दहाये हुए देस का दर्द-25
सात बजे के आसपास इंजन ने एक लंबी सीटी बजायी और प्लैटफार्म से सरकने लगी। पांच-दस मीटर चली और दस मिनट के लिए खड़ी हो गयी। डब्बे के दरबाजे पर खड़े युवकों ने जोर से आवाज लगायी- वैक्यूम, वैक्यूम, वैक्यूम ... यह सिलसिला लगभग आधे घंटे तक चलता रहा और अंततः साढ़े सात बजे गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली। इस बीच बहस की गाड़ी का वैक्यूम भी कटा रहा। इस दौरान बहस के अधिकतर वक्ता खामोश ही रहे। ट्रेन की देरी को लेकर एक-दो टिप्पणी जरूर हुई, लेकिन यह एकतरफा संवाद जैसा था। जिसका आशय स्पष्ट था, डेढ़-दो घंटे की देरी भी कोई देरी है बच्चू ! आखिर समय पर कभी खुलती भी है इस मार्ग की गाड़ियां ?
मुर्लीनारायणपुर हॉल्ट पर गाड़ी रूक गयी। डब्बे के प्रवेश द्वार पर खड़े युवक, जो अब तक निजीव से दिख रहे थे, अचानक उनके चेहरे पर हरियाली सी दिखने लगी। इसका कारण मैं तत्काल नहीं समझ सका, लेकिन जब समझा तो खूब समझा और ऐसा समझा कि दोनों युवकों से गरमागरम कर बैठा। मामले को यात्री-पंचायत ने तुरंत अपने संज्ञान में लिया और आम सहमति से निर्देश दिया कि दोनों युवकों को अगले स्टेशन पर इस डब्बे से उतारकर दूसरे डब्बे में बैठा दिया जाय क्योंकि ये लफंगे हैं।दोनों युवकों ने जाते-जाते मुझे स्थानीय भाषा में गाली दी, लेकिन उसके स्वर की क्षीणता बता रही थी कि वे गाली मुझे नहीं जैसे हवा को दे रहे हैं ताकि खुद को झूठा विश्वास दिला सकें कि वे डरपोक नहीं। लेकिन युवकों के उतरते ही उन दोनों युवतियों के चेहरे के रंग बदल गये। दोनों युवतियों ने राहत की सांस ली। शायद वह यह सोचकर खुश हो रही थीं कि अब वे सहज भाव से बायें-दायें, ऊपर-नीचें झांक सकती हैं तथा यात्रा की बोरियत भरी उबासियां स्वतंत्रतापूर्वक ले सकती हैं और इस दौरान उन्हें किसी भेदक नजर का सामना नहीं करना पड़ेगा।
खैनी वाले वृद्ध ने कहा- लूच्चा है, लूच्चा ! सब सिलेमा (सिनेमा) का प्रकोफ (प्रकोप) है भैय्या। ई टीभी (टीवी) तो सब छोड़ा सबको बिगाड़ कर रख दिया है। लाज-शर्म को तो मानो शरबत बनाकर पी गये हैं ये बोंगमरने (एक स्थानीय भदेस गाली)!
अबतक गाड़ी थरबीटिया स्टेशन पार कर चुकी थी। राघोपुर में जो बहस-मंडली तैयार हुई थी उनके तीन-चार सदस्य इस बीच उतर चुके थे। लेकिन थोड़ा पढ़ा लिखा वाला भाई पूरी ऊर्जा के साथ बहस का संचालन कर रहे थे। इस बीच बहस में एक नये सदस्य शामिल हुए। उसने अपनी पीड़ा बताकर बहस मंडली में प्रवेश किया। उसकी आपबीती कुछ ऐसी थी कि हर कोई उसकी पूरी कहानी सुन लेने के लिए जैसे व्यग्र हो उठे।
वह कह रहा था ... अरे क्या कहें भैय्या ! 18 अगस्त को तटबंध टूटा, तो हमलोग अपने सुपौल जिले के कुटम्बों को अपने गांव आने का निर्देश दे रहे थे। हम लोग सोचते थे कि हमारे गांव में पानी नहीं आयेगा। मगर ! पानी क्या आया , समझिये सद्यः परलय (प्रलय) आ गया।
कहां है आपका गांव ?
गांव के नाम है- पड़वा। मधेपुरा जिला के मूर्लीगंज प्रखंड में पड़ता है।
17 तारीख के भोर में सरबा गांव में पानी प्रवेश कर गिया। हमलोग सोचते थे कि कितना पानी आयेगा- बहुत से बहुत घूठना भर! लेकिन 12 बजे दिन तक तो आंगन में डूब्बा (डूबने लायक) पानी हो गया था। गोहाली में दो गाय और तीन भैंस और नेरू-पड़ड़ू बंधल था। पानी को देखकर सब माल-मवेशी बां-बां करने लगे। अब करें तो करें क्या? घर में दो जवान बेटी! एक पत्नी, बूढ़ी मां और एक ठो छोट बच्चा। एक बेर (बार) मवेशियों की ओर देखता था दूसरा बेर बेटा-बेटी और मां को। दिमाग चकरा रहा था। अंत में कुछ नहीं फुराया (सूझा), तो सभी मवेशियों की रस्शी को काट दिया। लेकिन सच कहते हैं- भैय्या, आंख में आंसू आ गिया। गाय की बछिया बहुत छोटी थी ! हे मालिक ! ... ऊ तो घंटे-दो घंटे में दम तोड़ दी होगी। गाय और भैंस शायद कहीं पार उतर गये हों तो हों। चारों ओर अफरा-तफरी मचल था। पूरा गांव में लगता था जैसे भूकंप आ गिया है। लोग भाग रहे थे। हम भी भागने लगे। लेकिन मेरी मां पैर से लाचार है। वह तो दस डेग भी नहीं चल सकती थी। हिम्मत करके उठा लिया कंधे पर। सबको अपने पीछे लगा लिया और निकल पड़ा। पानी बढ़ते जा रहा था। धुधुवा-धुधुवा कर पानी की धार आ रही थी। लेकिन मूर्लीगंज वाली नहर तक किसी तरह पहुंच गिया। वहां से राता-राती (रातों-रात)मधेपुरा पहुंचा।
पांव पैदल ??? (सहयात्रियों की जिज्ञाशा)
... तो और कौन साधन था। रात भर चलते रहे। बीच-बीच में पानी की धार रास्ता रोक लेती थी। कभी-कभी सांप भी दिखता था। लेकिन हम अपने कमर में रस्शाी बांधे थे। कंधे पर मां को लिए रहा और बच्चों से कहता गया - कुछ भी हो जाये, रस्शी नहीं छोड़ना। सच कहते हैं भैय्या, मन में तनीकों भरोसा नहीं था कि बच कर निकल पायेंगे। मां कहती थी- हमको छोड़ दो और बच्चों को लेकर तेजी से निकल जाओ ... हमने साफ ठान लिया था, जबतक जिंदा रहेंगे मां को बचाये रखेंगे। मां को कैसे छोड़ देंगे ? कोशिकी परीक्षा ले रही है तो परीक्षा में जायेंगे ? चाहे उत्तीर्ण हों या अनुत्तीर्ण !
बगल में बैठी वृद्धा जैसे अपने भार से दोहरा रही थी और लगातार भगवानों के नाम लिए जा रही थीं।
हां-हां-हां , जननी जन्मभूमि, ई दोनों तो स्वर्ग से बढ़कर है !(खैनी वाले वृद्ध की प्रतिक्रिया)
... भोर तक मधेपुरा पहुंचे। उस दिन मधेपुरा से सहरसा वाली ट्रेन चल रही थी। वहीं से ट्रेन से सहरसा आया और उसके बाद मुर्लीनारायणपुर चला आया। यहां गांव में साढ़ू के यहां था। वे लोग कह रहे थे, अभी रूक जाइये, कहां जाइयेगा। लेकिन मन नहीं माना। सोचा कितना दिन रहेंगे कुटुम्बों के घर।
लेकिन आपके गांव में तो अभी भी पानी है? कहां जाइयेगा ? (यह सवाल मेरा था)
नहीं मालूम बाबू। लेकिन कैंफ (कैंप)में नहीं जायेंगे। वहां तो जीते जी मर जायेंगे।
क्यों ? (मेरा ही सवाल था)
खाने-पीने वाले घर से हैं। गृहस्थ (किसान)हैं, खूब खेती करते हैं। बाल-बच्चा को कभी तखलीफ नहीं हुई किसी चीज की। वहां तो भिखारियों जैसा व्यवहार किया जाता है। क्या इसे बर्दाश्त कर पायेंगे ?? बताइये आप ???
मेरे पास कोई जवाब नहीं था। इसलिए मैंने कोई जवाब नहीं दिया।
मैं सिर्फ सोचते रहा। एक निरर्थक सोच के आगोश में मैं डूब गयामैं। जिसका एक सिरा भ्रष्टाचार से जुड़ता है तो दूसरा सरकार नाम की संस्था की अकर्मण्यता से। लेकिन दोनों की जड़ें पृथ्वी की जड़ तक पहुंची हुईं हैं। मेरे सोच से न तो पृथ्वी हिलेगी और ना ही भ्रष्टाचार और सरकार की असंवेदनशीलता की जड़ेंडोलेंगी। फिर भी मैं सोचते जा रहा था। खैनी वाले वृद्ध ने पूछा- खैनी खाते हैं , देसी है, चैन मिलता है ? मैं मुस्कराये बिना नहीं रह सका।
ट्रेन चलती जा रही थी। शायद यह अब सुपौल पहुंचने वाली थी। पान-बीड़-सिगरेट वालों की आवाज मुझे अब सुनाई नहीं दे रही थी।
(अगली कड़ी में यह यात्रा शायद पूरी हो जायेगी, अपने अधूरेपन के साथ)
सात बजे के आसपास इंजन ने एक लंबी सीटी बजायी और प्लैटफार्म से सरकने लगी। पांच-दस मीटर चली और दस मिनट के लिए खड़ी हो गयी। डब्बे के दरबाजे पर खड़े युवकों ने जोर से आवाज लगायी- वैक्यूम, वैक्यूम, वैक्यूम ... यह सिलसिला लगभग आधे घंटे तक चलता रहा और अंततः साढ़े सात बजे गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली। इस बीच बहस की गाड़ी का वैक्यूम भी कटा रहा। इस दौरान बहस के अधिकतर वक्ता खामोश ही रहे। ट्रेन की देरी को लेकर एक-दो टिप्पणी जरूर हुई, लेकिन यह एकतरफा संवाद जैसा था। जिसका आशय स्पष्ट था, डेढ़-दो घंटे की देरी भी कोई देरी है बच्चू ! आखिर समय पर कभी खुलती भी है इस मार्ग की गाड़ियां ?
मुर्लीनारायणपुर हॉल्ट पर गाड़ी रूक गयी। डब्बे के प्रवेश द्वार पर खड़े युवक, जो अब तक निजीव से दिख रहे थे, अचानक उनके चेहरे पर हरियाली सी दिखने लगी। इसका कारण मैं तत्काल नहीं समझ सका, लेकिन जब समझा तो खूब समझा और ऐसा समझा कि दोनों युवकों से गरमागरम कर बैठा। मामले को यात्री-पंचायत ने तुरंत अपने संज्ञान में लिया और आम सहमति से निर्देश दिया कि दोनों युवकों को अगले स्टेशन पर इस डब्बे से उतारकर दूसरे डब्बे में बैठा दिया जाय क्योंकि ये लफंगे हैं।दोनों युवकों ने जाते-जाते मुझे स्थानीय भाषा में गाली दी, लेकिन उसके स्वर की क्षीणता बता रही थी कि वे गाली मुझे नहीं जैसे हवा को दे रहे हैं ताकि खुद को झूठा विश्वास दिला सकें कि वे डरपोक नहीं। लेकिन युवकों के उतरते ही उन दोनों युवतियों के चेहरे के रंग बदल गये। दोनों युवतियों ने राहत की सांस ली। शायद वह यह सोचकर खुश हो रही थीं कि अब वे सहज भाव से बायें-दायें, ऊपर-नीचें झांक सकती हैं तथा यात्रा की बोरियत भरी उबासियां स्वतंत्रतापूर्वक ले सकती हैं और इस दौरान उन्हें किसी भेदक नजर का सामना नहीं करना पड़ेगा।
खैनी वाले वृद्ध ने कहा- लूच्चा है, लूच्चा ! सब सिलेमा (सिनेमा) का प्रकोफ (प्रकोप) है भैय्या। ई टीभी (टीवी) तो सब छोड़ा सबको बिगाड़ कर रख दिया है। लाज-शर्म को तो मानो शरबत बनाकर पी गये हैं ये बोंगमरने (एक स्थानीय भदेस गाली)!
अबतक गाड़ी थरबीटिया स्टेशन पार कर चुकी थी। राघोपुर में जो बहस-मंडली तैयार हुई थी उनके तीन-चार सदस्य इस बीच उतर चुके थे। लेकिन थोड़ा पढ़ा लिखा वाला भाई पूरी ऊर्जा के साथ बहस का संचालन कर रहे थे। इस बीच बहस में एक नये सदस्य शामिल हुए। उसने अपनी पीड़ा बताकर बहस मंडली में प्रवेश किया। उसकी आपबीती कुछ ऐसी थी कि हर कोई उसकी पूरी कहानी सुन लेने के लिए जैसे व्यग्र हो उठे।
वह कह रहा था ... अरे क्या कहें भैय्या ! 18 अगस्त को तटबंध टूटा, तो हमलोग अपने सुपौल जिले के कुटम्बों को अपने गांव आने का निर्देश दे रहे थे। हम लोग सोचते थे कि हमारे गांव में पानी नहीं आयेगा। मगर ! पानी क्या आया , समझिये सद्यः परलय (प्रलय) आ गया।
कहां है आपका गांव ?
गांव के नाम है- पड़वा। मधेपुरा जिला के मूर्लीगंज प्रखंड में पड़ता है।
17 तारीख के भोर में सरबा गांव में पानी प्रवेश कर गिया। हमलोग सोचते थे कि कितना पानी आयेगा- बहुत से बहुत घूठना भर! लेकिन 12 बजे दिन तक तो आंगन में डूब्बा (डूबने लायक) पानी हो गया था। गोहाली में दो गाय और तीन भैंस और नेरू-पड़ड़ू बंधल था। पानी को देखकर सब माल-मवेशी बां-बां करने लगे। अब करें तो करें क्या? घर में दो जवान बेटी! एक पत्नी, बूढ़ी मां और एक ठो छोट बच्चा। एक बेर (बार) मवेशियों की ओर देखता था दूसरा बेर बेटा-बेटी और मां को। दिमाग चकरा रहा था। अंत में कुछ नहीं फुराया (सूझा), तो सभी मवेशियों की रस्शी को काट दिया। लेकिन सच कहते हैं- भैय्या, आंख में आंसू आ गिया। गाय की बछिया बहुत छोटी थी ! हे मालिक ! ... ऊ तो घंटे-दो घंटे में दम तोड़ दी होगी। गाय और भैंस शायद कहीं पार उतर गये हों तो हों। चारों ओर अफरा-तफरी मचल था। पूरा गांव में लगता था जैसे भूकंप आ गिया है। लोग भाग रहे थे। हम भी भागने लगे। लेकिन मेरी मां पैर से लाचार है। वह तो दस डेग भी नहीं चल सकती थी। हिम्मत करके उठा लिया कंधे पर। सबको अपने पीछे लगा लिया और निकल पड़ा। पानी बढ़ते जा रहा था। धुधुवा-धुधुवा कर पानी की धार आ रही थी। लेकिन मूर्लीगंज वाली नहर तक किसी तरह पहुंच गिया। वहां से राता-राती (रातों-रात)मधेपुरा पहुंचा।
पांव पैदल ??? (सहयात्रियों की जिज्ञाशा)
... तो और कौन साधन था। रात भर चलते रहे। बीच-बीच में पानी की धार रास्ता रोक लेती थी। कभी-कभी सांप भी दिखता था। लेकिन हम अपने कमर में रस्शाी बांधे थे। कंधे पर मां को लिए रहा और बच्चों से कहता गया - कुछ भी हो जाये, रस्शी नहीं छोड़ना। सच कहते हैं भैय्या, मन में तनीकों भरोसा नहीं था कि बच कर निकल पायेंगे। मां कहती थी- हमको छोड़ दो और बच्चों को लेकर तेजी से निकल जाओ ... हमने साफ ठान लिया था, जबतक जिंदा रहेंगे मां को बचाये रखेंगे। मां को कैसे छोड़ देंगे ? कोशिकी परीक्षा ले रही है तो परीक्षा में जायेंगे ? चाहे उत्तीर्ण हों या अनुत्तीर्ण !
बगल में बैठी वृद्धा जैसे अपने भार से दोहरा रही थी और लगातार भगवानों के नाम लिए जा रही थीं।
हां-हां-हां , जननी जन्मभूमि, ई दोनों तो स्वर्ग से बढ़कर है !(खैनी वाले वृद्ध की प्रतिक्रिया)
... भोर तक मधेपुरा पहुंचे। उस दिन मधेपुरा से सहरसा वाली ट्रेन चल रही थी। वहीं से ट्रेन से सहरसा आया और उसके बाद मुर्लीनारायणपुर चला आया। यहां गांव में साढ़ू के यहां था। वे लोग कह रहे थे, अभी रूक जाइये, कहां जाइयेगा। लेकिन मन नहीं माना। सोचा कितना दिन रहेंगे कुटुम्बों के घर।
लेकिन आपके गांव में तो अभी भी पानी है? कहां जाइयेगा ? (यह सवाल मेरा था)
नहीं मालूम बाबू। लेकिन कैंफ (कैंप)में नहीं जायेंगे। वहां तो जीते जी मर जायेंगे।
क्यों ? (मेरा ही सवाल था)
खाने-पीने वाले घर से हैं। गृहस्थ (किसान)हैं, खूब खेती करते हैं। बाल-बच्चा को कभी तखलीफ नहीं हुई किसी चीज की। वहां तो भिखारियों जैसा व्यवहार किया जाता है। क्या इसे बर्दाश्त कर पायेंगे ?? बताइये आप ???
मेरे पास कोई जवाब नहीं था। इसलिए मैंने कोई जवाब नहीं दिया।
मैं सिर्फ सोचते रहा। एक निरर्थक सोच के आगोश में मैं डूब गयामैं। जिसका एक सिरा भ्रष्टाचार से जुड़ता है तो दूसरा सरकार नाम की संस्था की अकर्मण्यता से। लेकिन दोनों की जड़ें पृथ्वी की जड़ तक पहुंची हुईं हैं। मेरे सोच से न तो पृथ्वी हिलेगी और ना ही भ्रष्टाचार और सरकार की असंवेदनशीलता की जड़ेंडोलेंगी। फिर भी मैं सोचते जा रहा था। खैनी वाले वृद्ध ने पूछा- खैनी खाते हैं , देसी है, चैन मिलता है ? मैं मुस्कराये बिना नहीं रह सका।
ट्रेन चलती जा रही थी। शायद यह अब सुपौल पहुंचने वाली थी। पान-बीड़-सिगरेट वालों की आवाज मुझे अब सुनाई नहीं दे रही थी।
(अगली कड़ी में यह यात्रा शायद पूरी हो जायेगी, अपने अधूरेपन के साथ)
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