मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

बसने-उज़डने की अकथ कहानी (दूसरी क़डी)


दहाये हुए देस का दर्द-34

धारा को पार करने के बाद उसने मेरे आने का इंतजार नहीं किया और धूल भरे खेत में गुम होते चला गया। जाते-जाते उसने हाथ हिलाकर मेरी ओर अजीब तरह का इशारा किया था। एक ऐसा इशारा जिससे कोई अर्थ नहीं िनकलता। ऐसे इशारे दो ही स्िथतियों में िकए जा सकते हैं। एक तब जब व्यक्ित के सामने अचानक कोई ऐसी परिस्िथति उत्पन्न हो जाय िक उसे पलक झपकते स्थान बदलना प़ड जाय; दूसरा तब जब व्यक्ित कोई कायराना हरकत कर रहा हो या फिर अपने नैितक कत्त्र्ाव्य से िवमुख हो रहा हो। तब वह सामने वाले को िनरर्थक इशारा कर अपनी कायरता को छिपाने की कोिशश करता है।

उसका संग छूटते ही मैं िनस्संग हो गया, सामने से बह रही कोशी की उस उथली धारा की तरह। मैं देर तक उसके इस अप्रत्यािशत व्यवहार की वजह को समझने में लगा रहा, लेकिन िकसी िनर्णय पर नहीं पहुंच सका। यह तो बाद में पता चला कि वह मफलरधारी युवक वास्तव में एक डाकू था, जिसने अपने साथियों के साथ पिछली रात एक गांव में डाका डाला था और पुलिस से बचने के लिए कोशी िदयारा की ओर भागा चला जा रहा था। लेकिन मेरी समझ से वह अपनी नजर में काफी नीचे तक िगरा हुआ एक कायर शख्स था, जिसके िलए जीवन एक वेश्या के समान होता है; िजससे रति-सुख तो िमलता है, लेिकन प्रेम नहीं होता। उसके करतब बहादुरी नहीं, बल्िक बेसुधी थी; उसके मफलर मफलर नहीं वरन नकाब थे।

खैर! उस भगो़डे डाकू के भाग जाने के बाद मैंने अपने पतलून उतारे और धारा को पार कर िलया। बचपन की तैराकी के कारण मुझे यह आत्मिवश्वास था कि चाहे वेग कितना भी हो वह मुझे डूबा-भसा नहीं सकती। बचपन में हरदा-बो के पन-खेल में हम लोग इससे कई गुना ज्यादा तेज धारा और गहराई में डूबकी लगाते थे। धारा के उस पार जाने के बाद एक नजर दसों िदशा में दौ़डाई। दूर-दूर तक कहीं कोई बस्ती, कोई मानव, यहां तक जीवन-आहट सुनाई नहीं दे रहा था। हां, जेब से मोबाइल निकालकर देखा, तो उसमें नेटवर्क के टॉवर मौजूद थे। मुझे एक मोबाइल कंपनी के िवज्ञापन का स्लोगन याद आया- पानी नहीं, लेिकन टॉवर हैं, हवा नहीं लेकिन मोबाइल है। अगर मुझे उस कंपनी के एमडी मिल जायें तो अनुरोध करूं- अपने स्लोगन में एक पंक्ित और जो़ड दीजिए-- इंसान नहीं पर टॉवर है...

अब तक सुबह के लगभग सा़ढे दस बज गये थे । सुबह से छाये कुहासे धीरे-धीरे छंट रहे थे और धूप िखलने लगी थी। लेिकन मेरे पास दो ही िवकल्प थे या तो ऐसे ही बिना कुछ सोचे-िवचारे पश्िचम की ओर ब़ढ चलूं या फिर कहीं बैठकर मानव दर्शन का इंतजार करूं। मुझे दूसरा िवकल्प ही ठीक लगा। रेतीले खेतों के मध्य एक जगह मुझे थो़डी-सी हरियाली नजर आयी, वहीं जाकर बैठ गया। बैठने के साथ ही दिमाग में यादों-िवचारों के बादल मंडराने लगे। कोश्ाी तटबंध के अंदर के जीवन की सुनी हुई बातें एक-एक कर याद आने लगीं। कोशी नदी की विनाश-लीला के देखे-अनदेखे इतिहास की काल्पनिक तस्वीरें मस्ितष्क में चलने लगी। पिछले साल सहरसा से अपने गांव, फिंगलास जाते समय रास्ते में एक मिहला द्वारा सुनी दास्तान... वह महिला सहरसा के सदर अस्पताल से अपनी वहु की लाश लेकर लौट रही थी। पंचगछिया रेलवे स्टेशन पहुंचते-पहुंचते रेलवे के वेतनभोगी िगद्धों को बॉगी में लाश होने की भनक लग गयी थी। उन्होंने अचानक धावा बोल िदया।

एई बुिढया ! किसको सुताई हुई है सीट पर ? एकरा यहां उठाओ ।

बेराम (बीमार) है हुजूर ! इस्पीताल से घर ले जा रहे हैं। डागडर लोग िनरैश (असाध्य मान लेना) िदया, बहुते बेराम है सरकार, एही से (इसिलए) सुतल है।

मरीज है िक लाश है ? सा... बुि़ढया, हमको बु़डबक बना रही है ! हटाओ तो इसके ऊपर से चादर !

जनी-जात (स्त्री) है हुजूर, दजा कीिजए...

तोरा मालूम नहीं है िक ट्रेन में लाश ढोना मना है। अपन बाप की गा़डी समझ रखी है क्या? हटाओ इसको िहयां से, कि फेंकवा दे बाहर ...

ऐसा अनयाई (अन्याय) नहीं कीजिए सरकार ! इ रख लीिजए ।

केतना है ? सब बेमारी में खरीच हो िगया हुजूर, बस यैह पचस टक ही (पचास रुपये की नोट) ठो बचल है !

हमको ठगती है, उ खूट में क्या है ?

ई डागडर के पूर्जा (पर्ची) है, हेई लीजिए, खोलकर देख लीजिए ...

बस-बस। सब कल्लर-मच्छ़ड सब इसी ट्रेन में बैठ िगया है, हें-हें-हें...

ठीक है। सुन लो, पब्िलक से नहीं कहना कि ई लाश है। समझी।

हरो-हरो (एक-एक कर) सभी रेल-िगद्ध उतर गये। गा़डी खुल गयी। मानो गार्ड बाबू इन िगद्धों के वसूली अिभयान की प्रतीक्षा में ही रूके हों, जैसे ही वे उतरे, उन्होंने हरी झंडी िदखादी ।

उधर छुक-छुक कर इंजन ने सरकना चालू किया, इधर बुि़ढया का विलाप-कथा का आप-राग चालू हो गया । वह रो-रोकर अपना दुख़डा सुनाये जा रही थी। लेकिन किसे ? शायद किसी को नहीं, या फिर शायद सभी को... उन सबको िजनके कान बहरे हो चुके हैं और सुनकर भी कुछ नहीं सुनते और देखकर भी अंधे बने रहने को आधुनिक जीवन का नीयित मान चुके हैं।

बुि़ढया के विलाप-राग का सारांश यह थािक परसों रात आधी रात को उसकी छोटी वहु को पेट में दर्द शुरू हुआथा। जब दाई-लोगों से प्रसव का यह केस नहीं संभला, तो गांव के लोगों ने उसे खटिया पर लिटाकर भपिटयाही अस्पताल पहुंचाया। कोशी तटबंध के अंदर से भपिटयाही अस्पताल पहुंचने में ही पांच घंटे लग गये। आठ कोस की दूरी खिटया पर तय की उस प्रसवासन्न महिला ने । भपिटयाही में भी डॉक्टर ने हाथ ख़डा कर िदया। सहरसा के सदर अस्पताल ले जाते-जाते मिहला और अजन्मे िशशु दोनों की मौत हो गयी। मृत महिला का पित और देवर दोनों पंजाब में हैऔर ससुर को मरे वर्षों हो गये।

आब अकेले हम की करबै हो, महादेव ! कुन लगन में इ कपरजरी(अभागी) घर आयल हो भोला बाबा !!

रेत की दौ़डती लट्टू ने मुझे अपने आगोश में ले िलया। परिणामस्वरूप उस बुि़ढया का िवलाप-राग का कैसेट कहीं अटक गया। लेिकन इससे भी ज्यादा तेजी से जो दृश्य मेरे दिमाग आकर अटका वह था- सामने से गुजरती महिलाओं का एक झुंड। ये ग्रामीण महिलाएं थीं, जो शायद घास काटने के लिए घर से िनकली थी। मैंने जोर से अावाज लगायी, तो वे सभी महिला ठिठक कर रूक गयीं।

(अगले पोस्ट में जारी)



कोई टिप्पणी नहीं: