दहाये हुए देस का दर्द-46
नशा, बिपत्ति और दरिद्रता में शायद कोई-न-कोई रिश्ता है। गरीबी और त्रासदी जहां कहीं जाती हैं, नशा व व्यसन को संग कर लेती हैं। शायद इसलिए कि गरीबी और त्रासदी को मौत व मातम से गहरा लगाव है। सदियों-सदी से वे एक-दूसरे के सहोदर बने हुए हैं। अगर मौत व मातम न रहे, तो दरिद्रता व बिपत्ति कितनी बदसूरत लगेगी। लोग गरीबों के रंग-ढ़ंग पर शंका करने लगेंगेऔर फिर गरीबों के कारोबारियों का क्या होगा ? शायद इसलिए , नशा रोग का सबसे प्रिय दोस्त है और रोग मौत का परम-मीत। शायद इसलिए गरीबी व बिपत्ति का जी जब कुपोषण, आत्महत्या, पलायन आदि से नहीं भरता, तो वे अपने साथ गांजा, हड़िया, ताड़ी, भंग आदि को ले आती हैं।
पिछले दिनों कोशी के उजड़े दयारों से लौटने के बाद मेरे मन में ऐसे ख्याल बार-बार आते रहे। हालांकि मैं जानता हूं कि मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्री मेरे इस गंवार विचार को सुनकर चौअन्नी निपोड़ लेंगे। विद्वानों की तो छोड़िये, वे किन्हीं पर हंस सकते हैं, किन्हीं को व्यंग्य-पात्र बना सकते हैं। उनके सात खून माफ हैं। लेकिन मुझे शक है कि कोई भी समझदार आदमी मेरे इस ठेठ मत से सहमत होंगे।
खैर, मैं भी मान लेता हूं। अक्सर सन्निपात का शिकार आदमी बकने लगता है। लेकिन डॉक्टर लोग भी कहते हैं कि कभी-कभी सन्निपातियों के बकवास में ही उसके इलाज के सूत्र छिपे होते हैं, इसलिए उनकी बातों को माने या न माने, लेकिन सुने जरूर। तो आप भी मेरे साथ चलिए कोशी के उन गांवों में, जहां आजकल भनसा घरों (भोजन बनाने वाले घर) से चूल्हा का धुआं भले नहीं उठे, लेकिन हर घर से गांजे के धुएं उठ रहे हैं, हर पहर और हर तरफ। घर में अन्न नहीं है, लेकिन गांजा है। घर में बर्त्तन नहीं है, लेकिन चीलम (गांजा पीने वाला, मिट्टी की डिबिया)है। अजी घर भी क्या है, बांस-फूस से बनी सिर छिपाने की झोपड़ी है। सुपौल के प्रतापगंज ब्लॉक के तिलाठी गांव का है मुन्नीलाल। तिलाठी गांव पिछली बाढ़ में मटियामेट हो गया था। कुछ मुन्नीलाल की सुन लीजिए।
"2100 रुपये दिए थे नीतीश बाबू के बीडीओ-कलस्तर ने... पांच सौ तो पंचायत सेवक जोधन जादव खा गिया, बचा 1600 । तीन सौ टका में बुढ़िया के नुआ (साड़ी) खरीदा, बचा 1300। सौ टका में एक मन मड़ुआ खरीदा, बचा 1200। अपने लिए एक ठो लूंगी खरीदा और एक ठो गंजी जिसमें 100 टका खरिच हो गया। बचा 1100 सौ। सिघेंश्वर भगवान की कसम, अब ई ग्यारह सौ में पांच मास (माह)से टिके हैं। '
"अगला खेप कब मिलेगा हो जोधन ?'
"जब मिलेगा तो बता देंगे... वैसे सब बेर तुमको ही मिलेगा क्या ? वोट दिया था तीर में ???'
"नहीं ...'
" किसको दिया था रे, उ सरवा हाथ छाप को कि बंगला छाप को ? '
" इ तो हम आपको नहीं बतायेंगे... '
"... तो घड़ीघंट बजाओ आउर खूब गांजा फूंको, साला ! नेपाल का सब गांजा कोशी में भर गिया है...'
" जब पेट में दाना नहीं रहेगा न, तब तुम भी गांजे को याद करेगा। एक सोंट खैंच लेते हैं तो न कल्लो (खाना)का फिकर न जलखई (नास्ता) के... हेंहेहें... '
जोधन ने ठीक कहा। नेपाल का सारा गांजा कोशी में पहुंच गया है। सुपौल, अररिया, मधेपुरा और सहरसा जिले के हर छोटे बाजार-हाट में आजकल गांजा धड़ल्ले से बिक रहे हैं। लोग कहते हैं कि बिपत्ति में यह बड़ा सहायक सिद्ध हो रहा है। त्रासदी के मारे लोग आजकल गांजा पीकर ही दिन बिता रहे हैं। लेकिन पुलिस-थाने वालों को कोई खबर नहीं। वे पहले तो इस मुद्दे पर कुछ बोलते नहीं। बहुत कुरेदने पर भड़क उठते हैं। प्रतापगंज के दारोगा ने मुझसे कहा- "आप पत्रकार लोग न किसी चीज को लेकर बैठ जाते हैं। अरे इसमें नया क्या है ? घर में खाने के लिए कुछ नहीं है, तो गांजा और भंग नहीं खाये, तो क्या बालू फांके ??? फिर संयत हो गये, बोले- छापियेगा नहीं, वैसे हमलोग पूरी कार्रवाई कर रहे हैं...'
तिलाठी से आगे बढ़ा, तो चुन्नी पहुंचा। वही नजारा। उधमपुर पहुंचा, वही दृश्य। जहां कहीं धुआं, वहां-वहां गांजाका दम। जहां कहीं भी दरिद्रता, वहां-वहां गांजाका सोंट । छत्तापुर, भीमपुर, जीवछपुर... गांजा, गांजा, गांजा... ये सारे गांव पिछले साल कोशी में दहा गये थे, अब इन गांवों में पानी का राज नहीं है। आजकल इन गांवों में गांजा राज हो गया है। इन गांवों की हवा में धुआं है और जमीन पर बालू। और इन दोनों के बीच इंसान कहीं खो गया है।
नशा, बिपत्ति और दरिद्रता में शायद कोई-न-कोई रिश्ता है। गरीबी और त्रासदी जहां कहीं जाती हैं, नशा व व्यसन को संग कर लेती हैं। शायद इसलिए कि गरीबी और त्रासदी को मौत व मातम से गहरा लगाव है। सदियों-सदी से वे एक-दूसरे के सहोदर बने हुए हैं। अगर मौत व मातम न रहे, तो दरिद्रता व बिपत्ति कितनी बदसूरत लगेगी। लोग गरीबों के रंग-ढ़ंग पर शंका करने लगेंगेऔर फिर गरीबों के कारोबारियों का क्या होगा ? शायद इसलिए , नशा रोग का सबसे प्रिय दोस्त है और रोग मौत का परम-मीत। शायद इसलिए गरीबी व बिपत्ति का जी जब कुपोषण, आत्महत्या, पलायन आदि से नहीं भरता, तो वे अपने साथ गांजा, हड़िया, ताड़ी, भंग आदि को ले आती हैं।
पिछले दिनों कोशी के उजड़े दयारों से लौटने के बाद मेरे मन में ऐसे ख्याल बार-बार आते रहे। हालांकि मैं जानता हूं कि मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्री मेरे इस गंवार विचार को सुनकर चौअन्नी निपोड़ लेंगे। विद्वानों की तो छोड़िये, वे किन्हीं पर हंस सकते हैं, किन्हीं को व्यंग्य-पात्र बना सकते हैं। उनके सात खून माफ हैं। लेकिन मुझे शक है कि कोई भी समझदार आदमी मेरे इस ठेठ मत से सहमत होंगे।
खैर, मैं भी मान लेता हूं। अक्सर सन्निपात का शिकार आदमी बकने लगता है। लेकिन डॉक्टर लोग भी कहते हैं कि कभी-कभी सन्निपातियों के बकवास में ही उसके इलाज के सूत्र छिपे होते हैं, इसलिए उनकी बातों को माने या न माने, लेकिन सुने जरूर। तो आप भी मेरे साथ चलिए कोशी के उन गांवों में, जहां आजकल भनसा घरों (भोजन बनाने वाले घर) से चूल्हा का धुआं भले नहीं उठे, लेकिन हर घर से गांजे के धुएं उठ रहे हैं, हर पहर और हर तरफ। घर में अन्न नहीं है, लेकिन गांजा है। घर में बर्त्तन नहीं है, लेकिन चीलम (गांजा पीने वाला, मिट्टी की डिबिया)है। अजी घर भी क्या है, बांस-फूस से बनी सिर छिपाने की झोपड़ी है। सुपौल के प्रतापगंज ब्लॉक के तिलाठी गांव का है मुन्नीलाल। तिलाठी गांव पिछली बाढ़ में मटियामेट हो गया था। कुछ मुन्नीलाल की सुन लीजिए।
"2100 रुपये दिए थे नीतीश बाबू के बीडीओ-कलस्तर ने... पांच सौ तो पंचायत सेवक जोधन जादव खा गिया, बचा 1600 । तीन सौ टका में बुढ़िया के नुआ (साड़ी) खरीदा, बचा 1300। सौ टका में एक मन मड़ुआ खरीदा, बचा 1200। अपने लिए एक ठो लूंगी खरीदा और एक ठो गंजी जिसमें 100 टका खरिच हो गया। बचा 1100 सौ। सिघेंश्वर भगवान की कसम, अब ई ग्यारह सौ में पांच मास (माह)से टिके हैं। '
"अगला खेप कब मिलेगा हो जोधन ?'
"जब मिलेगा तो बता देंगे... वैसे सब बेर तुमको ही मिलेगा क्या ? वोट दिया था तीर में ???'
"नहीं ...'
" किसको दिया था रे, उ सरवा हाथ छाप को कि बंगला छाप को ? '
" इ तो हम आपको नहीं बतायेंगे... '
"... तो घड़ीघंट बजाओ आउर खूब गांजा फूंको, साला ! नेपाल का सब गांजा कोशी में भर गिया है...'
" जब पेट में दाना नहीं रहेगा न, तब तुम भी गांजे को याद करेगा। एक सोंट खैंच लेते हैं तो न कल्लो (खाना)का फिकर न जलखई (नास्ता) के... हेंहेहें... '
जोधन ने ठीक कहा। नेपाल का सारा गांजा कोशी में पहुंच गया है। सुपौल, अररिया, मधेपुरा और सहरसा जिले के हर छोटे बाजार-हाट में आजकल गांजा धड़ल्ले से बिक रहे हैं। लोग कहते हैं कि बिपत्ति में यह बड़ा सहायक सिद्ध हो रहा है। त्रासदी के मारे लोग आजकल गांजा पीकर ही दिन बिता रहे हैं। लेकिन पुलिस-थाने वालों को कोई खबर नहीं। वे पहले तो इस मुद्दे पर कुछ बोलते नहीं। बहुत कुरेदने पर भड़क उठते हैं। प्रतापगंज के दारोगा ने मुझसे कहा- "आप पत्रकार लोग न किसी चीज को लेकर बैठ जाते हैं। अरे इसमें नया क्या है ? घर में खाने के लिए कुछ नहीं है, तो गांजा और भंग नहीं खाये, तो क्या बालू फांके ??? फिर संयत हो गये, बोले- छापियेगा नहीं, वैसे हमलोग पूरी कार्रवाई कर रहे हैं...'
तिलाठी से आगे बढ़ा, तो चुन्नी पहुंचा। वही नजारा। उधमपुर पहुंचा, वही दृश्य। जहां कहीं धुआं, वहां-वहां गांजाका दम। जहां कहीं भी दरिद्रता, वहां-वहां गांजाका सोंट । छत्तापुर, भीमपुर, जीवछपुर... गांजा, गांजा, गांजा... ये सारे गांव पिछले साल कोशी में दहा गये थे, अब इन गांवों में पानी का राज नहीं है। आजकल इन गांवों में गांजा राज हो गया है। इन गांवों की हवा में धुआं है और जमीन पर बालू। और इन दोनों के बीच इंसान कहीं खो गया है।
... तो अब आप ही बताइए ऐसी जगहों में चक्कर लगाने के बाद आदमी सही रह पायेगा। वो या तो बकवास करेगा या फ़िर अजीब-अजीब विचार से घिरेगा । चाहे कोई माने या कोई नहीं माने! मानो तो देव नहीं तो पत्थर ....
3 टिप्पणियां:
ये वाकई ही दर्दनाक है............. सामाजिक परिस्थति और आर्थिक स्थिति अक्सर नशे की और धकेल देती है इंसान को ..........
bahut badia bhai,wastav main gaon ki esi hi halat ho rahi hai.aadmi galatfahami ka shikar hai ki woh nasha pee raha hai jabaki sachchai hai ki nasha aadmi ko kha raha hai.
nirantar likhe shayad halat badal jaye.
anuj
bahut badia bhai,wastav main gaon ki esi hi halat ho rahi hai.aadmi galatfahami ka shikar hai ki woh nasha pee raha hai jabaki sachchai hai ki nasha aadmi ko kha raha hai.
nirantar likhe shayad halat badal jaye.
anuj
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