सोमवार, 22 दिसंबर 2008

बादल को घिरते देखा है / नागार्जुन

आज से 17 वर्ष पहले आज ही के दिन बाबा नागार्जुन से मिलने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उन दिनों बाबा बीमार रहा करते थे और आगंतुकों से कुछ ऐसे मिलते थे मानो उन्हें वर्षों से पहचानते हों। ईमानदारी से कहूं तो तब बाबा से मिलकर मैंने कोई रोमांच महसूस नहीं किया था। क्योंकि बाबा न तो कपिलदेव थे और न ही फिल्मीस्तान के कोई अभिनेता या अभिनेत्री। साहित्यकार तब मेरे लिए रोमांच के दुनिया के लोग नहीं हुआ करते थे। वैसे भी उनकी बात मेरी समझ में नहीं आयी थी। वास्तव में मैं तो अपने एक मित्र का महज संगी बनकर उनके पास पहुंचा था, इस मुलाकात से मेरा कोई लेना-देना नहीं था। बाबा से पते की बात तो उस मित्र ही ने की थी, जो उनके दूर का रिश्तेदार थाऔर जो पता नहीं आज कहां और कैसे है ? लेकिन 17 वर्ष पहले मैं नित डायरी लिखता था, जिसमें मैंने बाबा से मुलाकत की बात लिखी है। मुझे विश्वास नहीं हो रहा है कि 17 वर्ष पहले मैंने ही लिखा था - दिलीप झा के साथ मिश्राटोला मोहल्ला (दरभंगा) गया। वहां वैद्यनाथ मिश्र यात्री उर्फ नागार्जुन से मिला। उन्होंने मुझसे मेरा नाम और वर्ग (किस वर्ग में पढ़ते हो ?) पूछा। मुझे उनकी कोई बात समझ में नहीं आयी। दिलीप के कारण आज शाम मैं क्रिकेट नहीं खेल रहा।
लेकिन आज बाबा की कविताओं को पढ़ता हूं, तो मन कहता है काश 17 वर्ष पहले मुझे मालूम होता कि कोई व्यक्ति कवि कैसे बन जाता है। कितनी पीड़ाओं और व्यथा से गुजरता है इंसान एक कविता को लिखने से पहले !
बादल को घिरते देखा है / नागार्जुन
अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है।
छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों ले आ-आकर
पावस की उमस से आकुल
तिक्त-मधुर बिसतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद-मंद था अनिल बह रहा
बालारुण की मृदु किरणें थीं
अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-अलग रहकर ही जिनको
सारी रात बितानी होती,
निशा-काल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें
उस महान् सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
दुर्गम बर्फानी घाटी में
शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर
अलख नाभि से उठने वाले
निज के ही उन्मादक परिमल-
के पीछे धावित हो-होकर
तरल-तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
कहॉं गय धनपति कुबेर वह
कहॉं गई उसकी वह अलका
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योम-प्रवाही गंगाजल का,
ढूँढ़ा बहुत किन्तु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
जाने दो वह कवि-कल्पित था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर,
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
शत-शत निर्झर-निर्झरणी कल
मुखरित देवदारु कनन में,
शोणित धवल भोज पत्रों से
छाई हुई कुटी के भीतर,
रंग-बिरंगे और सुगंधित
फूलों की कुंतल को साजे,
इंद्रनील की माला डाले
शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,
कानों में कुवलय लटकाए,
शतदल लाल कमल वेणी में,
रजत-रचित मणि खचित कलामय
पान पात्र द्राक्षासव पूरित
रखे सामने अपने-अपने
लोहित चंदन की त्रिपटी पर,
नरम निदाग बाल कस्तूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मदिरारुण आखों वाले उन
उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
मृदुल मनोरम अँगुलियों को
वंशी पर फिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।


6 टिप्‍पणियां:

सुशील छौक्कर ने कहा…

नागार्जुन जी की इतनी सुन्दर रचना पढवाने के लिए शुक्रिया। साथ ही यह भी कहना चाहूँगा कि जब भी नागार्जुन जी बात होती है तो सुधीश जी की उनपर लिखी एक लाईन याद आ जाती है" जाड़ा टाईट तो बाबा फाईट" ।

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

नागार्जुन बाबा की जय!

रंजीत/ Ranjit ने कहा…

aap sabhee bandhuon ka aabhar. sushil jee sudhish jee ko mere or se kahiyega kee baba fight me mujhe bhee sshamil kar le, mera bhala hoga.

'' अन्योनास्ति " { ANYONAASTI } / :: कबीरा :: ने कहा…

फक्कड बाबा अक्खड़ बाबा यानि कि बाबा नागार्जुन पढ़वाने के लिए धन्यवाद ,मई उसे अपने साथ ले जारहा हूँ , अपनी पत्रिका "बतकही " पर आप का लिंक दे कर प्रसतुत करने का विचार है

'' अन्योनास्ति " { ANYONAASTI } / :: कबीरा :: ने कहा…

मेरे "कबीरा " पर आने का धन्याव1द ,बतकही पत्रिका की चर्चा ऊपर उल्लिखित टिप्पणी में की है ,यह "मेरी तेरी उसकी " बात के थीम पर आधारित है | प्रकाशन नियमित ना होकर ' पढ़ने योग्य ,ऐसी सामग्री जो बार -बार पढ़ी जाने के लायक हो उनका का संग्रह होगा उपरोक्त नाम में लिंक दिया है | और रही दर्द की बात तो .....
> रात का राही सूरज के साए में खो जाता है
जगे शाम को जो दर्द ,सुबह सो जाता है |

इक नया मोड़ है तेरी ज़िन्दगी का हर गम ,
तेरा इम्तिहां इस तरह लेता है वक्त हर कदम |

रंजीत/ Ranjit ने कहा…

"anonastee" bhai aap se itefak rakhta hun.post ko aapne jo ijjat dee hai uske liye hardik dhanyawad.
Ranjit