारेन निर्दलीय मुख्यमंत्री मधु कोड़ा को हटाकर मुख्यमंत्री की कुर्सी हथिया ली। लेकिन चार महीने के अपने शासनकाल में ही वे बेहद अलोकप्रिय हो गये। झारखंड एक स्टेट के रूप में पूरी तरह डीफंग था। शासन के सभी केंद्रीय बिन्दु पर उन्होंने अपने पसंदीदा लोगों को भर दिया। यहां तक कि मुख्यमंत्री सचिवालय को उन्होंने पूरी तरह से अपने रिश्तेदारों का बैठकखाना में तब्दील कर दिया। उन्होंने अकर्मण्य लोगों की फौज तैयार कर ली, जिसका एक मात्र कार्य था - सत्ता के जरिए पैसों की उगाही। पहले से ही परेशान झारखंड की जनता के लिए यह जले पर नमक छिड़कने जैसा था। शिबू सोरेन की हार से शायद देश के नेता सबक लें। यह जनादेश बेहाल झारखंड के अक्षम और स्वार्थी नेताओं के लिए भी बड़ा सबक है कि अगर वे नहीं सुधरे तो जनता उन्हें कभी माफ नहीं करेगी।
1 टिप्पणी:
bahut sahi likhaa hai ' ye publik hai sab jaanti hai'
surendra
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