सोमवार, 21 दिसंबर 2009

ऐसे अंत की अपेक्षा तो नहीं थी

ओबामा : धरती से ज्यादा अमेरिका की चिंता
मीनाक्षी अरोरा
जलवायु परिवर्तन पर कोपेनहेगन वार्ता का दुःखद अंत हो चुका है। डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन के बेला सेंन्टर में चले 12 दिन की लंबी बातचीत दुनिया के आशाओं पर बेनतीजा ही रही। कोपेनहेगन सम्मेलन में बातचीत के लिए जुटे 192 देशों के नेताओं के तौर-तरीकों से यह कतई नहीं लगा कि वे पृथ्वी के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। दुनियाँ के कई बड़े नेताओं ने बेशर्मी के साथ घोषणा की कि ‘यह प्रक्रिया की शुरुआत है, न की अंत’। 192 देशों के नेता किसी सामुहिक नतीजे पर नहीं पहुँच सके, झूठी सदिच्छाओं के गुब्बारे के गुब्बार तो बनाए गए, पर किसी ठोस कदम की बात कहीं नहीं आई। कोपेनहेगन सम्मेलन मात्र एक गर्मागर्म बहस बनकर खत्म हो चुकी है।कोपेनहेगन की शुरुआत ही जिन बिन्दुओं पर होनी थी, वह विकसित देशों के अनुकूल नहीं थी। कार्बन उत्सर्जन में कानूनी रूप से अधिक कटौती का वचनबद्धता, कार्बन उत्सर्जन के प्रभावी रोकथाम के लिए एक निश्चित समय सीमा की प्रतिबद्धता, कार्बन उत्सर्जन में 1990 के स्तर से औसत 5 प्रतिशत तक कटौती आदि ऐसे मुद्दे थे जिनपर विकसित देश किसी भी स्थिती में तैयार नहीं होने वाले थे।कोपेनहेगन में जलवायु परिवर्तन के मसले पर ‘सार्थक समझौते’ की निरर्थकता इसी बात से साबित हो जाती है कि सार्थक समझौते में गिनती के 28-30 देश ही शामिल हैं। बाकी देश इसे पूरी तरह खारिज कर चुके हैं। 18 दिसंबर को ही कोपेनहेगन की असफलता साफ नजर आ गयी थी, जब एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला शुरु हुआ। दुनिया भर से आईं वरिष्ठ हस्तियां एक दूसरे पर दोषारोपण कर रही थीं। 130 विकासशील देशों के समूह जी77 ने ओबामा पर आरोप लगाया कि, “ओबामा ने अमरीका के लिए कार्बन उत्सर्जन को कम करने की बात से इंकार करके गरीब देशों को हमेशा के लिए गरीबी में ढकेल दिया है।” एक प्रवक्ता ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि कोपेनहेगन की असफलता जलवायु परिवर्तन के इतिहास में सबसे बुरी घटना है।कोपेनहेगन में जलवायु परिवर्तन के मसले पर ‘सार्थक समझौते’ की निरर्थकता इसी बात से साबित हो जाती है कि सार्थक समझौते में गिनती के 28-30 देश ही शामिल हैं। बाकी देश इसे पूरी तरह खारिज कर चुके हैं। 18 दिसंबर को ही कोपेनहेगन की असफलता साफ नजर आ गयी थी, जब एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला शुरु हुआ। दुनिया भर से आईं वरिष्ठ हस्तियां एक दूसरे पर दोषारोपण कर रही थीं। पाबलो सोलोन, संयुक्त राष्ट्र के बोलिवियन राजदूत ने मेजबान डेनमार्क पर आरोप लगाते हुए कहा कि ‘उंहोंने दुनिया के नेताओं के आगे मसौदा रखने से पहले मात्र कुछ देशों के समूह को ही तैयार करने के लिए दे दिया। यह कैसे हो सकता है कि 190 देशों को दर किनार करके मात्र 25-30 देश अपनी ही खिचड़ी पकाकर बाकी देशों को परोस दें। इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।‘लेकिन दूसरी ओर अमीर देशों ने अपने पक्ष को मजबूत करते हुआ कहा कि विकासशील देशों ने एक ठोस बातचीत की बजाय प्रकिया पर ज्यादा वक्त जाया किया है। वार्ता के तुरंत बाद हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ब्राउन ने कहा, कि यह तो बस एक पहला कदम है, इसे कानूनी रूप से बाध्यकारी बनाने से पहले बहुत से कार्य किए जाने हैं। एक सवाल का जवाब देते हुए उंहोंने इसे ऐतिहासिक कॉन्फ्रेंस मानने से भी इंकार कर दिया। ओबामा भी विश्व नेताओं के सामने काफी विचलित से दिख रहे थे। हालांकि अमरीका से हिलेरी क्लिंटन ने घोषणा की थी कि अमरीका विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के लिए 100 बिलियन डॉलर की मदद करेगा लेकिन ओबामा ने गरीब देशों को सहायता मुहैया कराने और कार्बन उत्सर्जन में कमीं करने का कोई दावा नही किया। अपनी बातचीत में ओबामा ने यह तो कहा कि अमरीका क्लीन एजेंडा अपनाएगा। लेकिन विकासशील देश इस बात से निराश थे कि ये सब कहने के लिए हैं लिखित रूप से कोई भी दावा नहीं किया गया। इतना ही नहीं, जिस जलवायु परिवर्तन संबंधी कानून के लिए पर्यावरणीय संगठन कईं महीनों से मांग कर रहे थे उंहोंने सीनेट को कोई कानून बनाने के लिए दबाव नहीं डाला। मसौदे में यह सदिच्छा तो है कि ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री की सीमा पर ले आना चाहिए लेकिन इसमें कोई कानूनी बाध्यता नहीं रखी गई। मसौदे को तैयार करने वाले ब्राउन सहित सभी 28 देशों ने आज सवेरे वार्ता को अगले साल दिसम्बर 2010 तक के लिए स्थगित करने का प्रस्ताव रखा जब तक संयुक्त राष्ट्र की मेक्सिको में जलवायु परिवर्तन पर अगली बैठक नहीं हो जाती।लेकिन कोपेनहेगन से जो मसौदा सामने आया है वह न केवल दुनिया में शक्ति संतुलन सुनिश्चित कर सकता था बल्कि भावी पीढ़ियों का भविष्य भी निर्धारित कर सकता था। लेकिन यह समझौता बिना किसी ठोस निष्कर्ष के फ्लॉप हो गया। कोपेनहेगन वार्ता निम्न बिंदुओं पर फ्लॉप हो गईःतापमान : "ग्लोबल तापमान में वृद्धि 2 डिग्री से कम होनी चाहिए।"इससे 100 से भी ज्यादा देश निराश हो गए जो तापमान में अधिकतम 1.5 डिग्री की कमीं चाहते थे, इसमें वे सभी छोटे-छोटे द्वीपीय देश भी शामिल हैं जो इस बात से भयभीत हैं कि इस लेवेल पर भी उनके घर डूब ही जाएंगे।कार्बन उत्सर्जन के लिए समय सीमा"हमें वैश्विक और राष्ट्रीय उत्सर्जन की सीमा को जल्द से जल्द पाने के लिए के लिए सहयोग करना चाहिए, इस बात को ध्यान में रखते हुए कि विकासशील देशों में यह समय ज्यादा लग सकता है…" इस वक्तव्य से वे देश निराश हो गए जो कार्बन उत्सर्जन के लिए एक तिथि निर्धारित करना चाहते थे। "सभी पक्ष इस बात का वादा करते हैं कि वे व्यक्तिगत रूप से या मिलकर 2020 तक तार्किक रूप से कार्बन उत्सर्जन लक्ष्य में कटौती करेंगे। "इस तथ्य के अनुसार विकसित देशों को अपने मध्यकालीन लक्ष्य तक तुरंत पहुंचने के लिए अभी से काम शुरु करना होगा। अमरीका को 2005 के स्तर पर 14-17फीसदी कमीं करनी होगी, यूरोपीय संघ को 1990 के स्तर पर 20-30फीसदी, जापान को 25 और रूस को 15-25फीसदी की कटौती करनी होगी। "वनों की कटाई को रोकने, अनुकूलन, प्रौद्योगिकी विकास और हस्तांतरण और क्षमता के लिए पर्याप्त वित्त का मामला"यह बहुत ही जटिल है क्योंकि 15 फीसदी से भी ज्यादा कार्बन उत्सर्जन के लिए पेड़ों के कटाव को जिम्मेदार माना गया है। वार्ता में शामिल समूहों का मानना है कि इस तर्क में सुरक्षा मानकों की कमीं है।पूंजी: "विकसित देशों ने एक साथ मिलकर यह वादा किया है कि 2010-12 तक 30 बिलियन तक की कीमत वाले नए और अतिरिक्त संसाधनों को मुहैया कराएंगे.... विकसित देशों ने लक्ष्य निर्धारित किया है कि विकासशील देशों की जरूरतों को पूरा करने के लिए वे सब मिलकर 2020 तक प्रतिवर्ष 100 बिलियन डॉलर इकट्ठा करेंगे।"हालांकि अमीर देशों नें विकासशील देशों के प्रयासों के लिए शीघ्र आर्थिक सहयोग देने की बात कही है। दीर्घकाल में, बड़ा फंड कोपेनहेगन ग्रीन क्लाइमेट फंड में जाएगा। लेकिन समझौते में कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि यह फंड कहां से आएगा, और इसका इस्तेमाल कैसे होगा।
वार्ता में दरकिनार किए गए पूर्व मसौदे के मुख्य तत्व: वार्ता में क्योटो को परिवर्तित करने का प्रयास किया गया है। क्योटो का साफ कहना था कि "हमारा दृढ़ निश्चय है जलवायु परिवर्तन पर एक या अधिक नए कानूनी साधनों को अपनाना होगा…"। दरअसल यह प्रस्तावना ही अमार देशों के वार्ताकारों के सामने सबसे बड़ी बाधा थी। इससे यह सवाल खड़ा हुआ कि क्योटो प्रक्रिया को बरकरार रखा जाए या नहीं। सब जानते हैं कि संधि के लिए डेडलाइन की बात का काफी गंभीर मतलब है, लेकिन मसौदे के अंतिम रूप में इस तय समय सीमा को छोड़ दिया गया और कहा गया कि यह अगले साल होगा।हसरतों को पंख मिलने के उम्मीद में लोग कोपेनहेगन सम्मेलन को होपेनहेगन नाम से बुला रहे थे, पर अब लोग बहुत बूरी तरह गुस्से में और दुखी हैं। जब कई देशों के नेता कोपेनहेगन से रवाना हो रहे थे, तो ब्रिटेन के ग्रीनपीस के कार्यकारी निदेशक जॉन सॉवेन ने बीबीसी से कहा कि कोपेनहेगन एक ऐसी अपराधभूमि की तरह लग रहा है जहाँ से अपराधी स्त्री-पुरुष एयरपोर्ट की ओर रवाना हो रहे हैं। (इंडिया वाटर पोर्टल हिन्दी)

2 टिप्‍पणियां:

मनोज कुमार ने कहा…

रचना अच्छी लगी।

रंजना ने कहा…

Jabtak viksit desh prakriti kee prakhartam vinaashleela nahi jhel lenge,is mudde par gambheer nahi honge...

baten bhale badi badi karen sab,par sabko lagta hai vinaash abhi bahut door hai aur jab yah aayega,ye ise taal lenge...