शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2008

पानी और जोंक


दहाये हुए देस का दर्द-17
अब पानी ठहरने लगा है कुछ करो साथी
चिपके जोंकों से अपना दामन बचाओ साथी
तुलसी-चौरा की छोड़ो,बथान पर बंधे की सोचो काकी
सांझ के दीप से कुकुरमाछी को भगाओ काकी
जलदराजों की पाचन-शक्ति को मत कम समझो दादी
इनके उदर में है इस नदी की लाश दादी
इनके सूरतो-शक्ल पर न जाना मांझी
नाव डूबाकर लहू पीने के ये हैं आदि
अब पानी ठहरने लगा है कुछ करो साथी
घिरते जोंकों से अपना दामन बचाओ साथी

गुरुवार, 30 अक्टूबर 2008

आइह भ्रातिद्वितिया के दिन हे

अंगना नीप बहिना अरिपन काढ़े
आइह भ्रातीद्वतिया के दिन हे ...
डोय़्‌ढी पर टाढ़ बहिना रस्ता निहारे
एही बाट औता भैया मोर हे...
(आंगन को गोबर-मिट्टी से पवित्र कर बहन अरिपन काढ़ रही है, क्योंकि आज भ्रातिद्वितिया का दिन है। डोय़्‌ढी पर खड़ा हो के बहन रास्तों को निहार रही है और सोच रही है कि इसी रास्ते से मेरे भैया आयेंगे)
यह मैथिली का एक लोकगीत है। भ्रातिद्वितिया पर्व के अवसर पर कोशी-अंचल की बहनें यह गीत गुनगुनाती हैं। इस पर्व की शुरुआत कैसे हुई इसका कोई प्रमाणिक इतिहास नहीं है। इसे लेकर तरह-तरह की मिथकें प्रचलित हैं। लेकिन सबसे तर्कसंगत मिथक, जिससे अधिकतर विद्वान सहमत हैं वह सीधे-सीधे कोशी-अंचल के बीहड़ भूगोल से जुड़ती है। इसके अनुसार पूर्वी बिहार के लोग सदियों से हिमालय से निकलने वाली नदियों से प्रताड़ित होते रहे हैं। बरसात के चार महीने यथा आषाढ़, सावन, भादो और

आश्विन
(चाैमासा) में ये नदियां उमड़ जाती थीं। नदियों की बाढ़ के कारण रास्ता-बाट बंद हो जाते थे। लोग चार महीनों तक अपने बंधु-बांधव, हित-मीत, कर-कुटुम्बों से कट जाते थे। उस जवाने में दूरसंचार का कोई अन्य माध्यम था नहीं, इसलिए बरसात ॠतु के
खत्म होने के
बाद लोग अपने सगे-संबंधियों का हाल-समाचार जानने के लिए व्यग्र हो उठते थे। पता नहीं किस गांव का क्या हाल है ? हैजा, मलेरिया और डायरिया ने कितने को काल-कलवित कर लियाहोगा !! चूंकि कार्तिक मास आते-आते नदी-नाले उतर जाते थे और पानी कम होने के कारण आवागमन सुगम हो जाता था। इसलिए बहनों का हाल लेने के लिए भाई भ्रातिद्वितिया के दिन उनके ससुराल पहुंचते थे। इससे जहां भाई-बहन के रिश्ते तिरोहित होते, वहीं दोनों परिवार नदियों से दिए गये दुखों को भी आपस में बांटकर जी हल्का कर लेते थे। पर्व के सामाजिक महत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जिन बहनों के अपने सगे भाई नहीं होते उनके चचेरे, ममेरे, फूफेरे आैर यहां तक की मुंहबोले भाई इस रश्म को पूरा करते। कालांतर में समाज के भूगोल, अर्थशास्त्र और भावशास्त्र में बदलाव हुए और भ्रातिद्वितिया भी अनिवार्यता की स्थिति से उतरकर आैपचारिकता के खांचे में आ गया। अभिजात वर्गों ने आर्थिक और उपभोक्तावादी उन्नति की होड़ में पहले इससे किनारा किया और बाद के वर्षों में मध्यमवर्गीय लोगों ने भी इससे अलग होना शुरू कर दिया। लेकिन निम्नमध्यमवर्गीय और निम्न वर्गीय लोग इसे आजतक अपने सीने से लगाये हुए हैं। एक अमूल्य निधि की तरह।
सुबह आठ बजे मैं मधेपुरा के बस अड्डे पर खड़ा हूं। आज बस, टैक्सी, रिक्शे, टमटम वालों की चांदी है। महिंद्रा कंपनी की 12 सीट वाली जीप पर उसका चालक तीस-तीस आदमी को बिठा रहा है। ये बहनों के यहां जा रहे भाईयों की भीड़ है। हर भाई के हाथ में मोटरी (गठरी) है। मोटरी में चिउड़ा है, मूड़ही है, पिरकिया है और साड़ी भी है। लेकिन जीप वाले, बस वाले, टमटम वाले इन मोटरियों से परेशान है।
मैं मधेपुरा से भीमनगर के लिए चली जीप पर सवार हुआ हूं। मुझे बीरपुर जाना है। कोशी की काली बाढ़ के बाद भी मेरी छोटी बहिन ने इस शहर को नहीं छोड़ा। इस जीप में 20-22 अन्य भाई भी सवार हैं। किसी को नेपाल जाना है, तो किसी को
कुनौली... लेकिन बीरपुर जाने वाले भाइयों की संख्या काफी कम है। अगर कोशी-कांड न हुआ होता, तो इस जीप पर सबसे ज्यादा बीरपुर जाने वाले भाई ही होते।
इन भाइयों और बस कंडक्टर के बीच लगातार बकझक हो रहा है। भाड़े को लेकर, बैठने के लिए सीट को लेकर, ड्राइवर द्वारा जीप को बारबार रोकने को लेकर ... 45-50 किलोमीटर का यह सफर, इसके अंदर की बतकही, रगड़- झगड़ और गप्पशप मुझे काफी मजेदार और मार्मिक लगा। इसलिए आपके साथ बांट रहा हूं।
जीप वाला एक भाई से- इसका भी भाड़ा लगेगा !!!
किसका ?
इस मोटरी का...
काहे ?
गाड़ी में जगह नहीं है, मोटरिये से भर गिया है, मोटरी उघेंगे, तो सवारी को कहां बैठायेंगे ?
अपना कपार (सिर) पर बैठा लो... मोटरी के भाड़ा लेगा सरबा, इहह !!!
देखिये गैर (गाली) मत पढ़िये, सो कह देते हैं...
सहयाित्रयों का हस्तक्षेप...
अरे छोड़ो भी भाई। भरिद्धतिया (भ्रातिद्वितिया) के भार (पकवान) है। तुमको बहिन नहीं है क्या ???
कंडक्टर चुप हो जाता है। एक पल के लिए वह खो जाता है कहीं, किसी शून्य में।
मुझे लगता है शायद उसे अपने बहन की याद आ गयी । वह किसी समझदार बालक की तरह चुप हो गया।
एई बढ़ाके, बढ़ाके...
सिमराही, करजाइन, भीमनगर, रानीगंज...
सरबा आब कहां बैठायेगा रे ?? सीधे चलो, मादर... रोडो खतमे है ! अई भाई साहेब , थोड़ा खिसक के बैठिये न। कहां खिसके? सुईया घसकने जगह नहीं है आउर आप कहते हैं, घसकिये ...
एई ड्राइवर ? जल्दी-जल्दी हांको ने रे ? हमको साला, राजबिराज (नेपाल) जाना है, बहिन रास्ता देख रही होगी...
चलिये तो रहे हैं, का करें चक्का के जगह अपना मुंडी लगा दें गाड़ी में ...
आप कहां जाइयेगा भाई साहेब ?
हम बीरपुर...
बीरपुर कें कहानी तें मते पूछिये। खतम हो गिया पूरा शहर। एक ठो सेठ हमको एक दिन सहरसा में भेटाया था, बोल रहा था। दादा 2200 टका (रुपया) लेकर राजस्थान से बीरपुर आये थेआैर 2100 रुपये का सरकारी राहत लेकर अपन देस जा रहे हैं। पचास वर्षों तक बिजनेस किया। कमाकर जमीन-जगह, घर-द्वार सब बनाया। लेकिन एके राति (रात) में माय कोशिकी सब बहाकर ले गयी। बहुत खराब दृश्य है। हमर दादा अगर आज जिंदा रहते तो उनसे हम कहते- तू कि देखलह कोशी नांच, लांच ते देखलिय हम सब (आप क्या देखे थे कोशी का तांडव रूप, तांडव कोशी को तो हमलोगों ने इस बार देखा)। दोहाई माय कोशिकी ?
...मुर्लीगंज तें भाई साहेब साफे बर्बाद हो गया ?
आउर छातापुर (एक तीसरे यात्री का हस्तक्षेप) ?
हं, हं छातापुरों तें उजड़ गिया ?
गाड़ी तेज चलाओ रे मादर... कंडक्टर !!
कहते हैं गाली नहीं दीजिए। अरे सरबा तूं हमर बेटा के उमर के है, तोरा मादर.. . बोलेंगे तो तूं गाली मानेगा !!!
हा-हा-हा ... पूरी जीप ठहाका से गूंज जाती है।
सरबा तहूं कोशी जइसे गरमा रहा है रे। कंडक्टर फिर झेंप गया।
फिर कोशी की गाथाएं शुरू हो जाती हैं। बीच-बीच में लोग घड़ी की ओर देखकर चालक-कंडक्टर को गलियां देते हैं। तीन बजे जीप भीमनगर पहुंच जाती है। जो लोग बाढ़ के बाद पहली बार यहां पहुंचे हैं - वह आश्चर्यचकित होकर इस शहर को निहारने लगते हैं। उन्हें भीमनगर को पहचानने में दिक्कत्‌ हो रही है, क्योंकि कोशी ने इस शहर का चेहरा बिगाड़कर रख दिया है। लेकिन मैं उस शहर की ओर जा रहा हूं , जहां कोशी कांड के दरिंदों का मुख्यालय भी और जो शहर इस बाढ़ में पूरी तरह नेस्तनाबूद हो गया है। शहर बीरपुर ! मेरी बहन इसी शहर में है!! और आज मैं भी बीरपुर में हूं क्योंकि
आइ भ्रातिद्वितिया के दिन हे...

मंगलवार, 28 अक्टूबर 2008

दीपावली की शाम में बेघरों को देखा है ...

समय : शाम ४-३० ; तारीख - २८-१०-०८ ; स्थान - सुपौल जिले का बेल्ही बाढ़ राहत शिविर ।
ना पटाखे की आवाज़ , ना दीया ना बाती ; खामोश गुजर गयी इनकी दीपावली ।।



सोमवार, 27 अक्टूबर 2008

मन के मुंडेर पर जलता हुआ ऊका

दहाये हुए देस का दर्द -16
आज ऊका-ऊकी (कोशी-अंचल में दीपावली पर्व को इसी नाम से जाना जाता है) की पूर्व संध्या है। मेरे गांव के बच्चे ऊके (दीपावली की संध्या में जलाये जाना वाला मशाल), ऊकी (घरों के मुंडेरों पर रखा जाने वाला मशाल-प्रतीक) बना रहे हैं। कल शाम ये बच्चे, बड़ों के साथ मिलकर इन ऊकों को जलायेंगे । जगह-जगह ऊका-टोलियां बनेंगी। चीख-चीखकर नारे लगाये जायेंगे। राक्षसी आत्मा को जलते हुए ऊके दिखाकर गांव की सीमाओं से दूर भगाया जायेगा। हो-हो-हो, आ ! हा-हा-हा ! येहोहोहोहो...
मेरा गांव भाग्यशाली है। वह ऊका जला सकता है। मेरे गांव के बच्चे बड़े-से-बड़े ऊके बनाने की होड़ में शामिल हो सकते हैं और रात को मिठाई, पकवान खाकर सो सकते हैं। क्योंकि मेरे गांव को कोशी ने 18 अगस्त को बक्श दीथी। मेरे गांव के एकदम करीब आकर आगे बढ़ गयी थी कोशी, किसी जमींदार के खूंखार कारिन्दों की तरह।
लेकिन मेरे गांव के पूरब, उत्तर और दक्षिण में बसे गांववालों का ऐसा नसीब नहीं था। उनके बच्चे शिविरों, झुग्गियों व झोपड़ियों में हैं। उन्हें ऊके बनाने का कोई हक नहीं। बचपन के दोस्त नेवीलाल से बहुत आग्रह किया, तो वह नाक- भंवें सिकुड़ने के बाद मेरे साथ पूरबिया गांव की ओर जाने के लिए तैयार हो गया। सुबह में कुछ और दोस्तों से चलने का आग्रह किया था। लेकिन सबों ने शिविरों की ओर जाने से इनकार कर दिया। उनका कहना था- द्वि कोस दूरे से गन्हकता (बदबू देता) है , तरह-तरह की बीमारी फैली हुई है। ... का करने जाओगो उन कैंफों में ? साफे खतम हो गये हो का ?? कुछ मदद-राहत की बात है तो बताओ, खबर भेज देंगे, एक को बुलायेंगे तो सैकड़ों चले आयेंगे। मन किया की कोई देसी-भदेस गाली सुनाऊं इन्हें, लेकिन सुना नहीं सका। इंसान कितना जल्द अपने को दूसरे से अलग कर लेता है ? किनारे लगते ही तूफान से कितना अनजान बन जाता है इंसान ?? ... तो क्यों न बजाये नीरो बंसी और कैसे न जले रोम ???
मन नहीं माना। दोस्त लोग ठीक ही कहते थे। शिविरों के दो किलोमीटर दूर से ही वातावरण बदला हुआ प्रतीत होने लगा। झोपड़ीनुमा झुग्गियों में रह रहे लोगों के दर्द जैसे आसपास के वातावरण के पृष्ठों से चिपक गया है। हवा में बदबू है, झुग्गियों के आसपास गंदगी का अंबार लग हुआ है। नेवीलाल ने अपने नाक को अंगोछा के मौटे तहों में छिपा लिया। जब हम राहत-झुग्गियों के काफी करीब पहुंच गये तो उसने अंगोछे से अपने मुख का आधा हिस्सा निकालकर मुझे सलाह दिया- कअम से ख्मं रूहमालों रंख लों (कम से कम नाक पर रूमाल भी तो रख लो) ...
क्यों ?
... सरबा, हमर तें नाक फट जायेगा रे बाप, कौन जमराज के फेर में पड़ गिया रे बाप ??? सद्यः नर्क !!!
चुप्प! तुम चुपेगा की नहीं ??
हम जा रहा है। ऊ नहर पर रहेेंगे, वहीं आ जाना...
हमारी बहस को एक वृद्ध ने सुन लिया। उसने हमें उलाहनों से लाद दिया।
इसमें हमारा क्या दोष ? हम लोग क्या करें ? आदमी जबतक जिंदा रहेगा, मल-मूत्र तो त्यागेगा ही। दस डेग (डग) में दस हजार आदमी रह रहे हैं। बच्चे हैं, वृद्ध हैं, बीमार हैं, अपढ़ हैं, इसलिए... वैसे हम भी कभी टोले में घर बनाकर रहते थे। लेकिन आपलोग भी तो नहीं चाहते कि आपके बसोवास को लोग गंदा करें ? कय के बाद अगर पानी नहीं मिलेगा तो बूझ जाइयेगा कि गन्ह (दुगंध) किसको कहते हैं !!!
बूढ़ा जब बोलकर थक गया, तो मैंने कहा- एक जून खैनी (तंबाकू) खिलाइयेगा ...
वृद्ध के चेहरे पर एक आलौकिक भाव तैर गया, मानो जैसे समाज से बहिष्कृत किसी व्यक्ति को फिर से समाज में शामिल कर लिया गया हो। खैनी बनाने के बहाने बात बढ़ने लगी।
कि हैते ? भगवाने के भरोस बूझू, सब ताम-झाम खतम। पैन से छैंक के ल आनलैके आर मरै ले छोयड़ देलकय ये इ द्विहथी झोखैड़ में! मैंग-चैंग के लोग जिंदा छै। जाड़ आयब गेले ये आउर ओढ़य ले न वस्त्र छय नय तापय ले गोयठा-गूरदूस। गाम जाय के हिम्मत त जुटा लेबै, लेकिन ओय ठाम त सद्यः प्रेत के वास भै गेले ये...
( क्या होगा ? सबकुछ भगवान के भरोसे ही समझिये। पानी से हमलोगों को निकालकर बाहर तो ले आया गया, लेकिन इस दो हाथ की झोपड़ी में मरने के लिए छोड़ दिया गया। मांग-चांगकर लोग जिंदा हैं। ठंड आ गयी है लेकिन न तो तन ढकने के लिए वस्त्र है और ना ही अलाव जलाने की कोई सामग्री। गांव जाने की हिम्मत तो है, लेकिन वहां सबकुछ खत्म हो चुका है और लगता है जैसे प्रेतों ने गांव में डेरा डाल लिया हो... )
झुग्गियों में रह रहे लोगों से दो-तीन घंटों की बातचीत के बाद मैं समझ गया कि इनसे पर्व-त्योहार की बात करना जले पर नमक छिड़कने जैसा होगा। दरअसल, ये लोग पर्व-त्योहार जैसी चीजों को जैसे भूल चूके हैं। जब वृद्धों को नहीं मालूम कि कल दीपावली है, तो बच्चे कहां से जान पायेंगे की आज ऊका-ऊकी बनाने का दिन है। जैसे ईद, दशहरा, कोजगरा आये और आकर चले गये उसी तरह ऊका-ऊकी भी चले जायेंगे।
मन के अंदर से कोई कहता है- अगर वक्त ने कहर नहीं ढाया होता तो ये बच्चे भी अपने घरों के मुंडेरों पर ऊकी सजा रहे होते... कल जब आसपास के टोलों में पटाखे गुंजेंगे तो ये सवाल हजारों बच्चों के जेहन में उठेंगे कि कहीं आज ऊका-उकी तो नहीं !!!

शनिवार, 25 अक्टूबर 2008

बारात- विदाई के बाद की रात

दहाये हुए देश का दर्द -15
मैथिली की एक लोक कथा है । इसकी समािप्त एक पंिक्त के उपसंहार से होती है। पंिक्त है- ना वो नगर ना वो ठांव (नय ओ नगरी नय ओ ठाम)। इस कथा में बारात विदाई के बाद तन्हा खड़े शामियाने आैर जनवासे का बड़ा मार्मिक वर्णन किया गया है। जिस तरह शादी की रश्म पूरी होते ही बाराती अप्रासंगिक-उपेक्षित हो जाते हैं ठीक उसी तरह बारातियों की विदाई के साथ ही शामियाने तन्हा हो जाते हैं । बनायी आैर सजायी गयी गली व कूचे फिर से अपनी जीर्ण आैकात में लाैट आती हैं। पटाकों की आवाज, रोशनी की चकाचाैंध आैर संगीत की स्वर-लहरी से आतंकित हो भागे कुत्त्ो फिर से गलियों में अावारागर्द हो जाते हैं। कोशी बाढ़ की त्रासदी के संदर्भ में मुझे यह लोक कथा मेरे मानस पटल पर बार-बार प्रतिध्वनित हो रही है।
ज्यादा दिन नहीं बीते जब देश भर के मीडिया के लिए कोशी-अंचल पसंदीदा मीडिया-महफिल बना था। लगता था जैसे पूरे देश के कैमरे, कलम आैर माइक कोशी-अंचल पहुंच गये हों। जहां-जहां भेजे जा सकते थे, वहां-वहां खबरों के सीधा प्रसारण के लिए ओवी वैन भेजे गये। यहां तक की कुछ रिपोर्टरों ने चलती नावों से साउंड बाइट भेजे आैर कुछ पानी की तेज धारा से प्रतियोगिता करते दिखे। मीडिया ने पहले हम- पहले हम, एक्सक्लूसिव, इंटरव्यू, राहत, शिविर आैर प्रलय जैसे शब्दों आैर चित्रों की बाढ़ ला दी। जबतक त्रासदी ताजा रही तबतक मीडिया की महफिल सजी रही आैर उसके बासी होते ही सबों ने कोशी अंचल को गुड बाय कर दिया- नय ओ नगरी नय ओ ठाम ! मानो कह रहे हों- हम पंछी उन्मुक्त गगन के, पिंजर बंध न पायेंगे .. . बीमारी तुम्हारी, तो इलाज भी तुम्हारा ही ठीक रहेगा, वक्त का मलहम लगाओ या चीखकर-चिल्लाकर दम तोड़ लो, तुम्हारी मर्जी। जवाने में आैर भी गम है इस बाढ़ के सिवा। वगैरह-वगैरह .. .
लेकिन मेरे जैसे कलमघिस्सु जाएं भी तो कहां जायें। जहां भी जायेंगे, इन्हें ही पायेंगे। यहां कोशी के मारे मिलेंगे, मुंबई चला जाऊंगा तो राज से पिटे मिलेंगे। उड़ीसा के जंगलों में जाऊंगा तो धमांर्धों से घायल मिल जायेंगे। इसलिए सोचा उन शिविरों-झुग्गियों मेंही जाऊं। किताबों में बहुत पढ़ा है, कुछ फिल्मों में देखा भी है। कि जिंदगी आैर माैत के बीच टंगा आदमी ऐसा हो जाता है, तो वैसा हो जाता है। ऐसा दिखता, कि वैसा दिखता है। बचपन व किशोरावस्था में मगहिया डोमों (एक खानाबदोस जनजाति)की झोपड़ियों में खूब ताका-झांकी करता था। उन झोपड़ियों की सहउम्र लड़कियां मुझे अपने विद्यालय की सहपाठिन जैसी ही दिखती थीं। उनकी उठती हुई छाती, सहपाठिनों से ज्यादा मोहक लगती थी। चार साल पहले सुपाैल के सरायगढ़ रेलवे स्टेशन के प्लैटफार्म पर एक खानाबदोश लड़की इतना आकर्षित हुआ कि रेलगाड़ी छोड़ उतर गया। एक यादगार दीदार के लिए ! उसकी झुग्गियों के कई चक्कर लगाया तो समझा कि वहां भी बच्चों की किलकारियां हैं, मियां-बीवियों के झगड़े हैं आैर हर जवान लड़की किसी न किसी जवान लड़के की तिरछी निगाहों की जद में हैं।
क्या कोशी बाढ़ के बाद झुग्गियों आैर झोपड़ियों में रह रहे लोगों के जीवन भी ऐसे ही होंगे ? सुपाैल के भारत सेवक समाज कॉलेज के परिसर में करीब 300 सरकारी झोपड़ियां हैं। लेकिन यहां जीवन नहीं है। बच्चे रोते हैं, लेकिन उनकी किलकारियां सुनाई नहीं देतीं। इन झोपड़ियों में रह-रहे मियां-बीबियों के बीच झगड़े आैर बतकही नहीं होते। महिलाओं के बीच उलाहने भरे संवाद-युद्ध नहीं होते। जवान लड़कियां किसी जवान लड़के की तिरछी निगाह से घायल होकर मचलती नहीं, बिल्क ठेकेदारों की घूरती आंखों से डरकर झोपड़ियों की ओर भाग जाती हैं। शिविरों के जवान लड़के इन ठेकेदारों को हिकारत की नजर से देखते हैं। प्रतिशोध आैर गुस्सा को पसलियों में दबाये युवक खून के प्यासे लेकिन लाचार प्राणी लगते हैं। ये पुलिस आैर ठेकेदारों की सूरत तक देखना नहीं चाहते।
लेकिन दोपहर होते-होते इनका गुस्सा शांत हो जाता है। ये सारी नफरतों आैर गुस्सों को भूला देते हैं। पापी पेट के लिए... भूख सारी कोमल व कठोर भावनाओं पर जैसे विजय पा लेती है आैर इन्हें सबकुछ भूल जाने के लिए बाध्य कर देती है। वैसे तो ठेकेदारों आैर पुलिस वालों को ये अकेले में गलियाते आैर श्रापते थकते नहीं हैं। लेकिन उनके हाथों में चावल-रोटी से भरे बत्त्र्ानों को देखते ही बाढ़ पीड़ित जैसे सबकुछ भूल जाते हैं। इसे जीवन नहीं कहा जा सकता। यह जीवन आैर माैत के बीच की एक अप्राकृतिक अवस्था है। आैर इस अवस्था में लटका हुआ आदमी न तो झगड़ता है आैर न ही हंसता है। ऐसा आदमी रोता भी नहीं है। इन्हें किसी बात से खुशी नहीं होती। इस बात से भी नहीं कि उनके गांवों में अब पानी नहीं है। क्योंकि इन्हें पता चल चुका है कि पानी अपने साथ सबकुछ बहाकर ले जा
चुका है।

बुधवार, 22 अक्टूबर 2008

देश के दुश्मन

महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे पर देश द्रोह का मुकदमा चलना चाहिए। यह उत्तर भारत बनाम पश्चिम भारत का मुद्दा नहीं है, बल्कि सीधे-सीधे देश के संघीय ढांचे पर हमला है। बिहार, झारखंड , उत्तर प्रदेश के छात्र-छात्राओं को गाय-भैंस की तरह दौड़ा-दौड़ा कर पीटने वाले राज ठाकरे व उनके भाड़े के गुंडों के खिलाफ पूरे देश को एक साथ आना चाहिए। राजनीतिबाज नेतागण ! देश बचेगा तो राजनीति होती रहेगी। अगर देश ही नहीं रहेगा तो आप कौन-सी राजनीति करोगो ? जरा सोचो.. .
मैं राज ठाकरे की भर्त्सना करता हूं। मेरी नजर में वह देश का दुश्मन है।

मंगलवार, 21 अक्टूबर 2008

नाकाबिले बर्दाश्त गुनाह

दहाये हुए देस का दर्द-14
नाफ़रमानी की हद तोड़कर
अदलहुक्मी के अंजाम से बेपरवाह होकर
तुमने यह क्या कर दी कोशी ?
क्या तुम्हें मालूम नहीं ??
कि गोल्फ कोर्स में बेधड़क घूसने
वीआइपी रेसीडेंस के नेमप्लेट को पढ़े बगैर अंदर दाखिल होने
वीआइपी प्रोटोकॉल को तोड़ने
कि सजा क्या हो सकती है ???
क्या तुम्हें पुलिस से डर नहीं लगता ?
क्या लाल बत्तियां देख तुम्हें नानी याद नहीं आती ??
क्या अंग्रेजी और देसी गालियों के कॉकटेल, तुम्हारी चमड़ी को नहीं बेधते ???
तुमने ठीक नहीं की कोशी !
गोल्फ कोर्स, लाल बत्ती और प्रोटोकॉल के बगैर जीने का दर्द
हजार-हजार गुना ज्यादा है
अन्न, पानी और छत छूटने के दर्द से
झुग्गियों-झोपड़ियों के भुक्कड़ों से बात करना
ज्यादा गमकारी है
शिविरों में दिन गुजारने के गम से
तुम सभ्य नहीं हुई , कोशी !
तुमने आम और खास के अंतर को नहीं समझा
हाकिमो-हुक्मरानो को यूं नाराज करना
एक नाकाबिले बर्दाश्त गुनाह है
विश्वास न हो, तो बाजुओं में झांक लो
चारों ओर जो सुनाई दे रहा, वह शोर नहीं
इंसानी कराह है

शनिवार, 18 अक्टूबर 2008

चरण गहो श्रीमानों का!

नागार्जुन
( बाबा नागार्जुन की यह कविता कोशी त्रासदी की सच्ची तस्वीर पेश करती है । यह कविता बाबा के कविता संग्रह हज़ार -हज़ार बाँहों वाली से ली गयी है )
मलाबार के खेतिहरों को अन्न चाहिए खाने को,
डंडपाणि को लठ्ठ चाहिए बिगड़ी बात बनाने को!
जंगल में जाकर देखा, नहीं एक भी बांस दिखा!
सभी कट गए सुना, देश को पुलिस रही सबक सिखा!
जन-गण-मन अधिनायक जय हो, प्रजा विचित्र तुम्हारी
हैभूख-भूख चिल्लाने वाली अशुभ अमंगलकारी है!
बंद सेल, बेगूसराय में नौजवान दो भले मरेजगाह नहीं है जेलों में
यमराज तुम्हारी मदद करे।
ख्याल करो मत जनसाधारण की रोज़ी का, रोटी का,
फाड़-फाड़ कर गला, न कब से मना कर रहा अमरीका!
बापू की प्रतिमा के आगे शंख और घड़ियाल बजे!
भुखमरों के कंकालों पर रंग-बिरंगी साज़ सजे!
ज़मींदार है, साहुकार है, बनिया है, व्योपारी है
अंदर-अंदर विकट कसाई, बाहर खद्दरधारी है!
सब घुस आए भरा पड़ा है, भारतमाता का मन्दिर
एक बार जो फिसले अगुआ, फिसल रहे हैं फिर-फिर-फिर!
छुट्टा घूमें डाकू गुंडे, छुट्टा घूमें हत्यारे,
देखो, हंटर भांज रहे हैं जस के तस ज़ालिम सारे!
जो कोई इनके खिलाफ़ अंगुली उठाएगा बोलेगा
काल कोठरी में ही जाकर फिर वह सत्तू घोलेगा!
माताओं पर, बहिनों पर, घोड़े दौड़ाए जाते हैं!
बच्चे, बूढ़े-बाप तक न छूटते, सताए जाते हैं!
मार-पीट है, लूट-पाट है, तहस-नहस बरबादी है
ज़ोर-जुलम है, जेल-सेल है। वाह खूब आज़ादी है!
रोज़ी-रोटी, हक की बातें जो भी मुंह पर लाएगा
कोई भी हो, निश्चय ही वह कम्युनिस्ट कहलाएगा!
नेहरू चाहे जिन्ना, उसको माफ़ करेंगे कभी नहीं
जेलों में ही जगह मिलेगी, जाएगा वह जहां कहीं!
सपने में भी सच न बोलना, वर्ना पकड़े जाओगे
भैया, लखनऊ-दिल्ली पहुंचो, मेवा-मिसरी पाओगे
माल मिलेगा रेत सको यदि गला मजूर-किसानों का
हम मर-भुक्खों से क्या होगा, चरण गहो श्रीमानों का!

गुरुवार, 16 अक्टूबर 2008

गिद्धों और चीलों की लड़ाई

कोशी बाराज १९८८ में ही अपना कार्यकाल पूरा कर चुका है लेकिन अभी भी इससे काम लिया जा रहा है
दहाये हुए देस का दर्द-13
रंजीत ।


कोशी तटबंध हादसा की जांच के लिए बिहार सरकार ने उच्च न्यायालय के सेवानिवृत न्यायाधीश की अध्यक्षता में जांच आयोग गठित कर दी है। यह आयोग अपने हिसाब से हादसा की जांच करेगा और सरकार को अपनी रिपोर्ट देगा । फिर क्या होगा ? कुछ राजनीतिक दल रिपोर्ट की निष्पक्षता पर उंगली उठायेंगे और कुछ इसके समर्थन में ताल ठोकने लगेंगे। सप्ताह, दो सप्ताह तक जमकर बयानबाजी होगी, फिर सबकुछ फ्रिज हो जायेगा। दोषी अधिकारी, नेता और ठेकेदारों की मूंछें पूर्व की तरह हवा में लहराती रहेंगी। इस तरह कुछ साल गुजर जायेंगे और फिर आने वाले वर्षों में कोशी की कुसहा-2, कुसहा-3, कुसहा-4 की अनगिनत प्रलय-गाथाएं मंचित होंती रहेंगी और जिंदगियां उजड़ती रहेंगी।
यह किसी मनहूस ज्योतिष का भविष्यगणना नहीं है। यह तथ्य है, जिसे सरकार जानबूझकर झूठलाना चाहती है। क्योंकि इस तथ्य में कुसहा-1 की सच्चाई छिपी हुई है। अगर इस सच्चाई पर से पर्दा उठ गया तो भ्रष्टाचार पर लगे हुकूमती चिलमनों में बड़े-बड़े छेद हो जायेंगे और सैकड़ों अभियंताओं, दर्जनों आइएएस, आइपीएस, दर्जनों ठेकेदारों और अनगिनत विधायक-मंत्रियों के कुरूप और आदमखोर चेहरे नमूदार हो जायेंगे।
वास्तव में कुसहा हादसा ने भ्रष्ट भारतीय तंत्र की पोल खोल दी है। कुसहा (नेपाल) में कोशी तटबंध के टूटने में भ्रष्टाचारियों के आपसी कलह बहुत बड़ा कारण रहा है। कोशी बराज इलाके के लोगों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और मजदूरों से बात करने के बात यह पहलू मेरे सामने आया है।
दरअसल, भारतीय अधिकारियों ने कोशी के नाम पर पिछले चार दशकों में अरबों रुपये का घोटाला किया है। हर वर्ष तटबंध की मरम्मत, रखरखाव और नदी की सफाई के नाम पर करोड़ों रुपये की लूट होती है। मरम्मत और रखरखाव की राशि का एक बड़ा हिस्सा नेपाल की सीमाओं के अंदर की परियोजनाओं के नाम पर लूटी जाती रही है। दस वर्ष पहले तक नेपाल के लोगों को इस बात से कोई लेना-देना नहीं था कि कहां क्या हो रहा है, क्योंकि वहां सामाजिक जागरुकता नगण्य थी। लेकिन नेपाल में माओवाद के उदय के बाद स्थिति बदलने लगी। बिल्ली (कोशी माफियाओं) के दुर्भाग्य से राजतंत्री सीका टूट गया। नये नेपाली बल-समूहों को पता चल चुका था कि उनकी सीमा के अंदर की कोशी-परियोजनाओं के नाम पर भारतीय अधिकारी-नेता-ठेकेदार करोड़ों रुपये लूट रहे हैं, लेकिन उन्हें कुछ नहीं दिया जा रहा है। यानी जिसके घर में भोज उसी की थाली में भात नहीं ! तटबंधों की मरम्मत के नाम पर नेपाल के पहाड़ों और जंगलों से लाये गये बोल्डर, बालू और लकड़ियों को भारतीय माफिया काले-बाजार में बेचकर मालामाल हो रहे हैं, लेकिन उन्हें कुछ भी हासिल नहीं होता। यह सवाल उन्होंने आमलोगों के जेहन में उतार दिया। कुसहा के निकट के हरिपुर गांव के एक ग्रामीण ने मुझे चेतावनीपूर्ण सलाह दी - सभी इंजीनियर-ओवरसियर भारत के रहेंगे तो यही होगा, अगर हमारे गांवों के लोगों को भी कोशी प्रोजेक्ट का इंजीनियर-हाकिम बनाया गया होता, तो किसकी मजाल थी कि काम रोक देता !! शायद यही वजह थी कि माओवादी नेताओं ने पिछले वर्षों में अपने कार्यकर्ताओं की मदद से दबाव बनाना शुरू किया कि इस लूट में उन्हें बराबर का साझीदार बनाया जाय, अन्यथा वे उन्हें सीमा के अंदर दाखिल नहीं होने देंगे। दूसरे शब्दों में कहें तो गिद्धों की जमात पर चीलों ने धावा बोल दिया। गिद्ध इसके लिए तैयार नहीं थे। शुरू-शुरू में उन्होंने इन चीलों को कोई भाव नहीं दिया। लेकिन ये भूल गये कि निरंकुश राजतंत्र खटिये पर अंतिम सांसे गिन रहा है और अब उनके झबैत (डकैतों का संरक्षक) बदल चुके हैं। नेपाल की नई राजनीतिक व्यवस्था ने भारतीय गिद्धों की कोई मदद नहीं की। धीरे-धीरे नौबत यहां तक आ पहुंची कि इन्हें तटबंध क्षेत्र में गस्त करने से भी भय होने लगा क्योंकि नेपाली प्रशासन ने इनका सहयोग करना बंद कर दिया।
नेपाल के कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने बताया कि कोशी परियोजना के माफिया कोशी के नाम पर वर्षों से नेपाल के पहाड़ी और जंगली संसाधनों मसलन बोल्डर, बालू और लकड़ी का तस्करी कर रहे हैं। यहां तक कि तटबंधों के पुराने बोल्डरों तक को इन माफियाओं ने व्यावसायियों को बेच दिया। नये नेपाली बल-समूह को इनमें भी हिस्सेदारी चाहिए। इसलिए यह तय है कि आने वाले दिनों में मरी (मृत पशुओं की लाश) की मारामारी और बढ़ेगी। ऐसे में तटबंधों का क्या होगा ? इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। और दरबाजे पर दस्तक देते भविष्य के बारे में बात करने वाले को आप मनहूस ज्योतिष तो नहीं कहेंगे न ???

बुधवार, 15 अक्टूबर 2008

बाढ़ के सैयाद

दहाये हुए देस का दर्द -12
रंजीत
कुसुमलाल कुम्हार की पदोन्नति हो गयीहै। कल तक वह एक राजनीतिक पार्टी का झंडा ढोते थे आज बाढ़-राहत के ठेकेदार हैं। उनके दरवाजे पर सुबह से शाम तक लोगों की भीड़ लगी रहती है। पान चबाते, तम्बाकू मलते और चाय की चुसकियां लेते ये लोग; कुसुमलाल के अवैतनिक सहयोगी हैं। पूरा दिन कोशी की त्रासदी सुनते-सुनाते (मनोरंजन के लिए) रहते हैं और शाम को राहत सामग्रियों का प्रसाद बांधकर अपने घरों को लौट जाते हैं। सरकारी रिकार्ड में इनका नाम बाढ़ पीड़ितों की सूची में दर्ज हो चुका है। इसलिए सभी प्रकार की राहत-सामग्रियों पर इनका हक है।
हैरत, क्षोभ और घृणा होती है कुसुमलाल जैसे लोगों से। घृणा के साथ पूछता हूं- शर्म नहीं आती, ऐसी हरामखोरी करने में ? जवाब मिलता है- किसी की निजी संपत्ति नहीं लूट रहा, सरकारी है इसलिए... फिर हम अकेले थोड़े कर रहे हैं ये सब। सभी पार्टी के नेता कर रहे हैं। बीडीओ, एसडीओ, ग्रामसेवकों, विधायकों से जो झूठन बचता है हम उसी में से थोड़ा-बहुत अपने समर्थकों को दे दे रहे हैं, तो कौन-सा जुर्म हो गया ?
भ्रष्ट और चरित्रहीन तंत्र का बास्तव में कुसुमलाल बहुत छोटा हिस्सा है। जो लूट जिला अधिकारियों, विधायकों और अधिकारियों के कोकश ने मचा रखी है, उसकी तुलना में कुसुमलाल तो चिंदी चोर ही कहलायेगा। दरअसल कुसुमलालों की हाइआर्की तैयार हो गयी है। बड़ा कुसुमलाल, छोटा कुसुमलाल और मझौला कुसुमलाल। बड़े कुसुमलाल ने बड़े शहरों में फ्लैट व जमीन खरीदनी शुरू कर दी है, मझौले अगल-बगल के शहरों में निवेश कर रहे हैं और छोटे समान भरने के लिए नये घर बनवा रहे हैं।
कोशी नदी परियोजना के एक अवकाश प्राप्त अभियंता के पास पहुंचता हूं। वे जो कहानी सुनाते हैं, वह विस्मयकारी है। इस अभियंता ने 30 साल की नौकरी में आठ बार निलंबित होने का रिकार्ड बनायाहै और आजकल अकेले भपटियाही गांव के अपने पुराने पैतृक मकान में रहते हैं। कहते हैं- मैंने ईमानदारी नहीं छोड़ी, उन्होंने (कोशी माफियाओं ने) मेरी जान छोड़ दी, लेकिन जीना हराम करार दिया। वे दावा करते हैं- पिछले 45 साल में कोशी नदी परियोजना के नाम पर माफियाओं ने अरबों रुपये लूटे होंगे। अगर जांच हो, तो यह बिहार का कुख्यात चारा घोटाला से भी बड़ा घोटाला साबित होगा। यहां तक की मरम्मत और रखरखाव की विस्तृत परियोजना रिपोर्ट तक फर्जी बनायी गयी, लेकिन कभी किसी सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की।
.. . तो आज अगर पीड़ितों के नाम पर आने वाली राहत-सामग्री और राशि लूटी जा रही है, तो किसी को कोई हैरत नहीं होता ? न सरकार को, न समाज को। शिविरों-झुग्गी-झोप़ड़ियों में पड़े लोगों से मिलता हूं , तो रुहें कांप जाती हैं। हर जुबान पर एक ही सवाल- कहां जायेंगे ? गांव तो नदी की धारा में विलीन हो गये ?
शिविरों और झुग्गियों में हर दिन मौतें हो रहीं हैं, लेकिन बाढ़ पीड़ित वहां से हटने का नाम नहीं ले रहे। नेता, अधिकारी, ठेकेदार और बिचौलिए के उदर से होकर पहुंचने वाली राहत-सामग्री प्रभावितों के पास आते-आते इतनी कम पड़ जाती है कि वहां हंगामा खड़ा हो जाता है। एक बाल्टी खिचड़ी में एक सौ लोगों को भोजन कराने वाले सरकारी अधिकारी प्रेस में बयान देते हैं और अगले दिन अखबार में खबर छप जाती है- बाढ़ पीड़ितों के हंगामा के कारण राहत प्रभावित !!! किसी भी अखबार ने आजतक कुसुमलाल जैसे सैयादों की खबर नहीं छापी। सुपौल जिला के प्रतापगंज प्रखंड के बीडीओ को पूछा- आखिर वह किस आधार पर पानी से अप्रभावित गांवों में राहत-सामग्री भेज रहे हैं वे लोग ? तो उन्होंने कहा कि लोग प्रशासन को बहला-फुसलाकर मुख्यालय से सामग्री उठा लाते हैं, हम क्या करें ?
आप ऐसे लोगों के घर पर छापा क्यों नहीं मारते ?
छोड़िये भी, ये साधारण लोग नहीं हैं।
सच में, ये असाधारण प्राणी हैं। घर-वार, जमीन-जायदाद, परिवार-बच्चे गंवा चुके लोगों का निवाला कोई साधारण मनुष्य नहीं चुरा सकता। यह काम कोई असाधारण प्राणी ही कर सकता है।

मंगलवार, 7 अक्टूबर 2008

मददगारों, मदद का हिसाब भी मांगो

दहाये हुए देस का दर्द-11
रंजीत
एक ओर कोशी अंचल के विपदाग्रस्त लोगों की बेचारगी बदस्तूर जारी है। दूसरी ओर देश-विदेश से हर दिन मदद-इमदाद, राहत सामग्री-राशि प्रचुर मात्रा में आ रही हैं। लेकिन रोना यह है कि जो मदद के मोहताज हैं उन्हें मदद नहीं मिल रही है। जो लोग दोनों चीजों को; यथा पीड़ितों आैर मददगारों दोनों को देख रहे हैं उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा है। जिस टेलीविजन चैनल को खोलिए वहीं पीड़ितों के लिए चंदे इक्कठे करने के विज्ञापन आ रहे हैं। हर अखबार में दान-राशि जमा की जा रही है उन्हें पीड़ितों के लिए भेजा जा रहा है। छोटे-बड़े सैकड़ों गैरसरकारी संस्थानों ने राहत सामग्री आैर राशि एकत्रित की हैं आैर उसे बिहार भेजी भी गयी हंै। देश के लगभग सभी राज्य सरकारों ने भी बिहार सरकार को सहायता राशि दी है। इसके अलावा अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने भी काफी धनराशि मुहैया करायी है। बिहार सरकार आैर केंद्र सरकार ने जो राहत-राशि की घोषणा की उनसे सभी परिचित हैं ही। लेकिन स्थानीय लोगाें के प्रत्यक्ष मदद के अलावा अन्य लोगों की मददों की उपस्थिति प्रभावित इलाकों में नहीं दिख रही। इससे सरकारी मशीनरी की नीयत पर संदेह उत्पन्न होना लाजिमी है।
चारित्रिक अधोपतन के इस दमघोंटू दौर में जब इंसान ने गिरने की तमाम हदों को पार कर लिया है तब इस तरह की आशंका काफी बढ़ जाती है। बिहार में अधिकारियों और नेताओं की जमात ने पहले भी बाढ़ राहत की राशि में बंदरबाट की हैं। आइएएस अधिकारी डॉ. गौतम गोस्वामी इसके जीता-जागता उदाहरण हैं। उन्होंने कंबल ओढ़कर घी पीने के मुहावरे को चरितार्थ करके दिखाया। बाढ़ घोटाले में नाम आने से पहले तक वे दुनियाभर में एक्टिविस्ट आइएएस के रूप में खुद प्रतिष्ठित करा चुके थे। उन्होंने पूरी दुनिया की आंखों में धूल झोंक कर कई प्रतिष्ठित पुरस्कार तक हासिल कर लिए।
कोशी बाढ़ पीड़ितों के नाम पर आ रही राशि-सामग्री आखिर जा कहां रही है। यह एक ऐसा सवाल है, जिसका जवाब पाने का अधिकार सभी दानदाताओं को है। अधिकारियों और व्यवस्था के ठेकेदारों के रुखों को देखकर,तो यही लगता है कि दान-राशियों पर उनकी गिद्ध-दृष्टि लगी हुई है। तबाही के 50 दिन बाद भी अगर लोगों को दो जून की रोटी नहीं मिल पा रही है, तो कैसे मान लिया जाय कि सरकारी मशीनरी ईमानदारीपूर्वक राहत-कार्य कर रही है ? प्रभावित गांवों में लोग बिमारी और भूख से मर रहे हैं, लेकिन वहां सरकारी नुमाइनदे के साये भी नजर नहीं आते। समय रहते बिहार सरकार और सहरसा, सुपौल, मधेपुरा, अररिया, पूर्णिया और कटिहार के जिलाधिकारियों से आमदनी एवं खर्च का हिसाब मांगा जाना चाहिए।

शनिवार, 4 अक्टूबर 2008

रेणु इधर नहीं आना

दहाये हुए देस का दर्द -10
रंजीत
रेणु
जी ! हां-हां, फणीश्वरनाथ रेणु जी! मैं आपसे ही मुखातिब हूं। आप सुन रहे हैं न ! आपको अपनी पिछली जिंदगी के संवेदनशील हृदय की कसम। आपको हीरामन के पोते हरकिशन की कसम, जो बाढ़ के बाद पूरे परिवार के साथ पंजाब-दिल्ली या मोरंग कहीं पड़ा (भाग) गया है। आपको गीतकार शैलेंद्र के साथ मिलकर रोये हुए उन अश्रुपूर्ण लम्हों की कसम, जब आपने शैलेंद्र जी को कोशी-व्यथा का एक गीत सुनाया था और दोनों पटना के राजेंद्रनगर मोहल्ले के उस बंद कमरे में घंटों रोते रहे थे।
रेणु बाबा, आप कहीं चले जाइयेगा। दिल्ली-पटना के सचिवालय भवन चले जाइयेगा। अगर कोशी के कहर से तबाह हुए लोगों की चिंता बहुत ज्यादा सताने लगे तो टेलीविजन ऑन करके समाचार चैनल के सामने बैठ जाइयेगा। लेकिन अपने कोशी अंचल नहीं जाइयेगा। अररिया नहीं जाइयेगा, सुपौल नहीं जाइयेगा, सहरसा नहीं जाइयेगा, मधेपुरा नहीं जाइयेगाऔर पूर्णिया भी नहीं जाइयेगा। अगर इससे भी मन नहीं भरे तो, मंत्री-विधायकों के साथ जिला मुख्यालय चले जाइयेगा, लेकिन अपने गांव सिमराहा नहीं जाइयेगा, प्लीज !
हालांकि मुझे आपको अपनी मातृभूमि की ओर जाने से मना करने में तनीकों निमन (अच्छा) नहीं लग रहा है, लेकिन आप इसे अन्यथा नहीं लीजियेगा। ऐसा नहीं सोचने लगियेगा कि एक आफत क्या आयी कि ये लोग अपने सदियों पुराने आतिथ्य-संस्कार तक भूल बैठे। यह सच नहीं है। आपकी मिट्टी में आतिथ्य-धर्म आज भी कायम है। कोशी मैया के कहर से बचे घरों में गजगजाते मेहमानों के समुद्र इस बात के गवाह हैं। हर खटिया तीहरी हो गया है , गृहस्थ खुद जमीन पर सो रहे हैं, लेकिन पीड़ित कुटुम्बों को खटिया पर सुला रहे हैं। लेकिन उनकी आंखें अब लज्जित होने लगीं हैं। चावल वाले बेड़ही-कोठी (अनाजों को रखने वाला देसी ड्रम) खाली हो गये हैं। अब क्या खुद खाये और क्या मेहमानों को खिलायें ? मस्जिदों में मौला से इज्जत-प्रतिष्ठा बचाने की गुहार लगा रहे हैं गृहस्थ। या मौला, बचा ले बंदों की लाज ! हे महादेव, पास करा दे यह परीक्षा !!
मुझे दुख है कि आपको भी सफाई देनी पड़ रही है, लेकिन आप ही तो कहते थे- लाचार को विचार नहीं...
वस्तुतः हम नहीं चाहते कि आप इन दिनों अपने पुराने गांवों में जायें। आखिर आपकी रुहों को वहां क्या मिलेगा। मैं आपको बता दूं कि निज आपके सिमराहा में पुलिस के जवानों ने ऐन ईद के दिन चार अबला औरतों को बुरी तरह पीटा। ये औरतें रोजे के दिन अच्छा भोजन मांग रही थी, लेकिन अच्छे भोजन के बदले में उन्हें लाठी परोसी गयी। जुल्मो-सितम का आलम यह कि गर्भवती औरतें तक लाठी-भाला लेकर सरकार बहादुर के खिलाफ नारे लगाने लगीं।
आपको याद होगासुपौल जिला का पीपरा बाजार। हां, वही पीपरा जहां की खाजा-मिठाई के कभी आप और जेपी मुरीद हुआ करते थे। इधर वहां एक उच्च विद्यालय बना है, जिसमें दो हजार बाढ़-व्यथित शरण लिए हुए हैं। आपको कोई टेलीविजन चैनल वाला नहीं बताया होगा, इसलिए मैं बता देता हूं । उस विद्यालय में कलस्थापन की रात सोयी हुई एक नवविवाहित महिला के साथ पुलिस ने उसके पति की मौजूदगी में बलात्कार करने की कोशिश की। जब पीड़ितों ने इसका विरोध किया तो सारे पुलिस वाले एक हो गये और उस महिला के पति-देवर-भैंसुर और गोतिनी को मरनासन्न अवस्था में पहुंचा दिया। अब आप बताइये जिस कोशी-अंचल में महिलाओं की इज्जत के लिए शहीद हो जाने की दर्जनों वीर -गाथाएं हैं वहां के लोग अपनी नजरों के सामने पुलिस और सैनिकों के व्यभिचार को कैसे बर्दाश्त करेंगे। लोग भूख और बिमारी से कृशकाय हो रहे हैं, लेकिन वे अपनी मां-बहनों की बेइज्जती बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं।
मैं आपकी भावुकता को देखते हुए ही उधर जाने से मना कर रहा था। इतना सुनने के बाद भी अगर आपकी रुहें नहीं माने और और मातृभूमि की बेबसी को देखने के लिए विद्रोह कर दे, तो मेरी एक सलाह मानियेगा। आप प्रदेश के मुख्यमंत्री, मंत्री या किसी केंद्रीय मंत्री के साथ उधर जाइयेगा। इनमें से अधिकतर आपके सोश्लिस्ट पार्टी के ही चटिया (विद्यार्थी) हैं, जिनकी नींब आपने कभी जेपी के साथ मिलकर रखी थी। मैं आपको आपकी परतीपरिकथा की कसम देता हूं । मैला आंचल के सुमरीतलाल की सच्चाई व सादगी की शपथ लेकर वचन देता हूं अगर आप मेरा सलाह मानियेगा तो आपकी रुहें जार-जार होकर नहीं रोयेंगी , जिसका मुझे डर है।

एक बोध कथा

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यह पोस्ट कनाडा से संजय भगत जी ने मुझे व्यक्तिगत तौर पर भेजा था , लेकिन इस कथा का रस कुछ ऐसा है की मैं इसे अपने तक नहीं रख सका । संजय जी पेशे से कंप्यूटर अभियंता हैं।