रविवार, 2 अगस्त 2009

...और छोड़ा बच गया

दहाये हुए देस का दर्द-51
चार बांस की बल्लियों पर लटके टिन के चदरे के नीचे महेसर पासवान की चाय दूकान है, जिसमें काम करता है मुनेसरा। बगल में एनएच-57 का काम चल रहा है। गेमन इंडिया के इंजीनियर और ठेकेदार को चाय पिलाता है, मुनेसरा। जब समय मिलता है तो हमउम्र लड़कों के साथ दो-चार दांव गुड्डी कबड्डी भी खेल आता है। चाय बनाने और पिलाने के अलावा वह देसी गाली बकने में भी माहिर है और अक्सर दारोगा, जमादार और बीडीओ को नाम लेकर गलियाता रहता है।
"... मादर चो... बेटी चो, तोरा घर में सुअर मरे... तोरा जोरू के धमना काटे... मघैया डोम के जनमल सार बीडीओवा...'
यही कोई 13-14 वर्ष का होगा मुनेसरा। उसका बाप कोसी की बाढ़ में भसिया गया। लाश भी नहीं मिली। मुनेसरा इसलिए बच गया क्योंकि वह तैरना जानता था और जब 19 अगस्त 2008 की अहले-सुबह कोसी ने फुफकार के साथ भीमपुर बाजार को ग्रस लिया, तो वह लोटा खाली करके मैदान से लौट रहा था। पल भर में ही पूरे भीमपुर में डूबा पानी फैल गया। मुनेसरा तैरकर सरकारी स्कूल की छत पर पहुंचा। दो दिन और दो रात खुली छत के एक कोने में बैठे रहा। शुरू में छत पर कई लोग थे, लेकिन धीरे-धीरे वे प्राइवेट नाव के सहारे सुरक्षित स्थानों की ओर निकल गये। मुनेसरा अपने मां-बाप की प्रतीक्षा करता रहा, जो कभी नहीं आये। तीन-चार दिनों तक बिना कुछ खाये-पीये मुनेसरा स्कूल की छत पर बैठे रहा। कोसी के कठ-खेल को देखते रहा, कभी रो कर तो कभी आंख मूंदकर। जब भूख बर्दाश्त से बाहर हो गयी, तो उसने एक उपाय खोज निकाला। बगल में कदम का पेड़ था, जिसमें खूब फल लगे थे। मुनेसरा उसी के सहारे दिन काटने लगा । प्यास जब असहनीय हो जाती, तो वह बाढ़ के पानी में ही चुलू लगा देता। लेकिन दो दिन के बाद वह बीमार हो गया। पेट और मूंह साथ-साथ चलने लगा। लेकिन मरने से कुछ वक्त पहले एक एनजीओ कार्यकर्ता की नजर उस पर पड़ गयी। बोला- इट इज एक्यूट केस ऑफ डॉयरिया, अ फ्लड वाटर ड्रंक !
उसकी हालत को बयां करते चायवाला महेसर पासवान कहता है- "सरवा के पेट पीठ से सट गिया था। येनजीओ वाला डॉगडर निरैश (समर्पण कर देना) दिया था। नाउ होफ , नाउ होफ कहता था डॉगडर। उन लोगों के पास कुछ खास दवा-दारू भी नहीं था। लेकिन दो बोतल पानी चढ़ाने के बाद मुनेसरा को प्राण आने लगा। द्वि मास तक तें खटिया पर पड़ा रहा, चलता भी था तो लंगड़ी बकरी के जैसन ... हा- हा ! आब देखिये ने सरवा कें , भर दिन में दस पुड़िया गुटखा गटक लेता है...''
मुनेसरा- "हं, हं, आप ही देखते हैं कि दस गो पुड़िया गुटखा खाते हैं ?''
महेसर - "तो क्या ? हम झूठ कहते हैं, सरवा दांत दिखाओ तो इनको, सैड़ गिया है, रे बहान कें ... और गप्प नहीं मारो, तीन कप चाय तेनालिया के दूकान पर जल्दी से पहुंचा आओ । ''
लेकिन मुनेसरा नहीं हिला। मालिक ने क्या कहा, जैसे उसे सुनाई ही नहीं दिया। वह एक टक हमें देखते रहा। जब हम उठने लगे, तो उसने कहा, "साहेब मेरे बाप के बारे में अखबार में छापिये ना... ऊ मरा नहीं होगा, लगता है भसिया कर किसी दूसरे मुलूक में पहुंच गिया है। मेरी बात कोई नहीं सुनता। दरोगा-जमादार मादर्च... '' इतना कहकर वह जैसे किसी अनंत सून्य में खो गया।
जब हम वहां से जाने लगे तो दूकानदार महेसर ने भी उसकी पैरवी की, "छोड़ा ठीके कहता है साहेब एकर बाप के लिए कुछ कीजिए न साहेब। सरवा जब-तब भोकार पार-पार कें रोने लगता है।''

1 टिप्पणी:

kalpana lok ने कहा…

ankh nam ho gai ... bichurne ka kya dard hota hai wohi behtar janta hoga... akhir kub tak chalta rahega yeh sisila.... lo fir aa gaya august... fir jse trahimam .... ise bich media me bagmati tootne ki khabar...