( नेपाल के यान्सिला में हथियार प्रशिक्षण शिविर में जमा पी एल ऐ के लड़ाके : ये दोनों तस्वीर मेरे एक नेपाली पत्रकार मित्र ने भेजी है )
240 वर्षों की राजतांत्रिक बेड़ियों को तोड़कर प्रजातंत्र के पथ पर कदम रखने वाले नेपाल की स्थिति इन दिनों भुलाये हुए पथिक जैसे हो गयी है। ऐसा लगता है कि पूरा नेपाल लखनऊ की भूल-भूलैया हो गया है । नये संविधान के गठन के लिए निर्वाचित हुई संविधान सभा रास्ते से भटकती दिख रही है। सत्ताधारी नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी-माओवादी, संविधान निर्माण के गुरुत्वर दायित्व के ऊपर अपने लड़ाकों के सेना में सेट्लमेंट को ज्यादा तरजीह दे रही है। नेपाल स्थित मेरे कुछ पत्रकार मित्रों का कहना है कि प्रधानमंत्री प्रचंड को माओवादी लड़ाके यथा पीपुल्स लिबरेशन आर्मी व यंग कम्युनिस्ट लीग से सीधे धमकी मिल रही है कि अगर वह लिबरेशन आर्मी व कम्युनिस्ट लीग के लड़ाकों को सेना में शामिल नहीं करा सके तो उनके खिलाफ मौत का वारंट जारी कर दिया जायेगा। शायद यही कारण है कि कल ही प्रचंड ने काठमांडू में एक सभा में बोलते हुए कहा- बंदूक की नाल की प्रासंगिकता अभी खत्म नहीं हुई है। लेखकों द्वारा आयोजित इस सभा में प्रचंड यहीं नहीं रूके उन्होंने हिंसा को तंत्र निर्माण की अनिवार्य जरूरत तक करार दिया।
उधर कुछ दिनों से माओवादी लड़ाके एक बार पुनः कंधे पर बंदूकें टांगकर बस्ती-धौड़ा के चक्कर लगाने लगे हैं। नेपाल के कई जिलों में माओवादी हथियार बंद दस्तों का प्रशिक्षण-सत्र शुरू हो गये हैं। माओवादी लड़ाके हथियारों के साथ बेखौफ सभा कर रहे हैं और हथियारों की जंग छुड़ाने में जुट गये हैं। उल्लेखनीय है कि कोशी हादसे के लिए भी माओवादी लड़ाके दोषी रहे हैं। लेकिन आजतक नेपाल सरकार उन दोषियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जिन्होंने तटबंध को बचाने के कार्य को बलपूर्वक रोक दिया था। लेकिन भारत सरकार बेफिक्र है। भारत सरकार ने भी कभी दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करने की कोई मांग नेपाल से नहीं की। उल्टे आवाम की राय लिए बिना नेपाल को करोड़ों रुपये का हर्जाना चुका दिया। मालूम हो कि कोशी हादसे में नेपाल के सुनसरी जिले के लगभग पचास हजार लोग प्रभावित हुए थे और नेपाल ने इसकी पूरी जिम्मेदारी भारत पर ठोक दीऔर भारत की ओर से कोई विरोध नहीं हुआ। आश्चर्य की बात यह कि नेपाल ने कोशी हादसे प्रकरण में अंतर्राष्ट्रीय संधि की धज्जी उड़ा दी थी। इसी का परिणाम है कि हर पंद्रहवें दिन कुसहा में कोशी तटबंध की मरम्मत का कार्य को हथियारबंद माओवादी रोक देते हैं और तबतक कार्य आगे नहीं बढ़ने देते हैं जबतक उनकी नाजायज आर्थिक मांग पूरी नहीं कर दी जाती। कुसहा में दो महीने के दरम्यान तीन बार कार्य स्थगित किया जा चुका है। भयादोहन का ऐसा उदाहरण दुनिया में शायद ही कहीं देखने को मिला होगा जब अंतर्राष्ट्रीय संधि के तहत चल रही परियोजनाओं को बंदूक के बल पर रोक दिया जाता हो और स्थानीय सरकार तमाशा देख रही हो। यह घटना विदेश मंत्री के नेपाल प्रवास के दौरान भी घटी, लेकिन पता नहीं विदेश मंत्री ने इस पर क्या बात की या फिर उन तक सूचना पहुंची भी या नहीं। नेपाल में भारत के राजदूत राकेश सूद की सक्रियता से तो सभी परिचित हैं। कुसहा प्रकरण के दिनों में वे नेपाल का पर्यटन करते रहे और उधर कोशी का तटबंध सनै-सनै टूटता रहा। भारत सरकार की नीति पर माथा पीट लेने का मन करता है।
ऐसा नहीं है कि नेपाल में जो कुछ हो रहा है उसका असर भारत पर नहीं पड़ेगा। भारत नेपाल से सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है। दोनों देशों के बीच बेटी-रोटी के संबंध सदियों से है। अगर समय रहते भारत सरकार नहीं चेती तो देश को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।
उधर कुछ दिनों से माओवादी लड़ाके एक बार पुनः कंधे पर बंदूकें टांगकर बस्ती-धौड़ा के चक्कर लगाने लगे हैं। नेपाल के कई जिलों में माओवादी हथियार बंद दस्तों का प्रशिक्षण-सत्र शुरू हो गये हैं। माओवादी लड़ाके हथियारों के साथ बेखौफ सभा कर रहे हैं और हथियारों की जंग छुड़ाने में जुट गये हैं। उल्लेखनीय है कि कोशी हादसे के लिए भी माओवादी लड़ाके दोषी रहे हैं। लेकिन आजतक नेपाल सरकार उन दोषियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जिन्होंने तटबंध को बचाने के कार्य को बलपूर्वक रोक दिया था। लेकिन भारत सरकार बेफिक्र है। भारत सरकार ने भी कभी दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करने की कोई मांग नेपाल से नहीं की। उल्टे आवाम की राय लिए बिना नेपाल को करोड़ों रुपये का हर्जाना चुका दिया। मालूम हो कि कोशी हादसे में नेपाल के सुनसरी जिले के लगभग पचास हजार लोग प्रभावित हुए थे और नेपाल ने इसकी पूरी जिम्मेदारी भारत पर ठोक दीऔर भारत की ओर से कोई विरोध नहीं हुआ। आश्चर्य की बात यह कि नेपाल ने कोशी हादसे प्रकरण में अंतर्राष्ट्रीय संधि की धज्जी उड़ा दी थी। इसी का परिणाम है कि हर पंद्रहवें दिन कुसहा में कोशी तटबंध की मरम्मत का कार्य को हथियारबंद माओवादी रोक देते हैं और तबतक कार्य आगे नहीं बढ़ने देते हैं जबतक उनकी नाजायज आर्थिक मांग पूरी नहीं कर दी जाती। कुसहा में दो महीने के दरम्यान तीन बार कार्य स्थगित किया जा चुका है। भयादोहन का ऐसा उदाहरण दुनिया में शायद ही कहीं देखने को मिला होगा जब अंतर्राष्ट्रीय संधि के तहत चल रही परियोजनाओं को बंदूक के बल पर रोक दिया जाता हो और स्थानीय सरकार तमाशा देख रही हो। यह घटना विदेश मंत्री के नेपाल प्रवास के दौरान भी घटी, लेकिन पता नहीं विदेश मंत्री ने इस पर क्या बात की या फिर उन तक सूचना पहुंची भी या नहीं। नेपाल में भारत के राजदूत राकेश सूद की सक्रियता से तो सभी परिचित हैं। कुसहा प्रकरण के दिनों में वे नेपाल का पर्यटन करते रहे और उधर कोशी का तटबंध सनै-सनै टूटता रहा। भारत सरकार की नीति पर माथा पीट लेने का मन करता है।
ऐसा नहीं है कि नेपाल में जो कुछ हो रहा है उसका असर भारत पर नहीं पड़ेगा। भारत नेपाल से सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है। दोनों देशों के बीच बेटी-रोटी के संबंध सदियों से है। अगर समय रहते भारत सरकार नहीं चेती तो देश को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें