सदियों-सदियों तक संघर्ष करती हैं पीढ़ियां, तो कहीं जाकर एक सभ्यता आकार लेती है। ऐसी सभ्यताएं अपनी जरूरतों और उपलब्ध संसाधनों के बीच में गजब का संतुलन बनाकर आगे बढ़ती है। एक ऐसा संतुलन जो मानव और प्रकृति के बीच संघर्ष की स्थिति पैदा नहीं करती। ऐसी सभ्याताएं परमुखापेक्षी भी नहीं होती। वे अपने आसपास की आवोहवा से निर्देशित होती है। वे अपनी मिट्टी में उपजने वाले अन्न से अपने भोजन व्यवहार, रीति-रिवाज, भेष-भूषा, पहनावे-ओढ़ावे आदि विकसित करती है। उनके पास स्वदेसी तकनीकें होती हैं, जिनसे वे अपनी सारी जरूरतों को पूरी कर लेती हैं। लेकिन आधुनिक सभ्यता ने इस कांसेप्ट को तहस-नहस कर दिया है। बाजार ने वस्तु मात्र का वैश्वीकरण नहीं किया है, बल्कि इसने मनुष्य की आदतों का भी वैश्वीकरण कर दिया है। हम ऐसे खानपान के आदि हो रहे हैं, जिसका निर्माण हमसे हजारों किलोमीटर दूर होता हो। हम ऐसे कपड़े पहनने लगे हैं, जो कहां बनते, हमें नहीं पता। हम ऐसे सामान के इस्तेमाल के अभ्यस्त हो गये हैं, जिन्हें सिर्फ बड़े कारखाने और विकसित देशों में ही बनाये जा सकते हैं। इसका नतीजा सामने हैं। हमारे सदियों पुराने लोक-तकनीक लापता हो रहे हैं। बुनाई-कताई का हमारा पारंपरिक ज्ञान खत्म हो रहा है। स्थिति तो यह हो गयी है विगत 25-30 वर्षों में ही हमने करीब चार दर्जन लोक-तकनीकों को खो दिया है और जो कुछ बची-खुची लोक-तकनीकें हैं वे भी तेजी से खत्म होने की ओर अग्रसर हैं। आने वाले वर्षों में अगर हमारी कोई पीढ़ी इन देसी-तकनीकों का पुनर्ज्ञान हासिल करना भी चाहे तो नहीं कर पायेगा। क्योंकि हमारे देश में लोक-तकनीकें और लोक-हुनर स्मृतियों के माध्यम से ही आगे बढ़ते रहे हैं। कभी कोई सरकार ने इन तकनीकों और इन कौशलों के डाक्यूमेंटेशन का प्रयास नहीं किया। इसका मतलब यह हुआ कि अगर बीच की कोई एक पीढ़ी किन्हीं कारणों से अपने पारंपरिक लोक-तकनीक को त्याग दे तो वे तकनीक, वे कला, वे प्रौद्योगिकी सदा के लिए समाप्त हो जायेंगे और हमारे देश में यही हो रहा है।
इस क्रम में मुझे पूर्वी और उत्तरी बिहार खासकर कोशी अंचल की कुछ लोक-तकनीकें याद आ रही हैं। महज 15-20 वर्ष पहले तक इस अंचल में दर्जनों लोक-तकनीकें जिंदा थीं। कृषि आधारित कोशी अंचल की सभ्यताएं अपनी जरूरतों के लिए लगभग हर समान खुद बना लेते थे। चाहे वह दैनिक जरूरत का समान हो या फिर दूरगामी जरूरत के कृषि यंत्र हों। इसलिए यहां बांस, पटसन, घास, कपास, लकड़ी आधारित हस्तक रघा उद्यम घर-घर में प्रचलित थे। बांस, लकड़ी, फूस और पटसन की मदद से यहां के लोग एक-से-एक बड़े आलीशान बंगले बनाते थे। इसकी कभी इतनी प्रसिद्धि थी कि अंग्रेज अधिकारी को जब कोशी अंचल में भेजा जाता था, तो वे इलाके के कारीगरों को बुलाकर आरामदायक बंगले बनवाते थे। ये बंगले प्राकृतिक रूप से एयरकंडीसंड होते थे, जो गर्मी के मौसम में ठंड और सर्दी के मौसम में गर्म होते थे। लेकिन आज टॉर्च जलाकर खोजें, तो भी इन बंगलों के कारीगर नहीं मिलें। बांस से बनने वाले दैनिक घरेलू जरूरतों के सामान मसलन सुप,टोकरी, कुर्सी आदि बनाने की देसी तकनीकें भी गुम हो रही हैं। लेकिन सबसे तेजी से जो लोक-तकनीक खत्म हुई है वह है - कास और घास से बनने वाले विभिन्न प्रकार के बर्त्तन बनाने की हस्त-तकनीक।
ज्यादा समय नहीं बीते हैं-जब वर्षा ॠतु के खत्म होते ही कोशी अंचल की युवतियां-महिलाएं कास की कोंपलें बटोरने मैदानों में निकल जाती थीं। कास के इन कोंपलों को मूंज कहा जाता था। इन मूंजों को सूखाकर और लंबी-सूखी घास के तने से जो बर्त्तन तैयार होते थे, उनकी गुणवत्ता और खूबसूरती को शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। इन बर्त्तनों में गहने रखने के लिए पौती (आभूषण केस), रुपये-पैसे रखने के लिए बटुआ (बटुआ), बच्चों के खाने के लिए कटोरानुमा वर्त्तन- मउनी, फूल रखने के लिए फूलडाली, अनाज ढोने-उठाने और उन्हें पसारने के लिए दौरी, मवेशियों के गोबर उठाने और फेंकने के लिए दाउरा आदि शामिल है। इन वर्त्तनों पर तरह-तरह की छवियां उकेरी जाती थीं। मूंजों और घासों को विभिन्न प्रकार के जड़ों,कंद-मूल, फल-फूलों से तैयार किए गये रंगों से रंगीन बनाया जाता था। लोग इन छवियों को देखकर हैरान रह जाते थे। इनमें देवी-देवताओं, परियों, जंतुओं की मोहक तस्वीर दिखती थी। यह एक प्रकार की लोककला थी, जिसे हमारे पुरखों ने दैनिक जरूरतों में जोड़कर विकसित किया था। हस्त शिल्प का यह अनोखा उदाहरण था, जो दुनिया में कहीं भी देखने को नहीं मिलता। इन तकनीकों और हस्त कलाओं पर महिलाओं का एकाधिकार होता था। युवतियांें को अपनी मां-चाची, मौसी और पड़ोसिनों से यह कला विरासत में मिलती थी और इनमें माहिर होकर ही वह दक्ष स्त्री का दर्जा पाती थी। यही कारण है कि मां-पिता अपनी बेटियों को ससुराल विदा करते समय उनके द्वारा तैयार की गयी हस्तनिर्मित शिल्पाकीर्ती साथ में देते थे ताकि ससुराल वाले भी दुल्हन की कला से रूबरू हो सकें। लेकिन आज ये कलाएं और ये शिल्प लगभग खत्म हो चुके हैं। घास और कास की जगह स्टील और प्लास्टिक ने ले ली है। कुछ बुढ़ी औरतों को अगर छोड़ दिया जाय तो अब एक भी ऐसी महिला नहीं मिलती जिन्हें यह कला आती हो। नई पीढ़ी में तो अधिकांश को यह भी पता नहीं कि मउनी किसे कहते हैं और पौती की शक्ल कैसी होती है।
कोशी अंचल में जूट (पटसन) की उपज बहुत अच्छी होती है। इसलिए यहां सदियों से पटसन आधारित हस्त शिल्प की तकनीकें चलती आ रही हैं। पटसन से तरह-तरह की रस्सियां बनाने की तकनीकें इस समाज में मौजूद रहे हैं। इन रस्सियों में ऐसे-ऐसे गांठ बनाये जाते थे कि जैसे ये गांठ नहीं बटन हो। इन रस्सियों से खटिया बुनने, घर बनाने से लेकर तमाम तरह के कृषि कार्य किए जाते थे। लेकिन आज रस्सी बुनने की कला भी इलाके से खत्म हो रही है। पटसन की रस्सी की जगह तेजी से प्लास्टिक और मशीन निर्मित नारियल की रस्सी ले रही है।
लोक-कला और देसी तकनीकों के इस पतनोन्मुख प्रवृत्ति को देखकर रोने का मन करता है। जिसे हमारे पुरखों ने वर्षों-वर्षों में हासिल किया उसे हम चंद वर्षों में भूला बैठे। अतीत की इन थातियों का ऐसा अंजाम भी होगा, शायद हमारे पुरखों ने सोचा भी न होगा।
(दूसरी कड़ी में हम उन वजहों को ढ़ूंढने की कोशिश करेंगे जो हमारे पारंपरिक ज्ञान, कौशल, कला और शिल्पों को निगल रही हैं। अगर आपके पास भी इस संबंध में कोई जानकारी या खोज या अनुसंधान हों तो उन्हें यहां जरूर रखें। हम आपका स्वागत करते हैं)
इस क्रम में मुझे पूर्वी और उत्तरी बिहार खासकर कोशी अंचल की कुछ लोक-तकनीकें याद आ रही हैं। महज 15-20 वर्ष पहले तक इस अंचल में दर्जनों लोक-तकनीकें जिंदा थीं। कृषि आधारित कोशी अंचल की सभ्यताएं अपनी जरूरतों के लिए लगभग हर समान खुद बना लेते थे। चाहे वह दैनिक जरूरत का समान हो या फिर दूरगामी जरूरत के कृषि यंत्र हों। इसलिए यहां बांस, पटसन, घास, कपास, लकड़ी आधारित हस्तक रघा उद्यम घर-घर में प्रचलित थे। बांस, लकड़ी, फूस और पटसन की मदद से यहां के लोग एक-से-एक बड़े आलीशान बंगले बनाते थे। इसकी कभी इतनी प्रसिद्धि थी कि अंग्रेज अधिकारी को जब कोशी अंचल में भेजा जाता था, तो वे इलाके के कारीगरों को बुलाकर आरामदायक बंगले बनवाते थे। ये बंगले प्राकृतिक रूप से एयरकंडीसंड होते थे, जो गर्मी के मौसम में ठंड और सर्दी के मौसम में गर्म होते थे। लेकिन आज टॉर्च जलाकर खोजें, तो भी इन बंगलों के कारीगर नहीं मिलें। बांस से बनने वाले दैनिक घरेलू जरूरतों के सामान मसलन सुप,टोकरी, कुर्सी आदि बनाने की देसी तकनीकें भी गुम हो रही हैं। लेकिन सबसे तेजी से जो लोक-तकनीक खत्म हुई है वह है - कास और घास से बनने वाले विभिन्न प्रकार के बर्त्तन बनाने की हस्त-तकनीक।
ज्यादा समय नहीं बीते हैं-जब वर्षा ॠतु के खत्म होते ही कोशी अंचल की युवतियां-महिलाएं कास की कोंपलें बटोरने मैदानों में निकल जाती थीं। कास के इन कोंपलों को मूंज कहा जाता था। इन मूंजों को सूखाकर और लंबी-सूखी घास के तने से जो बर्त्तन तैयार होते थे, उनकी गुणवत्ता और खूबसूरती को शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। इन बर्त्तनों में गहने रखने के लिए पौती (आभूषण केस), रुपये-पैसे रखने के लिए बटुआ (बटुआ), बच्चों के खाने के लिए कटोरानुमा वर्त्तन- मउनी, फूल रखने के लिए फूलडाली, अनाज ढोने-उठाने और उन्हें पसारने के लिए दौरी, मवेशियों के गोबर उठाने और फेंकने के लिए दाउरा आदि शामिल है। इन वर्त्तनों पर तरह-तरह की छवियां उकेरी जाती थीं। मूंजों और घासों को विभिन्न प्रकार के जड़ों,कंद-मूल, फल-फूलों से तैयार किए गये रंगों से रंगीन बनाया जाता था। लोग इन छवियों को देखकर हैरान रह जाते थे। इनमें देवी-देवताओं, परियों, जंतुओं की मोहक तस्वीर दिखती थी। यह एक प्रकार की लोककला थी, जिसे हमारे पुरखों ने दैनिक जरूरतों में जोड़कर विकसित किया था। हस्त शिल्प का यह अनोखा उदाहरण था, जो दुनिया में कहीं भी देखने को नहीं मिलता। इन तकनीकों और हस्त कलाओं पर महिलाओं का एकाधिकार होता था। युवतियांें को अपनी मां-चाची, मौसी और पड़ोसिनों से यह कला विरासत में मिलती थी और इनमें माहिर होकर ही वह दक्ष स्त्री का दर्जा पाती थी। यही कारण है कि मां-पिता अपनी बेटियों को ससुराल विदा करते समय उनके द्वारा तैयार की गयी हस्तनिर्मित शिल्पाकीर्ती साथ में देते थे ताकि ससुराल वाले भी दुल्हन की कला से रूबरू हो सकें। लेकिन आज ये कलाएं और ये शिल्प लगभग खत्म हो चुके हैं। घास और कास की जगह स्टील और प्लास्टिक ने ले ली है। कुछ बुढ़ी औरतों को अगर छोड़ दिया जाय तो अब एक भी ऐसी महिला नहीं मिलती जिन्हें यह कला आती हो। नई पीढ़ी में तो अधिकांश को यह भी पता नहीं कि मउनी किसे कहते हैं और पौती की शक्ल कैसी होती है।
कोशी अंचल में जूट (पटसन) की उपज बहुत अच्छी होती है। इसलिए यहां सदियों से पटसन आधारित हस्त शिल्प की तकनीकें चलती आ रही हैं। पटसन से तरह-तरह की रस्सियां बनाने की तकनीकें इस समाज में मौजूद रहे हैं। इन रस्सियों में ऐसे-ऐसे गांठ बनाये जाते थे कि जैसे ये गांठ नहीं बटन हो। इन रस्सियों से खटिया बुनने, घर बनाने से लेकर तमाम तरह के कृषि कार्य किए जाते थे। लेकिन आज रस्सी बुनने की कला भी इलाके से खत्म हो रही है। पटसन की रस्सी की जगह तेजी से प्लास्टिक और मशीन निर्मित नारियल की रस्सी ले रही है।
लोक-कला और देसी तकनीकों के इस पतनोन्मुख प्रवृत्ति को देखकर रोने का मन करता है। जिसे हमारे पुरखों ने वर्षों-वर्षों में हासिल किया उसे हम चंद वर्षों में भूला बैठे। अतीत की इन थातियों का ऐसा अंजाम भी होगा, शायद हमारे पुरखों ने सोचा भी न होगा।
(दूसरी कड़ी में हम उन वजहों को ढ़ूंढने की कोशिश करेंगे जो हमारे पारंपरिक ज्ञान, कौशल, कला और शिल्पों को निगल रही हैं। अगर आपके पास भी इस संबंध में कोई जानकारी या खोज या अनुसंधान हों तो उन्हें यहां जरूर रखें। हम आपका स्वागत करते हैं)
2 टिप्पणियां:
अच्छी जानकारी दी आपने लोक-कला और देसी तकनीकों की......आज भी इनके कद्रदान नहीं मिलेंगे....ऐसी बात नहीं है ....पर कमी है तो सिर्फ व्यवस्था की......युवा यहां वहां रोजगार के लिए भटकते रहते हें.....पर अपने क्षेत्र की ऐसी तकनीकों को दुनिया के सम्मुख लाने और उसका उचित मूल्य प्राप्त करने की कोशिश नहीं करते हैं।
बहुत अच्छी जानकारी दी है।आभार।
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