सोमवार, 27 अक्टूबर 2008

मन के मुंडेर पर जलता हुआ ऊका

दहाये हुए देस का दर्द -16
आज ऊका-ऊकी (कोशी-अंचल में दीपावली पर्व को इसी नाम से जाना जाता है) की पूर्व संध्या है। मेरे गांव के बच्चे ऊके (दीपावली की संध्या में जलाये जाना वाला मशाल), ऊकी (घरों के मुंडेरों पर रखा जाने वाला मशाल-प्रतीक) बना रहे हैं। कल शाम ये बच्चे, बड़ों के साथ मिलकर इन ऊकों को जलायेंगे । जगह-जगह ऊका-टोलियां बनेंगी। चीख-चीखकर नारे लगाये जायेंगे। राक्षसी आत्मा को जलते हुए ऊके दिखाकर गांव की सीमाओं से दूर भगाया जायेगा। हो-हो-हो, आ ! हा-हा-हा ! येहोहोहोहो...
मेरा गांव भाग्यशाली है। वह ऊका जला सकता है। मेरे गांव के बच्चे बड़े-से-बड़े ऊके बनाने की होड़ में शामिल हो सकते हैं और रात को मिठाई, पकवान खाकर सो सकते हैं। क्योंकि मेरे गांव को कोशी ने 18 अगस्त को बक्श दीथी। मेरे गांव के एकदम करीब आकर आगे बढ़ गयी थी कोशी, किसी जमींदार के खूंखार कारिन्दों की तरह।
लेकिन मेरे गांव के पूरब, उत्तर और दक्षिण में बसे गांववालों का ऐसा नसीब नहीं था। उनके बच्चे शिविरों, झुग्गियों व झोपड़ियों में हैं। उन्हें ऊके बनाने का कोई हक नहीं। बचपन के दोस्त नेवीलाल से बहुत आग्रह किया, तो वह नाक- भंवें सिकुड़ने के बाद मेरे साथ पूरबिया गांव की ओर जाने के लिए तैयार हो गया। सुबह में कुछ और दोस्तों से चलने का आग्रह किया था। लेकिन सबों ने शिविरों की ओर जाने से इनकार कर दिया। उनका कहना था- द्वि कोस दूरे से गन्हकता (बदबू देता) है , तरह-तरह की बीमारी फैली हुई है। ... का करने जाओगो उन कैंफों में ? साफे खतम हो गये हो का ?? कुछ मदद-राहत की बात है तो बताओ, खबर भेज देंगे, एक को बुलायेंगे तो सैकड़ों चले आयेंगे। मन किया की कोई देसी-भदेस गाली सुनाऊं इन्हें, लेकिन सुना नहीं सका। इंसान कितना जल्द अपने को दूसरे से अलग कर लेता है ? किनारे लगते ही तूफान से कितना अनजान बन जाता है इंसान ?? ... तो क्यों न बजाये नीरो बंसी और कैसे न जले रोम ???
मन नहीं माना। दोस्त लोग ठीक ही कहते थे। शिविरों के दो किलोमीटर दूर से ही वातावरण बदला हुआ प्रतीत होने लगा। झोपड़ीनुमा झुग्गियों में रह रहे लोगों के दर्द जैसे आसपास के वातावरण के पृष्ठों से चिपक गया है। हवा में बदबू है, झुग्गियों के आसपास गंदगी का अंबार लग हुआ है। नेवीलाल ने अपने नाक को अंगोछा के मौटे तहों में छिपा लिया। जब हम राहत-झुग्गियों के काफी करीब पहुंच गये तो उसने अंगोछे से अपने मुख का आधा हिस्सा निकालकर मुझे सलाह दिया- कअम से ख्मं रूहमालों रंख लों (कम से कम नाक पर रूमाल भी तो रख लो) ...
क्यों ?
... सरबा, हमर तें नाक फट जायेगा रे बाप, कौन जमराज के फेर में पड़ गिया रे बाप ??? सद्यः नर्क !!!
चुप्प! तुम चुपेगा की नहीं ??
हम जा रहा है। ऊ नहर पर रहेेंगे, वहीं आ जाना...
हमारी बहस को एक वृद्ध ने सुन लिया। उसने हमें उलाहनों से लाद दिया।
इसमें हमारा क्या दोष ? हम लोग क्या करें ? आदमी जबतक जिंदा रहेगा, मल-मूत्र तो त्यागेगा ही। दस डेग (डग) में दस हजार आदमी रह रहे हैं। बच्चे हैं, वृद्ध हैं, बीमार हैं, अपढ़ हैं, इसलिए... वैसे हम भी कभी टोले में घर बनाकर रहते थे। लेकिन आपलोग भी तो नहीं चाहते कि आपके बसोवास को लोग गंदा करें ? कय के बाद अगर पानी नहीं मिलेगा तो बूझ जाइयेगा कि गन्ह (दुगंध) किसको कहते हैं !!!
बूढ़ा जब बोलकर थक गया, तो मैंने कहा- एक जून खैनी (तंबाकू) खिलाइयेगा ...
वृद्ध के चेहरे पर एक आलौकिक भाव तैर गया, मानो जैसे समाज से बहिष्कृत किसी व्यक्ति को फिर से समाज में शामिल कर लिया गया हो। खैनी बनाने के बहाने बात बढ़ने लगी।
कि हैते ? भगवाने के भरोस बूझू, सब ताम-झाम खतम। पैन से छैंक के ल आनलैके आर मरै ले छोयड़ देलकय ये इ द्विहथी झोखैड़ में! मैंग-चैंग के लोग जिंदा छै। जाड़ आयब गेले ये आउर ओढ़य ले न वस्त्र छय नय तापय ले गोयठा-गूरदूस। गाम जाय के हिम्मत त जुटा लेबै, लेकिन ओय ठाम त सद्यः प्रेत के वास भै गेले ये...
( क्या होगा ? सबकुछ भगवान के भरोसे ही समझिये। पानी से हमलोगों को निकालकर बाहर तो ले आया गया, लेकिन इस दो हाथ की झोपड़ी में मरने के लिए छोड़ दिया गया। मांग-चांगकर लोग जिंदा हैं। ठंड आ गयी है लेकिन न तो तन ढकने के लिए वस्त्र है और ना ही अलाव जलाने की कोई सामग्री। गांव जाने की हिम्मत तो है, लेकिन वहां सबकुछ खत्म हो चुका है और लगता है जैसे प्रेतों ने गांव में डेरा डाल लिया हो... )
झुग्गियों में रह रहे लोगों से दो-तीन घंटों की बातचीत के बाद मैं समझ गया कि इनसे पर्व-त्योहार की बात करना जले पर नमक छिड़कने जैसा होगा। दरअसल, ये लोग पर्व-त्योहार जैसी चीजों को जैसे भूल चूके हैं। जब वृद्धों को नहीं मालूम कि कल दीपावली है, तो बच्चे कहां से जान पायेंगे की आज ऊका-ऊकी बनाने का दिन है। जैसे ईद, दशहरा, कोजगरा आये और आकर चले गये उसी तरह ऊका-ऊकी भी चले जायेंगे।
मन के अंदर से कोई कहता है- अगर वक्त ने कहर नहीं ढाया होता तो ये बच्चे भी अपने घरों के मुंडेरों पर ऊकी सजा रहे होते... कल जब आसपास के टोलों में पटाखे गुंजेंगे तो ये सवाल हजारों बच्चों के जेहन में उठेंगे कि कहीं आज ऊका-उकी तो नहीं !!!

6 टिप्‍पणियां:

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

This whole true episode is very very sad :-(

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा ने कहा…

भैया हो गाम याद आबि गेलो.....सच कहै छियो..
दोस्त सचमुच आज आपने पूर्णिया की याद दिल दी

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

बहुत दर्दनाक!

दीपावली पर हार्दिक शुभकामनाएँ!
दीपावली आप और आपके परिवार के लिए सर्वांग समृद्धि लाए!

Udan Tashtari ने कहा…

आपको एवं आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.

समय चक्र ने कहा…

दीपावली पर्व की शुभकामना और बधाई .

रंजीत/ Ranjit ने कहा…

aap sabhee shriday bandhuon ko deepaawalee kee hardik badhaee aur post ke feedback ke liye aabhar.