देश में मोबाइल फोन चलाने वाली एक कंपनी दावा करती है कि उसके मोबाइल का नेटवर्क भारत के उन इला़कों में भी मौजूद हैं जहां शुद्ध हवा, शुद्ध पानी, स़डकें, पाठशाला और अस्पताल आदि भी उपलब्ध नहीं हैं। व्यावसायिक दृष्टिकोण से यह एक सामान्य विज्ञापनी बड़बोलापन ही लगता है। लेकिन इससे कुछ निहितार्थ भी निकलते हैं, जो देश की वर्तमान सरकारी नीति की कड़वी सच्चाई को सामने लाता है। यानी कंपनी अप्रत्यक्ष रूप से कह रही है कि देखिए -- हम वहां भी पहुंच गये हैं जहां आपकी सरकारें नहीं पहुंच पातीं ! पानी, बिजली, स़डकें, अस्पताल और जीवनयापन की अन्य मूलभूत सुविधाएं गांवों तक पहुंचाने में सरकारें भले ही असमर्थ हों, लेकिन हमारी ध्वनी-तरंगें हर जगह पहुंच रही हैं। 2004 के लोकसभा के चुनाव में इसी तरह के कुछ दावे भारतीय जनता पार्टीनीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) ने भी कियेथे । इस गठबंधन ने बढ़ते शेयर सूचकांक और टेलीकम्यूनिकेशन उद्योग के आधार पर इंडिया शाइनिंग और फील गुड का नारा दिया । लेकिन चुनाव में लोगों ने उनके दावे को खारिज कर दिये।
नेशनल सैंपल सर्वे के अनुसार आज छह सदस्यों वाला एक आम ग्रामीण भारतीय परिवार महीना भर में मात्र 502 रुपये खर्च कर पाता है। भोजन मद में 224 रुपये के खर्च पर ही वे पूरा महीना गुजार देते हैं। जबकि देश के पांच सर्वश्रेष्ठ धनिकों की सामूहिक संपत्ति 43 खरब रुपये से ज्यादा है जोकि देश के सकल घरेलू उत्पाद का 10 प्रतिशत है।
मध्य प्रदेश का एक खनिज प्रधान जिला है सिधी। सिधी के जिला मुख्यालय से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर एक गांव है -- मेतसा; जिसकी आबादी पांच हजार है। इस गांव के एक भी व्यक्ति ने आजतक रेल या कार की सवारी नहीं की, हवाई यात्रा तो कल्पना की बात है। गांव के किसी व्यक्ति ने जिला मुख्यालय से बाहर की दुनिया नहीं देखी है। इस गांव का एक शिक्षक ने दो वर्षों तक सर्वेक्षण-अध्ययन किया और उसने कई हैरतअंगेज तथ्य सामने रखे। जिसमें कहा गया कि इस गांव के 95 प्रतिशत लोगों की अधिकतम यात्रा अपने गांव से नजदीकी बाजार तक सीमित होती है। जबकि दूसरी ओर इस इलाके से प्रति वर्ष करोड़ों का खनिज और वनोत्पाद बाहर भेजे जाते हैं। देश की कोयला राजधानी धनबाद से सटे टुंडी क्षेत्र में भी ऐसे ही दर्जनों गांव हैं जहां के लोगों को एक पैकेट नमक के लिए 10 किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती है और वहां हर वर्ष भूख से मौतें होती हैं।
वास्तव में सिधी और टुंडी देश के उन सैकड़ों भारतीय खनिज बहुल क्षेत्रों में से एक है जो गांवों से शहर की ओर बहाये जा रहे प्राकृतिक संसाधनों को मूक होकर देखने के लिए अभिशप्त है। व्यतिरेक यह कि सिधी क्षेत्र से निकले अर्जुन सिंह जैसे नेता वर्षों से केंद्रीय मंत्रिमंडल की शीर्ष कुर्सी पर विराजमान रहे हैं और धनबाद के कोल माफियाओं की संपत्ति अरबों में है। ये चंद अभागे लोगों और क्षेत्रों का कोई अपवाद-आंकड़ा या प्रहसन नहीं है जिसे हासिये की बात कहकर अनसुना कर दिया जाये, बल्कि यह देश के 70 प्रतिशत उन आमलोगों का सच है जिसके बिना किसी शक्तिशाली भारत की कोई तस्वीर नहीं बन सकती। यह आर्थिक महाशक्ति बनने की राह पर अग्रसर भारत का वह वैषम्य है जो किसी भी स्वप्न को पलक झपकते दुस्वप्न बनाने के लिए काफी है। आसमान को चूमते शेयर सूचकांक और बंजर होते खेत के बीच में घिरा उदारवादी नवभारत के सामने यह वह यक्ष प्रश्न है जिसका जवाब खोजे बगैर विकास की कोई बड़ी लकीर नहीं खीची जा सकती।
वस्तुतः ग्रामीण और शहरी भारत के बीच निरंतर चौड़ी होती आर्थिक खाई को देखकर, तो लगता है कि सदियों से सामाजिक विभेद (जातिवाद, धर्मवाद) के दुष्चक्र में फंसा भारत अब अार्थिक असमानता के अंध कूप में गिरने के लिए तैयार है। भारत दुनिया का ऐसा अकेला देश बनने की ओर अग्रसर है जहां आर्थिक विषमता सर्वाधिक है। इस मोर्चे पर भारत ने ब्राजील को अब पीछे छोड़ दिया है। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रणव बर्द्धन ने कुछ दिन पहले इस विषय (रसिसटेंस ऑफ इंडियन इकोनोमिक रिफॉर्म) पर एक शोध किया था। भारतीय मूल के इस अर्थशास्त्री ने अपने शोध में जो लिखा वह एक चौंकाने वाला तथ्य है। बर्द्धन लिखते हैं -- "इसमें कोई दोमत नहीं है कि आर्थिक उदारीकरण के बाद गरीब भारतीयों की स्थिति पहले से ज्यादा खराब हुई है। लोग इसे गैरउदारवादियों की आलोचना-गान कह सकते हैं, लेकिन सच यही है। सर्वेक्षण आंकड़े बताते हैं कि भारत में शिक्षित-अशिक्षित और शहरी-ग्रामीण के बीच आर्थिक विषमता तेजी से बढ़ी है। भारतीय किसानों की संरक्षा के लिए सरकार के पास कोई स्थायी संरक्षा नीति नहीं है। जैसी नीति चीन ने पिछले 20 वर्षों में विकसित किया हैकुछ उसी तर्ज पर भारत में भी काम होना चाहिए। विविधतापूर्ण सामाजिक संरचना के कारण यहां वस्तुनिष्ठ राजनीति करना हमेशा कठिन रहा है जो आर्थिक विषमता के कारण आगे और लाचार होगी। राजनेता दूरगामी फैसला नहीं ले रहे, ऐसे में ग्रामीणों को वर्तमान प्रतियोगी अर्थव्यवस्था में शामिल नहीं किया जा सकता । पक्षपातपूर्ण विकास स्थायी और टिकाऊ विकास की इबारत नहीं लिख सकता।’’
भारत में जब ग्रामीणों की बात की जाती है तो इसका सीधा मतलब किसान से होता है। देश के 90 प्रतिशत ग्रामीण आबादी का मुख्य पेशा खेती ही है, जो दिन-प्रतिदिन अलाभप्रद, असुरक्षित और अकरणीय होती जा रही है।
असंगठित क्षेत्र के उपक्रमों के लिए काम करने वाले राष्ट्रीय आयोग (एनसीईयूएस) ने पिछले साल अगस्त-सितंबर में एक रिपोर्ट प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौंपी थी। यह रिपोर्ट कहती है कि इस देश के 41 प्रतिशत लोग आमतौर पर गरीब हैं (करीब 27 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं) और 77 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो गरीबी की दृष्टि से संवेदनशील हैं। यानी ये वो लोग हैं जो गरीबी की बस सतह पर हैं। एक अरब से अधिक की आबादी में से 83.60 करो़ड लोग इस श्रेणी में आते हैं। सरकारी संस्था की इस रिपोर्ट के अनुसार मध्य वर्ग यानी मिडिल-क्लास के लोगों की संख्या 19.3 करो़ड हैं। यही रिपोर्ट कहती है कि भारत की आबादी का यह 77 \ीसदी हिस्सा यानी 83.60 करो़ड लोगों की प्रति व्यक्ति प्रतिदिन आमदनी औसतन 20.3 रुपये हैं। हालांकि कुछ अर्थशास्त्री सरकार द्वारा परिभाषित गरीबी रेखा को ही भ्रामक ठहराते हैं। कुछ समय पहले पटना में संपन्न विश्व गरीबी सम्मेलन में कई अर्थशास्त्रियों ने वर्तमान गरीबी रेखा की कसौटी पर सवाल खड़े किये थे। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री टी एन श्रीनिवासन ने हाल में ही इस पर एक शोध किया जो ‘इकोनोमिक एण्ड पॉलिटिकल वीकली’ में प्रकाशित हुआहै। श्रीनिवासन ने अपने विस्तृत शोध में इस बात का खुलासा किया है कि कैसे गरीबी रेखा के नीचे के लोगों को आभासी मापदंडों के सहारे ऊपर बताया जाता है। उन्होंने कृषकों की अनुमानित आमदनी को निश्चित आमदनी मानने से इनकार करते हुए कहा कि प्रकृति पर निर्भर भारतीय कृषकों की खेती हमेशा असुरक्षित रहती है, जिसे निश्चित आमदनी नहीं मानी जा सकती। उन्होंने असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे कामगरों की आमदनी को भी अस्थिर(वैरियेबल) आमदनी मानते हुए गरीबी रेखा की कसौटी पर सवाल खड़ा किया है।
दरअसल विकास के जिस मॉडल पर देश के नीति नियंता इतरा रहे हैं उसमें अनगिनत छेद हैं। विकास का यह मॉडल प्रतियोगिता के बल पर खड़ा है जिसमें आम अशिक्षित ग्रामीण कहीं नहीं टिकते। लखपति, करोड़पति बन रहे हैं जबकि गरीब दरीद्र हो रहे हैं। आर्थिक उदारीकरण के फायदे सीमित प्रक्षेत्रों तक सिमटते जा रहे हैं जिनमें बामुश्किल 12-14 प्रतिशत लोगों की ही हिस्सेदारी है। लेकिन सरकार इस बात से ही खुश है कि देश का सकल घरेलू उत्पाद लगातार बढ़ रहा है और आर्थिक विकास की दर नौ फीसदी की रफ्तार पकड़ी हुई है। हर दिन कोई न कोई नयी कार बाजार में आ रही है। मोबाइल फोन, कंप्यूटर, टेलीविजन, मोटर बाइक, वाशिंग मशीन, रेफ्रिजरेटर जैसे समृद्धि-प्रतीक उत्पादों का बाजार बढ़ता जा रहा है। हवाई जहाजों और यात्रियों की संख्या बढ़ रही है। लेकिन इस सिमटे हुए सच की कलई तब खुल जाती है जब हम 14 प्रतिशत उच्च और मध्यम उच्च वर्गों से नजर हटाकर गांव के सत्तर प्रतिशत निम्न वर्ग के लोगों की ओर देखते हैं। वहां न बिजली है और न ही सड़कें, न पीने के लिए पानी है और पहनने के लिए कपड़े। वहां के लोग अपने खेतों से इतना भी फसल नहीं उगा पाते हैं कि उन्हें दो जून की रोटी नसीब हो सके। क्योंकि खेतों का जोताकार घट रहा हैंै। किसान तेजी से मजदूर बन रहे हैं। प्रति किसान कृषि योग्य जमीन का क्षेत्रफल घट रहा है। कहीं प्रदूषण के कारण उनकी जमीन बंजर हो रहे हैं तो कहीं बाढ़ व सूखा के कारण फसलें मारी जा रही हैं। कॉरपोरेट घरानों के लिए भी किसानों की जमीन छिनी जा रही हैंै। सिंचाई के सरकारी साधन लगातार ध्वस्त हो रहे हैं। फसलों के विपणन और वितरण की कोई व्यवस्था नहीं है। किसान आज भी स्थानीय व्यवसायी के रहमोकरम पर निर्भर हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य कागजी घोषणा बनकर रह गयी है। सरकार समर्थन मूल्य की घोषणा तो कर देती है, लेकिन इसे कड़ाई से पालन करने के लिए आजतक कोई सरकारी मशीनरी खड़ी नहीं की गयी।
कृषि प्रधान भारत में खेती अब कितना कठिन हो चुका है इसका कुछ अंदाजा सरकारी आंकड़ों के विश्लेषण से भी लग जाता है। योजना आयोग के आंकड़े के मुताबिक स्वतंतत्रा प्राप्ति के समय देश में कुल सिंचाई साधनों का 34 प्रतिशत साधन सरकार द्वारा मुहैया करायी जाती थी। लेकिन पच्चास वर्षों के बाद इसमें कोई इजाफा नहीं हुआ है। बल्कि यह दो प्रतिशत घटकर 32 प्रतिशत हो गया है। इस 32 प्रतिशत में 25 प्रतिशत साधन इतने पुराने हो चुके हैं कि अब इससे खेतों तक पानी पहुंचाना असंभव हो गया है। कहीं नहर है तो पानी नहीं, कहीं पानी है तो नहर गादों से भरा है। बिहार जैसे राज्य में लघु सिंचाई परियोजना दो दशक पहले ही दम तोड़ चुकी है । वैसे यह बात और है कि यह विभाग आज भी हजारों कर्मचारियों-अधिकारियों-अभियंताओं का वेतन चुका रहा है। कोशी-कमला, गंडक व बागमती नदी-नहर परियोजनाएं पूरी तरह से ध्वस्त हो चुकी हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़ की नदी आधारित सिंचाई परियोजनाओं का ऐसा ही हाल है। झारखंड में पिछले तीन दशक से कनहर नदी परियोजना लंबित है। इसके अलावा व्यवस्थागत भ्रष्टाचार ने जल संरक्षण पर आधारित सिंचाई की अन्य परियोजनाओं की हवा निकाल दी है। ऐसी योजनाएं कागज से धरतातल पर उतरते-उतरते इतना समय ले लेती हैं कि वे खुद-ब-खुद अप्रासंगिक-असामयिक हो जाती हैं। सार्वजनिक परियोजनाओं की विफलता और पेट्रोल-डीजल के बढ़ते मूल्यों की दोहरी मार के कारण किसानों की हिम्मत पस्त हो गयी है। सरकारी सर्वेक्षण में भी कहा गया है कि देश के 40 प्रतिशत किसान खेती करना नहीं चाहते।
दरअसल देश की ग्रामीण आबादी मानव विकास के तमाम बिन्दुओं पर पिछड़ी हैं। सुविधाओं के उपभोग से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य, जागरूकता के मामले में वे शहरी आबादी से काफी पीछे हैं। ग्राम्य जागरूकता का आलम यह है कि देश के 93 प्रतिशत ग्रामीणों को नहीं मालूम कि विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) किस चिड़िया का नाम है। प्रति व्यक्ति ऊर्जा की खपत (इनर्जी कंजप्शन) विकास की एक सटीक कसौटी मानी जाती हैं। लेकिन भारत में ग्रामीणों में ऊर्जा उपभोग की दर न्यूनतम है। आज भी देश के हजारों गांवों का विद्युतीकरण नहीं हो सका है। राष्ट्रीय मानव विकास रिपोर्ट-2001 के अनुसार 30 प्रतिशत ग्रामीण ही विद्युत का उपयोग कर पाते हैं। 70 प्रतिशत ग्रामीण कच्चे और असुरक्षित घरों में रहते हैं। 45 प्रतिशत ग्रामीण आबादी को शुद्ध पेयजल नसीब नहीं, तो 90 प्रतिशत आरोग्य (मेडिकल फैसिलिटी) सुविधाओं -- अस्पतलाल, प्राथमिक उपचार केंद्र, दवाई और चिकित्सक से वंचित हैं।
ग्रामीण और शहरी की प्रति व्यक्ति आय का अनुपात काफी चिंताजनक है। सैंपल सर्वे-2004 के अनुसार शहरी लोगों की प्रति व्यक्ति आय ग्रामीणों से 2.5 गुना ज्यादा है। कुछ राज्यों में यह 3.97 गुना तक अधिक है। एक ओर जहां 90 प्रतिशत शहरी आबादी सड़कों से जुड़ी हुई है वहीं 50 प्रतिशत ग्रामीण आबादी आज भी सड़कविहीन है।
(यह लेख उन लोगों को समर्पित है जो ग्रामीण भारत के दर्द को महसूस करने की शक्ति रखते हैं तथा जो इस तर्क से सहमत हैं कि ग्रामीणों के आंसू पोछे बगैर समृद्ध भारत का सपना कभी पूरा नहीं हो सकता)