लगभग ग्यारह साल पहले की बात है। पटना के महेंद्रू मोहल्ला में छात्रों ने एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया था। गोष्ठी का विषय था- वैश्विक बाजारवाद और स्वदेशी। इसमें आजादी बचाओ आंदोलन के एक अत्यंत समर्पित कार्यकर्ता, संजय ने काफी विचारोत्तेजक भाषण दिया था। लेकिन यह गोष्ठी मुझे इसलिए आज तक याद है क्योंकि इसमें दसवें वर्ग के एक छात्र ने एक क्रांतिकारी बात कही थी। उसने कहा था- बाजारवाद पहले हमारे मूल्यों, संस्कृतियों, कलाओं और साहित्य को साफ करती है और उसके बाद पॉकेट को। बाजारवादी व्यवस्था में ऐसी तमाम चीजें बेमौत मर जाती हैं, जिनकी कीमत नहीं होती।
आज जब गुम हो रहे लोक शिल्प, लोक तकनीक, लोक कला आदि के बारे में सोचता हूं, तो उस छात्र का कथन बरबस याद आ जाता है। कोशी अंचल और उत्तरी बिहार के खत्म होते हस्त शिल्प और लोक तकनीक की सबसे बड़ी वजह यही है। पिछले दिनों मैंने अपने गांव के एक बांस बुनकर से जब पूछा कि उसने बांस के बर्तन बनाने क्यों छोड़ दिये, तो उसका जवाब था- गुजारा नहीं होता मालिक। कुछ ऐसा ही जवाब दिया था फिंगलास गांव के माधवलाल कुम्हार ने । उसने कहा था- आब त स्टील, प्लास्टिक के जमाना आबि गेले ये, माटि के वर्तन कियो नै किनै (खरीदते)छै । अब माधवलाल को कौन समझाये कि एक दिन स्टील खत्म हो जायेगा और प्लास्टिक को अगर खत्म नहीं किया गया तो वह हमें खत्म कर देगा। तब माटी ही साथ रहेगी, शायद माधवलाल जैसे माटीकार रहे या न रहे।
अब लौटता हूं कोशी अंचल की घास-कास की कताई कला के पतन की ओर। हालांकि मैंने इसकी वजह पता करने के लिए हर ओर दिमाग दौड़ाया। इस कला के जानकार बुजुर्गों से बात की। प्रादेशिक भाषा के प्रोफेसरों से जानना चाहा। यहां तक कि मिट्टी की महक सूंघने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों से राय ली, लेकिन कहीं से कोई संतोषजनक उत्तर नहीं आया। एक शाम को जब अपने गांव की गलियों से गुजर रहा था, तो अचानक इसका एक संकेत-सूत्र मिल गया। दरअसल, उस शाम एक बुढ़िया अपनी वहु से झगड़ रही थी और इस क्रम में वह उसे कामचोर, बेलूरी आदि-आदि की संज्ञा दे रही थी। बुढ़िया कह रही थी- पड़ोस की औरतों के साथ गप्प लड़ाने से तो अच्छा है घर में बैठकर कुछ कढ़ाई-बुनाई करना। क्या जमाना आ गया है। आज की लड़कियों को तो कुछ कातना-बुनना भी नहीं आता। टेलीविजन क्या आ गया, सारी कढ़ाई -बुनाई खत्म हो गयी।
इस बुढ़िया ने गुस्से-गुस्से में ही मेरे सवाल का जवाब दे दिया था। अगर सच कहें तो लोक शिल्प और लोक तकनीकों को खत्म करने में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का बहुत बड़ा हाथ रहा है। एक तो यह पश्चिमी और शहरी जीवन-शैली का प्रचार-प्रसार कर रही है, दूसरा यह समय व्यतीत करने का सबसे बड़ा माध्यम बन गया है। पहले गांवों में जब लोगों को खाली वक्त मिलता था, तो वे शौकिया तौर पर ही सही कुछ न कुछ कलात्मक काम करने लगते थे। दोपहर के समय लगभग हर महिलाएं कोई-न-कोई कढ़ाई-बुनाई करती दिखती थी। यह एक कलात्मक रूचि जैसी बात थी। विभिन्न मौकों पर वे इसका प्रदर्शन कर वाहवाही भी लूटती थीं। लेकिन जैसे-जैसे पश्चिमी जीवन शैली का प्रचार-प्रसार हुआ, सभी महिलाओं ने एक साथ अपनी लोक कलाओं, शिल्पों से तौबा कर ली। कताई-बुनाई के बदले उन्होंने टेलीविजन पर बैठकर सीरियल देखने को वरीयता दी। गांवों में देखा-देखी का रोग बहुत तेजी से फैलता है। उच्च और मध्यम वर्गों की देखा-देखी में निम्न मध्यम और निम्न वर्गों ने टेलीविजन खरीदना शुरू कर दिया। कढ़ाई-बुनाई उनके जीवन से गायब होते चली गयी।
पहले अगर किसी लड़की की ससुराल से विदाई के वक्त कलात्मक सामग्री नहीं भेजी जाती थी, तो यह पूरे गांव में चर्चा का विषय बन जाता था और लड़की के घरवालों की भद्द पीट जाती थी। लेकिन आज इस बात का मलाल किसी को नहीं होता कि विदाई में कढ़ाई-बुनाई का कोई समान नहीं आया है। आज बवाल तब मचता है जब लड़की अपने मायके से टीवी, फ्रीज, वाशिंग मशीन आदि लेकर ससुराल नहीं आती।
किसी भी लोक कला, लोक शिल्प, लोक तकनीक के पतन की पहली शर्त है कि वह अपने लोगों के बीच में ही अपना कलात्मक महत्व को खो दे। कद्रदानों के बिना कला जिंदा नहीं रह सकती। उत्तर बिहार की लोक कला इसी का शिकार है। दुखद बात यह है कि हमारी मानसिकता पराधीन होती जा रही है। हम अपने ही किसी कला, शिल्पों और कीर्तियों को तब तक महत्व नहीं देते जब तक उसे विदेश में महत्व न मिल जाये। मिथिला पेटिंग पिछले दो दशकों से इसलिए चर्चा में है क्योंकि इसे विदेशों में महत्व दिया गया। जबकि हकीकत यह है कि खुद मिथिला में यह वर्षों से उपेक्षित थी। मिथिला पेटिंग तो एक नमूना है, उत्तरी बिहार में ऐसी कलाओं की संख्या कभी सैंकड़ों में थी। लेकिन इसके कद्रदान नहीं थे। घास ,कास, बांस, जूट मिट्टी आदि की शिल्पकारी भी इन्हीं प्रवृत्तियों की शिकार है।
आज जब गुम हो रहे लोक शिल्प, लोक तकनीक, लोक कला आदि के बारे में सोचता हूं, तो उस छात्र का कथन बरबस याद आ जाता है। कोशी अंचल और उत्तरी बिहार के खत्म होते हस्त शिल्प और लोक तकनीक की सबसे बड़ी वजह यही है। पिछले दिनों मैंने अपने गांव के एक बांस बुनकर से जब पूछा कि उसने बांस के बर्तन बनाने क्यों छोड़ दिये, तो उसका जवाब था- गुजारा नहीं होता मालिक। कुछ ऐसा ही जवाब दिया था फिंगलास गांव के माधवलाल कुम्हार ने । उसने कहा था- आब त स्टील, प्लास्टिक के जमाना आबि गेले ये, माटि के वर्तन कियो नै किनै (खरीदते)छै । अब माधवलाल को कौन समझाये कि एक दिन स्टील खत्म हो जायेगा और प्लास्टिक को अगर खत्म नहीं किया गया तो वह हमें खत्म कर देगा। तब माटी ही साथ रहेगी, शायद माधवलाल जैसे माटीकार रहे या न रहे।
अब लौटता हूं कोशी अंचल की घास-कास की कताई कला के पतन की ओर। हालांकि मैंने इसकी वजह पता करने के लिए हर ओर दिमाग दौड़ाया। इस कला के जानकार बुजुर्गों से बात की। प्रादेशिक भाषा के प्रोफेसरों से जानना चाहा। यहां तक कि मिट्टी की महक सूंघने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों से राय ली, लेकिन कहीं से कोई संतोषजनक उत्तर नहीं आया। एक शाम को जब अपने गांव की गलियों से गुजर रहा था, तो अचानक इसका एक संकेत-सूत्र मिल गया। दरअसल, उस शाम एक बुढ़िया अपनी वहु से झगड़ रही थी और इस क्रम में वह उसे कामचोर, बेलूरी आदि-आदि की संज्ञा दे रही थी। बुढ़िया कह रही थी- पड़ोस की औरतों के साथ गप्प लड़ाने से तो अच्छा है घर में बैठकर कुछ कढ़ाई-बुनाई करना। क्या जमाना आ गया है। आज की लड़कियों को तो कुछ कातना-बुनना भी नहीं आता। टेलीविजन क्या आ गया, सारी कढ़ाई -बुनाई खत्म हो गयी।
इस बुढ़िया ने गुस्से-गुस्से में ही मेरे सवाल का जवाब दे दिया था। अगर सच कहें तो लोक शिल्प और लोक तकनीकों को खत्म करने में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का बहुत बड़ा हाथ रहा है। एक तो यह पश्चिमी और शहरी जीवन-शैली का प्रचार-प्रसार कर रही है, दूसरा यह समय व्यतीत करने का सबसे बड़ा माध्यम बन गया है। पहले गांवों में जब लोगों को खाली वक्त मिलता था, तो वे शौकिया तौर पर ही सही कुछ न कुछ कलात्मक काम करने लगते थे। दोपहर के समय लगभग हर महिलाएं कोई-न-कोई कढ़ाई-बुनाई करती दिखती थी। यह एक कलात्मक रूचि जैसी बात थी। विभिन्न मौकों पर वे इसका प्रदर्शन कर वाहवाही भी लूटती थीं। लेकिन जैसे-जैसे पश्चिमी जीवन शैली का प्रचार-प्रसार हुआ, सभी महिलाओं ने एक साथ अपनी लोक कलाओं, शिल्पों से तौबा कर ली। कताई-बुनाई के बदले उन्होंने टेलीविजन पर बैठकर सीरियल देखने को वरीयता दी। गांवों में देखा-देखी का रोग बहुत तेजी से फैलता है। उच्च और मध्यम वर्गों की देखा-देखी में निम्न मध्यम और निम्न वर्गों ने टेलीविजन खरीदना शुरू कर दिया। कढ़ाई-बुनाई उनके जीवन से गायब होते चली गयी।
पहले अगर किसी लड़की की ससुराल से विदाई के वक्त कलात्मक सामग्री नहीं भेजी जाती थी, तो यह पूरे गांव में चर्चा का विषय बन जाता था और लड़की के घरवालों की भद्द पीट जाती थी। लेकिन आज इस बात का मलाल किसी को नहीं होता कि विदाई में कढ़ाई-बुनाई का कोई समान नहीं आया है। आज बवाल तब मचता है जब लड़की अपने मायके से टीवी, फ्रीज, वाशिंग मशीन आदि लेकर ससुराल नहीं आती।
किसी भी लोक कला, लोक शिल्प, लोक तकनीक के पतन की पहली शर्त है कि वह अपने लोगों के बीच में ही अपना कलात्मक महत्व को खो दे। कद्रदानों के बिना कला जिंदा नहीं रह सकती। उत्तर बिहार की लोक कला इसी का शिकार है। दुखद बात यह है कि हमारी मानसिकता पराधीन होती जा रही है। हम अपने ही किसी कला, शिल्पों और कीर्तियों को तब तक महत्व नहीं देते जब तक उसे विदेश में महत्व न मिल जाये। मिथिला पेटिंग पिछले दो दशकों से इसलिए चर्चा में है क्योंकि इसे विदेशों में महत्व दिया गया। जबकि हकीकत यह है कि खुद मिथिला में यह वर्षों से उपेक्षित थी। मिथिला पेटिंग तो एक नमूना है, उत्तरी बिहार में ऐसी कलाओं की संख्या कभी सैंकड़ों में थी। लेकिन इसके कद्रदान नहीं थे। घास ,कास, बांस, जूट मिट्टी आदि की शिल्पकारी भी इन्हीं प्रवृत्तियों की शिकार है।
1 टिप्पणी:
घास की कटाई और बुनाई - तरह तरह की उपयोगी और मनमोहक चीजें , मगध क्षेत्र में भी प्रचलित थी. बट्टे , मनमोहक सौन्दर्य प्रसाधन रखने लायक छोटे बट्टे , संदूक और अलग अलग साइज़ की मंजुशाएं . लेकिन सदियों से संचित और परिष्कृत यह कला १९७० तक आते आते दम तोड़ चुकी थी . इससे पहले की यह कला और कारीगर विलुप्त हो जाय ,इसका दस्तावेजी रिकॉर्ड बनाने की जरूरत है . पश्चीम के देश जो अपनी विरासत की क़द्र करते हैं वहाँ ऐसी चीजों को समर्पित संग्रहालय भरे पड़े हैं.
जानकारी के लिए आभार
शुक्रिया मेरे ब्लॉग पर आने के लिए . विचारों का इसी तरह आदान प्रदान होता रहे इसी उम्मीद के साथ .
सादर
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