शनिवार, 28 फ़रवरी 2009
बचे हुए लोग /एक लघु कथा
मंगलवार, 24 फ़रवरी 2009
कुसहा में फिर बाधा
सोमवार, 23 फ़रवरी 2009
वाह आदमी, आह आदमी
इस दौर का खासम-खास आदमी
उस आदमी के दो हाथ हैं और एक जबान
दोनों में कौन ज्यादा लंबा
वह उसके हृदय के रक्त को ही है पता
ईर्ष्या-द्वेष, घूटन-टूटन, प्यार-मोहव्वत के घोल से ?
पैदा करता है वह एक हवा
अद्भूत हवा, भयावह हवा, सम्मोहक हवा
और कर लेता है हर महफिल पर कब्जा
वाह आदमी, आह आदमी
इस दौर का खासम-खास आदमी
हर भले मानुष को समझता है मुर्ख
क्योंकि वह भी है सत्ता की तरह पुष्ट और दुष्ट
कायनात के सारे प्रतिभा-उपलब्धि, सुयश पर है उसका एकाधिकार
जो
भीड़ में मुखर
एकांत में जर्जर
वह आदमी
हर सवाल के प्रति सशंक
हर जवाब के प्रति निश्चंत
लेकिन पहचानता है वह समय के क्रांतिक विंदु को
और तलाशता है इंसानी कंधा
जिसे प्रजातंत्र की सबसे बड़ी पूंजी मानी जाती है
वाह आदमी, आह आदमी
इस दौर का खासम-खास आदमी
कंधे, भीड़, प्रजातंत्र, सत्ता...
मीडिया के मार्फत या भाया मीडिया के शार्ट-कट रास्ते से
वह बना लेता है सीढ़ी
जिसे सुविधानुसार मोड़ा जा सके
जैसे मुड़ते हैं विचार और वाद
और पलटते हैं पारे, देह की गर्मी से
रंडियां पॉकेट की गर्मी से
वह अवगत है अपने समय के व्यसन से
उसे मालूम है
कि इस नशेड़ समय की जेब में
कब, कहां, किस समय
कितना डालना है - नशा
वाह आदमी, आह आदमी
इस दौर का खासम-खास आदमी
उसे मालूम है
कि किसे किस बात से तोड़ा जा सकता है
कि किसे किस बात से मोड़ा जा सकता है
कि किसे किस बात से जोड़ा जा सकता है
उसके हैं अनेक रूप
जैसे वह आदमी नहीं चाक हो
जैसे वह आदमी नहीं परमाणु बम हो
जैसे वह आदमी नहीं कोई विज्ञापन हो
वाह आदमी, आह आदमी
इस दौर का खासम-खास आदमी
शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009
इन अभियंताओं से तो वे अघोरी अच्छे
पूर्वी बिहार, असम, उत्तरी बंगाल और नेपाल के इलाके में एक खानबदोश आदिम जनजाति पायी जाती है जिसे अघोरी कहते हैं। इस समुदाय के लोग अत्यंत असभ्य और अमानवीय प्रवृत्ति के होते हैं और प्रेतात्मा की अराधना करते हैं। अस्मसान, कब्रिस्तान, मूर्दा घाट इनका प्रिय स्थल होता है। ये इतने अमानवीय होते हैं कि इन्हें अधजली लाशों के भक्षण में भी कोई हिचकिचाहट नहीं होती। मूर्दा घाट की अधजली लकड़ी, लाश दहन के कपड़े आदि का यह प्रेम से इस्तेमाल करते हैं। यही कारण है कि अधोरी समुदाय सदियों से समाज से बहिष्कृत है और असभ्य एवं अमानवीयता के प्रतीक माना जाता है। लेकिन कोशी नदी परियोजना के कुछ अभियंताओं ने इन अघोरियों को भी पीछे छोड़ दिया है। अघोर समुदाय तो लाश का शिकार करते हैं लेकिन कोशी परियोजना के अभियंता तो लाश पर कमाई कर रहे हैं। इनकी आत्मा मर चुकी है। अघोर समुदाय तो प्रेतात्मा की उपासना करते हैं और उनके भी कुछ उसूल होते हैं। लेकिन इन अभियंताओं का शायद कोई उसूल नहीं है और ये अवैध धन के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं।
मैं शुरू से कहता आ रहा हूं कि कोशी नदी ने खुद धारा नहीं बदली, बल्कि भ्रष्टाचारियों ने इस नदी को मार्ग बदलने के लिए मजबूर कर दिया। और पिछले अगस्त के ऐतिहासिक कोशी हादसे के लिए अगर कोई जिम्मेदार है तो वह है- कोशी प्रोजेक्ट के भ्रष्ट अभियंता एवं भ्रष्ट सरकारी मशीनरी । भ्रष्टाचारियों का यह गठबंधन पिछले 20-30 वर्षों से कोशी तटबंध के रखरखाव, गाद की सफाई और मरम्मत के कार्य में अरबों रुपये का घोटाला करते आ रहा है। जिसके परिणामरूवरूप कोशी धारा बदलने के लिए मजबूर हुई। लेकिन जो बात कल सामने आयी उसने यह साबित कर दिया कि ये अभियंता इंसान हैं ही नहीं। ये तो धनलोलुप जंतु हैं, जो रुपये खाते हैं, रुपये पीते हैं, रुपये को ही पूजते हैं और रुपये को ही सोते हैं ।
कल कुसहा तटबंध के मरम्मत कार्य के दो प्रभारी अभियंताओं की गिरफ्तारी हुई। इनमें एक कार्यकारी अभियंता हैं जबकि दूसरे सहायक अभियंता। कार्यकारी अभियंता का नाम कामेश्वर नाथ सिंह है जबकि सहायक अभियंता का नाम है- विजय कुमार सिन्हा। दोनों ने कुसहा में तटबंध के मरम्मत-कार्य में जमकर लूट मचाई । महज दो महीने में ही इन्होंने लाखों रुपये का अवैध धन संचय किया। कहने की जरूरत नहीं है कि यह धन तटबंध की मरम्मत कर रहे ठेकेदारों से वसूली गयी। ऐसी स्थिति में यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि इन्होंने घूस लेकर कार्यों के जो प्रमाणपत्र दिए होंगे वे कैसे होंगे। जाहिर सी बात है कि इन्होंने पैसे के लिए तटबंध की गुणवत्ता से समझौता किया है। बिहार सरकार की निगरानी टीम ने कल इन्हें 11 लाख 36 हजार रुपये की नकदी राशि के साथ रंगे हाथ गिरफ्तार किया। ये दोनों रुपये लेकर कोशी प्रोजेक्ट के वीरपुर स्थित मुख्यालय से पटना जा रहे थे।
वीरपुर और कुसहा के कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने मुझे बताया है कि ये राशि पिछले सात दिनों की वसूली है। इससे पहले भी उन्होंने लाखों रुपये वसूले और उन्हें ठिकाने लगाने में कामयाब रहे, जिसका पता निगरानी अभी तक नहीं लगा पायी है। वैसे निगरानी विभाग ने इन अभियंताओं के घर से जो दस्ताबेज बरामद किए हैं उनसे खुलासा हुआ है कि इन लोगों के पास करोड़ों रुपये की नामी-बेनामी संपत्ति के प्रमाण मिल रहे हैं। जिनमें शहर में जमीन, कारखाना, मील आदि शामिल है।
घिन्न आती है ऐसे अभियंताओं पर! कोशी हादसे से बर्बाद हो चुके लाखों लोगों के कष्टों को देखकर भी इनका दिल नहीं पिघला। वीरपुर शहर के जिस कार्यालय में ये बैठते हैं उसके खिड़की से ही कोशी की बर्बादी साफ दिखाई देती है। शहर में चौबीसो घंटे उजड़े हुए लोगों की कराह गुंजती रहती है। लेकिन इन्हें लोगों के कष्टों से क्या लेना! ये तो अपना घर भर रहे हैं। भले ही इसके चलते कुसहा-2 की पृष्ठभूमी तैयार हो जाय तो हो जाय, इन्हे कोई फर्क नहीं पड़ता। बात लौटकर फिर अघोर समुदाय की ओर आती है। भले ही अघोरी अमानवीयता के प्रतीक हों, लेकिन कहा जाता है कि ये जब अपने देवता (प्रेत) की अराधना करते हैं तो दुआ मांगते हैं- भगवान आर्शीवाद दो कि हमें कभी किसी अकाल मौत का शिकार लाश न मिले।
ढाई कोस की विकास यात्रा
शिक्के का यह एक पहलू है, जिसमें मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ-साथ उनके राजनीतिक-प्रशासनिक अमले भी शामिल है। शिक्के के दूसरे पहलू में प्रदेश की 10 करोड़ जनता है जिसे न तो विकास का अर्थ मालूम है और न ही यात्रा का । उसकी नजर में यात्रा एक जगह से दूसरे जगह जाने को कहते हैं, जिसमें काफी परेशानी होती है। लेकिन यात्रा से विकास भी हो सकता है, यह बात पहली बार उनके समक्ष आयी है। वे इन दिनों आपस में बात कर इस अतर्सबंध को जानने की कोशिश में लगे हुए हैं। उधर मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि उनकी विकास यात्रा का मुख्य उद्देश्य भ्रष्टाचार से प्रदेश को मुक्त कराना है। इस कार्य के लिए लोगों का समर्थन चाहिए , बिना उनके सहयोग के हम विकसित बिहार का ढांचा खड़ा नहीं कर सकते। संक्षेप में कहें तो नीतीश कुमार ने एक ऐसा बीड़ा उठाया है जो आजतक किसी राजनेता ने नहीं उठाया। वे चरित्रवान बिहार बनाना चाहते हैं और इस नाते समाज सुधारक की भूमिका में हैं। वे मूल्य, उसूल, सिद्धांत की पुनर्स्थापना करना चाहते हैं और इस नाते वह शिक्षक और संन्यासी की भूमिका में भी हैं।
कितनी सुंदर लगती हैं ये बातें। बिल्कुल सिनेमा की तरह। लेकिन जैसा कि सिनेमा का खुमार हॉल से कदम बाहर रखते ही उतर जाता है, कुछ उसी तरह नीतीश कुमार का सब्जबाग भी उनके काफिले की गाड़ियों के स्टार्ट होते ही छू-मंतर हो जा रहा है। नीतीश कुमार को क्या यह मालूम नहीं कि जिस जनता को वह मंच पर बुलाकर, अपने बगल में खड़ा कर भाषण दिलवा रहे हैं, वह उनके जाते ही फिर से वैसा ही बेचारा हो जायेगा जैसा पहले था।
आम जीवन से भ्रष्टाचार दूर करने की बात करते हैं, मुख्यमंत्री, लेकिन उन्हें दिन के उजाले में भी लुटेरे नजर नहीं आते। मूल्यों की बात करते हैं, मुख्यमंत्री! क्या उन्हें मालूम नहीं कि मूल्यों का निर्माण पाठशाला में होता है और बिहार के पाठशालाओं में नौकरी करने वाले शिक्षक कितना समय स्कूल में बिताते हैं। मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव से जानता हूं कि राज्य के किसी भी सरकारी स्कूल में महज दो घंटे भी पठन-पाठन का काम नहीं होता। 80 प्रतिशत शिक्षक महीना में पांच दिन भी स्कूल नहीं जाते। इस सच से बिहार का बच्चा-बच्चा अवगत है, लेकिन मुख्यमंत्री को नहीं मालूम! अगर मालूम रहता, तो कम से कम जिन जिलों से वे विकास यात्रा कर लौटे हैं वहां शिक्षक स्कूलों में दिखाई देते। सभी को मालूम है कि शिक्षक नियुक्ति के मामले में भारी अनियमितताएं हो रही है, लेकिन मुख्यमंत्री इससे अनभिज्ञ हैं। वे जनता को पूछ रहे हैं कि बताइये आपके गांव में कौन-कौन अधिकारी चोर है। हास्यास्पद यह कि नरेगा के किसी भी मजदूर को उसकी पूरी मजदूरी नहीं मिलती। पीएमजीएसवाइ के तहत पिछले साल बनी सड़कें इस साल टूट गयी हैं, लेकिन मुख्यमंत्री गांव के अपढ़ ग्रामीणों से कह रहे हैं कि सड़क के काम पर ध्यान रखें। मुख्यमंत्री जी, दो जून की रोटी के लिए हलकान रहने वाली अपढ़ जनता को क्या मालूम कि किस सड़क के लिए कितना पैसा आवंटित हुआ है और इसके लुटेरे कौन-कौन हैं। लेकिन आपके एमएलए, अधिकारी और मंत्री को सब पता है। आप कार्रवाई क्यों नहीं करते ?
अगर जनता को भावुक बनाकर वोट लेने से ही बिहार का विकास हो जायेगा तो निश्चित रूप से यह विकास यात्रा सफल है। अगर इस यात्रा का निहितार्थ बदलाव लाने का है तो छह माह बाद एक बार फिर आप इन गांवों का दौरा कीजिएगा। जो शिकायत लोगों ने की थी, उन पर क्या कार्रवाई हुई, थोड़ा इस पर नजर घूमा लीजिएगा। सब पता चल जायेगा। अन्यथा कहावत तो है ही- भर दिने चले, ढाई कोस । जैसा कि सीतामढ़ी में उनकी सभा से लौट रही एक युवा महिला अपनी आक्रोशित माता को समझा रही थी- सब तमाशा छिये वोट कें, हम काहे शिकायत करतिये मुखिया, वार्ड सदस कें ? इ सब तें चल जेतिन्ह पटना-सटना , हम गरीब कें त एहि जंगल में रहै कें छै। पानी में रहि कें मगर स बैरी ! नय गे माय नै ! कहियो नै !!
रविवार, 15 फ़रवरी 2009
जो वर्षों से गुमनाम है
क्योंकि वह भ्रष्टाचार के खिलाफ है
ठीक सिनेमा घर के सामने उसकी एक किताब दुकान है
शहर का आखिरी ईमानदार है
पार्टियों की माने तो वह बेविचार है
संपादकों की नजर में वह बड़ा बेवाक है
कहते हैं कि वह एक झक्खी नाम है
एक ही शख्स की ये सारी दास्तान है
जो वर्षों से गुमनाम है
गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009
वो घास की कताई वो कास की बुनाई (अंतिम कड़ी)
आज जब गुम हो रहे लोक शिल्प, लोक तकनीक, लोक कला आदि के बारे में सोचता हूं, तो उस छात्र का कथन बरबस याद आ जाता है। कोशी अंचल और उत्तरी बिहार के खत्म होते हस्त शिल्प और लोक तकनीक की सबसे बड़ी वजह यही है। पिछले दिनों मैंने अपने गांव के एक बांस बुनकर से जब पूछा कि उसने बांस के बर्तन बनाने क्यों छोड़ दिये, तो उसका जवाब था- गुजारा नहीं होता मालिक। कुछ ऐसा ही जवाब दिया था फिंगलास गांव के माधवलाल कुम्हार ने । उसने कहा था- आब त स्टील, प्लास्टिक के जमाना आबि गेले ये, माटि के वर्तन कियो नै किनै (खरीदते)छै । अब माधवलाल को कौन समझाये कि एक दिन स्टील खत्म हो जायेगा और प्लास्टिक को अगर खत्म नहीं किया गया तो वह हमें खत्म कर देगा। तब माटी ही साथ रहेगी, शायद माधवलाल जैसे माटीकार रहे या न रहे।
अब लौटता हूं कोशी अंचल की घास-कास की कताई कला के पतन की ओर। हालांकि मैंने इसकी वजह पता करने के लिए हर ओर दिमाग दौड़ाया। इस कला के जानकार बुजुर्गों से बात की। प्रादेशिक भाषा के प्रोफेसरों से जानना चाहा। यहां तक कि मिट्टी की महक सूंघने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों से राय ली, लेकिन कहीं से कोई संतोषजनक उत्तर नहीं आया। एक शाम को जब अपने गांव की गलियों से गुजर रहा था, तो अचानक इसका एक संकेत-सूत्र मिल गया। दरअसल, उस शाम एक बुढ़िया अपनी वहु से झगड़ रही थी और इस क्रम में वह उसे कामचोर, बेलूरी आदि-आदि की संज्ञा दे रही थी। बुढ़िया कह रही थी- पड़ोस की औरतों के साथ गप्प लड़ाने से तो अच्छा है घर में बैठकर कुछ कढ़ाई-बुनाई करना। क्या जमाना आ गया है। आज की लड़कियों को तो कुछ कातना-बुनना भी नहीं आता। टेलीविजन क्या आ गया, सारी कढ़ाई -बुनाई खत्म हो गयी।
इस बुढ़िया ने गुस्से-गुस्से में ही मेरे सवाल का जवाब दे दिया था। अगर सच कहें तो लोक शिल्प और लोक तकनीकों को खत्म करने में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का बहुत बड़ा हाथ रहा है। एक तो यह पश्चिमी और शहरी जीवन-शैली का प्रचार-प्रसार कर रही है, दूसरा यह समय व्यतीत करने का सबसे बड़ा माध्यम बन गया है। पहले गांवों में जब लोगों को खाली वक्त मिलता था, तो वे शौकिया तौर पर ही सही कुछ न कुछ कलात्मक काम करने लगते थे। दोपहर के समय लगभग हर महिलाएं कोई-न-कोई कढ़ाई-बुनाई करती दिखती थी। यह एक कलात्मक रूचि जैसी बात थी। विभिन्न मौकों पर वे इसका प्रदर्शन कर वाहवाही भी लूटती थीं। लेकिन जैसे-जैसे पश्चिमी जीवन शैली का प्रचार-प्रसार हुआ, सभी महिलाओं ने एक साथ अपनी लोक कलाओं, शिल्पों से तौबा कर ली। कताई-बुनाई के बदले उन्होंने टेलीविजन पर बैठकर सीरियल देखने को वरीयता दी। गांवों में देखा-देखी का रोग बहुत तेजी से फैलता है। उच्च और मध्यम वर्गों की देखा-देखी में निम्न मध्यम और निम्न वर्गों ने टेलीविजन खरीदना शुरू कर दिया। कढ़ाई-बुनाई उनके जीवन से गायब होते चली गयी।
पहले अगर किसी लड़की की ससुराल से विदाई के वक्त कलात्मक सामग्री नहीं भेजी जाती थी, तो यह पूरे गांव में चर्चा का विषय बन जाता था और लड़की के घरवालों की भद्द पीट जाती थी। लेकिन आज इस बात का मलाल किसी को नहीं होता कि विदाई में कढ़ाई-बुनाई का कोई समान नहीं आया है। आज बवाल तब मचता है जब लड़की अपने मायके से टीवी, फ्रीज, वाशिंग मशीन आदि लेकर ससुराल नहीं आती।
किसी भी लोक कला, लोक शिल्प, लोक तकनीक के पतन की पहली शर्त है कि वह अपने लोगों के बीच में ही अपना कलात्मक महत्व को खो दे। कद्रदानों के बिना कला जिंदा नहीं रह सकती। उत्तर बिहार की लोक कला इसी का शिकार है। दुखद बात यह है कि हमारी मानसिकता पराधीन होती जा रही है। हम अपने ही किसी कला, शिल्पों और कीर्तियों को तब तक महत्व नहीं देते जब तक उसे विदेश में महत्व न मिल जाये। मिथिला पेटिंग पिछले दो दशकों से इसलिए चर्चा में है क्योंकि इसे विदेशों में महत्व दिया गया। जबकि हकीकत यह है कि खुद मिथिला में यह वर्षों से उपेक्षित थी। मिथिला पेटिंग तो एक नमूना है, उत्तरी बिहार में ऐसी कलाओं की संख्या कभी सैंकड़ों में थी। लेकिन इसके कद्रदान नहीं थे। घास ,कास, बांस, जूट मिट्टी आदि की शिल्पकारी भी इन्हीं प्रवृत्तियों की शिकार है।
बुधवार, 11 फ़रवरी 2009
कहीं पठान-पठान तो कहीं हसी-हसी
अब मूल विषय पर आते हैं जो दिलचस्प भी है और विशुद्ध रूप से क्रिकेटिंग भी है। कल यानी 10 फरवरी को यह अनोखा रिकॉर्ड बना। वह यह कि क्रिकेट के इतिहास में 10फरवरी का दिन इसलिए दर्ज हो गया क्योंकि इस दिन दो सगे भाइयों की जोड़ियों ने अकेले अपने दम पर विपक्षी टीम को धूल चटा दी। पहली जोड़ी भारतीय क्रिकेटर बंधु इरफान पठान और युसूफ पठान की थी जिसने कल अकेले अपने दम पर श्रीलंका के हाथ से मैच छिन लिया। कल जब भारत टी-20 मैच में हार की कगार पर पहुंच गया था, तो पठान बंधुओं ने मोर्चा संभाल लिया। पहले बड़े भाई युसूफ ने तगड़े हाथ दिखाये उसके बाद इरफान ने। बड़े भाई के छक्के ने छोटे में ऐसा जोश भरा कि वह फनार्डो और मलिंगा जैसे तेज गेंदबाजों को गली का बबलुआ समझकर पीट बैठा। इरफान ने कल मलिंगा की गेंद पर जो छक्का लगाया वह उसके बैटिंग क्षमता से कई गुना ज्यादा बड़ा और मोहक छक्का था। इस सीन को देखकर मेरे मुंह से बरबस निकल गया- बड़े मियां तो बड़े मियां, छोटे मियां सुभान अल्लाह!
दूसरी जोड़ी ऑस्ट्रेलिया के हसी बंधुओं की थी। ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेटर बंधु माइक हसी और डेविड हसी ने कल ही न्यूजीलैंड के हाथ से मैच छिन लिया और लगातार हार की सामना कर रही अपनी टीम के हाथ से निकल रही सीरिज को बचा लिया। प्रतिभा के लिहाज से माइक हसी, डेविड हसी से कहीं श्रेष्ठ हैं, लेकिन कल डेविड ने माइक से भी बढ़िया खेल दिखाया । वैसे तो विश्व क्रिकेट के इतिहास में कई ऐसे क्रिकेटर बंधुओं का नाम दर्ज है जिसने साथ-साथ अपने देश का प्रतिनिधित्व किया, लेकिन यह पहला अवसर है जब एक ही दिन दो अलग-अलग टीमों के बंधुओं ने विपक्षी दल को दिन में ही तारे दिखा दिये।
शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009
अंतर्राष्ट्रीय मीडिया संगठन की अच्छी पहल
ज्ञातव्य है कि पिछले एक साल से नेपाल में प्रेस और पत्रकारों पर लगातार हमले किए जा रहे हैं। गत दिनों यह मामला तब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में आया जब एक महिला पत्रकार को अराजकतावादियों ने गोली मार दी। ऐसा माना जाता है कि प्रेस और पत्रकारों पर हो रहे हमले को सरकार का समर्थन प्राप्त है। इस कारण हिमालय की वादी में मौजूद इस नवलोकतांत्रिक देश में प्रेस की आजादी खतरे में पड़ती दिखाई दे रही है। चूंकि नेपाल की सरकार स्थानीय प्रेस संगठनों के प्रदर्शन और विरोध को सुन नहीं रही थी, इसलिए अंतर्राष्ट्रीय हस्तक्षेप आवश्यक हो गया था। उम्मीद की जानी चाहिए कि नेपाल की सरकार इस मसले को गंभीरता से लेगी और अपने पत्रकारों पर हो रहे जुल्मों को बढ़ावा नहीं देगी। यह नेपाल में लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए अनिवार्य है क्योंकि प्रेस की स्वतंत्रता के बगैर कोई भी लोकतंत्र आगे नहीं बढ़ सकता।
गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009
वो घास की कताई, वो कास की बुनाई (पहली कड़ी)
इस क्रम में मुझे पूर्वी और उत्तरी बिहार खासकर कोशी अंचल की कुछ लोक-तकनीकें याद आ रही हैं। महज 15-20 वर्ष पहले तक इस अंचल में दर्जनों लोक-तकनीकें जिंदा थीं। कृषि आधारित कोशी अंचल की सभ्यताएं अपनी जरूरतों के लिए लगभग हर समान खुद बना लेते थे। चाहे वह दैनिक जरूरत का समान हो या फिर दूरगामी जरूरत के कृषि यंत्र हों। इसलिए यहां बांस, पटसन, घास, कपास, लकड़ी आधारित हस्तक रघा उद्यम घर-घर में प्रचलित थे। बांस, लकड़ी, फूस और पटसन की मदद से यहां के लोग एक-से-एक बड़े आलीशान बंगले बनाते थे। इसकी कभी इतनी प्रसिद्धि थी कि अंग्रेज अधिकारी को जब कोशी अंचल में भेजा जाता था, तो वे इलाके के कारीगरों को बुलाकर आरामदायक बंगले बनवाते थे। ये बंगले प्राकृतिक रूप से एयरकंडीसंड होते थे, जो गर्मी के मौसम में ठंड और सर्दी के मौसम में गर्म होते थे। लेकिन आज टॉर्च जलाकर खोजें, तो भी इन बंगलों के कारीगर नहीं मिलें। बांस से बनने वाले दैनिक घरेलू जरूरतों के सामान मसलन सुप,टोकरी, कुर्सी आदि बनाने की देसी तकनीकें भी गुम हो रही हैं। लेकिन सबसे तेजी से जो लोक-तकनीक खत्म हुई है वह है - कास और घास से बनने वाले विभिन्न प्रकार के बर्त्तन बनाने की हस्त-तकनीक।
ज्यादा समय नहीं बीते हैं-जब वर्षा ॠतु के खत्म होते ही कोशी अंचल की युवतियां-महिलाएं कास की कोंपलें बटोरने मैदानों में निकल जाती थीं। कास के इन कोंपलों को मूंज कहा जाता था। इन मूंजों को सूखाकर और लंबी-सूखी घास के तने से जो बर्त्तन तैयार होते थे, उनकी गुणवत्ता और खूबसूरती को शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। इन बर्त्तनों में गहने रखने के लिए पौती (आभूषण केस), रुपये-पैसे रखने के लिए बटुआ (बटुआ), बच्चों के खाने के लिए कटोरानुमा वर्त्तन- मउनी, फूल रखने के लिए फूलडाली, अनाज ढोने-उठाने और उन्हें पसारने के लिए दौरी, मवेशियों के गोबर उठाने और फेंकने के लिए दाउरा आदि शामिल है। इन वर्त्तनों पर तरह-तरह की छवियां उकेरी जाती थीं। मूंजों और घासों को विभिन्न प्रकार के जड़ों,कंद-मूल, फल-फूलों से तैयार किए गये रंगों से रंगीन बनाया जाता था। लोग इन छवियों को देखकर हैरान रह जाते थे। इनमें देवी-देवताओं, परियों, जंतुओं की मोहक तस्वीर दिखती थी। यह एक प्रकार की लोककला थी, जिसे हमारे पुरखों ने दैनिक जरूरतों में जोड़कर विकसित किया था। हस्त शिल्प का यह अनोखा उदाहरण था, जो दुनिया में कहीं भी देखने को नहीं मिलता। इन तकनीकों और हस्त कलाओं पर महिलाओं का एकाधिकार होता था। युवतियांें को अपनी मां-चाची, मौसी और पड़ोसिनों से यह कला विरासत में मिलती थी और इनमें माहिर होकर ही वह दक्ष स्त्री का दर्जा पाती थी। यही कारण है कि मां-पिता अपनी बेटियों को ससुराल विदा करते समय उनके द्वारा तैयार की गयी हस्तनिर्मित शिल्पाकीर्ती साथ में देते थे ताकि ससुराल वाले भी दुल्हन की कला से रूबरू हो सकें। लेकिन आज ये कलाएं और ये शिल्प लगभग खत्म हो चुके हैं। घास और कास की जगह स्टील और प्लास्टिक ने ले ली है। कुछ बुढ़ी औरतों को अगर छोड़ दिया जाय तो अब एक भी ऐसी महिला नहीं मिलती जिन्हें यह कला आती हो। नई पीढ़ी में तो अधिकांश को यह भी पता नहीं कि मउनी किसे कहते हैं और पौती की शक्ल कैसी होती है।
कोशी अंचल में जूट (पटसन) की उपज बहुत अच्छी होती है। इसलिए यहां सदियों से पटसन आधारित हस्त शिल्प की तकनीकें चलती आ रही हैं। पटसन से तरह-तरह की रस्सियां बनाने की तकनीकें इस समाज में मौजूद रहे हैं। इन रस्सियों में ऐसे-ऐसे गांठ बनाये जाते थे कि जैसे ये गांठ नहीं बटन हो। इन रस्सियों से खटिया बुनने, घर बनाने से लेकर तमाम तरह के कृषि कार्य किए जाते थे। लेकिन आज रस्सी बुनने की कला भी इलाके से खत्म हो रही है। पटसन की रस्सी की जगह तेजी से प्लास्टिक और मशीन निर्मित नारियल की रस्सी ले रही है।
लोक-कला और देसी तकनीकों के इस पतनोन्मुख प्रवृत्ति को देखकर रोने का मन करता है। जिसे हमारे पुरखों ने वर्षों-वर्षों में हासिल किया उसे हम चंद वर्षों में भूला बैठे। अतीत की इन थातियों का ऐसा अंजाम भी होगा, शायद हमारे पुरखों ने सोचा भी न होगा।
(दूसरी कड़ी में हम उन वजहों को ढ़ूंढने की कोशिश करेंगे जो हमारे पारंपरिक ज्ञान, कौशल, कला और शिल्पों को निगल रही हैं। अगर आपके पास भी इस संबंध में कोई जानकारी या खोज या अनुसंधान हों तो उन्हें यहां जरूर रखें। हम आपका स्वागत करते हैं)
बुधवार, 4 फ़रवरी 2009
बंद हुई नदी, कहां जायें डॉल्फिन
दहाये हुए देस का दर्द 35
नदी और इंसान के अहं के टकराव में बेचारे डॉल्फिन हलाल हो गये। उन्हें क्या पता था कि जिस धारा में वे सैर कर रहे हैं वह वास्तव में नदी नहीं , बल्कि उसकी बहकी हुई धाराएं हैं, कि कभी भी ये धाराएं बांध दी जायेगी और वे अचानक बेगाने हो जायेंगे। लेकिन पिछले दस-पंद्रह दिनों से ऐसा ही हो रहा है। कोशी नदी की परिवर्तित धारा में इन दिनों डॉल्फिन मछलियों के सामने अजीब संकट खड़ा हो गया है। बड़ी संख्या में डॉल्फिन मछली जहां-तहां फंस गयी हैं।
जैसे ही कोशी के कुसहा कटान से पानी को पुराने प्रवाह में मोड़ा गया वैसे ही उसकी परिवर्तित धारा में पानी का प्रवाह बंद हो गया। नदी के अपने पुराने प्रवाह में लौटते ही परिवर्तित धारा में पानी तेजी से घटने लगा। उसका बहाव और वेग भी स्थिर होने लगे। लेकिन धारा के विपरीत सैर करने वाले डॉल्फिनों को नदी के चरित्र में अचानक आया यह बदलाव समझ में नहीं आ रहा। वे वेग की खोज में इधर-उधर भटकते फिर रहे हैं। क्योंकि ये नदी की करेंट को पढ़कर ही दिशा का ज्ञान हासिल करते हैं। लेकिन जब से पानी स्थिर हुआ है उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा। आगे जायें या पीछे। परिणामस्वरूप वह नदी से नाले और नहर की ओर भटकते फिर रहे हैं। भटक-भटक कर सुपौल और मधेपुरा जिले के कुछ पोखरों और तालाबों में भी डॉल्फिन मछलियां पहुंच जा रही हैं। कोशी की मार से मूर्छित ग्रामीणों को समझ में नहीं आ रहा कि वह इस विशालकाय प्राणी का करें तो क्या करें। किंकर्त्तव्यविमूढ़ ग्रामीणों के बीच तरह-तरह की टिप्पणियां हो रही हैं। कोई कहता है कि भगीरथ रो रहा है। कोई कहता है - यह अनिष्ट का सूचक है। पिछले दिनों सुपौल के ललितग्राम रेलवे स्टेशन के नजदीक परिवर्तित धारा के किनारे में एक मृत डॉल्फिन पाया गया। आसपास के ग्रामीण उसे देखने के लिए उमड़ पड़े। एक बूढ़ा उसे प्रणाम कर रहा था और कह रहा था- हे भगीरथ माफ करूं। पृथ्वी पर पाप बहुत बढ़ि गेल ये, ताहि सं अहांक संग-संग हम सब कें ई हाल भ गेल अछि।
ज्ञातव्य हो कि पूर्वी बिहार के लोग समुद्र के रास्ते गंगा से होकर कोशी में दाखिल होने वाले डॉल्फिन को भगीरथ कहते हैं। नेपाली लोग इसे गोह कहते हैं। बरसात के दिनों में जब नदी उफान पर होती है, तो इसके करतब देखते ही बनते हैं। ये डॉल्फिन पानी की सतह पर अजीब तरह की क्रीड़ा करते रहते हैं। ऐसा लगता है जैसे पानी में शरारती बच्चों की टोली उतर आयी हो और लुकाछिपी का खेल खेल रहे हों। दूसरी ओर कॉफर तटबंध के सहारे कोशी को पुराने प्रवाह में मोड़ने के बाद परिवर्तित प्रवाह में पानी तेजी से घटने लगा है और जैसे-जैसे पानी की मात्रा में कमी आयेगी वैसे-वैसे भटके डॉल्फिन की समस्या बढ़ती जायेगी। देश के संरक्षित जीवों की सूची में दर्ज और विलुप्ति की आशंका वाले प्राणियों में गिने जाने वाले इन डॉल्फिनों को बचाने के लिए प्रयास होना चाहिए। लेकिन कहीं कोई प्रयास नहीं हो रहा। वैसे भी कोशी इलाके में लाखों लोगों के सामने जान रक्षा की समस्या मुंह बाये खड़ी है, लेकिन उनका सुध लेने वाला कोई नहीं है। जब इंसान का यह हाल है तो अन्य जीवों के बारे में क्या बात की जाय!
मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009
बसने-उज़डने की अकथ कहानी (दूसरी क़डी)
दहाये हुए देस का दर्द-34
धारा को पार करने के बाद उसने मेरे आने का इंतजार नहीं किया और धूल भरे खेत में गुम होते चला गया। जाते-जाते उसने हाथ हिलाकर मेरी ओर अजीब तरह का इशारा किया था। एक ऐसा इशारा जिससे कोई अर्थ नहीं िनकलता। ऐसे इशारे दो ही स्िथतियों में िकए जा सकते हैं। एक तब जब व्यक्ित के सामने अचानक कोई ऐसी परिस्िथति उत्पन्न हो जाय िक उसे पलक झपकते स्थान बदलना प़ड जाय; दूसरा तब जब व्यक्ित कोई कायराना हरकत कर रहा हो या फिर अपने नैितक कत्त्र्ाव्य से िवमुख हो रहा हो। तब वह सामने वाले को िनरर्थक इशारा कर अपनी कायरता को छिपाने की कोिशश करता है।
उसका संग छूटते ही मैं िनस्संग हो गया, सामने से बह रही कोशी की उस उथली धारा की तरह। मैं देर तक उसके इस अप्रत्यािशत व्यवहार की वजह को समझने में लगा रहा, लेकिन िकसी िनर्णय पर नहीं पहुंच सका। यह तो बाद में पता चला कि वह मफलरधारी युवक वास्तव में एक डाकू था, जिसने अपने साथियों के साथ पिछली रात एक गांव में डाका डाला था और पुलिस से बचने के लिए कोशी िदयारा की ओर भागा चला जा रहा था। लेकिन मेरी समझ से वह अपनी नजर में काफी नीचे तक िगरा हुआ एक कायर शख्स था, जिसके िलए जीवन एक वेश्या के समान होता है; िजससे रति-सुख तो िमलता है, लेिकन प्रेम नहीं होता। उसके करतब बहादुरी नहीं, बल्िक बेसुधी थी; उसके मफलर मफलर नहीं वरन नकाब थे।
खैर! उस भगो़डे डाकू के भाग जाने के बाद मैंने अपने पतलून उतारे और धारा को पार कर िलया। बचपन की तैराकी के कारण मुझे यह आत्मिवश्वास था कि चाहे वेग कितना भी हो वह मुझे डूबा-भसा नहीं सकती। बचपन में हरदा-बो के पन-खेल में हम लोग इससे कई गुना ज्यादा तेज धारा और गहराई में डूबकी लगाते थे। धारा के उस पार जाने के बाद एक नजर दसों िदशा में दौ़डाई। दूर-दूर तक कहीं कोई बस्ती, कोई मानव, यहां तक जीवन-आहट सुनाई नहीं दे रहा था। हां, जेब से मोबाइल निकालकर देखा, तो उसमें नेटवर्क के टॉवर मौजूद थे। मुझे एक मोबाइल कंपनी के िवज्ञापन का स्लोगन याद आया- पानी नहीं, लेिकन टॉवर हैं, हवा नहीं लेकिन मोबाइल है। अगर मुझे उस कंपनी के एमडी मिल जायें तो अनुरोध करूं- अपने स्लोगन में एक पंक्ित और जो़ड दीजिए-- इंसान नहीं पर टॉवर है...
अब तक सुबह के लगभग सा़ढे दस बज गये थे । सुबह से छाये कुहासे धीरे-धीरे छंट रहे थे और धूप िखलने लगी थी। लेिकन मेरे पास दो ही िवकल्प थे या तो ऐसे ही बिना कुछ सोचे-िवचारे पश्िचम की ओर ब़ढ चलूं या फिर कहीं बैठकर मानव दर्शन का इंतजार करूं। मुझे दूसरा िवकल्प ही ठीक लगा। रेतीले खेतों के मध्य एक जगह मुझे थो़डी-सी हरियाली नजर आयी, वहीं जाकर बैठ गया। बैठने के साथ ही दिमाग में यादों-िवचारों के बादल मंडराने लगे। कोश्ाी तटबंध के अंदर के जीवन की सुनी हुई बातें एक-एक कर याद आने लगीं। कोशी नदी की विनाश-लीला के देखे-अनदेखे इतिहास की काल्पनिक तस्वीरें मस्ितष्क में चलने लगी। पिछले साल सहरसा से अपने गांव, फिंगलास जाते समय रास्ते में एक मिहला द्वारा सुनी दास्तान... वह महिला सहरसा के सदर अस्पताल से अपनी वहु की लाश लेकर लौट रही थी। पंचगछिया रेलवे स्टेशन पहुंचते-पहुंचते रेलवे के वेतनभोगी िगद्धों को बॉगी में लाश होने की भनक लग गयी थी। उन्होंने अचानक धावा बोल िदया।
एई बुिढया ! किसको सुताई हुई है सीट पर ? एकरा यहां उठाओ ।
बेराम (बीमार) है हुजूर ! इस्पीताल से घर ले जा रहे हैं। डागडर लोग िनरैश (असाध्य मान लेना) िदया, बहुते बेराम है सरकार, एही से (इसिलए) सुतल है।
मरीज है िक लाश है ? सा... बुि़ढया, हमको बु़डबक बना रही है ! हटाओ तो इसके ऊपर से चादर !
जनी-जात (स्त्री) है हुजूर, दजा कीिजए...
तोरा मालूम नहीं है िक ट्रेन में लाश ढोना मना है। अपन बाप की गा़डी समझ रखी है क्या? हटाओ इसको िहयां से, कि फेंकवा दे बाहर ...
ऐसा अनयाई (अन्याय) नहीं कीजिए सरकार ! इ रख लीिजए ।
केतना है ? सब बेमारी में खरीच हो िगया हुजूर, बस यैह पचस टक ही (पचास रुपये की नोट) ठो बचल है !
हमको ठगती है, उ खूट में क्या है ?
ई डागडर के पूर्जा (पर्ची) है, हेई लीजिए, खोलकर देख लीजिए ...
बस-बस। सब कल्लर-मच्छ़ड सब इसी ट्रेन में बैठ िगया है, हें-हें-हें...
ठीक है। सुन लो, पब्िलक से नहीं कहना कि ई लाश है। समझी।
हरो-हरो (एक-एक कर) सभी रेल-िगद्ध उतर गये। गा़डी खुल गयी। मानो गार्ड बाबू इन िगद्धों के वसूली अिभयान की प्रतीक्षा में ही रूके हों, जैसे ही वे उतरे, उन्होंने हरी झंडी िदखादी ।
उधर छुक-छुक कर इंजन ने सरकना चालू किया, इधर बुि़ढया का विलाप-कथा का आप-राग चालू हो गया । वह रो-रोकर अपना दुख़डा सुनाये जा रही थी। लेकिन किसे ? शायद किसी को नहीं, या फिर शायद सभी को... उन सबको िजनके कान बहरे हो चुके हैं और सुनकर भी कुछ नहीं सुनते और देखकर भी अंधे बने रहने को आधुनिक जीवन का नीयित मान चुके हैं।
बुि़ढया के विलाप-राग का सारांश यह थािक परसों रात आधी रात को उसकी छोटी वहु को पेट में दर्द शुरू हुआथा। जब दाई-लोगों से प्रसव का यह केस नहीं संभला, तो गांव के लोगों ने उसे खटिया पर लिटाकर भपिटयाही अस्पताल पहुंचाया। कोशी तटबंध के अंदर से भपिटयाही अस्पताल पहुंचने में ही पांच घंटे लग गये। आठ कोस की दूरी खिटया पर तय की उस प्रसवासन्न महिला ने । भपिटयाही में भी डॉक्टर ने हाथ ख़डा कर िदया। सहरसा के सदर अस्पताल ले जाते-जाते मिहला और अजन्मे िशशु दोनों की मौत हो गयी। मृत महिला का पित और देवर दोनों पंजाब में हैऔर ससुर को मरे वर्षों हो गये।
आब अकेले हम की करबै हो, महादेव ! कुन लगन में इ कपरजरी(अभागी) घर आयल हो भोला बाबा !!
रेत की दौ़डती लट्टू ने मुझे अपने आगोश में ले िलया। परिणामस्वरूप उस बुि़ढया का िवलाप-राग का कैसेट कहीं अटक गया। लेिकन इससे भी ज्यादा तेजी से जो दृश्य मेरे दिमाग आकर अटका वह था- सामने से गुजरती महिलाओं का एक झुंड। ये ग्रामीण महिलाएं थीं, जो शायद घास काटने के लिए घर से िनकली थी। मैंने जोर से अावाज लगायी, तो वे सभी महिला ठिठक कर रूक गयीं।
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अगले पोस्ट में जारी)