शुक्रवार, 12 जून 2009

नदी की लाश / (एक लघु कथा )

सात दिनों तक सौ मन सड़र-धुमन जलाया गया । कई क्विंटल चंदन की लकड़ी जलायी गयी । धूप और अगरबत्ती से वह घाट धुआं-धुआं रहा। लेकिन अफसोस ! नदी से बदबू नहीं गयी। लोग हताश होने लगे। वे एक-दूसरे को पूछने लगे कि आखिर नदी को हुआ क्या है? इसका पानी काला क्यों हो गया है? यह इतना बदबू क्यों दे रही है? नामी पंडित बुलाये गये। विख्यात पुजारी आये। पर्यावरण प्रेमियों और जल वैज्ञानिकों ने भी तशरीफ लाया । और लंबी बहस-मुबाहिसों के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया कि यह नदी जो कभी जीवनदायिनी थी अब अत्यधिक प्रदूषित हो गयी है। इसलिए इसके जल काले और बदबूदार हो गये हैं।
इसके पश्चात एकमत से फैसला लिया गया कि नदी को प्रदूषण मुक्त करने के लिए सरकार से अपील की जायेगी। "नदी मुक्ति मोर्चा' और "नदी बचाओ आंदोलन' जैसे संगठन बनाये जायेंगे। अगर सरकार नहीं सुनी तो बड़ा आंदोलन छेड़ा जायेगा। इसके बाद देर रात तक नदी-चिंतकों की पार्टी-शार्टी चलती रही। उनकी सूची में एक और नदी का नाम जुड़ गया था। इस बात से वे फूले नहीं समा रहे थेऔर जाम पर जाम छलकाये जा रहे थे।
जबकि उधर घाट पर सोये हुए भिखारी ने मध्य रात्रि में एक सपना देखा। उसके सपने में नदी आयी और हंसने लगी। नदी हंसती जा रही थी, हंसती जा रही थी, हंसती ही जा रही थी। इससे भिखारी भयभीत हो गया। वह हाथ जोड़कर नदी के सामने नतमस्तक हो गया और बोला-
"माते, आप इस तरह लगातार हंसती ही क्यों जा रही हो, मेरे से कोई भूल हो गयी है क्या ?'
नदी बोली- " मैं तुम पर नहीं, लोगों की मुर्खता पर हंस रही हूं । वे मुझे साफ करने की बात कर रहे हैं और बदबू से छुटकारा पाना चाहते हैं ? लेकिन उन्हें नहीं मालूम कि लाश को लाख साफ कर लो , इत्र-धुमन दिखा दो, वह कभी साफ हो सकती है क्या ? उसकी बदबू खत्म हो सकती है क्या?'
भिखारी ने कहा- "माते, यह आप क्या कह रही हैं ?'
नदी ने कहा- "सच कह रही हूं । मैं मर चुकी हूं। अब घाटों से होकर मैं नहीं, मेरी लाश बह रही है।'
सुबह जब भिखारी की नींद खुली,तो वह देर तक यह सोचते रहा कि आखिर नदी माता उसके सपने में ही क्यों आयी? न तो वह धुप-अगरबत्ती जलाने वालों में शामिल था और न ही नदी चिंतकों की बैठक और रात वाली पार्टी में शरीक हुआ था। इस बात को लेकर भिखारी दिन भर परेशान रहा, फिर भी वह किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सका।

11 टिप्‍पणियां:

Science Bloggers Association ने कहा…

सोचने को विवश करती रचना। बधाई।

-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

रंजना ने कहा…

अभिभूत कर गयी आपकी यह लघु कथा......

सत्य कहा आपने,मनुष्य ने अपनी जीवनदायिनी को अपने ही हाथों मार डाला है...अब लाश सडान्घ ही तो मारेगी.

अजय कुमार झा ने कहा…

आदरणीय रणजीत जी..सच कहूँ तो पर्यावरण और नदियों की दुर्दशा पर इतनी सशक्त अभिव्यक्ति मैंने आज तक नहीं पढ़ी..सच ही तो है आज नदियाँ मर चुकी हैं ..और हम गिध्ध की तरह अभी भी उसे नोचे खसोटे जा रहे हैं...स्तब्ध हूँ..बहुत ही बढ़िया..

Unknown ने कहा…

hila diya aapne bheetar tak..............
BADHAAI !

रंजीत/ Ranjit ने कहा…

अजय जी, हौसला अफजाई के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। आपके रिमार्क यह बताने के लिए काफी है कि आजकल पर्यावरण पर काम कम और शोर ज्यादा हो रहा है। लेकिन अब लोगों को उनसे हिसाब मांगना चाहिए।
आप सबों का आभार कि आपने मुझे सुना।
रंजीत

दिगम्बर नासवा ने कहा…

गहरी बात लिखी है......भिखारी तो एक माध्यम है पर अगर ये बात सब समझ सकें तो शायद कुछ सुधार हो जाए

RAJNISH PARIHAR ने कहा…

आपकी बातों से सहमत हूँ...!पर्यावरण के नाम पर शोर ज्यादा हो रहा है और काम कम..!और जो लोग वास्तव में काम कर रहे है वे कभी अख़बारों की खबर नहीं बनते,उन्हें चंदा,सहयोग आदि कुछ नहीं मिलता....!और एक दिन वे थक हार कर इस नदी को इसी स्वरूप में स्वीकार कर लेते है...

!!अक्षय-मन!! ने कहा…

बहुत ही गहरा लिखा ये लघु कथा तो है लेकिन बात बहुत बड़ी कह गई.............
बहुत ही गहरा लिखा ये लघु कथा तो है लेकिन बात बहुत बड़ी कह गई.............

मेरे ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है.......

बेनामी ने कहा…

touching story...

मोना परसाई ने कहा…

सशक्त कथा , रोचकता के साथ सामाजिक संदेश देती हुई .

kalpana lok ने कहा…

bahut khub. shandar..