गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

अभूतपूर्व संकट में नेपाली मीडिया



कहने के लिए तो नेपाल में लोकशाही है, लेकिन उसके सारे लक्षण तानाशाही के हैं।हालांकि यह बात और है कि ये लक्षण नेपाल से बाहर नहीं आ रहे हैं। जबसे नेपाल में नई सरकार का गठन हुआ है तब से वहां मीडिया , न्यायापालिका और प्रशासनिक तंत्रों पर हमले बढ़ गये हैं। पिछले तीन महीने में दो दर्जन पत्रकारों पर हमला हुआ है। चार पत्रकारों की हत्या हुई है और यह एक सिलसिला-सा बन गया है। तीन महीने पहले एक क्षेत्रीय अखबार को माओवादी कार्यकर्ताओं ने जबर्दस्ती बंद करवा दिया था। चार माह पहले बीरगंज में एक पत्रकार की हत्या कर दी गयी। दो सप्ताह पहले राजधानी काठमांडू में हिमाल पब्लिकेशन ग्रुप के एक पत्रकार की हत्या की गयी। और हद तो 25 दिसंबर को गयी जब विरॉटनगर में नेपाल के सबसे बड़े प्रकाशन समूह, कांतिपुर ग्रुप के सभी प्रकाशनों को जबरन बंद करवा दिया गया। नेपाली पत्रकारों का कहना है कि यह अभूतपूर्व अराजकता है। ऐसी स्थिति तो निरंकुश राजतांत्रिक शासन व्यवस्था में भी नहीं हुई थी। वे लोग कांतिपुर पब्लिकेशन ग्रुप के किसी पत्रिका और अखबारों को बिकने नहीं दे रहे। सभी दुकानदार, एजेंट्‌स, हॉकरों को अखबार-पत्रिका आदि बेचने से मना कर दिया गया है, जो इस फरमान को नहीं मान रहे उन्हें मौत के घाट उतार दिया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि खुद देश के प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड ने चार महीने पहले एक आम सभा में मीडिया को धमकी दी थी और कहा था कि सरकार बनने के बाद सबको सबक सिखाया जायेगा। एक सप्ताह पलहे ही उन्होंने एक आम सभा में माओ के बयान को दुहराया- सत्ता बंदूक के नाल से निकलती है। जबकि नेपाली पत्रकारों का कहना है कि माओवादी लड़ाके पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। जिलों और कस्बों में उनकी ही सरकार चल रही है। वे जहां मन करे वहां हथियारों के साथ सभा एवं प्रशिक्षण शिविर चला रहे हैं। अब जब अखबारों का प्रकाशन जबरन बंद हो रहा है, तो पुलिस मूक दर्शक बनकर सबकुछ देख रही है। इससे साफ है कि नेपाल की सर्वोच्च शक्ति ही मीडिया के मूंह पर टेप चिपकाने के लिए आमदा है। पता नहीं नेपाल किस ओर जा रहा ? भारत सरकार को इस पर गंभीरता से विचार करनी चाहिए।

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