कोशी अंचल में लोक कला की सदियों पुरानी परंपरा है। यहां की बोली लोकोक्ति, मुहावरा, चुटकलों और फकड़ों से भरी है। लेकिन दुर्भाग्य यह कि आंचलिक साहित्य की सतत उपेक्षा के कारण आज ये सदियों पुरानी लोकोक्तियां लुप्तप्राय हो गयी हैं। ये लोकोक्ति और फकड़े अपने आप में गहन दार्शनिक अर्थ रखते हैं और सदियों के जीवनानुभवों को समेटे हुए हैं। मैं इन्हें "हमारे गांवों की लोकोक्ति' कॉलम के जरिए आप लोगों के सामने लाने की कोशिश कर रहा हूं।
हम सुनर हमर कनिया सुनरी
बांकी सब बनरा- बनरी
बांकी सब बनरा- बनरी
(विश्लेषण- अहंकार और आत्मुग्ध लोगों की कुपित मानसिकता की व्याख्या। ऐसी मनोस्थिति का शिकार आदमी मानने लगता है कि पूरी दुनिया में या तो वह श्रेष्ठ है या फिर उनकी पत्नी बांकी लोग तो निरा मूर्ख हैं , बंदर और बंदरिया की तरह )
भेल ब्याह मोर करबअ कि
धिया छोड़ि कें लेबअ कि
धिया छोड़ि कें लेबअ कि
(विश्लेषण- अवसरवादी लोगों की मानसिकता की व्याख्या। अवसरवादी आदमी काम निकल जाने के बाद उसी तरह मुख मोड़ लेता है जैसे बेटी की शादी के बाद थका हुआ बाप बेफिक्र होकर चैन की नींद सो जाता है और लड़के वालों की संभावित मांगों का अनुमान लगाकर खुद को आश्वासन देता है कि अब तो शादी हो गयी, अब तो मैं अपनी बेटी उन्हें दे चुका हूं। इसके अलावा और क्या दूंगा और वे लेना भी चाहेंगे तो क्या लेंगे ?)
4 टिप्पणियां:
अच्छी पहल!
रंजीत जी,
नीक लागल अहाँक प्रयास। सचमुच एहि भागमभाग जिनगी मे बहुत किछु छूटल जाऽ रहल अछि। हमर शुभकामना।
हम कोशी अंचलक चैनपुर गाम सँ छी।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
अपने अंचल की विलुप्त होती सम्पदा को लेकर आपका प्रयास अनुकरणीय है. कुछ चीज़ें अब तक हमेशा के लिए हमसे विदा ले चुकी है.
सुन्दर शुरुआत है.............
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