मंगलवार, 30 दिसंबर 2008

ओ नव वर्ष, ओ नौ वर्ष !

ओ नव वर्ष, ओ नौ वर्ष !
दे नव हर्ष, दे नव विमर्श

खेत को नव खाद दे, अन्न को नव स्वाद
मेहनत को मान दो, खलिहान को अनाज
मंदिर दो, तो पूजा भी दो
दिल दो ऐसा जिसमें दूजा भी हो
नभ को सीमा दो, वन को विस्तार
आंखों को कल्पना दो , प्यार को संसार
ओ नव वर्ष, ओ नौ वर्ष !
दे नव हर्ष, दे नव विमर्श

नदी में जल हो, जल में हो जीवन
पर्वत में प्राण हो, आंगन में बचपन
धन को धैर्य दो, लोभ को लगाम
दारिद्रय के जंगल से निकले हर इंसान

ओ नव वर्ष, ओ नौ वर्ष !
दे नव हर्ष, दे नव विमर्श

रविवार, 28 दिसंबर 2008

नेपाल में मीडिया संकट जारी


कांतिपुर पब्लिकेशन ग्रुप के समाचार पत्रों में तालेबंदी और पत्रकारों पर बढ़ते हमले के खिलाफ नेपाल में मीडियाकर्मियों का आंदोलन राष्ट्रीय स्तर पर पहुंच गया है। राजधानी काठमांडू समेत अन्य शहरों और कस्बों में मीडियाकर्मी आंदोलन कर रहे हैं। लेकिन सरकार की उदासीनता में कोई कमी नहीं आयी है। यह बहुत निराशाजनक है।

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008

भारत के लिए एक ग्रीटिंग

जब 365 बार पूर्वी क्षितिज का ललाट लालिमय होता है, तो कहीं पूरा होता है एक साल। एक वर्ष की अवधि छोटी नहीं होती; मानव जीवन को सार्थक करने के लिए; निर्दिष्ट या अनिर्दिष्ट पथों पर एक दूरी तक पहुंच जाने के लिए; निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचने के लिए । शायद यही वजह है कि लोग हर वर्ष के अंतिम दिनों में नये साल के प्रथम उषाकाल का आह्वान करते हैं। एक-दूसरे के शुभ की कामना के साथ नवप्रभात का स्वागत करते हैं। शुभ की यह कामना भांती-भांती माध्यमों से प्रकट होती है। कोई गुलदस्ता भेजकर अपने भावों को प्रकट करता है, तो कोई ग्रीटिंग कार्ड भेजकर । अब तो एसएमएस से भी नववर्ष की नवभावना भेजने और प्राप्त करने का दौर आ गया है। ये सभ्य होती सभ्यता का सामान्य व्यवहार है जो ज्यातादर निज- संबंधों के प्रति समर्पित रहता है। लेकिन क्या एक ग्रीटिंग ऐसा नहीं बनाया जा सकता, जिसमें समूचे समाज को संबोधित किया जा सके, जिसमें देश के प्रति हृदयाशीष हो सके, वृहत सामुदायिक सरोकारों का संदेश हो। एक्टिविस्ट पिनाकी राय के दिमाग में भी शायद यही सवाल उठा होगा। इसलिए उन्होंने फैसला किया कि वह हर वर्ष ऐसे ग्रीटिंग कार्ड बनायेंगे, जो देश और समाज को समर्पित किया जा सके ; जो व्यक्ति-से-व्यक्ति की छोटी संबंध-वृत्त को लांघकर देश-काल-पात्र के विरॉट वृत्त को परिलक्षित करे। और पिनाकी अपने इस प्रयास में काफी हद तक सफल हैं। उनके बनाये ग्रीटिंग कार्ड में भारत के लिए दुआ है। देश के उन तमाम उद्यमों, कौशल और संसाधनों के प्रति शुभाकांक्षा है, जो शस्य श्यामलाम्‌ एवं शुभलाम्‌ सुजलाम्‌ भारत की तस्वीर गढ़ती है। पिनाकी देश-काल-पात्र की उन छोटी-छोटी बातों को, प्रवृत्तियों को भी अपने ग्रीटिंग थीम में उतारते हैं, जिनकी हम अक्सर अनदेखी कर जाते हैं। मसलन देश में किसान आत्महत्या की घटना उन्हें दुखी करती है और वह इसे गिरते-बढ़ते सेंसेक्स के साथ खड़ा करते हैं। ताकि बढ़ते-घटते सेंसेक्स के नशेमन में हम अपनी असफलता को भूल न बैठें। पिनाकी के ग्रीटिंग में गांव की याद दिलायी गयी है, जिसे विस्मृत करने की एक फितरत-सी हो चली है। पिनाकी सम्यक विकास की याद दिलाते हैं और विकास के साथ पारिस्थितिकी के संतुलन की आवश्यकता को भी चिह्नित करते हैं। इसके लिए संसाधनों के यथोचित प्रयोग को वह अपने कार्ड में रेखांकित करते हैं। उनके कार्ड में सामाजिक सौहार्द का संदेश भी है।
यह भारत को भेजा गया एक बेहतरीन ग्रीटिंग कार्ड है और मैं खुद को धन्य मानता हूं कि शांति निकेतन से शिक्षित व दीक्षित पिनाकी ने मुझे यह कार्ड प्रेषित किया। पिनाकी के रचनात्मक कौशल का मैं कायल हूं और मुझे विश्वास है कि वह शांति निकेतन के रचनात्मक परंपरा को बहुत आगे तक ले जायेंगे। मुझे उनके द्वारा बनाये गये वर्ष 2008 के कार्ड का भी इंतजार रहेगा, क्योंकि यह देखना लाजिमी होगा कि 2008 को पिनाकी कैसे सम-अप करते हैं और 2009 के लिए क्या संदेश छोड़ते हैं।

गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

अभूतपूर्व संकट में नेपाली मीडिया



कहने के लिए तो नेपाल में लोकशाही है, लेकिन उसके सारे लक्षण तानाशाही के हैं।हालांकि यह बात और है कि ये लक्षण नेपाल से बाहर नहीं आ रहे हैं। जबसे नेपाल में नई सरकार का गठन हुआ है तब से वहां मीडिया , न्यायापालिका और प्रशासनिक तंत्रों पर हमले बढ़ गये हैं। पिछले तीन महीने में दो दर्जन पत्रकारों पर हमला हुआ है। चार पत्रकारों की हत्या हुई है और यह एक सिलसिला-सा बन गया है। तीन महीने पहले एक क्षेत्रीय अखबार को माओवादी कार्यकर्ताओं ने जबर्दस्ती बंद करवा दिया था। चार माह पहले बीरगंज में एक पत्रकार की हत्या कर दी गयी। दो सप्ताह पहले राजधानी काठमांडू में हिमाल पब्लिकेशन ग्रुप के एक पत्रकार की हत्या की गयी। और हद तो 25 दिसंबर को गयी जब विरॉटनगर में नेपाल के सबसे बड़े प्रकाशन समूह, कांतिपुर ग्रुप के सभी प्रकाशनों को जबरन बंद करवा दिया गया। नेपाली पत्रकारों का कहना है कि यह अभूतपूर्व अराजकता है। ऐसी स्थिति तो निरंकुश राजतांत्रिक शासन व्यवस्था में भी नहीं हुई थी। वे लोग कांतिपुर पब्लिकेशन ग्रुप के किसी पत्रिका और अखबारों को बिकने नहीं दे रहे। सभी दुकानदार, एजेंट्‌स, हॉकरों को अखबार-पत्रिका आदि बेचने से मना कर दिया गया है, जो इस फरमान को नहीं मान रहे उन्हें मौत के घाट उतार दिया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि खुद देश के प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड ने चार महीने पहले एक आम सभा में मीडिया को धमकी दी थी और कहा था कि सरकार बनने के बाद सबको सबक सिखाया जायेगा। एक सप्ताह पलहे ही उन्होंने एक आम सभा में माओ के बयान को दुहराया- सत्ता बंदूक के नाल से निकलती है। जबकि नेपाली पत्रकारों का कहना है कि माओवादी लड़ाके पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। जिलों और कस्बों में उनकी ही सरकार चल रही है। वे जहां मन करे वहां हथियारों के साथ सभा एवं प्रशिक्षण शिविर चला रहे हैं। अब जब अखबारों का प्रकाशन जबरन बंद हो रहा है, तो पुलिस मूक दर्शक बनकर सबकुछ देख रही है। इससे साफ है कि नेपाल की सर्वोच्च शक्ति ही मीडिया के मूंह पर टेप चिपकाने के लिए आमदा है। पता नहीं नेपाल किस ओर जा रहा ? भारत सरकार को इस पर गंभीरता से विचार करनी चाहिए।

बुधवार, 24 दिसंबर 2008

साधारण डब्बे की असाधारण बात (अंतिम)

दहाये हुए देस का दर्द -26
2001 की बात है। तब बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में छात्र-छात्राओं के बीच विश्वविद्यालय की एक खबर की बड़ी चर्चा चल रही थी। विश्वविद्यालय के हर कैफे व कैंटीन में छात्र-छात्राओं के बीच वह खबर महीनों तक मनोरंजन का विषय बनी रही थी। दरअसल , उन दिनों विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के एक छात्र ने खैनी और रचनाधर्म विषय पर डॉक्टरेट के लिए अर्जी दी थी और उसका कहना था कि यह अनुसंधान का विषय है। छात्र समुदाय के बीच खबर थी कि उसने हिन्दी के कुछ चोटी के साहित्यकारों की बकायदा सूची तक जमा की थी और उसका तर्क था कि इस सूची के साहित्यकारों की अमर रचना में खैनी का बहुत बड़ा योगदान था।
लेकिन उस वृद्ध की खैनी का असर था या फिर कोशी के विनाश-नाटक का हैंग ओवर ; मैं विचारों के समुद्र में डूबता चला गया। इस बीच गाड़ी कहां रूकी और किस वक्ता ने क्या कहा; मुझे कुछ सुनाई नहीं दिया। मैं तो बचपन के एक देहाती नाटक, सती बिहला के दृश्यों में खोया हुआ था, जिसे स्थानीय लोग नाच कहते हैं। पता नहीं इस नाटक की पटकथा किसने लिखी, लेकिन जिसने भी लिखी होगी वह युगदृष्टा रचनाकार रहे होंगे। नाटक के एक दृश्य में नायिका अपने पति की प्राण के लिए यमराज के सामने नाना प्रकार की अग्नि परीक्षा देती है, जिसमें एक परीक्षा है सुई की नोंक पर चलने का। सुई की नोंक पर उतरना भी उसे मंजूर है, लेकिन यमराज उसे बहकाता है। होनी और होतब , विधि और विधान, करम की गति आदि के बारे में समझाता है। कहता है- विधना के विधान को मत बदलो। लेकिन नायिका के लिए पति के प्राण से बड़ा कुछ नहीं। कोई विधि नहीं, कोई गति नहीं ! पति ही नहीं रहेंगे, तो वह क्यों ? किस लिए और किसके सहारे जियेंगी। वह यमराज से तर्क करती है- मेरे गांव को देखो महाराज! कोशी नदी की प्रचंडता को देखो, आखिर कोई महिला ऐसे बीहड़ गांवों में पति के बिना जिंदा रह सकती है। हर वर्ष नये घर के लिए फूस, मिट्टी, बांस-बल्ली, डोरी-काठी इकट्‌ठे करने पड़ते हैं। कोशी हर साल बहा ले जाती है घरों को, मवेशियों को, खेत और खलिहानों को... अकेली मैं कैसे लड़ पाऊंगी , मुझे तो डोरी कातना भी नहीं आता , मिट्टी की टोकरी उठा सकती हूं, लेकिन कुदाली कोई स्त्री कैसे चलाये ? ??
मंच पर कलरव होता है। ढोल-नगाड़े बंद हो जाते हैं। दर्शक दीर्घा में सन्नाटा छा जाता है। स्त्रियों की आंखें भर रही हैं। साड़ी के आंचल भींग रहे हैं । सती बिहला सुई की नोंक पर उतर आती हैं... पार्श्व गान उभरता है- हमरो के घरवा जे देखियो, अहि साल बहि गेले, गैया -महिंसियो बहले आब घरवाला चलि जेते ते हो महाराज... जेजेजेतेतेते होओओओ मअहअहाराअजजज...
एक जोरदार कोलाहल से मेरी तंद्रा भंग हो गयी। गाड़ी सुपौल स्टेशन पर आ लगी थी। डब्बे में कई नये चेहरे दिखने लगे थे कुछ देखे हुए चेहरे उतर चुके थे। खैनी वाले वृद्ध ने कहा- जिनगी में बहुत कुछ देखे, लेकिन एैसा भीषण पानी कभी नहीं देखे थे। मैंने पूछा आपके गांव में भी पानी पहुंचा था क्या ?
पहुंचा था कोनो ऐसन-वैसन ? सांझ के बेर (वक्त) था। लोटा लेकर मैदान की ओर जा रहा था। आंख के सामने करीब आध कोस सामने में लगा जैसे काश का फूल पाट गिया है। उजरे-उजर (उजला ही उजला)। लोगों से पूछने लगे कि ऊ का है ? सबने कहा बोचहा धार (एक छोटी नदी) में पानी बढ़ गया है उसी का पलारी (अतिरिक्त) फेंका है। लेकिन रात तक हमारे टोला में सबके घर में पानी पहुंच गया था। जिसको जैसे हुआ भागा। अब के बचा और के मरा, किसी को कुछ नहीं पता।
बातों का सिलसिला फिर चालू हो गया था। नहीं पढ़े लिखे वाले युवक ने कहा- ई सरकार के बारे में एक ठो बात हम बतायें ? कहते हैं न कि जाने ढोड़िया के मंतर नै आर गेहुमन से खेलावाड़, वही बात है। नीतीश कुमार कहता है फिर से इलाका को बसायेंगे। अरे क्या खाक बसायेंगे? पहले भूखल-भागल और भासल के पेट में दाना तो पहुंचाओ। इतना सुनना था कि थोड़ा पढ़ा लिखा वाला युवक ने राजद नेताओं की पोल खोलनी शुरू कर दी। दोनों लड़कियां सबकी बात सुन रही थीं, लेकिन किसी की बात पर उनके सिर नहीं हिलते थे। उसकी दादी ने साड़ी के एक कोने में बंधी पांच रुपये का एक मुड़ा-तुड़ा नोट निकालकर थोड़ी मूड़ही खरीदी। दादी, पोती को खिलाने का प्रयास करती रही और पोतियां दादी को...खैनी वाले वृद्ध ने हस्तक्षेप किया- भूखे में गुल्लर मीठा ! खा ले बचिया ! हम बूढ़े लोगों की अंतड़ी बड़ी ठोस है, तुम लोग नया खून-पानी के हो, तुमसे भूख बर्दाश्त नहीं होगा ? (मैंने देखा कि लड़की के पिता की आंख पूरी तरह पनिया गयी )
इस दौरान गाड़ी पंचगछिया स्टेशन पार कर चुकी थी। रात के ग्यारह बज गये थे। गाड़ी में पुलिस के जवानों ने प्रयास किया। अगर और समय होता तो शायद वह बेटिकट और दैनिक मजदूरी करने वाले यात्रियों से वसूली करने में मशगूल हो जाते। लेकिन आज वे अपनी वीर गाथा सुनाने के मूड में थे। एक ने कहा- हम तो पंद्रह दिन में कम-से-कम पांच सौ लोगों को पानी से बाहर निकाला होगा। एक सब्जी वाली ने उसका जवाब दिया- ...और खूब लूटपाट भी किया ?
क्या बकती हो?
बकेंगे क्या, हमरे गांव में तो फी आदमी सौ-सौ टका तक लेते थे, पुलिस वाले, तब नाव में बैठने देते थे । नहीं देने वालों को चलती नाव से पानी में फेंक देने की धमकियो देते थे।
तू दी थी किसी को रुपया-पैसा ? और नहीं तो क्या, डेढ़ सौ टका था खूछ (साड़ी में बंधा) में , ऊ में से एक सौ टकही वाला नोट छीन लिया, उ पुलिसवन ! बेट खउकन !!
... मादर ... ! बड़ी हरामी रहा होगा। लेकिन सचे कहते हैं भाई साहेब, हम तो पंद्रह दिन से चौबीसो घंटे लोगों को बचाने में भीड़े हैं।
थोड़ा पढ़ा- लिखा वाला युवक ने जवाब दिया- नीतीश कुमार का स्पेशल आर्डर है। आप लोग ठीक से काम करिये। हम लोग सब देख रहे हैं। सबके बारे में खबर पहुंच रही है।
क्या खबर पहुंचाइयेगा। आप ही लोग तो लोगों को मरने के लिए छोड़ दिये हैं। पब्लिक के लिए नाव लेकर जाते हैं और नेता लोग उसे कब्जिया लेता है। कहता है, पहले मेरे लोगों को निकालो। हमारे जैसे छोटा आदमी क्या करेगा ???
गाड़ी सहरसा स्टेशन के काफी नजदीक पहुंच गयी थी। अचानक सारे बहस-विवाद बंद हो गये। लोग अपने-अपने बक्शे-बोरे को डब्बे के दरबाजे की ओर खींचने लगे थे।
आंधे घंटे के बाद जब सभी यात्री डब्बे से उतर चुके तो मैं भी उतर गया। प्लैटफार्म से एक नजर पूरी गाड़ी पर दौड़ायी। मुझे यह गाड़ी बड़ी उदास और मनहूस लगी। स्टेशन से बाहर निकलते समय ओवरब्रिज की ऊंचाई से पुनः गाड़ी की ओर देखा। एक बार, दो बार, तीन बार। चौथी बार देखने की हिम्मत नहीं हुई, क्योंकि मुझे यह गाड़ी अब बहुत भयावह लगने लगी थी। कोशी से भी ज्यादा भयावह।


सोमवार, 22 दिसंबर 2008

बादल को घिरते देखा है / नागार्जुन

आज से 17 वर्ष पहले आज ही के दिन बाबा नागार्जुन से मिलने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उन दिनों बाबा बीमार रहा करते थे और आगंतुकों से कुछ ऐसे मिलते थे मानो उन्हें वर्षों से पहचानते हों। ईमानदारी से कहूं तो तब बाबा से मिलकर मैंने कोई रोमांच महसूस नहीं किया था। क्योंकि बाबा न तो कपिलदेव थे और न ही फिल्मीस्तान के कोई अभिनेता या अभिनेत्री। साहित्यकार तब मेरे लिए रोमांच के दुनिया के लोग नहीं हुआ करते थे। वैसे भी उनकी बात मेरी समझ में नहीं आयी थी। वास्तव में मैं तो अपने एक मित्र का महज संगी बनकर उनके पास पहुंचा था, इस मुलाकात से मेरा कोई लेना-देना नहीं था। बाबा से पते की बात तो उस मित्र ही ने की थी, जो उनके दूर का रिश्तेदार थाऔर जो पता नहीं आज कहां और कैसे है ? लेकिन 17 वर्ष पहले मैं नित डायरी लिखता था, जिसमें मैंने बाबा से मुलाकत की बात लिखी है। मुझे विश्वास नहीं हो रहा है कि 17 वर्ष पहले मैंने ही लिखा था - दिलीप झा के साथ मिश्राटोला मोहल्ला (दरभंगा) गया। वहां वैद्यनाथ मिश्र यात्री उर्फ नागार्जुन से मिला। उन्होंने मुझसे मेरा नाम और वर्ग (किस वर्ग में पढ़ते हो ?) पूछा। मुझे उनकी कोई बात समझ में नहीं आयी। दिलीप के कारण आज शाम मैं क्रिकेट नहीं खेल रहा।
लेकिन आज बाबा की कविताओं को पढ़ता हूं, तो मन कहता है काश 17 वर्ष पहले मुझे मालूम होता कि कोई व्यक्ति कवि कैसे बन जाता है। कितनी पीड़ाओं और व्यथा से गुजरता है इंसान एक कविता को लिखने से पहले !
बादल को घिरते देखा है / नागार्जुन
अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है।
छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों ले आ-आकर
पावस की उमस से आकुल
तिक्त-मधुर बिसतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद-मंद था अनिल बह रहा
बालारुण की मृदु किरणें थीं
अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-अलग रहकर ही जिनको
सारी रात बितानी होती,
निशा-काल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें
उस महान् सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
दुर्गम बर्फानी घाटी में
शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर
अलख नाभि से उठने वाले
निज के ही उन्मादक परिमल-
के पीछे धावित हो-होकर
तरल-तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
कहॉं गय धनपति कुबेर वह
कहॉं गई उसकी वह अलका
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योम-प्रवाही गंगाजल का,
ढूँढ़ा बहुत किन्तु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
जाने दो वह कवि-कल्पित था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर,
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
शत-शत निर्झर-निर्झरणी कल
मुखरित देवदारु कनन में,
शोणित धवल भोज पत्रों से
छाई हुई कुटी के भीतर,
रंग-बिरंगे और सुगंधित
फूलों की कुंतल को साजे,
इंद्रनील की माला डाले
शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,
कानों में कुवलय लटकाए,
शतदल लाल कमल वेणी में,
रजत-रचित मणि खचित कलामय
पान पात्र द्राक्षासव पूरित
रखे सामने अपने-अपने
लोहित चंदन की त्रिपटी पर,
नरम निदाग बाल कस्तूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मदिरारुण आखों वाले उन
उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
मृदुल मनोरम अँगुलियों को
वंशी पर फिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।


बुधवार, 17 दिसंबर 2008

विलियम ब्लेक की कालजयी पेंटिंग

विलियम ब्लेक पेंटिंग की दुनिया का एक अमर नाम है। गत दिनों उनकी कुछ कालजयी पेंटिंग को लंदन में दोबारा प्रदर्शित किया गया। 1809 में प्रदर्शित ब्लेक की तीन पेटिंग्स को आपके सामने रख रहा हूं। (तीनों पेंटिंग्स ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कारपोरेशन से साभार है)





हस्ती वापसी की हसरत

ताकत खोने का ग़म क्या होता है यह कोई रूस से पूछे। चार दशक तक दुनिया की महाशक्ति कहलाने वाला रूस पिछले लगभग सोलह वर्षों से इस ग़म को ढो रहा है। लेकिन एक बार फिर वह अपनी बिखरी हुई शक्ति को समेटने में लग गया है। रूस ने अपने पुराने पड़े हथियारों की जंग छुड़ाना शुरू कर दिया है। सुसुप्तावस्था में पड़ी रूस की सामरिक नीतियां पुनः सक्रिय होती दिख रही हैं। जैसे-जैसे उसकी अर्थ-व्यवस्था पटरी पर आ रही है वैसे-वैसे उसके हौसले बुलंद हो रहे हैं। पिछले दो वर्षों में रूस ने जिस बेफिक्री के साथ अपनी सामरिक नीतियों में बदलाव किया है उससे साफ जाहिर हो रहा है कि रूसी नेताओं को अब एक ध्रुवीय अमेरिकानीत दुनिया कबूल नहीं ।
इन्हीं वज़हों से र्स्टाट-1, स्टार्ट-2 (स्ट्रेटजिक आर्म्स रिडक्शन ट्रीटि) और आइएनएफ ट्रीटि (इंटरमीडिएट रेंज न्यूक्लियर फोर्सेस ट्रीटि-1987) जैसे समझौते में रूस की कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं रह गयी है। जबकि सोवियत संघ के पतनोपरान्त स्थगित हुए हथियार परीक्षण कार्यक्रम को उसने तेज़ी से अमलीजामा पहनाना शुरू कर दिया है। इसके कारण संयुक्त राज्य अमेरिका और नाटो (नॉर्थ एटलांटिक ट्रीटि ऑरगेनाइजेशन) के कान खड़े हो गये हैं। पश्चिमी मीडिया ने तो लिखना शुरू कर दिया है कि रूस ने शीत युद्ध-2 की शुरूआत कर दी है। वैसे इस बार रूस के मुकाबले नाटो के देशों को खड़ा किया जा रहा है। पिछले दिनों यह चर्चा और तेज़ हो गयी जब रूस का एक टोही विमान इंग्लैंड की हवाई सीमा में प्रवेश कर गया। इसके अलावा ईरान मसले पर रूस ने जब अमेरिका का साथ देने से साफ इनकार कर दिया तो अमेरिकी मीडिया ने लिखा कि रूस दूसरे शीत युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार कर रहा है। इस चर्चा में तब और गर्माहट आ गयी जब अमेरिकी मीडिया में ही ख़बर आयी कि रूस यामताउ पर्वत श्रृंखला में अवस्थित दो रहस्यमय भूमिगत शहरों में हथियारों का जखीरा जमा कर रहा है। अमेरिकी मीडिया ने रूस के एक बर्खास्त केजीबी अधिकारी के हवाले से कहा कि इन भूमिगत शहरों में नाभिकीय हथियारों को प्रतिस्थापित किया जा रहा है। ख़बरों में यह भी कहा गया कि इन दोनों शहरों के कायाकल्प के लिए रूस ने पच्चीस हजार मजदूरों को काम पर लगा रखा है। उल्लेखनीय है कि शीत युद्ध के जवाने से ही यामताउ पर्वत श्रृंखला के अंदर बने इन तथाकथित भूमिगत शहरों का जिक्र हो रहा है। लेकिन तमाम बहस और कयास के बावजूद आजतक इन शहरों की असलियत दुनिया के सामने नहीं आ पायी । सोवियत संघ या रूस ने कभी भी इस आरोप का कोई खंडन नहीं किया कि उसने नाभिकीय हथियारों के सुरक्षित इस्तेमाल के लिए भूमिगत शहर बना रखे हैं। रूसी सरकार ने उस आरोप पर भी कान नहीं दिया जिसमें कहा गया था कि रूसी राजनेताओं ने नाभिकीय युद्ध की स्थिति में ख़ुद को बचाने के लिए इन भूमिगत शहरों को तैयार किया है।
उल्लेखनीय है कि यामताउ पर्वत श्रृंखला के इन भूमिगत शहरों के बारे में तरह-तरह की किंवदंतियां मशहूर हैं। पश्चिमी मीडिया के अनुसार इन शहरों का क्षेत्रफल अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन डीसी के बराबर है। इनमें साठ हजार लोगों की ठहरने की व्यवस्था है। इस शहर के अंदर 3620 लाख टन अनाज-भंडारन की व्यवस्था है। इसके अलावा इस शहर में विभिन्न स्थानों पर आण्विक हथियारों के इस्तेमाल के लिए 200 न्यूक्लियर बेस भी हैं जहां से अंतरमहाद्वीपीय नाभिकीय मिसाइल छोड़े जा सकते हैंै। कहा जाता है कि 400 वर्गकिलोमीटर के दायरे में बनाये गये इन भूमिगत शहरों की वास्तु-तकनीक ऐसी है कि ये लगातार सात परमाणु बम की मार को झेल सकते हैं। पश्चिमी मीडिया के अनुसार 1970 के दशक में ब्रेझनेव के शासन काल में बने इन भूमिगत शहरों को सोवियत संघ के विघटन के बाद कुछ समय तक बंद कर दिया गया था। लेकिन पिछले वर्षों में रूस ने इसके पुनर्निमाण के लिए करोड़ों रुपये लगाये हैं। पश्चिमी मीडिया ने अमेरिकी खुफिया अधिकारियों के हवाले से लिखा है कि रूस ने विगत वर्षों में पुनर्निमाण की इस परियोजना पर छह अरब अमेरिकी डॉलर की राशि खर्च की है।
इन सबके इतर रूस ने बुलावा सबमैराइन मिसाइल (एसएलबीएम) का सफलतापूर्वक परीक्षण करके अमेरिका और अन्य पश्चिमों देशों की चिंता बढ़ा दी। विगत जून में किए गये इस परीक्षण पर रूसी नाव सेना के अधिकारी ने कहा कि यह उसके प्रस्तावित महा परीक्षण श्रृंखला की महज़ शुरूआत ही है तथा अभी विभिन्न प्रकार के और 14 परीक्षण होने हैं। मालूम हो कि इससे कुछ माह पहले ही रूसी नाव सेना ने यूरी डॉलगोरकी नामक मिसाइल का परीक्षण किया था। बोलावा मिसाइल के बारे में कहा जाता है कि यह नाभिकीय शक्ति से संपन्न है। इसके मुकाबले लायक मिसाइल सिर्फ अमेरिका के पास ही है। जब विदेशी पत्रकारों ऐसे परीक्षणों के औचित्य के बारे में जानना चाहा तो उन्हें बताया गया कि रूस अपनी सामरिक तैयारियों के लिए स्वतंत्र है। लगे हाथ कुछ रूसी रक्षा विशेषज्ञों ने पुतीन के उस बयान का उल्लेख कर डाला जिसमें पूर्व रूसी राष्ट्रपति ने अमेरिका पर आरोप लगाया था कि वह निरशस्त्रीकरण के प्रति गंभीर नहीं है।
इससे कुछ महीने पहले ही रसियन एकेडमी ऑफ मिलेट्री साइंस ने मिलिट्री डाक्टरीन -2000 पर पुनर्विचार के लिए एक सेमिनार का आयोजन किया था। इसमें रूस के रक्षा विशेषज्ञों, सैनिक अधिकारियों समेत कई मंत्रियों ने भी भागेदारी की । बैठक में तय किया गया कि रूस दुनिया के वर्तमान रणनीतिक समीकरण को देखते हुए अपने नाभिकीय कार्यक्रम को जारी रखे। बैठक में एकमत से फैसला लिया गया कि रूस अपनी नाभिकीय तकनीक और प्रौद्योगिकी को लगातार अद्यतन करता रहे। किसी भी स्थिति में रूस नाभिकीय कटौती न करे। यह देश और दुनिया की सुरक्षा के लिए आवश्यक है। रूसी सेना अध्यक्ष यूरी बेल्यूव्सकी ने कहा कि ऐसे तो दुनिया में अब राजनीतिक विचारों की टकराहट नहीं हो रही, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि दुनिया पूरी तरह से महफूज हो गयी है। उन्होंने कहा कि दुनिया में तनाव और टकराहट का माहौल है। अमेरिका अभी भी दुनिया को नाभिकीय हथियारों का भय दिखाता है। वह नाभिकीय हथियारों में कटौती के बारे में सोच भी नहीं रहा। ऐसे में रूस की सैनिक क्षमताओं में कटौती देश के लिए हितकारी नहीं है। बेल्यूव्सकी ने कहा कि रूस और अन्य देशों को अपनी सुरक्षा के लिए हमेशा तैयार रहने की ज़रूरत है। इसलिए मिलिट्री डाक्ट्रीन-2000 में सुधार की आवश्यकता है। उल्लेखनीय है कि कुछ वर्ष पूर्व रूसी राष्ट्रपति पुतीन ने इस योजना की घोषणा की थी, जिसके तहत रूसी सेना के पास मौजूद नाभिकीय हथियारों के में कटौती करने का प्रावधान किया गया था । हालांकि बैठक के निर्णय पर रूसी राष्ट्रपति की ओर से कोई बयान नहीं आया, लेकिन कहा जाता है कि मिलिट्री डॉक्ट्रीन-2000 पर पुनर्विचार से रूसी संसद ड्‌यूमा भी सहमत है।
उल्लेखनीय है कि मिलिट्री साइंस की इसी बैठक में एक रूसी रक्षा विशेषज्ञ ने अमेरिका और नाटो के ख़िलाफ जमकर शाब्दिक हमले किए। विशेषज्ञ ने कहा कि अमेरिका की मंशा है कि वह पूरी दुनिया को अपने इशारे पर नचाये। अमेरिका सोवियत संघ से अलग हुए देशों पर अपना नियंत्रण चाह रहा है । उसके इस नापाक इरादे में नाटो भी बराबर का साझीदार है। इसलिए हमें अपनी सुरक्षा व्यवस्था लगातार मजबूत रखने की आवश्यकता है।
पश्चिमी देशों के राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि रूस ़ज़्यादा दिनों तक खामोश नहीं रहेगा। जैसे ही उसकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होगी वह अपने पुराने गौरव को पाने का प्रयास शुरू कर देगा। इस वर्ष रूस ने तेल और प्रेट्रोलियम गैस के निर्यात से काफी धन कमाया है । उसके अन्य व्यापारिक प्रक्षेत्र भी मजबूत हो रहे हैं। इसलिए वह फिर से रक्षा बजट का आकार बढ़ाने में संलग्न हो गया है। लेकिन यह दुनिया के लिए कितना हितकर है, यह तय होना अभी शेष है।

सोमवार, 15 दिसंबर 2008

बेमिसाल/ आग में बाग

विश्व प्रसिद्ध लेखक पौलो कॉल्हो अपनी विख्यात पुस्तक द अलकेमिस्ट में एक जगह लिखते हैं- अगर इंसान की इच्छाशक्ति मजबूत हो, तो कोई कार्य असंभव नहीं होता। भूमिगत आग से बुरी तरह प्रभावित झारखंड के झरिया कोलियरी क्षेत्र के कुछ किसानों ने इस बात को चरितार्थ करके दिखाया है। उन्होंने भूमिगत आग से प्रभावित झारखंड की आग प्रभावित झरिया कोलियरियों के आसपास की जमीन पर बाग लगाकर बड़ा उदाहरण पेश किया है । सुलगती और फैलती हुई भूमिगत आग से बुरी तरह प्रभावित झरिया की जिस जमीन पर उतरने में चिड़ियां भी खौफ खाती हैं और जहां दूर-दूर तक धुआं और खानों के कचरे के सिवा कुछ भी नजर नहीं आता, वहां हरियाली और बागवानी की बात रेगिस्तान में नखलिस्तान जैसी ही है। लेकिन इन किसानों ने आग उगलती जमीन से सब्जी पैदाकर खनन वैज्ञानिकों को पुनर्विचार के लिए मजबूर किया है। ये किसान झरिया-भागा सड़क के किनारे आग प्रभावित जमीन से सटे भूखंडों पर पिछले तीन-चार वर्षों से साग-सब्जी, तो उगा ही रहे हैंसाथ ही साथ सालाना हजारों रुपये की कमाई भी कर रहे हैं।
इन किसानों ने खुद अपने बल पर ऐसी देसी तकनीकों का ईजाद किया है कि आग उनके उद्यान को छूती तक नहीं। इसके लिए उन्होंने न तो किसी प्रयोगशाला में प्रयोग किया है और न ही कोई वैज्ञानिक प्रशिक्षण लिया है। सारा कुछ व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर विकसित किया है। उन्होंने खेती वाले भूखंडों को बाहरी जमीनों से असंबद्ध कर दिया है ताकि ये आग से यह अछूता रहे। इसके लिए भूखंडों के चारों ओर एक आग-अवरोधक पतली और गहरी नाली (रिज) बनाकर उसे बालू से भर दिया गया है। नाली के ऊपरी हिस्से में हमेशा पानी भरा रहता है। यह नाली एक साथ दो काम करती है। यह एक ओर भूखंड में लगी फसलों की सिंचाई करती है, तो दूसरी ओर रिज की कुचालकता को बनाये रखती है। किसानों ने खेती के लिए ऐसे भूखंडों को ही चुना है जहां कोयले की उपलब्धता नगण्य हैं। इसका फायदा यह है कि आग की फैलने की सहज प्रवृति उस ओर नहीं हो पाती। खनन वैज्ञानिक टीएन सिंह कहते हैं ‘ ये कृषक भूमिगत आग के रग-रग से वाकिफ हैं। इन्हें पता है कि किस जमीन के नीचे कोयला है और कहां नहीं है। भू-धंसान वाले भूखंड में सामान्यता कोयला नहीं होता क्योंकि यहां के कोयला या तो जल चुके होते हैं या फिर निकाले जा चुके होते हैं। साथ ही साथ ऐसे भूखंडों के तल भी धंसे(अवतल) होते हैं। इस कारण यहां की जमीन में तुलनात्मकर रूप से ज्यादा नमी होती है क्योंकि बरसात में यहां पानी जमा होते रहता है।’
यही वजह है कि आज इस छोटे से इलाकों को लोगों ने सब्जी बगान का उपनाम दे दिया है। अदीप प्रसाद पिछले छह साल से यहां तीन कट्ठे के एक भूखंड पर साग-सब्जी उगा रहा है। वह कहता है, ‘ शुरू में लोग हम पर हंसते थे। कहते थे कि खेती का इतना शौक है तो गांव चले जाओ, आग पर क्या उगेगा। लेकिन आज हम इस जमीन से प्रतिमाह लगभग 3,000 से 4,000 रुपये की कमाई कर लेते हैं। सालों भर हमारा बगान हरा रहता है। गोबी और नेनुआ (शलजम) की पैदावर अच्छी होती है।’ अदीप झरिया के उन कुछ गिने-चुने लोगों में से है जिसकी गृहस्ती गैरकोल गतिविधियों से चल रही है। रवि सिंह भी एक ऐसा ही किसान है। ये चार-पांच कठ्ठा जमीन पर पिछले सात वर्षों से साग-सब्जी की खेती कर रहा है। 32 वर्षीय रवि इस व्यवसाय से सालाना 25 हजार से लेकर 30 हजार रुपये की कमाई कर लेता है। वह अपने बगान में परवल, मूली व गाजर समेत अन्य मौसमी सब्जी की खेती करता है। रिंकू साहू भी इस इलाके के पांच कट्ठे के एक भूखंड पर पिछले सात-आठ वर्षों से खेती कर रहा है। वह अपने बगान में मुख्यतः पालक, भिंडी, गोबी और मूली की खेती करता है। 27 वर्षीय रिंकू इससे सालाना 18 से 25 हजार की आमदनी कर लेता है। रिंकू कहता है ‘... तारीफ तो सभी करते हैं, लेकिन मदद कहीं से नहीं मिलता। अगर सिंचाई की समुचित व्यवस्था हो जाये तो हमें काफी सहूलियत होगी और पैदावार भी ज्यादा होगी।’ 30 वर्षीय सुनील बाउरी भी दो कट्ठे की जमीन पर पिछले छह वर्षों से साग-सब्जी उगा रहा है। बाउरी मुख्यतः पालक, टमाटर और मौसमी सब्जी की खेती करता है। उसे सब्जी बेचकर प्रति माह 4000 रुपये की कमाई हो जाती है। दिलचस्प बात यह है कि बाउरी जिस जमीन पर खेती कर रहे हैं वहां दो दशक पूर्व भयानक भू-धंसान हुआ था। उसके बाद जमीन का वह हिस्सा एक खड्ड में परिणत हो गया था। बाउरी ने काफी मेहनत से उस मिट्टी को उपजाऊ बनाया है। इससे थोड़ी ही दूरी पर 28 वर्षीय सुनील रवानी का सब्जी बगान है। रवानी के खेतों में भी हरियाली है। रवानी मुख्य रूप से साग की खेती करता है और सालाना 20 हजार रुपये तक की बचत कर लेता है।
लेकिन इसके बावजूद आजतक बीसीसीएल समेत किसी भी सरकारी या गैरसरकारी संस्था से इन्हें कोई मदद नहीं मिली है। स्थानीय पर्यावरणविदों का कहना है कि इनके कार्य काफी प्रशंसनीय हैं। इनके प्रयास से ही झरिया में दुर्लभ हो चुकी हरियाली का पुनर्दर्शन संभव हुआ है। साथ ही इससे झरिया के वातावरण में अत्यधिक मात्रा में मौजूद कार्बनडाइआक्साइड गैस में भी कमी आयेगी। इसलिए इन्हें बढ़ावा देने की जरूरत है।

शनिवार, 13 दिसंबर 2008

दो तस्वीर नेपाल की

( नेपाल के यान्सिला में हथियार प्रशिक्षण शिविर में जमा पी एल ऐ के लड़ाके : ये दोनों तस्वीर मेरे एक नेपाली पत्रकार मित्र ने भेजी है )


( नेपाल के सुनसरी जिला मुख्यालय में हथियार
प्रशिक्षण शिविर में जमा पी एल ऐ के महिला लड़ाके)
240 वर्षों की राजतांत्रिक बेड़ियों को तोड़कर प्रजातंत्र के पथ पर कदम रखने वाले नेपाल की स्थिति इन दिनों भुलाये हुए पथिक जैसे हो गयी है। ऐसा लगता है कि पूरा नेपाल लखनऊ की भूल-भूलैया हो गया है । नये संविधान के गठन के लिए निर्वाचित हुई संविधान सभा रास्ते से भटकती दिख रही है। सत्ताधारी नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी-माओवादी, संविधान निर्माण के गुरुत्वर दायित्व के ऊपर अपने लड़ाकों के सेना में सेट्लमेंट को ज्यादा तरजीह दे रही है। नेपाल स्थित मेरे कुछ पत्रकार मित्रों का कहना है कि प्रधानमंत्री प्रचंड को माओवादी लड़ाके यथा पीपुल्स लिबरेशन आर्मी व यंग कम्युनिस्ट लीग से सीधे धमकी मिल रही है कि अगर वह लिबरेशन आर्मी व कम्युनिस्ट लीग के लड़ाकों को सेना में शामिल नहीं करा सके तो उनके खिलाफ मौत का वारंट जारी कर दिया जायेगा। शायद यही कारण है कि कल ही प्रचंड ने काठमांडू में एक सभा में बोलते हुए कहा- बंदूक की नाल की प्रासंगिकता अभी खत्म नहीं हुई है। लेखकों द्वारा आयोजित इस सभा में प्रचंड यहीं नहीं रूके उन्होंने हिंसा को तंत्र निर्माण की अनिवार्य जरूरत तक करार दिया।
उधर कुछ दिनों से माओवादी लड़ाके एक बार पुनः कंधे पर बंदूकें टांगकर बस्ती-धौड़ा के चक्कर लगाने लगे हैं। नेपाल के कई जिलों में माओवादी हथियार बंद दस्तों का प्रशिक्षण-सत्र शुरू हो गये हैं। माओवादी लड़ाके हथियारों के साथ बेखौफ सभा कर रहे हैं और हथियारों की जंग छुड़ाने में जुट गये हैं। उल्लेखनीय है कि कोशी हादसे के लिए भी माओवादी लड़ाके दोषी रहे हैं। लेकिन आजतक नेपाल सरकार उन दोषियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जिन्होंने तटबंध को बचाने के कार्य को बलपूर्वक रोक दिया था। लेकिन भारत सरकार बेफिक्र है। भारत सरकार ने भी कभी दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करने की कोई मांग नेपाल से नहीं की। उल्टे आवाम की राय लिए बिना नेपाल को करोड़ों रुपये का हर्जाना चुका दिया। मालूम हो कि कोशी हादसे में नेपाल के सुनसरी जिले के लगभग पचास हजार लोग प्रभावित हुए थे और नेपाल ने इसकी पूरी जिम्मेदारी भारत पर ठोक दीऔर भारत की ओर से कोई विरोध नहीं हुआ। आश्चर्य की बात यह कि नेपाल ने कोशी हादसे प्रकरण में अंतर्राष्ट्रीय संधि की धज्जी उड़ा दी थी। इसी का परिणाम है कि हर पंद्रहवें दिन कुसहा में कोशी तटबंध की मरम्मत का कार्य को हथियारबंद माओवादी रोक देते हैं और तबतक कार्य आगे नहीं बढ़ने देते हैं जबतक उनकी नाजायज आर्थिक मांग पूरी नहीं कर दी जाती। कुसहा में दो महीने के दरम्यान तीन बार कार्य स्थगित किया जा चुका है। भयादोहन का ऐसा उदाहरण दुनिया में शायद ही कहीं देखने को मिला होगा जब अंतर्राष्ट्रीय संधि के तहत चल रही परियोजनाओं को बंदूक के बल पर रोक दिया जाता हो और स्थानीय सरकार तमाशा देख रही हो। यह घटना विदेश मंत्री के नेपाल प्रवास के दौरान भी घटी, लेकिन पता नहीं विदेश मंत्री ने इस पर क्या बात की या फिर उन तक सूचना पहुंची भी या नहीं। नेपाल में भारत के राजदूत राकेश सूद की सक्रियता से तो सभी परिचित हैं। कुसहा प्रकरण के दिनों में वे नेपाल का पर्यटन करते रहे और उधर कोशी का तटबंध सनै-सनै टूटता रहा। भारत सरकार की नीति पर माथा पीट लेने का मन करता है।
ऐसा नहीं है कि नेपाल में जो कुछ हो रहा है उसका असर भारत पर नहीं पड़ेगा। भारत नेपाल से सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है। दोनों देशों के बीच बेटी-रोटी के संबंध सदियों से है। अगर समय रहते भारत सरकार नहीं चेती तो देश को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।

बुधवार, 10 दिसंबर 2008

साधारण डब्बे की असाधारण बात (तीसरी कड़ी)

दहाये हुए देस का दर्द-25
सात बजे के आसपास इंजन ने एक लंबी सीटी बजायी और प्लैटफार्म से सरकने लगी। पांच-दस मीटर चली और दस मिनट के लिए खड़ी हो गयी। डब्बे के दरबाजे पर खड़े युवकों ने जोर से आवाज लगायी- वैक्यूम, वैक्यूम, वैक्यूम ... यह सिलसिला लगभग आधे घंटे तक चलता रहा और अंततः साढ़े सात बजे गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली। इस बीच बहस की गाड़ी का वैक्यूम भी कटा रहा। इस दौरान बहस के अधिकतर वक्ता खामोश ही रहे। ट्रेन की देरी को लेकर एक-दो टिप्पणी जरूर हुई, लेकिन यह एकतरफा संवाद जैसा था। जिसका आशय स्पष्ट था, डेढ़-दो घंटे की देरी भी कोई देरी है बच्चू ! आखिर समय पर कभी खुलती भी है इस मार्ग की गाड़ियां ?
मुर्लीनारायणपुर हॉल्ट पर गाड़ी रूक गयी। डब्बे के प्रवेश द्वार पर खड़े युवक, जो अब तक निजीव से दिख रहे थे, अचानक उनके चेहरे पर हरियाली सी दिखने लगी। इसका कारण मैं तत्काल नहीं समझ सका, लेकिन जब समझा तो खूब समझा और ऐसा समझा कि दोनों युवकों से गरमागरम कर बैठा। मामले को यात्री-पंचायत ने तुरंत अपने संज्ञान में लिया और आम सहमति से निर्देश दिया कि दोनों युवकों को अगले स्टेशन पर इस डब्बे से उतारकर दूसरे डब्बे में बैठा दिया जाय क्योंकि ये लफंगे हैं।दोनों युवकों ने जाते-जाते मुझे स्थानीय भाषा में गाली दी, लेकिन उसके स्वर की क्षीणता बता रही थी कि वे गाली मुझे नहीं जैसे हवा को दे रहे हैं ताकि खुद को झूठा विश्वास दिला सकें कि वे डरपोक नहीं। लेकिन युवकों के उतरते ही उन दोनों युवतियों के चेहरे के रंग बदल गये। दोनों युवतियों ने राहत की सांस ली। शायद वह यह सोचकर खुश हो रही थीं कि अब वे सहज भाव से बायें-दायें, ऊपर-नीचें झांक सकती हैं तथा यात्रा की बोरियत भरी उबासियां स्वतंत्रतापूर्वक ले सकती हैं और इस दौरान उन्हें किसी भेदक नजर का सामना नहीं करना पड़ेगा।
खैनी वाले वृद्ध ने कहा- लूच्चा है, लूच्चा ! सब सिलेमा (सिनेमा) का प्रकोफ (प्रकोप) है भैय्या। ई टीभी (टीवी) तो सब छोड़ा सबको बिगाड़ कर रख दिया है। लाज-शर्म को तो मानो शरबत बनाकर पी गये हैं ये बोंगमरने (एक स्थानीय भदेस गाली)!
अबतक गाड़ी थरबीटिया स्टेशन पार कर चुकी थी। राघोपुर में जो बहस-मंडली तैयार हुई थी उनके तीन-चार सदस्य इस बीच उतर चुके थे। लेकिन थोड़ा पढ़ा लिखा वाला भाई पूरी ऊर्जा के साथ बहस का संचालन कर रहे थे। इस बीच बहस में एक नये सदस्य शामिल हुए। उसने अपनी पीड़ा बताकर बहस मंडली में प्रवेश किया। उसकी आपबीती कुछ ऐसी थी कि हर कोई उसकी पूरी कहानी सुन लेने के लिए जैसे व्यग्र हो उठे।
वह कह रहा था ... अरे क्या कहें भैय्या ! 18 अगस्त को तटबंध टूटा, तो हमलोग अपने सुपौल जिले के कुटम्बों को अपने गांव आने का निर्देश दे रहे थे। हम लोग सोचते थे कि हमारे गांव में पानी नहीं आयेगा। मगर ! पानी क्या आया , समझिये सद्यः परलय (प्रलय) आ गया।
कहां है आपका गांव ?
गांव के नाम है- पड़वा। मधेपुरा जिला के मूर्लीगंज प्रखंड में पड़ता है।
17 तारीख के भोर में सरबा गांव में पानी प्रवेश कर गिया। हमलोग सोचते थे कि कितना पानी आयेगा- बहुत से बहुत घूठना भर! लेकिन 12 बजे दिन तक तो आंगन में डूब्बा (डूबने लायक) पानी हो गया था। गोहाली में दो गाय और तीन भैंस और नेरू-पड़ड़ू बंधल था। पानी को देखकर सब माल-मवेशी बां-बां करने लगे। अब करें तो करें क्या? घर में दो जवान बेटी! एक पत्नी, बूढ़ी मां और एक ठो छोट बच्चा। एक बेर (बार) मवेशियों की ओर देखता था दूसरा बेर बेटा-बेटी और मां को। दिमाग चकरा रहा था। अंत में कुछ नहीं फुराया (सूझा), तो सभी मवेशियों की रस्शी को काट दिया। लेकिन सच कहते हैं- भैय्या, आंख में आंसू आ गिया। गाय की बछिया बहुत छोटी थी ! हे मालिक ! ... ऊ तो घंटे-दो घंटे में दम तोड़ दी होगी। गाय और भैंस शायद कहीं पार उतर गये हों तो हों। चारों ओर अफरा-तफरी मचल था। पूरा गांव में लगता था जैसे भूकंप आ गिया है। लोग भाग रहे थे। हम भी भागने लगे। लेकिन मेरी मां पैर से लाचार है। वह तो दस डेग भी नहीं चल सकती थी। हिम्मत करके उठा लिया कंधे पर। सबको अपने पीछे लगा लिया और निकल पड़ा। पानी बढ़ते जा रहा था। धुधुवा-धुधुवा कर पानी की धार आ रही थी। लेकिन मूर्लीगंज वाली नहर तक किसी तरह पहुंच गिया। वहां से राता-राती (रातों-रात)मधेपुरा पहुंचा।
पांव पैदल ??? (सहयात्रियों की जिज्ञाशा)
... तो और कौन साधन था। रात भर चलते रहे। बीच-बीच में पानी की धार रास्ता रोक लेती थी। कभी-कभी सांप भी दिखता था। लेकिन हम अपने कमर में रस्शाी बांधे थे। कंधे पर मां को लिए रहा और बच्चों से कहता गया - कुछ भी हो जाये, रस्शी नहीं छोड़ना। सच कहते हैं भैय्या, मन में तनीकों भरोसा नहीं था कि बच कर निकल पायेंगे। मां कहती थी- हमको छोड़ दो और बच्चों को लेकर तेजी से निकल जाओ ... हमने साफ ठान लिया था, जबतक जिंदा रहेंगे मां को बचाये रखेंगे। मां को कैसे छोड़ देंगे ? कोशिकी परीक्षा ले रही है तो परीक्षा में जायेंगे ? चाहे उत्तीर्ण हों या अनुत्तीर्ण !
बगल में बैठी वृद्धा जैसे अपने भार से दोहरा रही थी और लगातार भगवानों के नाम लिए जा रही थीं।
हां-हां-हां , जननी जन्मभूमि, ई दोनों तो स्वर्ग से बढ़कर है !(खैनी वाले वृद्ध की प्रतिक्रिया)
... भोर तक मधेपुरा पहुंचे। उस दिन मधेपुरा से सहरसा वाली ट्रेन चल रही थी। वहीं से ट्रेन से सहरसा आया और उसके बाद मुर्लीनारायणपुर चला आया। यहां गांव में साढ़ू के यहां था। वे लोग कह रहे थे, अभी रूक जाइये, कहां जाइयेगा। लेकिन मन नहीं माना। सोचा कितना दिन रहेंगे कुटुम्बों के घर।
लेकिन आपके गांव में तो अभी भी पानी है? कहां जाइयेगा ? (यह सवाल मेरा था)
नहीं मालूम बाबू। लेकिन कैंफ (कैंप)में नहीं जायेंगे। वहां तो जीते जी मर जायेंगे।
क्यों ? (मेरा ही सवाल था)
खाने-पीने वाले घर से हैं। गृहस्थ (किसान)हैं, खूब खेती करते हैं। बाल-बच्चा को कभी तखलीफ नहीं हुई किसी चीज की। वहां तो भिखारियों जैसा व्यवहार किया जाता है। क्या इसे बर्दाश्त कर पायेंगे ?? बताइये आप ???
मेरे पास कोई जवाब नहीं था। इसलिए मैंने कोई जवाब नहीं दिया।
मैं सिर्फ सोचते रहा। एक निरर्थक सोच के आगोश में मैं डूब गयामैं। जिसका एक सिरा भ्रष्टाचार से जुड़ता है तो दूसरा सरकार नाम की संस्था की अकर्मण्यता से। लेकिन दोनों की जड़ें पृथ्वी की जड़ तक पहुंची हुईं हैं। मेरे सोच से न तो पृथ्वी हिलेगी और ना ही भ्रष्टाचार और सरकार की असंवेदनशीलता की जड़ेंडोलेंगी। फिर भी मैं सोचते जा रहा था। खैनी वाले वृद्ध ने पूछा- खैनी खाते हैं , देसी है, चैन मिलता है ? मैं मुस्कराये बिना नहीं रह सका।
ट्रेन चलती जा रही थी। शायद यह अब सुपौल पहुंचने वाली थी। पान-बीड़-सिगरेट वालों की आवाज मुझे अब सुनाई नहीं दे रही थी।
(अगली कड़ी में यह यात्रा शायद पूरी हो जायेगी, अपने अधूरेपन के साथ)

शनिवार, 6 दिसंबर 2008

एहसानफरामोशी नहीं तो क्या ?

यह सुनकर शर्म आती है। मन व्यथित हो रहा है। चुल्लू भर पानी में डूबने का जी करता है। आखिर हम इतने एहसानफरामोश कैसे हो गये ? कि सप्ताह भर पहले जिसे हम पलकों पर बैठाये थे आज उनकी सुध लेने तक की हमें फुर्सत नहीं। जी हां, मैं कैप्टन एके सिंह की बात कर रहा हूं। मुंबई पर आतंकी हमलों में घायल हुआ राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड एनएसजी का जांबाज कमांडो पिछले कई दिनों से अस्पताल में पड़ा है। लेकिन, उसकी सुध लेने वाला कोई नहीं। कैप्टन एके सिंह 27 नवंबर को ओबेराय-ट्राइडेंट होटल में आतंकियों से लोहा लेने गये थे। उन्हें भनक लगी कि 18वीं मंजिल के एक कमरे में आतंकी मौजूद हैं। एनएसजी कमांडो ने कमरे के दरवाजे को विस्फोट से उड़ा दिया। लेकिन, कैप्टन सिंह कमरे के भीतर घुसकर कार्रवाई करने ही वाले थे कि आतंकियों ने उन पर हथगोला फेंक दिया। कैप्टन सिंह उस धमाके की जद में आ गये। उनके शरीर में अनगिनत छर्रे लगे और वह बेहोश हो गये। उन्हें बांबे हास्पिटल ले जाया गया, जहां उनके शरीर में धंसे छर्रे, तो निकाल दिए गये, लेकिन उनकी बायीं आंख में लगा एक छर्रा नहीं निकाला जा सका।
मुंबई में आपरेशन खत्म होने के बाद एनएसजी टीम हर्षोल्लास दिल्ली लौट आयी। लेकिन खबर है कि अस्पताल में भर्ती कैप्टन सिंह की आंख से अब भी खून बह रहा है। उनकी आंख इस कदर चोटिल हुई है कि अब उसके ठीक होने की संभावना कम ही है। कैप्टन सिंह अपना बेहतर इलाज कराना चाहते हैं और सेहतमंद होकर फिर सेना को अपनी सेवाएं देने के इच्छुक हैं। उनके माता-पिता को सूझ नहीं रहा कि वे करें तो क्या करें? कैप्टन व उनके परिवार को तसल्ली देने के लिए एनएसजी का कोई अधिकारी उनके पास मौजूद नहीं है। वह सेना की जिस बटालियन से एनएसजी में आए थे उसके कमांडिंग अफसर ने भी अभी तक उनसे मुलाकात करना जरूरी नहीं समझा। कैप्टन सिंह के एक करीबी ने एक पत्रकार को बताया है कि जब इस मामले को सेना के एक शीर्ष अधिकारी के संज्ञान में लाया गया, तो उन्होंने कुछ मदद करने के बजाए हिदायतें जारी कर दीं कि वह मीडिया को कोई इंटरव्यू न दें।
हाय रे देश ! हाय रे सरकार ! हाय रे समाज ! एक पल में हीरो बनाते हो दूसरे पल ही आंखें फेर लेते हो! यह अवसरवादिता नहीं, एहसानफरामोशी है। कोई हमारे लिए जान की बाजी लगाता है और हम उनका इलाज तक नहीं करा सकते। यह तो भारत का परम्परागत चरित्र नहीं था ! वीर पूजकों यह देश ऐसा कैसे हो गया ? कुछ भी समझ में नहीं आता ...
मुक्तिबोध बाबू! आपने ठीक कहा था- लिया बहुत ज्यादा, दिया बहुत कम / मर गया देश बचे गये तुम

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

... अब क्या बताऊं आपको

दहाये हुए देस का दर्द - 24
जाने कितने मुद्दत पहले कोशीमारों ने कोई अच्छी खबर सुनी थी। अच्छी खबर सुनने के लिए कोशीमारों के कान तरस कर रह गए हैं । बाढ़ की मार से बचने वाले हर शख्स की जुबान पर इन दिनों एक ही सवाल है कि कब तक बंध जायेगा कुसहा का कटान ? बाढ़ के समय तूफान की तरह आने वाले छद्म शुभचिंतक-मददगार और छद्म फरिश्ते आंधी की तरह उड़ चुके हैं। अब तो सिर्फ उदासियों का सिलसिला ही शेष रह गया है गया है, जो बंजर हो चुके खेतों को देखकर श्मसानी हो जाता है तो कभी बहे घरों के खड़े खूंटे को देखकर मुर्दनी में तब्दील हो जाता है। शायद इसलिए या फिर इंसानी जिजीविषा की खातिर शहर से लौटने वाले हर व्यक्ति से आजकल कोशी क्षेत्र में जो पहल सवाल पूछा जाता है वह है- बाबू कि हाल छै कुसहा कें? कहिया तक बंधतै कोशी कटान ? (बाबू क्या हाल है कुसहा का ? कब तक कटाव को बांधा जायेगा)। अगर संयोग से शहर से गांव पहुंचने वाला शख्स पेशे से पत्रकार हो, तो फिर क्या कहना। गली-कूचे, चौक-बाजारों में लोग उनके रास्ते रोक लेते हैं। उनकी जिज्ञाशा कोशी से भी ज्यादा प्रचंड है। वैसे यही सवाल वे अपने मुखिया व विधायकों से भी पूछ रहे हैं, लेकिन उनके जवाब पर एक पैसा भरोसा भी नहीं करते हैं।
राह-बाट चलते मैं भी नेतानुमा बयान देकर अपना पिंड छुड़ा लेता हूं। शायद यह सोचकर कि जीने के लिए कोई उम्मीद तो हर किसी को चाहिए। अगर ये लोग यह सोचकर भी दिन गुजार लेते हैं कि अगले साल तक उनके खेतों से नदी हंट जायेगी और उनकी बिखर चुकी दुनिया फिर से संवर जायेगी, तो उनका दिल क्यों तोड़ा जाय। लेकिन कुसहा में कुछ और हो रहा है। वहां कच्छप गति से काम चल रहा है। कटाव के भराव के कार्य की गति को देखकर तो इस बात की संभावना काफी कम है कि अगामी बरसात के मौसम से पहले इसे ठीक कर लिया जायेगा और नदी को पुरानी धारा में लौटायी जा सकेगी। कटाव को बांधना तो दूर अभी तक पायलट चैनल का काम भी अधूरा है। तीन बार काम रोका जा चुका है। वशिष्ठा कंपनी को तटबंध को बांधने का कार्यादेश मिले दो महीने से ज्यादा हो चुके हैं। योजना के अनुसार नदी को पुरानी धारा में लौटाने के लिए 14 किलोमीटर के पायलट चैनल के निर्माण का कार्य 10 दिसंबर तक पूरा कर लिया जाना था। लेकिन 4 दिसंबर तक बामुश्किल साढ़े चार किलोमीटर का चैनल भी नहीं बन सका है। कटाव को भरने के लिए कंपनी और सरकार के बीच में जो समझौते हुए थे उसके मुताबिक 300 टिपर, 40 एक्सकेवेटर और 8 वाइवरेटर मशीन-संयंत्र की मदद ली जानी थी। लेकिन अभी तक कंपनी सिर्फ 50 टिपर 8 एक्सकेवेटर और दो वाइवरेटर ही हासिल कर पायी है। जब यही सवाल सरकार की ओर से कार्य की निगरानी कर रहे मुख्य अभियंता श्यामानंद प्रसाद से मैंने पूछा तो उन्होंने भी स्वीकार किया कि काम काफी सुस्त गति से चल रहा है। बकौल प्रसाद- मैंने कार्य की सुस्ती की रिपोर्ट उच्च अधिकारी को दे दी है। वास्तव में कार्य की रफ्तार काफी कम है।
अब कोई क्या बताये उन निरीहों को, जो पूछते हैं कि कब तक बंध जायेगा तटबंध ! क्या सरकार यह नहीं समझ रही कि कोशी दो बार समय नहीं देती। अगर बरसात से पहले कटाव को नहीं भरा गया तो एक और जल प्रलय तय है। हां, एक बात और है- अगर बरसात तक कार्य पूरा नहीं हुआ, तो आधे-अधूरे कार्य के नाम बेहिसाब राशि जरूर आवंटित हो जायेगी। यहां पर यह सवाल भी खड़ा होता है कि कहीं देरी जानबूझकर तो नहीं की जा रही ! कोशी के नाम पर खरबों रुपये गबन करने वाले के लिए यह कोई असंभव कार्य नहीं है। उनकी जीभ कोशी के रक्त पीने के अभ्यस्त हैं। मालूम नहीं कब उनकी जीभ लपलपाने लगे और वे कौन-सी योजना बना डालें।

गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

... जो मारे जायेंगे

देश में मोबाइल फोन चलाने वाली एक कंपनी दावा करती है कि उसके मोबाइल का नेटवर्क भारत के उन इला़कों में भी मौजूद हैं जहां शुद्ध हवा, शुद्ध पानी, स़डकें, पाठशाला और अस्पताल आदि भी उपलब्ध नहीं हैं। व्यावसायिक दृष्टिकोण से यह एक सामान्य विज्ञापनी बड़बोलापन ही लगता है। लेकिन इससे कुछ निहितार्थ भी निकलते हैं, जो देश की वर्तमान सरकारी नीति की कड़वी सच्चाई को सामने लाता है। यानी कंपनी अप्रत्यक्ष रूप से कह रही है कि देखिए -- हम वहां भी पहुंच गये हैं जहां आपकी सरकारें नहीं पहुंच पातीं ! पानी, बिजली, स़डकें, अस्पताल और जीवनयापन की अन्य मूलभूत सुविधाएं गांवों तक पहुंचाने में सरकारें भले ही असमर्थ हों, लेकिन हमारी ध्वनी-तरंगें हर जगह पहुंच रही हैं। 2004 के लोकसभा के चुनाव में इसी तरह के कुछ दावे भारतीय जनता पार्टीनीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) ने भी कियेथे । इस गठबंधन ने बढ़ते शेयर सूचकांक और टेलीकम्यूनिकेशन उद्योग के आधार पर इंडिया शाइनिंग और फील गुड का नारा दिया । लेकिन चुनाव में लोगों ने उनके दावे को खारिज कर दिये।
नेशनल सैंपल सर्वे के अनुसार आज छह सदस्यों वाला एक आम ग्रामीण भारतीय परिवार महीना भर में मात्र 502 रुपये खर्च कर पाता है। भोजन मद में 224 रुपये के खर्च पर ही वे पूरा महीना गुजार देते हैं। जबकि देश के पांच सर्वश्रेष्ठ धनिकों की सामूहिक संपत्ति 43 खरब रुपये से ज्यादा है जोकि देश के सकल घरेलू उत्पाद का 10 प्रतिशत है।
मध्य प्रदेश का एक खनिज प्रधान जिला है सिधी। सिधी के जिला मुख्यालय से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर एक गांव है -- मेतसा; जिसकी आबादी पांच हजार है। इस गांव के एक भी व्यक्ति ने आजतक रेल या कार की सवारी नहीं की, हवाई यात्रा तो कल्पना की बात है। गांव के किसी व्यक्ति ने जिला मुख्यालय से बाहर की दुनिया नहीं देखी है। इस गांव का एक शिक्षक ने दो वर्षों तक सर्वेक्षण-अध्ययन किया और उसने कई हैरतअंगेज तथ्य सामने रखे। जिसमें कहा गया कि इस गांव के 95 प्रतिशत लोगों की अधिकतम यात्रा अपने गांव से नजदीकी बाजार तक सीमित होती है। जबकि दूसरी ओर इस इलाके से प्रति वर्ष करोड़ों का खनिज और वनोत्पाद बाहर भेजे जाते हैं। देश की कोयला राजधानी धनबाद से सटे टुंडी क्षेत्र में भी ऐसे ही दर्जनों गांव हैं जहां के लोगों को एक पैकेट नमक के लिए 10 किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती है और वहां हर वर्ष भूख से मौतें होती हैं।
वास्तव में सिधी और टुंडी देश के उन सैकड़ों भारतीय खनिज बहुल क्षेत्रों में से एक है जो गांवों से शहर की ओर बहाये जा रहे प्राकृतिक संसाधनों को मूक होकर देखने के लिए अभिशप्त है। व्यतिरेक यह कि सिधी क्षेत्र से निकले अर्जुन सिंह जैसे नेता वर्षों से केंद्रीय मंत्रिमंडल की शीर्ष कुर्सी पर विराजमान रहे हैं और धनबाद के कोल माफियाओं की संपत्ति अरबों में है। ये चंद अभागे लोगों और क्षेत्रों का कोई अपवाद-आंकड़ा या प्रहसन नहीं है जिसे हासिये की बात कहकर अनसुना कर दिया जाये, बल्कि यह देश के 70 प्रतिशत उन आमलोगों का सच है जिसके बिना किसी शक्तिशाली भारत की कोई तस्वीर नहीं बन सकती। यह आर्थिक महाशक्ति बनने की राह पर अग्रसर भारत का वह वैषम्य है जो किसी भी स्वप्न को पलक झपकते दुस्वप्न बनाने के लिए काफी है। आसमान को चूमते शेयर सूचकांक और बंजर होते खेत के बीच में घिरा उदारवादी नवभारत के सामने यह वह यक्ष प्रश्न है जिसका जवाब खोजे बगैर विकास की कोई बड़ी लकीर नहीं खीची जा सकती।
वस्तुतः ग्रामीण और शहरी भारत के बीच निरंतर चौड़ी होती आर्थिक खाई को देखकर, तो लगता है कि सदियों से सामाजिक विभेद (जातिवाद, धर्मवाद) के दुष्चक्र में फंसा भारत अब अार्थिक असमानता के अंध कूप में गिरने के लिए तैयार है। भारत दुनिया का ऐसा अकेला देश बनने की ओर अग्रसर है जहां आर्थिक विषमता सर्वाधिक है। इस मोर्चे पर भारत ने ब्राजील को अब पीछे छोड़ दिया है। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रणव बर्द्धन ने कुछ दिन पहले इस विषय (रसिसटेंस ऑफ इंडियन इकोनोमिक रिफॉर्म) पर एक शोध किया था। भारतीय मूल के इस अर्थशास्त्री ने अपने शोध में जो लिखा वह एक चौंकाने वाला तथ्य है। बर्द्धन लिखते हैं -- "इसमें कोई दोमत नहीं है कि आर्थिक उदारीकरण के बाद गरीब भारतीयों की स्थिति पहले से ज्यादा खराब हुई है। लोग इसे गैरउदारवादियों की आलोचना-गान कह सकते हैं, लेकिन सच यही है। सर्वेक्षण आंकड़े बताते हैं कि भारत में शिक्षित-अशिक्षित और शहरी-ग्रामीण के बीच आर्थिक विषमता तेजी से बढ़ी है। भारतीय किसानों की संरक्षा के लिए सरकार के पास कोई स्थायी संरक्षा नीति नहीं है। जैसी नीति चीन ने पिछले 20 वर्षों में विकसित किया हैकुछ उसी तर्ज पर भारत में भी काम होना चाहिए। विविधतापूर्ण सामाजिक संरचना के कारण यहां वस्तुनिष्ठ राजनीति करना हमेशा कठिन रहा है जो आर्थिक विषमता के कारण आगे और लाचार होगी। राजनेता दूरगामी फैसला नहीं ले रहे, ऐसे में ग्रामीणों को वर्तमान प्रतियोगी अर्थव्यवस्था में शामिल नहीं किया जा सकता । पक्षपातपूर्ण विकास स्थायी और टिकाऊ विकास की इबारत नहीं लिख सकता।’’
भारत में जब ग्रामीणों की बात की जाती है तो इसका सीधा मतलब किसान से होता है। देश के 90 प्रतिशत ग्रामीण आबादी का मुख्य पेशा खेती ही है, जो दिन-प्रतिदिन अलाभप्रद, असुरक्षित और अकरणीय होती जा रही है।
असंगठित क्षेत्र के उपक्रमों के लिए काम करने वाले राष्ट्रीय आयोग (एनसीईयूएस) ने पिछले साल अगस्त-सितंबर में एक रिपोर्ट प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौंपी थी। यह रिपोर्ट कहती है कि इस देश के 41 प्रतिशत लोग आमतौर पर गरीब हैं (करीब 27 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं) और 77 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो गरीबी की दृष्टि से संवेदनशील हैं। यानी ये वो लोग हैं जो गरीबी की बस सतह पर हैं। एक अरब से अधिक की आबादी में से 83.60 करो़ड लोग इस श्रेणी में आते हैं। सरकारी संस्था की इस रिपोर्ट के अनुसार मध्य वर्ग यानी मिडिल-क्लास के लोगों की संख्या 19.3 करो़ड हैं। यही रिपोर्ट कहती है कि भारत की आबादी का यह 77 \ीसदी हिस्सा यानी 83.60 करो़ड लोगों की प्रति व्यक्ति प्रतिदिन आमदनी औसतन 20.3 रुपये हैं। हालांकि कुछ अर्थशास्त्री सरकार द्वारा परिभाषित गरीबी रेखा को ही भ्रामक ठहराते हैं। कुछ समय पहले पटना में संपन्न विश्व गरीबी सम्मेलन में कई अर्थशास्त्रियों ने वर्तमान गरीबी रेखा की कसौटी पर सवाल खड़े किये थे। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री टी एन श्रीनिवासन ने हाल में ही इस पर एक शोध किया जो ‘इकोनोमिक एण्ड पॉलिटिकल वीकली’ में प्रकाशित हुआहै। श्रीनिवासन ने अपने विस्तृत शोध में इस बात का खुलासा किया है कि कैसे गरीबी रेखा के नीचे के लोगों को आभासी मापदंडों के सहारे ऊपर बताया जाता है। उन्होंने कृषकों की अनुमानित आमदनी को निश्चित आमदनी मानने से इनकार करते हुए कहा कि प्रकृति पर निर्भर भारतीय कृषकों की खेती हमेशा असुरक्षित रहती है, जिसे निश्चित आमदनी नहीं मानी जा सकती। उन्होंने असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे कामगरों की आमदनी को भी अस्थिर(वैरियेबल) आमदनी मानते हुए गरीबी रेखा की कसौटी पर सवाल खड़ा किया है।
दरअसल विकास के जिस मॉडल पर देश के नीति नियंता इतरा रहे हैं उसमें अनगिनत छेद हैं। विकास का यह मॉडल प्रतियोगिता के बल पर खड़ा है जिसमें आम अशिक्षित ग्रामीण कहीं नहीं टिकते। लखपति, करोड़पति बन रहे हैं जबकि गरीब दरीद्र हो रहे हैं। आर्थिक उदारीकरण के फायदे सीमित प्रक्षेत्रों तक सिमटते जा रहे हैं जिनमें बामुश्किल 12-14 प्रतिशत लोगों की ही हिस्सेदारी है। लेकिन सरकार इस बात से ही खुश है कि देश का सकल घरेलू उत्पाद लगातार बढ़ रहा है और आर्थिक विकास की दर नौ फीसदी की रफ्तार पकड़ी हुई है। हर दिन कोई न कोई नयी कार बाजार में आ रही है। मोबाइल फोन, कंप्यूटर, टेलीविजन, मोटर बाइक, वाशिंग मशीन, रेफ्रिजरेटर जैसे समृद्धि-प्रतीक उत्पादों का बाजार बढ़ता जा रहा है। हवाई जहाजों और यात्रियों की संख्या बढ़ रही है। लेकिन इस सिमटे हुए सच की कलई तब खुल जाती है जब हम 14 प्रतिशत उच्च और मध्यम उच्च वर्गों से नजर हटाकर गांव के सत्तर प्रतिशत निम्न वर्ग के लोगों की ओर देखते हैं। वहां न बिजली है और न ही सड़कें, न पीने के लिए पानी है और पहनने के लिए कपड़े। वहां के लोग अपने खेतों से इतना भी फसल नहीं उगा पाते हैं कि उन्हें दो जून की रोटी नसीब हो सके। क्योंकि खेतों का जोताकार घट रहा हैंै। किसान तेजी से मजदूर बन रहे हैं। प्रति किसान कृषि योग्य जमीन का क्षेत्रफल घट रहा है। कहीं प्रदूषण के कारण उनकी जमीन बंजर हो रहे हैं तो कहीं बाढ़ व सूखा के कारण फसलें मारी जा रही हैं। कॉरपोरेट घरानों के लिए भी किसानों की जमीन छिनी जा रही हैंै। सिंचाई के सरकारी साधन लगातार ध्वस्त हो रहे हैं। फसलों के विपणन और वितरण की कोई व्यवस्था नहीं है। किसान आज भी स्थानीय व्यवसायी के रहमोकरम पर निर्भर हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य कागजी घोषणा बनकर रह गयी है। सरकार समर्थन मूल्य की घोषणा तो कर देती है, लेकिन इसे कड़ाई से पालन करने के लिए आजतक कोई सरकारी मशीनरी खड़ी नहीं की गयी।
कृषि प्रधान भारत में खेती अब कितना कठिन हो चुका है इसका कुछ अंदाजा सरकारी आंकड़ों के विश्लेषण से भी लग जाता है। योजना आयोग के आंकड़े के मुताबिक स्वतंतत्रा प्राप्ति के समय देश में कुल सिंचाई साधनों का 34 प्रतिशत साधन सरकार द्वारा मुहैया करायी जाती थी। लेकिन पच्चास वर्षों के बाद इसमें कोई इजाफा नहीं हुआ है। बल्कि यह दो प्रतिशत घटकर 32 प्रतिशत हो गया है। इस 32 प्रतिशत में 25 प्रतिशत साधन इतने पुराने हो चुके हैं कि अब इससे खेतों तक पानी पहुंचाना असंभव हो गया है। कहीं नहर है तो पानी नहीं, कहीं पानी है तो नहर गादों से भरा है। बिहार जैसे राज्य में लघु सिंचाई परियोजना दो दशक पहले ही दम तोड़ चुकी है । वैसे यह बात और है कि यह विभाग आज भी हजारों कर्मचारियों-अधिकारियों-अभियंताओं का वेतन चुका रहा है। कोशी-कमला, गंडक व बागमती नदी-नहर परियोजनाएं पूरी तरह से ध्वस्त हो चुकी हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़ की नदी आधारित सिंचाई परियोजनाओं का ऐसा ही हाल है। झारखंड में पिछले तीन दशक से कनहर नदी परियोजना लंबित है। इसके अलावा व्यवस्थागत भ्रष्टाचार ने जल संरक्षण पर आधारित सिंचाई की अन्य परियोजनाओं की हवा निकाल दी है। ऐसी योजनाएं कागज से धरतातल पर उतरते-उतरते इतना समय ले लेती हैं कि वे खुद-ब-खुद अप्रासंगिक-असामयिक हो जाती हैं। सार्वजनिक परियोजनाओं की विफलता और पेट्रोल-डीजल के बढ़ते मूल्यों की दोहरी मार के कारण किसानों की हिम्मत पस्त हो गयी है। सरकारी सर्वेक्षण में भी कहा गया है कि देश के 40 प्रतिशत किसान खेती करना नहीं चाहते।
दरअसल देश की ग्रामीण आबादी मानव विकास के तमाम बिन्दुओं पर पिछड़ी हैं। सुविधाओं के उपभोग से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य, जागरूकता के मामले में वे शहरी आबादी से काफी पीछे हैं। ग्राम्य जागरूकता का आलम यह है कि देश के 93 प्रतिशत ग्रामीणों को नहीं मालूम कि विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) किस चिड़िया का नाम है। प्रति व्यक्ति ऊर्जा की खपत (इनर्जी कंजप्शन) विकास की एक सटीक कसौटी मानी जाती हैं। लेकिन भारत में ग्रामीणों में ऊर्जा उपभोग की दर न्यूनतम है। आज भी देश के हजारों गांवों का विद्युतीकरण नहीं हो सका है। राष्ट्रीय मानव विकास रिपोर्ट-2001 के अनुसार 30 प्रतिशत ग्रामीण ही विद्युत का उपयोग कर पाते हैं। 70 प्रतिशत ग्रामीण कच्चे और असुरक्षित घरों में रहते हैं। 45 प्रतिशत ग्रामीण आबादी को शुद्ध पेयजल नसीब नहीं, तो 90 प्रतिशत आरोग्य (मेडिकल फैसिलिटी) सुविधाओं -- अस्पतलाल, प्राथमिक उपचार केंद्र, दवाई और चिकित्सक से वंचित हैं।
ग्रामीण और शहरी की प्रति व्यक्ति आय का अनुपात काफी चिंताजनक है। सैंपल सर्वे-2004 के अनुसार शहरी लोगों की प्रति व्यक्ति आय ग्रामीणों से 2.5 गुना ज्यादा है। कुछ राज्यों में यह 3.97 गुना तक अधिक है। एक ओर जहां 90 प्रतिशत शहरी आबादी सड़कों से जुड़ी हुई है वहीं 50 प्रतिशत ग्रामीण आबादी आज भी सड़कविहीन है।
(यह लेख उन लोगों को समर्पित है जो ग्रामीण भारत के दर्द को महसूस करने की शक्ति रखते हैं तथा जो इस तर्क से सहमत हैं कि ग्रामीणों के आंसू पोछे बगैर समृद्ध भारत का सपना कभी पूरा नहीं हो सकता)