विश्व प्रसिद्ध लेखक पौलो कॉल्हो अपनी विख्यात पुस्तक द अलकेमिस्ट में एक जगह लिखते हैं- अगर इंसान की इच्छाशक्ति मजबूत हो, तो कोई कार्य असंभव नहीं होता। भूमिगत आग से बुरी तरह प्रभावित झारखंड के झरिया कोलियरी क्षेत्र के कुछ किसानों ने इस बात को चरितार्थ करके दिखाया है। उन्होंने भूमिगत आग से प्रभावित झारखंड की आग प्रभावित झरिया कोलियरियों के आसपास की जमीन पर बाग लगाकर बड़ा उदाहरण पेश किया है । सुलगती और फैलती हुई भूमिगत आग से बुरी तरह प्रभावित झरिया की जिस जमीन पर उतरने में चिड़ियां भी खौफ खाती हैं और जहां दूर-दूर तक धुआं और खानों के कचरे के सिवा कुछ भी नजर नहीं आता, वहां हरियाली और बागवानी की बात रेगिस्तान में नखलिस्तान जैसी ही है। लेकिन इन किसानों ने आग उगलती जमीन से सब्जी पैदाकर खनन वैज्ञानिकों को पुनर्विचार के लिए मजबूर किया है। ये किसान झरिया-भागा सड़क के किनारे आग प्रभावित जमीन से सटे भूखंडों पर पिछले तीन-चार वर्षों से साग-सब्जी, तो उगा ही रहे हैंसाथ ही साथ सालाना हजारों रुपये की कमाई भी कर रहे हैं।
इन किसानों ने खुद अपने बल पर ऐसी देसी तकनीकों का ईजाद किया है कि आग उनके उद्यान को छूती तक नहीं। इसके लिए उन्होंने न तो किसी प्रयोगशाला में प्रयोग किया है और न ही कोई वैज्ञानिक प्रशिक्षण लिया है। सारा कुछ व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर विकसित किया है। उन्होंने खेती वाले भूखंडों को बाहरी जमीनों से असंबद्ध कर दिया है ताकि ये आग से यह अछूता रहे। इसके लिए भूखंडों के चारों ओर एक आग-अवरोधक पतली और गहरी नाली (रिज) बनाकर उसे बालू से भर दिया गया है। नाली के ऊपरी हिस्से में हमेशा पानी भरा रहता है। यह नाली एक साथ दो काम करती है। यह एक ओर भूखंड में लगी फसलों की सिंचाई करती है, तो दूसरी ओर रिज की कुचालकता को बनाये रखती है। किसानों ने खेती के लिए ऐसे भूखंडों को ही चुना है जहां कोयले की उपलब्धता नगण्य हैं। इसका फायदा यह है कि आग की फैलने की सहज प्रवृति उस ओर नहीं हो पाती। खनन वैज्ञानिक टीएन सिंह कहते हैं ‘ ये कृषक भूमिगत आग के रग-रग से वाकिफ हैं। इन्हें पता है कि किस जमीन के नीचे कोयला है और कहां नहीं है। भू-धंसान वाले भूखंड में सामान्यता कोयला नहीं होता क्योंकि यहां के कोयला या तो जल चुके होते हैं या फिर निकाले जा चुके होते हैं। साथ ही साथ ऐसे भूखंडों के तल भी धंसे(अवतल) होते हैं। इस कारण यहां की जमीन में तुलनात्मकर रूप से ज्यादा नमी होती है क्योंकि बरसात में यहां पानी जमा होते रहता है।’
यही वजह है कि आज इस छोटे से इलाकों को लोगों ने सब्जी बगान का उपनाम दे दिया है। अदीप प्रसाद पिछले छह साल से यहां तीन कट्ठे के एक भूखंड पर साग-सब्जी उगा रहा है। वह कहता है, ‘ शुरू में लोग हम पर हंसते थे। कहते थे कि खेती का इतना शौक है तो गांव चले जाओ, आग पर क्या उगेगा। लेकिन आज हम इस जमीन से प्रतिमाह लगभग 3,000 से 4,000 रुपये की कमाई कर लेते हैं। सालों भर हमारा बगान हरा रहता है। गोबी और नेनुआ (शलजम) की पैदावर अच्छी होती है।’ अदीप झरिया के उन कुछ गिने-चुने लोगों में से है जिसकी गृहस्ती गैरकोल गतिविधियों से चल रही है। रवि सिंह भी एक ऐसा ही किसान है। ये चार-पांच कठ्ठा जमीन पर पिछले सात वर्षों से साग-सब्जी की खेती कर रहा है। 32 वर्षीय रवि इस व्यवसाय से सालाना 25 हजार से लेकर 30 हजार रुपये की कमाई कर लेता है। वह अपने बगान में परवल, मूली व गाजर समेत अन्य मौसमी सब्जी की खेती करता है। रिंकू साहू भी इस इलाके के पांच कट्ठे के एक भूखंड पर पिछले सात-आठ वर्षों से खेती कर रहा है। वह अपने बगान में मुख्यतः पालक, भिंडी, गोबी और मूली की खेती करता है। 27 वर्षीय रिंकू इससे सालाना 18 से 25 हजार की आमदनी कर लेता है। रिंकू कहता है ‘... तारीफ तो सभी करते हैं, लेकिन मदद कहीं से नहीं मिलता। अगर सिंचाई की समुचित व्यवस्था हो जाये तो हमें काफी सहूलियत होगी और पैदावार भी ज्यादा होगी।’ 30 वर्षीय सुनील बाउरी भी दो कट्ठे की जमीन पर पिछले छह वर्षों से साग-सब्जी उगा रहा है। बाउरी मुख्यतः पालक, टमाटर और मौसमी सब्जी की खेती करता है। उसे सब्जी बेचकर प्रति माह 4000 रुपये की कमाई हो जाती है। दिलचस्प बात यह है कि बाउरी जिस जमीन पर खेती कर रहे हैं वहां दो दशक पूर्व भयानक भू-धंसान हुआ था। उसके बाद जमीन का वह हिस्सा एक खड्ड में परिणत हो गया था। बाउरी ने काफी मेहनत से उस मिट्टी को उपजाऊ बनाया है। इससे थोड़ी ही दूरी पर 28 वर्षीय सुनील रवानी का सब्जी बगान है। रवानी के खेतों में भी हरियाली है। रवानी मुख्य रूप से साग की खेती करता है और सालाना 20 हजार रुपये तक की बचत कर लेता है।
लेकिन इसके बावजूद आजतक बीसीसीएल समेत किसी भी सरकारी या गैरसरकारी संस्था से इन्हें कोई मदद नहीं मिली है। स्थानीय पर्यावरणविदों का कहना है कि इनके कार्य काफी प्रशंसनीय हैं। इनके प्रयास से ही झरिया में दुर्लभ हो चुकी हरियाली का पुनर्दर्शन संभव हुआ है। साथ ही इससे झरिया के वातावरण में अत्यधिक मात्रा में मौजूद कार्बनडाइआक्साइड गैस में भी कमी आयेगी। इसलिए इन्हें बढ़ावा देने की जरूरत है।
इन किसानों ने खुद अपने बल पर ऐसी देसी तकनीकों का ईजाद किया है कि आग उनके उद्यान को छूती तक नहीं। इसके लिए उन्होंने न तो किसी प्रयोगशाला में प्रयोग किया है और न ही कोई वैज्ञानिक प्रशिक्षण लिया है। सारा कुछ व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर विकसित किया है। उन्होंने खेती वाले भूखंडों को बाहरी जमीनों से असंबद्ध कर दिया है ताकि ये आग से यह अछूता रहे। इसके लिए भूखंडों के चारों ओर एक आग-अवरोधक पतली और गहरी नाली (रिज) बनाकर उसे बालू से भर दिया गया है। नाली के ऊपरी हिस्से में हमेशा पानी भरा रहता है। यह नाली एक साथ दो काम करती है। यह एक ओर भूखंड में लगी फसलों की सिंचाई करती है, तो दूसरी ओर रिज की कुचालकता को बनाये रखती है। किसानों ने खेती के लिए ऐसे भूखंडों को ही चुना है जहां कोयले की उपलब्धता नगण्य हैं। इसका फायदा यह है कि आग की फैलने की सहज प्रवृति उस ओर नहीं हो पाती। खनन वैज्ञानिक टीएन सिंह कहते हैं ‘ ये कृषक भूमिगत आग के रग-रग से वाकिफ हैं। इन्हें पता है कि किस जमीन के नीचे कोयला है और कहां नहीं है। भू-धंसान वाले भूखंड में सामान्यता कोयला नहीं होता क्योंकि यहां के कोयला या तो जल चुके होते हैं या फिर निकाले जा चुके होते हैं। साथ ही साथ ऐसे भूखंडों के तल भी धंसे(अवतल) होते हैं। इस कारण यहां की जमीन में तुलनात्मकर रूप से ज्यादा नमी होती है क्योंकि बरसात में यहां पानी जमा होते रहता है।’
यही वजह है कि आज इस छोटे से इलाकों को लोगों ने सब्जी बगान का उपनाम दे दिया है। अदीप प्रसाद पिछले छह साल से यहां तीन कट्ठे के एक भूखंड पर साग-सब्जी उगा रहा है। वह कहता है, ‘ शुरू में लोग हम पर हंसते थे। कहते थे कि खेती का इतना शौक है तो गांव चले जाओ, आग पर क्या उगेगा। लेकिन आज हम इस जमीन से प्रतिमाह लगभग 3,000 से 4,000 रुपये की कमाई कर लेते हैं। सालों भर हमारा बगान हरा रहता है। गोबी और नेनुआ (शलजम) की पैदावर अच्छी होती है।’ अदीप झरिया के उन कुछ गिने-चुने लोगों में से है जिसकी गृहस्ती गैरकोल गतिविधियों से चल रही है। रवि सिंह भी एक ऐसा ही किसान है। ये चार-पांच कठ्ठा जमीन पर पिछले सात वर्षों से साग-सब्जी की खेती कर रहा है। 32 वर्षीय रवि इस व्यवसाय से सालाना 25 हजार से लेकर 30 हजार रुपये की कमाई कर लेता है। वह अपने बगान में परवल, मूली व गाजर समेत अन्य मौसमी सब्जी की खेती करता है। रिंकू साहू भी इस इलाके के पांच कट्ठे के एक भूखंड पर पिछले सात-आठ वर्षों से खेती कर रहा है। वह अपने बगान में मुख्यतः पालक, भिंडी, गोबी और मूली की खेती करता है। 27 वर्षीय रिंकू इससे सालाना 18 से 25 हजार की आमदनी कर लेता है। रिंकू कहता है ‘... तारीफ तो सभी करते हैं, लेकिन मदद कहीं से नहीं मिलता। अगर सिंचाई की समुचित व्यवस्था हो जाये तो हमें काफी सहूलियत होगी और पैदावार भी ज्यादा होगी।’ 30 वर्षीय सुनील बाउरी भी दो कट्ठे की जमीन पर पिछले छह वर्षों से साग-सब्जी उगा रहा है। बाउरी मुख्यतः पालक, टमाटर और मौसमी सब्जी की खेती करता है। उसे सब्जी बेचकर प्रति माह 4000 रुपये की कमाई हो जाती है। दिलचस्प बात यह है कि बाउरी जिस जमीन पर खेती कर रहे हैं वहां दो दशक पूर्व भयानक भू-धंसान हुआ था। उसके बाद जमीन का वह हिस्सा एक खड्ड में परिणत हो गया था। बाउरी ने काफी मेहनत से उस मिट्टी को उपजाऊ बनाया है। इससे थोड़ी ही दूरी पर 28 वर्षीय सुनील रवानी का सब्जी बगान है। रवानी के खेतों में भी हरियाली है। रवानी मुख्य रूप से साग की खेती करता है और सालाना 20 हजार रुपये तक की बचत कर लेता है।
लेकिन इसके बावजूद आजतक बीसीसीएल समेत किसी भी सरकारी या गैरसरकारी संस्था से इन्हें कोई मदद नहीं मिली है। स्थानीय पर्यावरणविदों का कहना है कि इनके कार्य काफी प्रशंसनीय हैं। इनके प्रयास से ही झरिया में दुर्लभ हो चुकी हरियाली का पुनर्दर्शन संभव हुआ है। साथ ही इससे झरिया के वातावरण में अत्यधिक मात्रा में मौजूद कार्बनडाइआक्साइड गैस में भी कमी आयेगी। इसलिए इन्हें बढ़ावा देने की जरूरत है।
2 टिप्पणियां:
बहुत अच्छी रचना है । िवचारों का प्रखर प्रवाह है । मैने अपने ब्लाग पर एक लेख िलखा है-आत्मिवश्वास के सहारे जीतें िजंदगी की जंग-समय हो तो पढें और कमेंट भी दें-
http://www.ashokvichar.blogspot.com
किसानों द्वारा देशी तकनीक का विकास कर उससे लाभ लेने में सफलता प्राप्त करना वास्तव में आश्चर्यजनक बात है। पर जब सरकारी या गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा कोई सहायता प्राप्त न हो सके और जीवन मरण का प्रश्न उपस्थित हो , तो इच्छा शक्ति बलवान होकर इस प्रकार के कार्य करवा ही देती है।
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