दहाये हुए देस का दर्द-11
रंजीत
एक ओर कोशी अंचल के विपदाग्रस्त लोगों की बेचारगी बदस्तूर जारी है। दूसरी ओर देश-विदेश से हर दिन मदद-इमदाद, राहत सामग्री-राशि प्रचुर मात्रा में आ रही हैं। लेकिन रोना यह है कि जो मदद के मोहताज हैं उन्हें मदद नहीं मिल रही है। जो लोग दोनों चीजों को; यथा पीड़ितों आैर मददगारों दोनों को देख रहे हैं उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा है। जिस टेलीविजन चैनल को खोलिए वहीं पीड़ितों के लिए चंदे इक्कठे करने के विज्ञापन आ रहे हैं। हर अखबार में दान-राशि जमा की जा रही है उन्हें पीड़ितों के लिए भेजा जा रहा है। छोटे-बड़े सैकड़ों गैरसरकारी संस्थानों ने राहत सामग्री आैर राशि एकत्रित की हैं आैर उसे बिहार भेजी भी गयी हंै। देश के लगभग सभी राज्य सरकारों ने भी बिहार सरकार को सहायता राशि दी है। इसके अलावा अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने भी काफी धनराशि मुहैया करायी है। बिहार सरकार आैर केंद्र सरकार ने जो राहत-राशि की घोषणा की उनसे सभी परिचित हैं ही। लेकिन स्थानीय लोगाें के प्रत्यक्ष मदद के अलावा अन्य लोगों की मददों की उपस्थिति प्रभावित इलाकों में नहीं दिख रही। इससे सरकारी मशीनरी की नीयत पर संदेह उत्पन्न होना लाजिमी है।
चारित्रिक अधोपतन के इस दमघोंटू दौर में जब इंसान ने गिरने की तमाम हदों को पार कर लिया है तब इस तरह की आशंका काफी बढ़ जाती है। बिहार में अधिकारियों और नेताओं की जमात ने पहले भी बाढ़ राहत की राशि में बंदरबाट की हैं। आइएएस अधिकारी डॉ. गौतम गोस्वामी इसके जीता-जागता उदाहरण हैं। उन्होंने कंबल ओढ़कर घी पीने के मुहावरे को चरितार्थ करके दिखाया। बाढ़ घोटाले में नाम आने से पहले तक वे दुनियाभर में एक्टिविस्ट आइएएस के रूप में खुद प्रतिष्ठित करा चुके थे। उन्होंने पूरी दुनिया की आंखों में धूल झोंक कर कई प्रतिष्ठित पुरस्कार तक हासिल कर लिए।
कोशी बाढ़ पीड़ितों के नाम पर आ रही राशि-सामग्री आखिर जा कहां रही है। यह एक ऐसा सवाल है, जिसका जवाब पाने का अधिकार सभी दानदाताओं को है। अधिकारियों और व्यवस्था के ठेकेदारों के रुखों को देखकर,तो यही लगता है कि दान-राशियों पर उनकी गिद्ध-दृष्टि लगी हुई है। तबाही के 50 दिन बाद भी अगर लोगों को दो जून की रोटी नहीं मिल पा रही है, तो कैसे मान लिया जाय कि सरकारी मशीनरी ईमानदारीपूर्वक राहत-कार्य कर रही है ? प्रभावित गांवों में लोग बिमारी और भूख से मर रहे हैं, लेकिन वहां सरकारी नुमाइनदे के साये भी नजर नहीं आते। समय रहते बिहार सरकार और सहरसा, सुपौल, मधेपुरा, अररिया, पूर्णिया और कटिहार के जिलाधिकारियों से आमदनी एवं खर्च का हिसाब मांगा जाना चाहिए।
रंजीत
एक ओर कोशी अंचल के विपदाग्रस्त लोगों की बेचारगी बदस्तूर जारी है। दूसरी ओर देश-विदेश से हर दिन मदद-इमदाद, राहत सामग्री-राशि प्रचुर मात्रा में आ रही हैं। लेकिन रोना यह है कि जो मदद के मोहताज हैं उन्हें मदद नहीं मिल रही है। जो लोग दोनों चीजों को; यथा पीड़ितों आैर मददगारों दोनों को देख रहे हैं उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा है। जिस टेलीविजन चैनल को खोलिए वहीं पीड़ितों के लिए चंदे इक्कठे करने के विज्ञापन आ रहे हैं। हर अखबार में दान-राशि जमा की जा रही है उन्हें पीड़ितों के लिए भेजा जा रहा है। छोटे-बड़े सैकड़ों गैरसरकारी संस्थानों ने राहत सामग्री आैर राशि एकत्रित की हैं आैर उसे बिहार भेजी भी गयी हंै। देश के लगभग सभी राज्य सरकारों ने भी बिहार सरकार को सहायता राशि दी है। इसके अलावा अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने भी काफी धनराशि मुहैया करायी है। बिहार सरकार आैर केंद्र सरकार ने जो राहत-राशि की घोषणा की उनसे सभी परिचित हैं ही। लेकिन स्थानीय लोगाें के प्रत्यक्ष मदद के अलावा अन्य लोगों की मददों की उपस्थिति प्रभावित इलाकों में नहीं दिख रही। इससे सरकारी मशीनरी की नीयत पर संदेह उत्पन्न होना लाजिमी है।
चारित्रिक अधोपतन के इस दमघोंटू दौर में जब इंसान ने गिरने की तमाम हदों को पार कर लिया है तब इस तरह की आशंका काफी बढ़ जाती है। बिहार में अधिकारियों और नेताओं की जमात ने पहले भी बाढ़ राहत की राशि में बंदरबाट की हैं। आइएएस अधिकारी डॉ. गौतम गोस्वामी इसके जीता-जागता उदाहरण हैं। उन्होंने कंबल ओढ़कर घी पीने के मुहावरे को चरितार्थ करके दिखाया। बाढ़ घोटाले में नाम आने से पहले तक वे दुनियाभर में एक्टिविस्ट आइएएस के रूप में खुद प्रतिष्ठित करा चुके थे। उन्होंने पूरी दुनिया की आंखों में धूल झोंक कर कई प्रतिष्ठित पुरस्कार तक हासिल कर लिए।
कोशी बाढ़ पीड़ितों के नाम पर आ रही राशि-सामग्री आखिर जा कहां रही है। यह एक ऐसा सवाल है, जिसका जवाब पाने का अधिकार सभी दानदाताओं को है। अधिकारियों और व्यवस्था के ठेकेदारों के रुखों को देखकर,तो यही लगता है कि दान-राशियों पर उनकी गिद्ध-दृष्टि लगी हुई है। तबाही के 50 दिन बाद भी अगर लोगों को दो जून की रोटी नहीं मिल पा रही है, तो कैसे मान लिया जाय कि सरकारी मशीनरी ईमानदारीपूर्वक राहत-कार्य कर रही है ? प्रभावित गांवों में लोग बिमारी और भूख से मर रहे हैं, लेकिन वहां सरकारी नुमाइनदे के साये भी नजर नहीं आते। समय रहते बिहार सरकार और सहरसा, सुपौल, मधेपुरा, अररिया, पूर्णिया और कटिहार के जिलाधिकारियों से आमदनी एवं खर्च का हिसाब मांगा जाना चाहिए।
1 टिप्पणी:
सही है डियर, लेकिन इन मुद्दों पर बहस के अलावा कोह विकल्प नहीं रहा... आजकल अपनी सेवाएं किसे दे रहे हैं आप?
एक टिप्पणी भेजें