दहाये हुए देश का दर्द -15
मैथिली की एक लोक कथा है । इसकी समािप्त एक पंिक्त के उपसंहार से होती है। पंिक्त है- ना वो नगर ना वो ठांव (नय ओ नगरी नय ओ ठाम)। इस कथा में बारात विदाई के बाद तन्हा खड़े शामियाने आैर जनवासे का बड़ा मार्मिक वर्णन किया गया है। जिस तरह शादी की रश्म पूरी होते ही बाराती अप्रासंगिक-उपेक्षित हो जाते हैं ठीक उसी तरह बारातियों की विदाई के साथ ही शामियाने तन्हा हो जाते हैं । बनायी आैर सजायी गयी गली व कूचे फिर से अपनी जीर्ण आैकात में लाैट आती हैं। पटाकों की आवाज, रोशनी की चकाचाैंध आैर संगीत की स्वर-लहरी से आतंकित हो भागे कुत्त्ो फिर से गलियों में अावारागर्द हो जाते हैं। कोशी बाढ़ की त्रासदी के संदर्भ में मुझे यह लोक कथा मेरे मानस पटल पर बार-बार प्रतिध्वनित हो रही है।
ज्यादा दिन नहीं बीते जब देश भर के मीडिया के लिए कोशी-अंचल पसंदीदा मीडिया-महफिल बना था। लगता था जैसे पूरे देश के कैमरे, कलम आैर माइक कोशी-अंचल पहुंच गये हों। जहां-जहां भेजे जा सकते थे, वहां-वहां खबरों के सीधा प्रसारण के लिए ओवी वैन भेजे गये। यहां तक की कुछ रिपोर्टरों ने चलती नावों से साउंड बाइट भेजे आैर कुछ पानी की तेज धारा से प्रतियोगिता करते दिखे। मीडिया ने पहले हम- पहले हम, एक्सक्लूसिव, इंटरव्यू, राहत, शिविर आैर प्रलय जैसे शब्दों आैर चित्रों की बाढ़ ला दी। जबतक त्रासदी ताजा रही तबतक मीडिया की महफिल सजी रही आैर उसके बासी होते ही सबों ने कोशी अंचल को गुड बाय कर दिया- नय ओ नगरी नय ओ ठाम ! मानो कह रहे हों- हम पंछी उन्मुक्त गगन के, पिंजर बंध न पायेंगे .. . बीमारी तुम्हारी, तो इलाज भी तुम्हारा ही ठीक रहेगा, वक्त का मलहम लगाओ या चीखकर-चिल्लाकर दम तोड़ लो, तुम्हारी मर्जी। जवाने में आैर भी गम है इस बाढ़ के सिवा। वगैरह-वगैरह .. .
लेकिन मेरे जैसे कलमघिस्सु जाएं भी तो कहां जायें। जहां भी जायेंगे, इन्हें ही पायेंगे। यहां कोशी के मारे मिलेंगे, मुंबई चला जाऊंगा तो राज से पिटे मिलेंगे। उड़ीसा के जंगलों में जाऊंगा तो धमांर्धों से घायल मिल जायेंगे। इसलिए सोचा उन शिविरों-झुग्गियों मेंही जाऊं। किताबों में बहुत पढ़ा है, कुछ फिल्मों में देखा भी है। कि जिंदगी आैर माैत के बीच टंगा आदमी ऐसा हो जाता है, तो वैसा हो जाता है। ऐसा दिखता, कि वैसा दिखता है। बचपन व किशोरावस्था में मगहिया डोमों (एक खानाबदोस जनजाति)की झोपड़ियों में खूब ताका-झांकी करता था। उन झोपड़ियों की सहउम्र लड़कियां मुझे अपने विद्यालय की सहपाठिन जैसी ही दिखती थीं। उनकी उठती हुई छाती, सहपाठिनों से ज्यादा मोहक लगती थी। चार साल पहले सुपाैल के सरायगढ़ रेलवे स्टेशन के प्लैटफार्म पर एक खानाबदोश लड़की इतना आकर्षित हुआ कि रेलगाड़ी छोड़ उतर गया। एक यादगार दीदार के लिए ! उसकी झुग्गियों के कई चक्कर लगाया तो समझा कि वहां भी बच्चों की किलकारियां हैं, मियां-बीवियों के झगड़े हैं आैर हर जवान लड़की किसी न किसी जवान लड़के की तिरछी निगाहों की जद में हैं।
क्या कोशी बाढ़ के बाद झुग्गियों आैर झोपड़ियों में रह रहे लोगों के जीवन भी ऐसे ही होंगे ? सुपाैल के भारत सेवक समाज कॉलेज के परिसर में करीब 300 सरकारी झोपड़ियां हैं। लेकिन यहां जीवन नहीं है। बच्चे रोते हैं, लेकिन उनकी किलकारियां सुनाई नहीं देतीं। इन झोपड़ियों में रह-रहे मियां-बीबियों के बीच झगड़े आैर बतकही नहीं होते। महिलाओं के बीच उलाहने भरे संवाद-युद्ध नहीं होते। जवान लड़कियां किसी जवान लड़के की तिरछी निगाह से घायल होकर मचलती नहीं, बिल्क ठेकेदारों की घूरती आंखों से डरकर झोपड़ियों की ओर भाग जाती हैं। शिविरों के जवान लड़के इन ठेकेदारों को हिकारत की नजर से देखते हैं। प्रतिशोध आैर गुस्सा को पसलियों में दबाये युवक खून के प्यासे लेकिन लाचार प्राणी लगते हैं। ये पुलिस आैर ठेकेदारों की सूरत तक देखना नहीं चाहते।
लेकिन दोपहर होते-होते इनका गुस्सा शांत हो जाता है। ये सारी नफरतों आैर गुस्सों को भूला देते हैं। पापी पेट के लिए... भूख सारी कोमल व कठोर भावनाओं पर जैसे विजय पा लेती है आैर इन्हें सबकुछ भूल जाने के लिए बाध्य कर देती है। वैसे तो ठेकेदारों आैर पुलिस वालों को ये अकेले में गलियाते आैर श्रापते थकते नहीं हैं। लेकिन उनके हाथों में चावल-रोटी से भरे बत्त्र्ानों को देखते ही बाढ़ पीड़ित जैसे सबकुछ भूल जाते हैं। इसे जीवन नहीं कहा जा सकता। यह जीवन आैर माैत के बीच की एक अप्राकृतिक अवस्था है। आैर इस अवस्था में लटका हुआ आदमी न तो झगड़ता है आैर न ही हंसता है। ऐसा आदमी रोता भी नहीं है। इन्हें किसी बात से खुशी नहीं होती। इस बात से भी नहीं कि उनके गांवों में अब पानी नहीं है। क्योंकि इन्हें पता चल चुका है कि पानी अपने साथ सबकुछ बहाकर ले जा
चुका है।
मैथिली की एक लोक कथा है । इसकी समािप्त एक पंिक्त के उपसंहार से होती है। पंिक्त है- ना वो नगर ना वो ठांव (नय ओ नगरी नय ओ ठाम)। इस कथा में बारात विदाई के बाद तन्हा खड़े शामियाने आैर जनवासे का बड़ा मार्मिक वर्णन किया गया है। जिस तरह शादी की रश्म पूरी होते ही बाराती अप्रासंगिक-उपेक्षित हो जाते हैं ठीक उसी तरह बारातियों की विदाई के साथ ही शामियाने तन्हा हो जाते हैं । बनायी आैर सजायी गयी गली व कूचे फिर से अपनी जीर्ण आैकात में लाैट आती हैं। पटाकों की आवाज, रोशनी की चकाचाैंध आैर संगीत की स्वर-लहरी से आतंकित हो भागे कुत्त्ो फिर से गलियों में अावारागर्द हो जाते हैं। कोशी बाढ़ की त्रासदी के संदर्भ में मुझे यह लोक कथा मेरे मानस पटल पर बार-बार प्रतिध्वनित हो रही है।
ज्यादा दिन नहीं बीते जब देश भर के मीडिया के लिए कोशी-अंचल पसंदीदा मीडिया-महफिल बना था। लगता था जैसे पूरे देश के कैमरे, कलम आैर माइक कोशी-अंचल पहुंच गये हों। जहां-जहां भेजे जा सकते थे, वहां-वहां खबरों के सीधा प्रसारण के लिए ओवी वैन भेजे गये। यहां तक की कुछ रिपोर्टरों ने चलती नावों से साउंड बाइट भेजे आैर कुछ पानी की तेज धारा से प्रतियोगिता करते दिखे। मीडिया ने पहले हम- पहले हम, एक्सक्लूसिव, इंटरव्यू, राहत, शिविर आैर प्रलय जैसे शब्दों आैर चित्रों की बाढ़ ला दी। जबतक त्रासदी ताजा रही तबतक मीडिया की महफिल सजी रही आैर उसके बासी होते ही सबों ने कोशी अंचल को गुड बाय कर दिया- नय ओ नगरी नय ओ ठाम ! मानो कह रहे हों- हम पंछी उन्मुक्त गगन के, पिंजर बंध न पायेंगे .. . बीमारी तुम्हारी, तो इलाज भी तुम्हारा ही ठीक रहेगा, वक्त का मलहम लगाओ या चीखकर-चिल्लाकर दम तोड़ लो, तुम्हारी मर्जी। जवाने में आैर भी गम है इस बाढ़ के सिवा। वगैरह-वगैरह .. .
लेकिन मेरे जैसे कलमघिस्सु जाएं भी तो कहां जायें। जहां भी जायेंगे, इन्हें ही पायेंगे। यहां कोशी के मारे मिलेंगे, मुंबई चला जाऊंगा तो राज से पिटे मिलेंगे। उड़ीसा के जंगलों में जाऊंगा तो धमांर्धों से घायल मिल जायेंगे। इसलिए सोचा उन शिविरों-झुग्गियों मेंही जाऊं। किताबों में बहुत पढ़ा है, कुछ फिल्मों में देखा भी है। कि जिंदगी आैर माैत के बीच टंगा आदमी ऐसा हो जाता है, तो वैसा हो जाता है। ऐसा दिखता, कि वैसा दिखता है। बचपन व किशोरावस्था में मगहिया डोमों (एक खानाबदोस जनजाति)की झोपड़ियों में खूब ताका-झांकी करता था। उन झोपड़ियों की सहउम्र लड़कियां मुझे अपने विद्यालय की सहपाठिन जैसी ही दिखती थीं। उनकी उठती हुई छाती, सहपाठिनों से ज्यादा मोहक लगती थी। चार साल पहले सुपाैल के सरायगढ़ रेलवे स्टेशन के प्लैटफार्म पर एक खानाबदोश लड़की इतना आकर्षित हुआ कि रेलगाड़ी छोड़ उतर गया। एक यादगार दीदार के लिए ! उसकी झुग्गियों के कई चक्कर लगाया तो समझा कि वहां भी बच्चों की किलकारियां हैं, मियां-बीवियों के झगड़े हैं आैर हर जवान लड़की किसी न किसी जवान लड़के की तिरछी निगाहों की जद में हैं।
क्या कोशी बाढ़ के बाद झुग्गियों आैर झोपड़ियों में रह रहे लोगों के जीवन भी ऐसे ही होंगे ? सुपाैल के भारत सेवक समाज कॉलेज के परिसर में करीब 300 सरकारी झोपड़ियां हैं। लेकिन यहां जीवन नहीं है। बच्चे रोते हैं, लेकिन उनकी किलकारियां सुनाई नहीं देतीं। इन झोपड़ियों में रह-रहे मियां-बीबियों के बीच झगड़े आैर बतकही नहीं होते। महिलाओं के बीच उलाहने भरे संवाद-युद्ध नहीं होते। जवान लड़कियां किसी जवान लड़के की तिरछी निगाह से घायल होकर मचलती नहीं, बिल्क ठेकेदारों की घूरती आंखों से डरकर झोपड़ियों की ओर भाग जाती हैं। शिविरों के जवान लड़के इन ठेकेदारों को हिकारत की नजर से देखते हैं। प्रतिशोध आैर गुस्सा को पसलियों में दबाये युवक खून के प्यासे लेकिन लाचार प्राणी लगते हैं। ये पुलिस आैर ठेकेदारों की सूरत तक देखना नहीं चाहते।
लेकिन दोपहर होते-होते इनका गुस्सा शांत हो जाता है। ये सारी नफरतों आैर गुस्सों को भूला देते हैं। पापी पेट के लिए... भूख सारी कोमल व कठोर भावनाओं पर जैसे विजय पा लेती है आैर इन्हें सबकुछ भूल जाने के लिए बाध्य कर देती है। वैसे तो ठेकेदारों आैर पुलिस वालों को ये अकेले में गलियाते आैर श्रापते थकते नहीं हैं। लेकिन उनके हाथों में चावल-रोटी से भरे बत्त्र्ानों को देखते ही बाढ़ पीड़ित जैसे सबकुछ भूल जाते हैं। इसे जीवन नहीं कहा जा सकता। यह जीवन आैर माैत के बीच की एक अप्राकृतिक अवस्था है। आैर इस अवस्था में लटका हुआ आदमी न तो झगड़ता है आैर न ही हंसता है। ऐसा आदमी रोता भी नहीं है। इन्हें किसी बात से खुशी नहीं होती। इस बात से भी नहीं कि उनके गांवों में अब पानी नहीं है। क्योंकि इन्हें पता चल चुका है कि पानी अपने साथ सबकुछ बहाकर ले जा
चुका है।
2 टिप्पणियां:
रँजीत जी;
आप सरायगढ़ के पास के किस गाँव के रहने वाले हैँ. मै बनैनियाँ का हूँ. कृपया mishrapadmanabh @ gmail .com पर जानकारी देने का कष्ट करेँ. आप के बारे मे जानकर अच्छा लगा.
डा० पद्मनाभ मिश्र
आपको एवं आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.
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