शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

मेड़ पर माथा-हाथ (डायरी अंश / 1.12.11)

 पेंटिंग डब्लूडब्लूडब्लू डाट गूगल डाट को डाट इन से साभार
इस तेज रफ्तार दुनिया में पंद्रह साल कोई छोटी अवधि नहीं है। पंद्रह साल में कितना कुछ बदल गया है। पंद्रह साल में धरती ने पंद्रह बार सूरज का  चक्कर लगा लिया  है, ना जाने कितने सितारे खाकसार हो गये हैं खतो-किताबत की संस्कृति खत्म हो चुकी है, न नायी की खुशामद न संवदिया की जरूरत, नता-पता से लेकर न्यौता तक का काम 'मुबाइल' कर देता है। दो महीने की नवकनियां घर-द्वार से लेकर हाट-बाजार तक कर लेती हैं। खेतों में मचान नहीं मोबाइल के टॉवर नजर आते हैं। फुरसत में लोग टीवी देखते हैं, मुरदग नहीं भांजते। मुहर्रम में रेडीमेड ताजिये से काम चला लिये जाते हैं। मुआ कौन जाये बांस काटने, रस्सी बाटने और बत्ती चीरने।
लोक लाज का भय और बड़ों का लिहाज किसे कहते हैं ? बाप-पित्ती के सामने गर्ल-फ्रेंड की बात करने में अब युवकों के चेहरे लाल और आंखें नीचे नहीं होतीं। वे खड़ा होकर पेशाब करते-करते दो-तीन मिस्ड कॉल मार देते हैं।
अजब लीला है कोशी अंचल की, इसकी संस्कृति की। अनोखा मिजाज है यहां के बाशिंदों का। मन इतना चंचल कि नटवरलाल को भी दिन में तीन बार टोपी पहना दे, दिल इतना कोमल कि चांडाल भी पिघल जाये।
बहुत कुछ बदल जाने के बावजूद बहुत कुछ आज भी बासी नहीं हुआ है, कोशी में। वे सब टटका मछली की तरह ताजा और मड़ुवा रोटी की तरह सोन्ह हैं। दुख और सुख के बहुत-से  बिम्ब  अब भी नहीं बदले हैं। आज भी मवेशियों से फसल उजाड़ दिये जाते हैं और किसान माथ पर हाथ धरकर मेड़ पर घंटों बैठा रह जाता है। टुकूर-टुकूर ताकता है। राह गुजरते लोगों को भैंसों के खूर दिखाता है। उसके बाद जी भर के गाली देता है। सहानुभूति का एक शब्द सुनते ही दहाड़ मारकर रोने लगता है। इस रुदन की भी अपनी खासियत है। यह महज आंख का पानी नहीं, यह रूदन-रिपोर्टिंग होती है। रोते-रोते किसान फसल में लगी पूंजी और मेहनत का पूरा आंकड़ा पेश कर देता है।
कॉरियर के लिए जब लोग कबर में पैर रखे बाप को छोड़ कनाडा जाने में जरा-सी देर नहीं लगाते, तो कोशी के गांव में आज भी श्रवणकुमारों का टोटा नहीं है। आज भी एमए, एमएससी, एमटेक पास युवक बुढ़े बाप की सेवा के लिए नौकरी छोड़ गांव में बैठ जाता है। संजीव ने भी यही किया।
पंद्रह साल बाद संजीव से भेंट हुई, तो पहचानना मुश्किल हो गया। पंद्रह साल पहले जिस संजीव को मैंने देखा था, वह एक तेज-तर्रार, महत्वाकांक्षी, खूबसूरत, बड़ी आंख वाला वाक-चातुर्य आधुनिक युवक था। ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय से एमएससी कर रहा था, संजीव। लेकिन आज का संजीव विशुद्ध किसान है। सीधा और सादा। उसके संदर्भ बदल चुके हैं। वनस्पति विज्ञान की दुनिया में नया क्या हुआ यह बताना तो दूर, संजीव के लिए अब बोटेनी और कारी झांप की घास में कोई फर्क नहीं है।  मानो दोनों बेकार की चीज है, जिसे बकरी भी नहीं सूंघती।
बोटेनी में एमएससी करने के बाद नौकरी के लिए दरभंगा से किसी महानगर चला गया था, संजीव।  उसने बताया कि बुढ़े बाप की सेवा-टहल के लिए उसने अपनी डिग्री भुला दी और नौकरी छोड़कर गांव आ गया। जैसे-जैसे पिता की सेहत  खराब होती गयी गयी, संजीव के लिए गांव छोड़ना कठिन से असंभव होते गया। जब तक पितृ ॠण से उबर सका, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। डिग्री पर समय ने धूल की इतनी मोटी परत बिछा दी कि उसका कोई मतलब नहीं रह गया । पिता के गुजरने के बाद ही शहर में रहने वाले संजीव के उच्च अधिकारी भाई गांव आ धमके। संपत्ति बंटवारे को लेकर केस-मुकदमें हुए और संजीव को अपने हाथों से बनाये घर से बेघर होना पड़ा। वह तंबू में रहने के लिए मजबूर हो गया ।
बाबू ने कहा था,"कुछ भी हो जाये घर की बात को कोर्ट नहीं ले जाना। सो संजीव के हिस्से में कुछ नहीं आया। जो लोग पिता भक्ति के लिए उनके नाम की दुहाई देते थे, उन्होंने भी अब संजीव का मजाक बनाना शुरू कर दिया था।''
सहोदर भाई की निर्दयता, बेईमानी, खुदगर्जी की दास्तां ने उसे इतना तोड़ दिया है कि सहसा यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि यह आदमी पंद्रह साल पहले पीजी हॉस्टल का प्रीफेक्ट था। संयमित और रिजर्व। 
वह बोलता गया, मैं सुनता रहा। शाम के चार बजे जब हम होटल के कमरे से बाहर निकले तो पता चला कि इस दरम्यान हमने आठ प्याली चाय पी ली थी। खाना हमने नहीं खाया। पांच बजे हमें बारात के लिए विदा होना था। एक प्रोफेसर साहेब के बेटे की बारात में शामिल होने हम दरभंगा पहुंचे थे, जो हम दोनों के रिश्तेदार हैं।
बारात की गाड़ी पर सवार होने से पहले मैंने पूछा,"संजीव भाई, आप प्रोफेसर साहेब के बेटे की शादी में कैसे ? इनकी और आपके बड़े भाई की कहानी में ज्यादा फर्क नहीं है।''
संजीव चुप हो गया। कुछ देर के बाद उसने कहा," हम तो आ गये, लेकिन तुम कैसे आये ? यह बात सुबह से मैंने कई बार सोची है, लेकिन पूछ न सका ।''
मेरे पास सही जवाब नहीं था। मैंने कहा, ''आग्रह टाल नहीं पाता हूं, शायद इसलिए। हां, यह सच है कि पंद्रह साल पहले इसी प्रोफेसर साहेब के कारण मुझे इस शहर तक से नफरत हो गयी थी।''
रात को शादी में मैंने देखा। सब कुछ पश्चिमी अंदाज में था। प्रोफेसर साहेब के गांव-गिरांव से आये लोग किनारे में कुछ इस तरह खड़े थे, जैसे वे बारात में नहीं, कचहरी में हों। मुझे एक बार फिर प्रोफेसर साहेब से नफरत हुई। एक पोटरी मेरे हृदय में बंद हो गयी ।
अगले दिन जब बस में बैठा तो रास्ते भर संजीव की याद आती रही।  भीषण उत्पीड़न के बावजूद उसके दिल में बड़े भाई के लिए कोई कठोर भाव नहीं था। वह आज भी अपने भाई का शुभचिंतक है। यह सोचकर मुझे संजीव का कद खुद से कई गुना बड़ा लगा। इतना बड़ा दिल उसे अपनी मिट्टी ने दी है। सच में संजीव माटी का असल पुत है।

बुधवार, 16 नवंबर 2011

कवि तुम कब आओगे

बर्फ
सब
पिघल गयी
सांस भी
अब 
दवा हुई
देह ही है देश में
लोग बस  नारा है
भरोसा था जिस शोर पर
चौक पर
शराब हुई
शर्म
से बहुत आस थी
सुबह-सुबह
खतम हुई
कवि !
तुम कब आओगे

शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

ना वो नगरी ना वो ठाम (ठांव)



दहाये हुए देस का दर्द-78
बोल बम, दशहरा, कोजगरा, दीवाली, शुकराती, भ्रातिद्वितीया के बाद छठ पूरा हुआ और प्रवास का चौमासा भी। शहर जाती रेलगाड़ियां फिर से ठसाठस है
ट्रेनों के डिब्बे कर्राटे के ट्रेनिंग कैंप में तब्दील होने लगे हैं। अंदर जा पाना जंग जीतने जैसा है। सब की छुट्टी खत्म हो चुकी हैऔर हर कोई सही समय पर दिल्ली, अमृतसर, सूरत,लुधियाणा, गुवाहटी आदि पहुंच जाना चाहते हैं। लोग ज्यादा हैं, डिब्बे कम।  इसके उलट गांवों में डिब्बे ज्यादा हैं,  लोग कम ।
वे प्रवासी चिड़ियों की तरह आये और प्रवास-उपवास-त्यौहार के बाद लौट गये। कुछ ने बकरे की बलि दी, कुछ ने सिहेंश्वर बाबा को जल चढ़ाया और कुछ ने मंदिर में घंटी बांधकर उस पर अपना नाम खुदवा लिया- " ... मैया मनोकामना पूरी करे, तो अगले साल जोड़ा छागर चढ़ावेंगे (काटेंगे)।''
अब अगले चौमासे में ही लौटेंगे ये । जब कभी उनकी जरूरत होगी,  मोबाइल फोन और बैंक के दस नंबरी खाते से काम चला लिया जायेगा। तभी तो उस दिन मुनाई मड़र की पत्नी चहककर रामाधीनमा से कह रही थी-"जमाना बदल गिया है। टाका टेम पर आ जाता है। हां, बैंक का नवका मनिजर जनी-जाति (महिलाओं) सब को तुरंत टाका नहीं देता। हियां-हुआं पचीस जगह अंगुरी के टीप लेता है, बजरखसोना (बज्रपात करने वाला) !''
रामाधीनमा बायें-दायें, आगे-पीछे देखता है, फिर जवाब देता है- "ऐं, तोरा संग तो ऐसा कभियो नहीं हुआ, हे  बनेलवाली भाउजी ? मनिजरवा तोरे खोपा (बाल) पर मेहरबान जे है, हें-हें-हें !''
"धूर्र जिन्नदहा (जिन्न के संग रहने वाला) !!''
बनेलवाली लजा जाती है । कनखी से रामाधीनमा की ओर देखती है और  फुसफुसाती है-"बजरखसुआ राकश, आइये राइत से देहेर (देहरी) पर घुड़दौड़ करने लगेगा !!''
मुझे साल भर पहले पटना के एक दार्शनिक लेखक और अंग्रेजी पत्रकार की कही बातें याद आयीं। उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिंग के बगल की चाय दुकान पर कहा था- "... इट्‌स नेचुरल डिमांड ऑफ बॉडी यार।  डू यू नॉट वांट टू प्लीज्ड योर बॉडी? आइ एम राइटिंग अ बुक ऑवर लेबर माइग्रेशन बट माई थीम इज डिफरेंट। माइग्रेशन वर्सस हाइब्रिडेजाइशन ! यह  शीर्षक कैसा रहेगा ??? ''
मैंने तकरीर की । " दादा, अभी तो माइग्रेशन पर बहस होनी चाहिए। एक पत्रकार के नाते पहले आपको  इस समस्या के असल कारणों के बारे में दुनिया को बताना चाहिए, लेकिन आप तो दीपा मेहता बनने पर उतारू हैं। आठ घंटे खेत में काम करने के बाद जब घर लौटेंगे, पांच-छह बच्चे को संभालेंगे, बुढ़े सास-ससुर की सलगी-नुआ (विछावन और वस्त्र) सुखायेंगे, तो भूल जायेंगे कि बॉडी प्लीजर किसे कहते हैं ...  '' 
दादा गंभीर हो गये । बोले, " प्वाइंट। वैलिड प्वाइंट। गो अहेड... ''
खेतों में धान पकने लगे हैं। दस-पंद्रह दिनों में काटने योग्य हो जायेंगे। लेकिन फसल काटने के लिए लेबर की चिंता से किसान दुबले हो रहे हैं। अब सबकी नजरें, जनी-जन (महिला कामगार) पर हैं। लेकिन कोई जनी खाली नहीं। उन्हें पहले खुद की फसल काटनी है। उगहनी से लेकर दाउनी (ढोन  से लेकर फसल तैयार करने तक) भी महिलाओं को ही करनी पड़ेगी। घर के तमाम जवान पुरुष सदस्य पंजाब-लुधियान जा चुके हैं। चौपाल के मचान पर बैठे यमुना यादव कहते हैं, "अगले साल से हम भी खेती छोड़ देंगे बबुआ। अप्पन इलाका में खेती करना आब ककरो वश के बात नहीं रह गिया है। लाख जतन से रोपाई किये थे। चार बीगहा में गरमा (धान की एक संकर किस्म) है। खूब लगा है ऐहि बेर गरमा, लेकिन चारों टोल घुम आये,  कटनी के लिए एको ठो जन (मजदूर) नहीं मिला।''   
मैंने पूछा, "चचा आपको कटनी के लिए जन नहीं मिल रहा है। उधर मुखिया कहते हैं कि गांव में इस साल मनरेगा में 20 लाख रुपये का काम हुआ है।''

"धुर्र ! के ? जलेसरा मुखिया !  उ बेइमनमा ते बड़का-बड़का नेता के कान काट रहा है। सब फर्जी है। मशीन से काम होता है। जभ कार्ड (जॉब कार्ड) वाले को दस-बीस देकर टीप ले लेता है बही में । उ कि बात करेगा ?  जब से मुखिया हुआ है, खेती करता है उ ?  काहे नहीं पूछे किआप काहे खेती छोड़ दिये? बाप-दादा के अरजल (अर्जित) 40 बीघा  धनहर खेत तो ओकरो पास है !'
मैंने पूछा- "तो फिर गांव का क्या होगा चचा ? ''
"कुछो नहीं। सब पैंजाब-हरियाणा चला जावेगा। जे गाम (गांव) में रहेगा ओ नेता-दलाल बनकर ब्लॉक में घुमेगा। सांझ में बोतल पीकर सोयेगा, सुबह में झक उजर (उजला) कुर्ता पहनकर घुमेगा।  हमर जैसे बढ़ू कुकुर (कुत्ता) भगायेगा। हेंहेंहें !  जनी-जाति सब अभी तो सब सह रही है। एक दिन इहो सब विद्रोह कर देगी। छोड़ा सबके निशा (नशा) में जनी-जाति जभ्भ (हलाल) हो रही है।''
"उसके बाद ?''
"ओकर बाद ?  नै (ना) ओ नगरी नै ओ ठाम ! नै राम नै रहीम। नै छागर नै जल। सब सदावरत ! सदावरत !!  शुकर (शुक्र) है सिंहेश्वर बाबा कें कि ई सब देखे के लेल (लिए) हम लोग जिंदा नहीं रहेंगे। जे जीवेगा से देखेगा। ''

सोमवार, 31 अक्टूबर 2011

हजार साल पुराने गांव में

नवकी नेरू होती, तो पकड़कर बांध देते बथान में
उसे रोकना  नामुमकिन था
कोशिकी माय की तरह
अखबारी भाषा में वह पलायन था
गोबरधनियां की माय की जुबान में
उधार का वैधव्य
"बोंगमरना आठ महीना पैंजाब रहता है
आते ही कहता है -
 तोहर चाल-चलन ठीक नहीं , खोपा में गमकौवा तेल क्यों है !
 कपरजरूआ, गत्तर में जाबी क्यों न बांध जाता है ? ''

गांव हजार साल पुराना था
वैसे बांसुरी की जगह अब मोबाइल था
बिजली नहीं, खुट्टा पर तार तन आया था
हां, हजरबरसा वह गांव
पाखड़ के पेड़ पर लटके निस्पंद घोंसलों की  तरह था
दाना के लिए चिड़िया जिसे छोड़ गयी थी
चारा के लिए अजगर उसे निगल रहा था
 उसे हथियाने के लिए बंदर कतार में खड़ा था

राह-बाट पर लगे सरकारी बोर्ड, सबूत थे
कि गांव अब भी जिंदा था
खेत और मेड़ भी कायम थे
जैसे मुंडेरों पर रहते हैं घुन-खाये कुम्हड़
बाहर पुष्ट अंदर ठूठ
शायद इसलिए
सूरज उगने के साथ
जिन्हें होना था मेड़ पर
और सूरज डूबने के बाद
सोना था मकई के मचान पर
 वे उस दूकान पर थे
जिसे राजकीय भाषा में प्रखंड विकास कार्यालय कहा जाता है
जहां इंदिरा दीवार पर
और आवास दलालों की जेबों में बसते हैं
 जहां मनरेगा चास और मुखिया समार हैं
पंचायती राज हाइ यील्ड बीज की  तरह है
रिश्वत का खाद डालो
कट्ठा में बीस मन काट ले जाओ
2
अपने गांव में
सूरज सिर पर होने का एक मतलब है
मैंने सिटी भी सुनी
बरह-बज्जी रेलगाड़ी जा  चुकी  थी
बावजूद, हलवाहे नदारद थे
बारह बजे दिन में
खेत के सुनसान होने का भी एक मतलब है
इसलिए झलफल  शाम में
मैं गांव के सबसे पुराने पोखर पर था
मेरे पास महार पर
गांव के सबसे बूढ़े किसान की लाश थी
उसके माथे पर 20 लाख का बैंक-कर्ज था
लोटा लेकर मैदान जाता एक दूसरा बूढ़ा
मातमी शाम में भी प्राती गा रहा था
शाम में
प्राती गाने का भी एक मतलब है
क्योंकि वह बूढ़ा पागल नहीं था
उसकी मालिस से मरे मेमने भी मिमियाने लगते थे
जिस दिन वह कदवा करता
मेघ भी उसी दिन बरसता
उस बूढ़े ने कहा-
" एक फोन पंजाब-दिल्ली- सूरत से आवेगा
एक फोन कलेक्टर को जावेगा
फिर मुखिया का मुबाइल बजेगा
दारोगा रास्ते से लौट जायेगा ''
3
जो कोशी से लड़ते हुए जवान हुआ
अकाल में भी आठ बेटे का बाप बना रहा
वह फंसरी पर कैसे चढ़ा ?
हजार साल पुराने गांव में
इस सवाल का अब कोई मतलब नहीं है

रविवार, 2 अक्टूबर 2011

विकास की वेदीः खेती की कुर्बानी

 कृषि प्रधान भारत में  खेत, खेती और खेतिहर अब सबसे उपेक्षित उपक्रम बन गया है। संक्षेप में कहें तो हमारी खेती संकटों के मकड़जाल में फंस चुकी है। सरकार की प्राथमिकताओं से तो खेत, खेतिहर अब गायब हो ही चुके हैं, लेकिन चौथे खंबे का भी इस ओर ध्यान नहीं है। यह बात अलग है कि खाद्यान्न असुरक्षा से बड़ी असुरक्षा कुछ नहीं हो सकती। राष्ट्रीय हिंदी पत्रिका द पब्लि एजेंडा ने अपने नवीनतम अंक में खेत,खेती और खेतिहरों के वर्तमान और भविष्य पर आवरण कथा की है। ऊपर की तस्वीर पर क्लिक कर  मुख्य रिपोर्ट पढ़ी जा सकती है।- रंजीत

रविवार, 25 सितंबर 2011

जहर से प्यार


  विषधर कब नहीं थे
  विषधर आज भी हैं
  अंदर-बाहर हर जगह
  वे घर में है देवता की तरह
  बाहर विजेता की तरह
  विषधरों से हमारी आदिम संगति है
  विषधरों से डरना, हमारी नियति है
  हमें सिखाया गया है सांप के बारे में 
  सांप के जहर के बारे में
  जहर, जहर है-  मारता है
  जहर, आग है-  जलाता है
  लेकिन सांप हर रात सपने में आ जाता है
  काटता है
  दंश के चिह्न बनते हैं
  ज्यों-ज्यों जहर चढ़ता है
  चिह्न सुन्न पड़ते जाते हैं
  सांप हंसता है
  भाषण और प्रवचन देता है
  रोजाना ट्विट करता है
  बताता है
  जहर अगर बाहर हो, तो जहर है
  अंदर आते  ही, अमृत होता है

  तुम क्या जानो जहर की बात
  जब जबड़े में जन्मेगा जहर का गाछ
  तुम्हें भी हो जायेगा, जहर से प्यार

रविवार, 11 सितंबर 2011

पुल के पार

 
" सोहन जादव के ममहर (मां का गांव) भी ओही पार में था। बचहन (बचपन) में सोहना एक बेर गिया था अपन ममहर, जब ओकर नानी का नह-केस (श्राद्ध कर्म) था। लोग कहते हैं जिस साल सोहना की नानी मरी थी वोही साल कोशिकी मैया खिसक गयी थी। सब रास्ता-बाट बंद हो गिया और फेर केयो नै जान सका कि सोहना के मामा लोग कहां पड़ा गिये। हमर कका (पिता जी) कहते थे कि जब कोशिकी नहीं आयी थी, तो ई गांव के चैर आना (25 प्रतिशत) कथा-कुटमैत उधरे था, दैरभंगा (दरभंगा)जिला में। बान्ह टाढ़ होने के बाद तो पछवरिया मुलुक (पश्चिमी इलाका) से हम लोगों के आना जाना समझिये साफे बंद था। नेपाल होके आवत-जावत तो मातवरे लोग कर सकते हैं। आब पुल बइन जायेगा, तो फेर सें टुटलका नता-रिश्ता पुनैक जायेगा।''
 लगभग 70-72 साल के वृद्ध दुखमोचन मंडल जब यह सब कह रहे  थे, तो उनके चेहरे पर बच्चों जैसा उत्साह था और आंख में अजीब तरह की चमक थी। ऐसी चमक अब आम किसानों की आंखों से गायब हो गयी है। पहले दुखमोचन को विश्वास नहीं होता है, लेकिन अब उसे यकीन हो चला है कि कोसी पर महासेतु बनाया जा सकता है। हाल तक उसकी धारणा थी कि कोशी के दोनों किनारे  को जोड़ा नहीं जा सकता।
सुपौल जिले के सरायगढ़ स्टेशन से उतरने के बाद पश्चिम की ओर अगर निगाह डालें तो शायद आपको भी विश्वास होने लगेगा कि यहां कोई ऐतिहासिक निर्माण कार्य चल रहा है। कोशी के पूर्वी बांध पर पहुंचने के बाद महासेतु के महापाये साफ-साफ दिखने लगते हैं। अधिकारियों का कहना है कि जनवरी तक इससे आवाजाही शुरू हो जायेगी। इसके साथ ही केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी पश्चिम-पूर्वी कोरिडोर सड़क योजना का मिसिंग लिंक भी रीस्टोर हो जायेगा। द्वारका से गुवाहटी, दिल्ली से सिलीगुड़ी तक सीधी बस या ट्रेन सेवा हो सकेगी, बिना किसी घुमाव या मेकशिफ्ट के। सुपौल, अररिया, मधेपुरा, पूर्णिया, दरभंगा, मधुबनी में ऐसी बातें खूब सुनने को मिल रही हैं। नेता-अधिकारी  से लेकर हलवाहे-चरवाहे तक इन दिनों महासेतु का ही गुण गा रहा है। मन कहता है कि मैं भी उनकी हां-में-हां मिला दूं, लेकिन दिमाग रोक लेता है। कोशी के सीने पर अंगद के पांव की तरह जमाये गये लोहे-कांक्रिट के विशालकाय पाये भी मुझे भरोसा नहीं दिलाते। अभियंताओं का दावा है कि यह पुल कोशी के 15 लाख क्यूसेक पानी को बर्दाश्त कर सकता है। चूंकि पिछले 20-30 सालों में कोशी में इतना पानी कभी नहीं आया, इसलिए मान लेता हूं कि इस पुल को पानी से कोई समस्या नहीं होगी। कोशी लाख यत्न कर ले, पुल उसका दामन नहीं छोड़ेगा और टिके रहेगा। लेकिन जब मेरे जेहन में सवाल उठता है कि अगर कोशी ने ही पुल को छोड़ दिया, तो ? इस सवाल का जवाब अभियंताओं के पास नहीं है। हालांकि वे सुस्त स्वर में कहते हैं कि ऐसा नहीं होगा। लेकिन जिसने कुसहा के कटाव को देखा है, जिसने कोशी की तलहटी को मापा है, वे कहते हैं- "कोशी तो अब धारा बदल के रहेगी।'' वैसे हालत में पुल तो खड़े रहेंगे, लेकिन उसकी प्रासंगिकता नहीं बचेगी।मैंने पता लगाने की कोशिश की क्या कोशी महासेतु की पीपीआर या डीपीआर को तैयार करते समय महान अभियंताओं ने इस पहलू पर विचार किया था। जवाब नहीं मिला। दरअसल, पुल की डीटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनाने के दौरान इस पहलू को साफ तौर पर नजरअंदाज कर दिया गया कि नदी धारा बदल सकती है। गौरतलब है कि जब कोशी महापरियोजना को स्वीकृति मिली थी, तब किसी इंजीनियर या सलाहकार ने सरकार के सामने यह सवाल नहीं उठाया। अब जबकि पुल पर 400 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं, तो भला कौन ऐसा अटपटा सवाल पूछेगा। वह भी तब जब इलाके का बच्चा भी पुल गान में मस्त है। पुल के साथ पूर्णिया से दरभंगा तक चार लेन सड़क और रेलवे ट्रैक के निर्माण में जो राशि खर्च हुई है या होने वाली है उन्हें अगर जोड़ लें तो बजट हजार करोड़ तक पहुंच जायेगा।
अच्छा तो यह होता कि योजना की डीपीआर में कोशी के धारा परिवर्तन पर भी विचार कर लिया जाता। यह काम नहीं हो सका। ऐसे में अब इस परियोजना की सार्थकता कोशी के रहमो-करम पर निर्भर करेगी। आइये हम सब मिलकर कोशी मइया से प्रार्थना  करें कि वह मान जाये। नैहर जाने की जिद छोड़ दे। साठ वर्षों से दो हिस्से में विभाजित मिथिलांचल को फिर से एक कर  दे ।   
(प्रिय पाठकगण, इस रिपोतार्ज का  मैथिली अनुवाद आप प्रसिद्ध ई-पत्रिका "इसमाद''  पर भी पढ़ सकते हैं, जिसे "इसमाद'' की संपादक कुमुद सिंह जी ने मेरी सहमति से मैथिली में प्रकाशित  किया है। इसके लिए मैं उनका कृतज्ञ हूं। )
रंजीत

गुरुवार, 1 सितंबर 2011

ईमानदार एकांत

एकांत
ईमानदार एकांत
मिलता तो
एक कविता होती
पढ़ने की कोई किताब होती

एकांत !
एकांत की भीड़ में
आदमी से उमस नहीं लगती
एकांत की बहस में
बुद्धि पर बोध हावी नहीं होता
हम आदमी होते
आग्रह का उल्लू नहीं
हमें सीधी रेखा भी सुंदर लगती

एकांत अगर ऊपर होता
दूध का दूध और पानी का पानी होता
एकांत अगर नीचे होता
गांवों में आज भी किस्सा होता
जंगल अभी तक जिंदा होता

++
एकांत
अब लगभग दुर्लभ है
वह न घर में है न बाहर में
न दीन में न दुनिया में
न प्रेम में न आक्रोश में है

जहां हो सकता था एक विरॉट एकांत
वहां अब एजेंडा है
शायद इसलिए, एकांत को तलाशता आदमी
आज अकेला है

शनिवार, 16 जुलाई 2011

इस ओम में बहुत प्रकाश है

                             ग्रामीण प्रतिभा 
          आइआइटी प्रतियोगियों के साथ कक्षा में ओम प्रकाश

आइंस्टीन ने सापेक्षवाद का सिद्धांत बहुत बाद में प्रतिपादित किया, बिहारी गणितज्ञ नागार्जुन ने इसका उल्लेख  लगभग 22 सौ साल पहले किया था। यह बात और है कि आज दुनिया आइंस्टीन को सापेक्षवाद सिद्धांत का प्रतिपादक मानती हैं। वैसे बिहारी मिट्टी के महान गणितज्ञ आर्यभट्ट की उपलब्धि पर किसी को संदेह नहीं। आर्यभट्ट ने बिना किसी उन्नत उपकरण के पृथ्वी का व्यास पता कर लिया था। वह भी बिल्कुल सटीक। दरअसल, बिहार की जमीन गणित की विशिष्ट प्रतिभा के लिए हमेशा उर्वरा रही है। आज भी बिहार के गांव में पढ़ाई का दूसरा नाम है- गणित की दक्षता। गणित में बढ़िया छात्र को पूरा गांव नाम से जानता है। यह सिलसिला प्राचीन काल से लेकर अब तक अनवरत जारी है।
इसका हालिया उदाहरण है औरंगाबाद जिले का 11 वर्षीय छात्र ओम प्रकाश। ओमप्रकाश अभी पांचवीं कक्षा का छात्र है और देश की सबसे बड़ी दिमागी प्रतियोगिता- आइआइटी के स्तर के सवालों को बखूबी हल कर ले रहा है। विलक्षण प्रतिभा के स्वामी ओम प्रकाश इन दिनों पटना के कुम्हरार में रह कर आइआइटी की तैयारी कर रहा है। शिक्षक उसकी प्रतिभा के कायल हैं। स्थानीय बाजार समिति स्थित परमार क्लासेज के टारगेट बैच के इस छात्र को अपनी उम्र से कहीं अधिक उम्र के बच्चों के साथ पढ़ाई करता देख प्रेक्षक को हैरानी होती है। लेकिन जब ओम ब्लैकबोर्ड पर पूरे आत्मविश्वास के साथ गणित-भौतिक विज्ञान के कठिन सवालों को सुलझाने लगता है, तो लोगों को विश्वास हो जाता है कि यह छात्र भूलवश कक्षा में नहीं आया है।
सबसे बड़ी बात यह कि ओम प्रकाश किसी कान्वेंट स्कूल से नहीं आता है। उसने गांव के सरकारी स्कूल से ककहरा सीखा। साधारण कृषक परिवार का यह लड़का असाधारण प्रतिभा के कारण तुरंत ही चर्चा में आ गया।  औरंगाबाद के कुटुम्बा प्रखंड के चिल्हकी गांव के निवासी ओमप्रकाश के पिता जगदीश पाल भेड़ पालते हैं। मां भेड़ के बाल से धागे तैयार करती हैं। वह अपने चचेरे भाई अजीत और रंजीत के साथ आइआइटी एट्रेंस की तैयारी करने पटना आया है। 

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

फूस के घर : बनने और बहने की अकथ कहानी

दहाये हुए देस का दर्द- 77 
पानी में फंसा सुपौल जिला का परहावा गांवः  कोशी तटबंधों के बीच फूस के ही घर होते हैं। हर साल बनते हैं, हर साल बहते हैं। पानी के प्रवेश के साथ लोगों ने गांव खाली कर दिया है। घरें तन्हा खड़ें हैं। बरसात के बाद लोग लौंटेंगे।  तब तक छतें नदी में विलीन हो जायेंगी। कुछ खूंटे खड़े रहेंगे। लौटे हुए लोग इन खूंटों से लिपटकर पहले रोयेंगे फिर गुफ्तगू करेंगे। धीरे-धीरे उन खूंटों पर फिर से नयी छत बिछ जायेगी। हां,यह बाततटबंधों के बीच ही रहेगी। पचास साल से यही होता रहा है।

बुधवार, 29 जून 2011

बरसात में बाढ़-राग

 दहाये हुए देस का दर्द-76 
सरिसृप वर्ग के कई जंतुओं में हाइबर्नेशन (सुसुप्तावस्था में रहने की प्रवृत्ति)  पर जाने की विशिष्ट प्रवृत्ति होती है। हाइबर्नेशन पीरियड में ये जंतु अपने-अपने बीलों से बाहर नहीं निकलते। महीनों तक सोये रहते हैं, न हीलते हैं, न डोलते हैं। आंख-कान दोनों बंद कर लेते हैं। बरसात आने के साथ ही इनका हाइबर्नेशन टूटता है। और जब टूटता है, तो यह चार-चार हाथ उछलने लगते हैं। चारों ओर अजीब-सा कोलाहल मच जाता है। मेढकों, झिंगुरों, अंखफोड़ों, उचरिनों आदि के शोर कान का पर्दा अलगाने लगते हैं। टर्र-टूर्र, झिर्रर्रर्रर्रर्रर्ररररर, झिंननननननन, मेको-मेको-गुममममम, झिन्नन्नननननन...झनाकककक। बुढ़े लोग तंग आकर कहने लगते हैं,"मरे कें दिन आयल तअ पेट में जनमल पांखि।''  ऐसा लगता है मानो ये जीव एक ही साथ रो-हंस-गा रहे हैं। तब यह पता लगाना बूते से बाहर हो जाता है कि वास्तव में कौन-सा जीव, कौन-सी आवाज निकाल रहा है।
कुछ ऐसी ही स्थिति इन दिनों कोशी को लेकार बिहार में है। जैसे-जैसे नदी में पानी बढ़ रहा है, विलाप के स्वर भी उसी रफ्तार में बढ़ते जा रहे हैं। टेलीविजन चैनलों और अखबार के पन्नों विलाप-कथाओं से भरने लगे हैं। क्या सत्ताधारी, क्या विपक्षी, सबके सब एक साथ विलाप के कोरस गाने लगे हैं। जिन्होंने कोशी में कभी कदम नहीं रखा, वे बतौर विशेषज्ञ कोशी का इंजीनियरिंग समझा रहे हैं। आंधे घटे तक ये चैनलों पर बहस करते हैं, लेकिन पूरी एकाग्रता से सुनने के बाद भी मेरे मगज में यह सवाल तनतनाता  रह जाता है कि आखिर ये कह क्या रहे हैं ? ना लड़ रहे हैं, न झगड़ रहे हैं, न होलिका गा रहे हैं, न फाग, तो आखिर ये बोल क्या रहे हैं ? शायद गौरू खेल ! गाय के नये-नये गौरू आपस में इसी तरह सिर भीड़ाते हैं, लेकिन घंटों की रगड़ारगड़ी के बावजूद किसी को चोट नहीं लगती। अंत में ये एक-दूसरे का मूंह चाटने लगते हैं। गैया सब समझती है। क्या पता जन-गैया कुछ समझ रही है या नहीं ।
बहरहाल, कोशी में पानी बढ़ रहा है या दूसरे शब्दों में कहें तो प्रलय की पृष्ठभूमि तैयार हो रही है। एक जगह हो, तो कह दें कि अभियंत्रण-महकमा कुछ कर लेगा। इस बार पूर्वी तटबंध में दो दर्जन जगहों पर स्थिति नाजुक है। राजाबास, प्रकाशपुर,कुसहा, भटनिया, सरायगढ़, नौवहट्टा समेत कई बिंदुओं पर नदी तटबंध के पास पहुंच चुकी है। सरकार कह रही है कि वह हर तरह से तैयार है। मैंने कोशी के एक बड़े नेता से पूछा, क्या तैयारी है, उन्होंने कहा "तटबंधों को बचाने की तैयारी भी है और बाढ़ से निपटने की भी मुकम्मल तैयारी है।'  है न कमाल का जवाब ! इसको कहते हैं- चीत भी मेरा पट भी मेरा। यानी उनको तटबंध की स्थिति का कोई ज्ञान नहीं है। तटबंध टूट भी सकता है, नहीं भी ! नहीं टूटेगा तो वे कहेंगे, "देखा हमारी सरकार ने तटबंध को टूटने से बचा लिया।'' अगर बाढ़ आ गयी, तो वे भागकर पटना आ जायेंगे और कैमरा में घेंच तानकर बयान देंगे- "हमारी सरकार पहले से तैयार थी, एक भी बाढ़पीड़ितों को मरने नहीं दिया जायेगा।'' दुहाई माई कोशिकी ! 
 अब थोड़ी तैयारी का भी जायजा ले लें। जिला प्रशासन ने तटबंध के नाजुक बिंदुओं पर होमगार्डस के जवान को तैनात किया है। वे 24वों घंटे नदी की निगरानी करेंगे। खतरा होने पर प्रशासन को सूचित करेंगे। यह अलग बात है कि बेचारे होमगार्डस के जवान तटबंध के चार किलोमीटर दूर से ही सबकुछ देख रहे हैं। उनसे पूछेंगे तटबंध का हाल तो वे बतायेंगे- "आज तो मुखिया जी के यहां लोग कह रहे थे, जुलुम संकट आने वाला है। ऐ बेर तो ई बैरजवा साला समझिये की गिया काम से...'' है न कमाल की बाता। दुहाई माई कोशिकी !!
लेकिन एक बात सोलह आने सच है। वह यह कि बरसात जब आ गयी तो सरकारी महकमा कोशी-कोरस गा भी रहे हैं और सुन भी रहे हैं। अन्यथा हम तो सालों भर कोशी-कोशी करके गला फाड़ लें, उन्हें कुछ भी सुनाई नहीं देता। हाइबर्नेशन फीनोमेना ! कुसहा कटान के बाद से हमारे जैसे लोग लगातार कहते रहे हैं कि कोशी पर हाइ लेवल रिसर्च टीम गठित किया जाये। मेगाप्लान बनाकर इसे डिसिल्ट करने पर विचार किया जाये। एक्सपायर हो चुके बैरज की जगह वैकल्पिक बैरज बनाया जाये। सुपौल, सहरसा, मधेपुरा, अररिया, पूर्णिया और खगड़िया के लोगों को बाढ़ से निपटने के लिए प्रशिक्षण दिया जाये। और सबसे बड़ी बात यह कि कुसहा कटान के दोषी को सजा दी जाये और कमीशन की रिपोर्ट जल्द सार्वजनिक किया जाये। बरसात के मौसम में लोगों को सही सूचना देने के लिए रेडियो से हर दो-चार घंटे पर बुलेटिन प्रसारित किया जाये। लेकिन कोशी के रग-रग से अवगत लोगों की बात सरकार को नहीं सुहाती, उसे तो अपने इंजीनियरों का सुझाव ही देव-आदेश लगता है। सनद रहे कि इन इंजीनियरों ने 50 सालों में कोशी प्रोजेक्ट में लूट मचाकर उसे इतना खतरनाक बना दिया है कि अब यह नदी शोक नहीं आदमखोर हो गयी है। 50 साल पहले यह बाढ़ लाती थी अब सुनामी लाती है। अंतिम सच यह कि दुनिया का कोई इंजीनियर और कोई सरकार अब ज्यादा समय तक कोशी को तटबंधों के बीच नहीं बहा सकती। तो सब कुछ कोशी की मर्जी पर है, राखे या मार दे। जब तक वह दया दिखा रही है, तब तक कोशी-कोरस का मजा लीजिए। और एक बेर परेम से कहिये- दुहाई माई कोशिकी!!!

गुरुवार, 16 जून 2011

बाबा मेरा

पुष्पराज

बाबा मेरा  नहीं मरा है , नहीं मरेगा 
दिल्ली की छाती पर चढ़कर उधम करेगा
जनवादी जो अलग -अलग गुट, अलख लाल हें
आड़े -तिरछे ,टेढ़ -टाड को सोझ करेगा
सबको मुक्के मार-मार कर ठोस  करेगा
बाबा मेरा नहीं मरा है , नहीं मरेगा 

(पटना में बाबा नागार्जुन जन्म शताब्दि समारोह के बीच पुष्पराज ने यह कविता लिखी )
 

बुधवार, 15 जून 2011

एक और कुसहा का इंतजार ?

कुसहा हादसा के बाद बिहार और केंद्र सरकार ने वादा किया था कि भविष्य में इस तरह की त्रासदी दोबारा नहीं होने दी जायेगी। उन्होंने कहा था कि कोसी को नियंत्रित करने के लिए नये सिरे से योजना-परियोजना चलायी जायेंगी। लेकिन तीन साल के बाद ही कोसी ने दूसरे कुसहा की पृष्ठभूमि तैयार कर दी है। सरकारें इस समस्या पर गंभीर नहीं दिख रहीं। "द पब्लिक एजेंडा" ने अपने नवीनतम अंक में इस विषय को गंभीरता से उठाया है। पूरी स्टोरी को पढ़ने के लिए ऊपर की तस्वीर पर क्लिक करें।

मंगलवार, 14 जून 2011

ऐब के लिए भी हुनर चाहिए


दहाये हुए देस का दर्द- 75
गालिब के एक शेर का मिसरा है- ऐब के लिए भी गालिब, हुनर चाहिए। यूं तो अपने देश के नेता गुमराह करने, बरगलाने आदि के फन में माहिर होते हैं, लेकिन मुझे लगता है कि इस "कला' में बिहार के नेता सब पर भारी पड़ेंगे। "जंगल राज' के नायक लालू प्रसाद यादव हों या "सुशासन राज' के खिताबधारी नीतीश कुमार, जनता को बरगलाने में कौन किससे कम है, यह तय करना मुश्किल है। लालू सामाजिक न्याय का सोमरस पिलाकर जनता को ठगते रहे और पिछले कुछ साल से नीतीश कुमार "विकसित बिहार', "सुशासन राज'आदि का अफीम सूंघाकर सत्ता की मलाई मार रहे हैं।
कोशी में कुसहा जल-प्रलय के समय नीतीश ने कहा था,"कोशी अंचल को पहले से ज्यादा विकसित बनायेंगे। कुसहा कटाव के लिए जिम्मेदार अधिकारियों को बक्शा नहीं जायेगा। उन्हें सजा मिलेगी ताकि भविष्य में कोई अभियंता, अधिकारी, ठेकेदार कोई लापरवाही न कर सके। अब सालों भर तटबंधों की निगरानी की जायेगी ताकि बरसात के समय आपातकालीन परिस्थितियां उत्पन्न ही न हो।'í बात माकूल थी, इसलिए बाढ़ में डूबते-उमगते लोगों को भी कुछ भरोसा जागा। अब इस हादसे के तीन साल पूरे होने वाले हैं। लेकिन इन तीन साल का उपसंहार यह है कि नीतीश का एक-एक शब्द झूठा साबित हो चुका है। पुनर्वास का काम अभी तक अधुरा है। कुसहा हादसे के दोषी अधिकारियों-कर्मचारियों की शिनाख्त तक नहीं हो सकी, सजा तो दूर की बात है।
बहरहाल, बरसात के आगमन के साथ ही कोशी ने "डोल-डालीचा'' कोशी इलाके का एक खेल जिसमें पेड़ पर चढ़ने और उस पर से कूदने की प्रतियोगिता होती है) का खेल शुरू कर दिया है। नदी के साथ अधिकारी- अभियंता-राजनेता; सबके-सब उफान मारने लगे हैं। नदी तटबंध को धमका रही है, तो नेता बड़े अधिकारी को और बड़े अधिकारी छोटे अधिकारी को हड़का रहे हैं- "संभल जाओ नहीं तो भुगतोगे !''  कल की ही बात है। जल संसाधन विभाग के अभियंता प्रमुख ने बीरपुर के मुख्य अभियंता को कहा, कागजबाजी नहीं कीजिये, आदेश का पालन कीजिये। अगर आप नहीं सुधरेंगे तो आपके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जायेगी। लेकिन ये बीरपुर वाले इंजीनियर साहेब भी कम "जरदगव'' नहीं हैं। कुसहा कांड में केंद्रीय भूमिका निभाने के बावजूद उनका एक रोआं तक कोई नहीं उखाड़ पाया था। उनका कहना है कि तटबंध की सुरक्षा सामग्री के लिए जो टेंडर हुआ है, वह त्रुटिपूर्ण है। हमने जानना चाहा कि आखिर माजरा क्या है, तो पता चला कि सब "कमीशन'' का खेला है। ऊपर वाले अधिकारी नीचे वाले को बाइपास करके सामग्री खरीदना चाह रहे हैं, लेकिन नीचे वाले को यह कतई मंजूर नहीं। भले ही इस बीच कोशी कई कुसहा की पृष्ठभूमि ही न क्यों तैयार कर दे, लेकिन वे ऐसे टेंडरों को कभी पूरे नहीं होने देंगे जो उनसे उनकी बैली आमदनी का हक मार ले।
इसलिए एक बार फिर मुझे "सुशासन बाबू'' के वादे याद आ रहे हैं। उन्होंने बाढ़ के नाम पर लूट मचाने की संस्कृति को खत्म करने के लिए ही कुसहा हादसा के बाद पटना उच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त जज न्यायमूर्ति राजेश बालिया के नेतृत्व में कोसी जांच आयोग (कोशी इनक्वायरी कमीशन) का गठन किया था। तब मेरे जैसे लोगों ने राहत की सांस ली थी। हमें उम्मीद थी कि दोषियों को सजा मिलेगी। लाखों लोगों को जल-कीड़ा बनने के लिए मजबूर कर देने वाले "जरदगवों'' को सजा मिलेगी। लेकिन हम इंतजार करके थक गये, आयोग की जांच पूरी नहीं हुई। सरकार के अधिकतर मंत्री को तो अब याद भी नहीं है कि ऐसा कोई आयोग अस्तित्व में है। याद दिलाने पर वे इस सवाल को ऐसे लेते हैं मानो हमने उनसे सहरसा-फारबिसगंज लोकल ट्रेन की समय-सारणी पूछ ली हो।
लेकिन व्यतिरेक देखिये, इलाके में जबर्दस्त प्रचार हो रहा है। लोकल मीडिया में हर दिन खबरें आती हैं कि सरकार तटबंध की सुरक्षा के लिए पूरी तरह मुस्तैद है। सचिवालय से लेकर जिला मुख्यालय तक मोर्चा संभाल लिया है। कोशी में किसी तरह की अनहोनी नहीं होने दी जायेगी। इसलिए, जनता निश्चंत है। गुमराह होना उनकी नियति है। यह सिलसिला हमेशा जारी रहता है। तटबंध टूटने से पहले भी और टूटने के बाद भी जनता सच नहीं जान पाती।  

गुरुवार, 2 जून 2011

शुरू हो गयी कोशी की तलवारबाजी

       प्रकाशपुर में पूर्वी तटबंध को निगलने की कोशिश में कोशी

दहाये हुए देस का दर्द- 74 
लाख जतन कर लें, धरती को आसमान और गगन को धरा कर लें या फिर पैसे को पानी और पानी को पैसा बना दें; अब कोशी को  ज्यादा  समय  तक  नियंत्रण में रखना लगभग नामुमकिन है। अभी मानसून आया भी नहीं और कोशी ने तांडव नृत्य शुरू कर दिया है। सूचना है कि नेपाल में प्रकाशपुर (यह सप्तकोशी टापू के पास है, जहां से नदी पहाड़ से मैदान में दाखिल होती है) के पास कोशी ने स्परों को काटना चालू कर दिया है। पूर्वी तटबंध के डाउन स्ट्रीम में 25.57 से 26.40 आरडी के बीच नदी पिछले चार-पांच दिनों से भारी कटाव कर रही है। विरॉटनगर नेपाल से मिली सूचना के मुताबिक, प्रकाशपुर में नदी की धारा और पूर्वी तटबंध के बीच महज 25 मीटर की दूरी रह गयी है। स्पर को बचाने के लिए चार दिन पहले कुछ जाली-क्रेट आदि लगाये गये थे, जिन्हें नदी ने बहा-दहा दिया। स्थानीय लोगों का कहना है कि स्पर और तटबंध को बचाने के प्रयास लगातार विफल हो रहे हैं। यही हाल भीमनगर बराज के बाद अपस्ट्रीम में भी दिख रहा है, जहां नदी लगातार पूर्वी तटबंध की ओर खिसकती चली जा रही है। आश्चर्य की बात यह कि ऐसी स्थिति जून के पहले सप्ताह में है, जब नदी में पानी की मात्रा सामान्य से भी कम है। "कुसहा हादसा' से पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था कि नदी ने मानसून से पहले ही तांडब शुरू कर दी हो। डरावना सवाल यह है कि जुलाई और अगस्त में जब नदी सबाब पर होगी, तो क्या होगा ? इस बात की कल्पना करके ही कलेजा मुंह में आ जाता है।

दरअसल, 2008 के कुसहा कटान के बाद कोशी का रूख पूरी तरह बदल गया है और तब से नदी संकेत दे रही है कि वह अब पूरब की ओर बहना चाहती है। कुसहा में तटबंध को मरम्मत करने के दौरान पायलट चैनल बनाकर इसे पूर्वी और पश्चिमी तटबंधों के मध्य में लाने की कोशिश की गयी थी, लेकिन एक ही साल में यह चैनल गाद से भरकर निष्क्रिय हो गया। वैकल्पिक पायलट चैनल का काम अभी तक पूरा नहीं हो सका है। अगर मानसून से पहले इसका निर्माण नहीं हुआ तो इस बार कोशी को रोकना लगभग नामुमकिन होगा।
पिछले दो साल में इस बात के तमाम संकेत मिले हैं कि भीमनगर बराज के उत्तर और पश्चिम की ओर डाउनस्ट्रीम में नदी का तल काफी ऊंचा हो गया है। इसके परिणामस्वरूप अब नदी की धारा प्रकाशपुर से ही पूरब की ओर बढ़ने की कोशिश कर रही है। गौरतलब है कि कुसहा का कटाव भी ऐसी ही परिस्थिति में हुआ था। इसके बावजूद सरकारें समझने के लिए तैयार नहीं हैं। सरकारें नदी को जबर्दस्ती तटबंधों के अंदर बहाना चाहती हैं। अचरज की बात यह है कि इसमें तीन सरकारें, मसलन बिहार सरकार, केंद्र सरकार और नेपाल सरकार शामिल है और तीनों की मति मारी चली गयी है। तो दुखड़ा किसे सुनाया जाये ? इसे सुनेगा कौन और समझेगा कौन ? अगर वे सुनते तो नदी में गाद की मात्रा इतनी असह्य स्थिति में नहीं पहुंच गयी होती। नहीं मालूम कि सरकारें क्या सोचती हैं, लेकिन इतना तय है कि आगामी चार महीने कोशी के पचास लाख लोगों के लिए कयामत के महीने होंगे, क्योंकि कोशी ने तलवार भांजना शुरू कर दिया है।

रविवार, 29 मई 2011

मन का हंस

 सामने तालाब पर
 भोरे-भोर आया था वह
 झलफल होने तक इंतजार करता रहा
 न जाने किसका
 न जाने क्यों
 शाम को जब वह उड़ गया अकेला
 मन मेरा फिर बैठ गया 
 
मैं जानता हूं
वह कल फिर उतरेगा
और कल भी शाम आयेगी
उड़ेगा हंस
तन्हा मैं हो जाऊंगा

शनिवार, 14 मई 2011

खेत को खाता खाद


दहाये हुए देस का दर्द-73 
जमीन का जन्म नहीं होता, लेकिन जमीन की मौत होती है। बिहार के कोशी अंचल में जब कोई जमीन बंजर हो जाती है तो किसान कहते हैं- जमीन मर गयी। जी हां, इस इलाके में बंजर जमीन को मरिया खेत कहते है। कोशी और उसकी सहायक नदियों की जहरीली रेत इस इलाके की जमीन को बंजर बनाती रही है। सन्‌ 2008 के कुसहा हादसा के बाद इलाके के हजारों एकड़ खेत रेत से भर गये थे, जहां अभी तक खेती शुरू नहीं हो सकी है। और अब एक अध्ययन में खुलासा हुआ है कि रासायनिक उर्वरकों के बेतहाशा इस्तेमाल के कारण इलाके की जमीन तेजी से बांझ हो रही है। कृषि वैज्ञानिकों के एक दल ने यह अध्ययन किया है। वैज्ञानिकों ने पाया है कि पिछले एक दशक में इलाके की जमीन में क्षारीयता यानी सैलिनिटी साढ़े तीन प्रतिशत ज्यादा हो गयी है। अगर यह सिलसिला यूं ही चलता रहा तो अगले पांच दशकों में इलाके की साठ फीसद उपजाऊ जमीन बंजर हो जायेगी। वैज्ञानिकों का मानना है कि इसकी मुख्य वजह रासायनिक उर्वरकों का अंधाधुंध इस्तेमाल तो है ही, साथ ही ॠतु चक्र में बदलाव, तापमान असंतुलन भी इसके लिए जिम्मेदार है।
सर्वेक्षण में बताया गया है कि कोशी अंचल की 38345 एकड़ जमीन अब तक बंजर हो चुकी है और 3879 एकड़ जमीन में क्षारयीता का प्रतिशत सात तक पहुंच चुका है। गौरतलब है कि जब जमीन में सैलिनिटी का लेवल साढ़े सात के आसपास हो जाता है, तो वह खेती योग्य नहीं रह जाती। ऐसी जमीन की पुंसकता खत्म हो जाती है और वह बीजों को न तो अंकुरित कर पाती है और न ही जड़ को पानी उपलब्ध करा पाती है।
पूसा कृषि विश्वविद्यालय के नेतृत्व में किये गये इस अनुसंधान में इलाके के आठ जिलों के 13756 स्थानों से मिट्टी के नमूने लिये गये थे। अनुसंधान में शामिल पूसा विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक जीपी. दत्ता का कहना है कि यह भयानक खतरे की घंटी है। बकौल दत्ता, 2002 में यहां की जमीन में क्षारीयता का लेवल औसतन साढ़े चार से पांच था, जो अब साढ़े छह से सात के बीच हो गया है। सबसे खतरनाक स्थिति पूर्णिया के बीकोठी ,रूपौली, मधेपुरा के कुमारखंड, ग्वालपाड़ा, सुपौल के निर्मली, राघोपुर, कटिहार के मनिहारी, बलरामपुर और अररिया के रानीगंज प्रखंड की है।
गौरतलब है कि खेतों में यूरिया के अलावा अन्य रासायनिक उर्वरकों के अनियंत्रित उपयोग के कारण जमीन में रसायनिक तत्वों की मात्रा बढ़ जाती है, क्योंकि फसल सारे तत्वों को अवशोषित नहीं कर पाती। इन्हें हटाने या निष्क्रिय करने की तकनीक किसानों के पास नहीं है। इसके परिणामस्वरूप खेतों में साल-दर-साल नाइट्रोजन,फास्पोरस जैसे रसायनिक तत्व जमा होते चले जाते हैं, जो जमीन की क्षारीयता को इतना बढ़ा देते हैं कि जमीन खेती लायक नहीं रह जाती। जल स्तर में गिरवाट भी इसके लिए जिम्मेदार है, क्योंकि जल स्तर जितना घटता जाता है भूमि की नमी भी उसी रफ्तार से घटती है। लेकिन अभी तक सरकार की ओर से इसे रोकने के लिए कोई उपाय नहीं किया गया है। इस समस्या से किसान अनभिज्ञ हैं। किसानों को जागरूक करने के लिए सरकार को अविलंब प्रयास करना चाहिए। वैसे भी कोशी के लोग प्रकृति के हाथों सदियों से प्रताड़ित होते रहे हैं। सरकारी उपेक्षा इलाके की नीयति है। जमीन यहां के लोगों की आजीविका का एक मात्र साधन है, अगर वह भी बंजर हो गयी तो इलाके के दो करोड़ लोग क्या कमायेंगे, क्या खायेंग और क्या लेकर परदेश जायेंगे ?

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

पंचायत चुनाव और पंचसहिया नोट

दहाये हुए देस का दर्द- 72

मिथक मशहूर है। किसी बड़े आयोजन या ब्याह-शादी के दिन अगर बूंदाबांदी हो, तो शुभ। बारिश हो , तो थोड़ा कम शुभ । लेकिनब्याह के दिन अगर मूसलाधार बारिश पड़ जाये, आंधी-तूफान आ जाये, तो अशुभ ही अशुभ। गांव के कनहा-कोतरा (महत्वहीन लोग) भी कहने लगते हैं- "अभागल के ब्याह हो रहा है। गाय-माल को ओस्थर (घास-भूषा) दे दो और खुद ओढ़ना ओढ़ के सो जाओ। "डाढ़ी खोक' के बरात जाओगे तो पछताओगे बाबू।'
बिहार के कोशी अंचल में आज भी ये सब देखने-सुनने को मिल जाते हैं। गनीमत है कि चुनावी-आयोजन पर ये सब टोना-टोटका लागू नहीं होता। कल और परसों कोशी में एक बार फिर आंधी आयी, मूसलाधार बारिश और आसमानी पत्थर ने गेहूं, मकई और केले की फसल को खेत में ही खेत कर दिया। करीब आठ लोगों के प्राण गये और दो दर्जन गंभीर रूप से घायल हुये। अगले दिन पंचायतों के "नव-अंग्रेज बहादुरों' के निर्वाचन के लिए प्रथम चरण के मतदान हुए। रिपोर्ट है कि किशनगंज में रिकॉर्डतोड़ 75 प्रतिशत मतदान हुआ। सुपौल, मधेपुरा, अररिया और सहरसा में भी मतदान केंद्रों पर मतदाताओं की भारी भीड़ थी। हालिया विधानसभा चुनाव की तरह पंचायत चुनाव में भी स्त्रीगण पुरुषगण पर भारी रहीं। हर केंद्रों पर औरतों की कतार पुरुषों से लंबी थी।
"काहे को ? पुरुष कहां गये ?'
 जी, उ सब परदेस में हैं। कोई पंजाब में, कोई लुधियाना में, काेई हरियाणा, सूरत और कश्मीर में है। कोई-कोई दुबई और कतर में भी है। इसलिए नजर नहीं आ रहे। पर ई मत समझिये कि मतदान में उनको कोई दिलचस्पी नहीं है। पहर-दुपहर में घरवाली के मुबाइल पर फोन आते रहता है।
"ताकिद पर ताकिद हो रही है। पूबरिया टोल के गणपत जादव को भोट नहीं देना है। भोट, दछिनवरिया टोला के लखना महतो को ही देना है। पर भोट देने के लिए घर से तभी बहराना जब टका खुईचा (आंचल) में आ जाये। टका नहीं दे, तो किसी बभना (ब्राह्मण) को ही भोट दे देना। बभना जीतेगा तो नहिंये, तब लखनमा सरवा भी नहिंये जीतेगा। हमर भोट कोनों फोकट में आया है। पांच सवांग हैं, पांच ठो पंचसहिया (पांच सौ) के नोट लेंगे, तभिये ठप्पा मारेंगे।'
"हे जी, गाम में हल्ला है कि सबसे ज्यादा टका उतरवरिया टोल के पुरना मुखिया (पूर्व मुखिया) दुरजोधन जादव बांट रहा है? '
"भक, बोंगमरनी ! ऊ सार बेईमान है। याद नहीं है कि पिछला बेर सबको नेपाली फर्जी नोट बांटकर मुखिया बन गिया था। मुखियागरी करके खाकपति से लाखपति बन गिया। चाइर-चक्की पर चढ़ने लगा है। आउर हम एक ठो इंनिरा आवास मांगने गिये, तो बोला- पांच हजार खरचा लगेगा। उ सार को भोट नहीं देना है।'
"ठीक है, रात में फेर फोन कीजियेगा। अभी दरवाजे पर सब महाजन (उम्मीदवार) बैठा हुआ है। सब काउलैत (गिड़गिड़ा) कर रहा है। भोट हमको ही दीजिए, जोगबनी वाली! भूवन दास तंे संबंधों फरिया रहा है। कह रहा हमर पित्ती (चाचा) और तोहर बाप  बाउन (दोस्त)थे। हम तें तोहर सवांग जैसन हैं।'
"छोड़-छोड़। ई सब भोट के रिश्ता है। जीतेगा तें मुंह दिस नहीं ताकेगा। हं ! टका सहेजकर रखना। जनमअठमी (जन्मअष्टमी) के मेला में सब टिकली-फूल में फूक नहीं देना। हम आवेंगे, तो सब हिसाब लेंगे।'
जी हां। चाहे जितना शोर मचा लीजिए। सत्ता विकेंद्रीकरण, महिला सशक्तिकरण का फाग गा लीजिए। पंचायती संस्था और  पंचायत चुनाव की यही हकीकत है। अन्यथा कोई कारण नहीं था कि सबसे निचले स्तर के चुनाव में कोशी के लोग, कोशी की समस्या की बात नहीं करते। कुछ दिन पहले जब मैंने गांवों में मुखिया, जिला परिषद और पंचायत समिति के उम्मीदवारों को पूछा कि क्या वे चुनाव में कोशी नदी की समस्या को उठा रहे हैं, तो वे भौंचक्क रह गये। जब मैंने बताया कि पंचायत चुनाव ग्रास रूट लेवल की राजनीति है, अगर वहां जमीनी समस्याएं नहीं उठेंगी, तो फिर कहां उठेंगी ? तो अधिकतर ने जो जवाब दिया उसका आशय था कि यहां लोग अपने निजी तात्कालिक हित के हिसाब से सोचते हैं। प्रत्याशी यह सोचकर चुनाव लड़ते हैं कि जीतने के बाद उनका बैंक बैलेंस और रूतबा दोनों बढ़ जायेगा। मतदाता यह देखते हैं िक कौन-से उम्मीदवार उन्हें प्रति वोट सबसे ज्यादा रकम दे सकता है और जीतने के बाद ज्यादा-से-ज्यादा सरकारी मुफ्तखोरी करवा सकता है।
यही कारण था कि भीषण आंधी-तूफान के दिन भी मतदान केंद्रों पर मतदाताओं की भारी भीड़ थी। खेतों में  मकई, गेहूं और केले की बबार्दी साफ दिख रही है। पर उधर किसी का ध्यान नहीं । एक बूढ़े व्यक्ति से जब मैंने सवाल किया, तो उसका जवाब था, "टका लिये हैं भोट तो देना ही होगा ! भोट नहीं देंगे, तो मुआवजा से भी वंचित कर देगा।'
बहरहाल,सचिवालय का बुलेटिन कुछ और है, जिसे संक्षेप में कुछ इस तरह बयां किया जा सकता है- "बिहार में पंचायती राज का तीसरा महापर्व चल रहा है। चुनाव शांतिपूर्ण माहौल में हो रहा है। बिहार की महिलाएं अब बहुत जागरूक हो गयी हैं। मतदान में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हैं। यह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है।'

रविवार, 17 अप्रैल 2011

समय का सर्कस

टी-शर्ट के आगे
विज्ञापन के पीछे
इंडिया लिख देने से,
सीट पर कुत्ता
डिग्गी में तिरंगा
और इंडिया गेट पर बनभोजी हल्ला से
देश कहां बनता है,
बल्ला "भगवान'' का ही सही
अन्न नहीं उपजाता है
चूंकि हमारे समय में
हंसना-गाना, खेलना-कूदना भी प्रोडक्ट है
इसलिए जहां होना था देश
वहां क्रिकेट है।

बाढ़ आयेगी, भसियाकर चली जायेगी
जीर्ण-शीर्ण जानों को समेटकर सुखाढ़ भी जायेगा
बाकी का काम
बीमारी और महंगाई कर देगी
जंगल में बंदूक
खेतों में खुदकुशी की फसल लहलहाती रहेगी
बच्चे भूख से बिलबिलाएंगे
मां, स्कोर पूछेंगी
क्रिकेट चलता रहेगा...
शाश्वत सच की तरह
पछवा हवा
नकली दवा की तरह,
क्रिकेट चलेगा
तो, बलात्कार की खबरें बंद रहेंगी
और
प्रलय की ओर बढ़ती धरती
फिर से जी उठेगी
एक जोरदार छक्का लगेगा
और
एक संझा चूल्हा, दोनों टाइम जलने लगेगा,

यह उनका दौर है
उन्हीं का मैनेजमेंट
उनकी ही व्याख्या
उनकी ही लूट
और उनकी ही लड़ाई है
वे मुदई
और मुदालय भी हैं
अपना ही आरोप
अपनी ही सुनवाई
उन्हीं का मुकदमा
उन्हीं की गवाही होगी
जिनकी नजरों में
आदमी सिर्फ आबादी है
सवा सौ करोड़ लोग
एक समय वोट, बाकी समय बोट है
और जनता !
हां जनता। आखिरी झूठ है।

यहां, हर कोई गूंगा है
जो बयान दे सकता है
वही वक्ता है
वो भूख के जुर्म में
खेत पर मुकदमा चला सकता है
लूट को
राजनीतिक जरूरत बता सकता है
सेंध-सने हाथ से
नक्कासी
खून-रंगे जीभ से
मल्हार गा सकता है
"मलखा भौंचक्क है ''
नहीं, यह सर्कस नहीं है

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

मोहाली की मदहोशी


निश्चित ही वह एक मतवाली रात थी। एक अखिल भारतीय मदहोशी की रात थी वह
भारत के अब तक के ज्ञात इतिहास में शायद ऐसा पहले कभी नहीं हुआ होगा, जब गुवाहाटी से गुजरात तक और चौराहे से चौपाल तक के लोगों ने एक साथ पटाखे छोड़े हों, क्योंकि दीपावली भी हर राज्य में नहीं मनायी जाती। एसएमएस से बधाई संदेश भेजने वाले मित्रों से मैंने जानना चाहा कि अगर यह जीत किसी अन्य देशों के खिलाफ मिली होती, तो भी क्या हम इतने ही खुश होते ! लगभग एक सूर में सभी ने कहा- नहीं। खुशी की मुख्य वजह भारत की जीत नहीं, बल्कि पाकिस्तान की हार है। मैंने पूछा कि अगर मैं कहूं कि यह पाकिस्तान नहीं पाकिस्तानी क्रिकेट टीम की हार है, तो आप क्या कहेंगे ? उन्होंने कहा- कुछ भी हो हमने पाकिस्तान को हरा दिया है। यानी क्रिकेट यहां सिर्फ साधन था, साध्य तो श्रेष्ठता की पदवी हासिल करना है। शिक्के को उलटकर देखने से भी यही पहलू सामने आता है। पाकिस्तान से आने वाली खबरें बताती हैं कि 30 तारीख की रात पाकिस्तानियों के लिए कयामत की रात थी। जाने कितने पाकिस्तानियों ने टेलीविजन सेट तोड़ दिये। आत्महत्या की भी कुछ खबरें आयी हैं। पाकिस्तानी अवाम मायूसी के समंदर में डूब गये, मानो किसी ने उनकी अस्मिता लूट ली हो या उनसे कोई ऐतिहासिक पाप हो गया हो।
हालांकि यह सौ प्रतिशत सच है कि क्रिकेट के दम पर आज तक तो दुनिया में कोई श्रेष्ठ हुआ है और ही कभी
होगा। दशकों तक क्रिकेट के बादशाह कहलाने वाले कैरीबियन देशों की गिनती आज भी दलित-देशों के रूप में होती है। लगातार तीन बार विश्व कप जीतने के बावजूद ऑस्ट्रेलिया को कोई भद्र-देश नहीं कहता। बहुतेरे लोग इस द्वीप को आज भी चोरों-ठगों-अपराधियों के संतानों का देश भी कह डालते हैं।
बार-बार मन में यह सवाल कौंधता है कि आखिर जिस जीत से एक भी आम लोगों का भला नहीं हो सकता, उस पर
दिलो-जान लूटाने के क्या कारण हो सकते हैं? विशुद्ध कमोडिटी और व्यावसायिक उपक्रम हो चुके क्रिकेट को आखिर सवा सौ करोड़ की आबादी, राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक कैसे मान सकती है? जबकि सबको मालूम है कि देश भ्रष्टाचार और अन्याय की पराकाष्ठा पर जा पहुंचा है। करोड़ों लोग आज भी जीवन की बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। ऊंचे बैठे लोगों के लिए राष्ट्रीयता महज एक प्रपंच है। विदेशी बैंकों में जमा अकूत काला धन इसका प्रमाण है। फिर भी हम क्रिकेट के जरिये सर्वश्रेष्ठ कहलाना चाहते हैं। कहीं यह अपनी असफलता का कूंठा तो नहीं ? तस्कीम के 63 वर्ष बाद भी अगर भारत और पाकिस्तान के लोग, एक-दूसरे से नफरत करते हैं, तो मतलब साफ है कि दोनों देश मानवीय विकास के मोर्चे पर पूरी तरह नाकाम है। घृणा का स्थायीपन, अशिक्षा और अंधेपन का प्रतीक ही नहीं, बल्कि असभ्यता की भी निशानी है। एक स्वस्थ्य और संजीदा इंसान लंबे समय तक किसी से घृणा नहीं कर सकता और प्रेम की अनुपस्थिति गैर-इंसानियत की ही निशानी है। लेकिन विडंबना यह कि भारत और पाकिस्तान दोनों मुल्कों में यह प्रवृत्ति हावी है। इसे खत्म करने के लिए बड़ा दिल चाहिए।

गुरुवार, 24 मार्च 2011

पिता नहीं पतियायेंगे

पिता नहीं पतियायेंगे
दादा पीठ पर खडांव तोड़ देंगे, शायद
दादा को हक है
जिसे पिता ने निभाया है
गोकि मिर्जे वाले दादा पुस्तैनी पंच थे, गांव के
विनोबा से होती थी उनकी चिट्ठी-पतरी
इसलिए पिता
अंग्रेजों के विश्वविद्यालय में अंग्रेजी पढ़कर
ठेठ मैथिली में जीये
जंगल में रहे, जनतंत्र के लिए जीये

पिता, कैसे पतियायेंगे
कि मैं 2011 के सड़ांध में हूं
और 1947 में जो एक नदी फूटी थी दिल्ली से
वह आज बिल्ली से जा मिली है

मुश्किल है
पिता को समझाना
सत्रह साल 'शहर' में रहकर
ईमानदार को नमस्कार करना
गुणी-गरीब को भी आदर देना
और भ्रष्ट को दुत्कार कर भगा देना
(जो पिता के लिए बहुत आसान था)
पिता, हमें माफ करना

गुरुवार, 17 मार्च 2011

हिरोशिमा से फुकूशिमा


जब मारकर ससरा था
तब हिरोशिमा था
अब खाकर पसरा है
अब फुकूशिमा है

यूरेनियम अमेरिकी
एटम अमेरिकी
बम भी अमेरिकी था
बस, विकिरण जापानी है

मंगलवार, 8 मार्च 2011

उठता हुआ शोर


पुष्पराज

चर्चित पुस्तक "नंदीग्राम डायरी'' के युवा लेखक पुष्पराज लेखन के साथ-साथ सामाजिक मुद्दों पर लगातार सक्रिय हैं। प्रस्तुत रचना बेहाल अवाम की बेचैनी को शब्द दे रही है, यह अलग बात है कि सत्तानशीनों को अब भी कुछ सुनाई नहीं दे रहा। बकौल पुष्पराज," भारत के गांवों से हजारों युवा सत्ता छोड़ ,सत्ता छोड़, सत्ता छोड़ ,सत्ता छोड़ ...... का शोर करते हुए लाल किला की प्राचीर से किसी को खीच कर समंदर में फेंकने के लिए आगे निकाल चुके हैं। ग्रामेर मानुषके ग्राम-गर्भ से यह स्वर उभर रहा है साथी ...''


सत्ता छोड़, सत्ता छोड़, सत्ता छोड़, सत्ता छोड़ ...

महंगाई जी सत्ता छोड़, जम्हाई जी सत्ता छोड़
बतपुतली जी सत्ता छोड़, कठपुतली जी सत्ता छोड़
सत्ता छोड़, सत्ता छोड़, सत्ता छोड़, सत्ता छोड़ ...
लोभन सिंह जी सत्ता छोड़, प्रलोभन सिंह जी सत्ता छोड़
भदमोहन सिंह सत्ता छोड़, पदमोहन सिंह सत्ता छोड़
सत्ता छोड़, सत्ता छोड़, सत्ता छोड़, सत्ता छोड़ ...
कठमोहन सिंह सत्ता छोड़, भट्ठमोहन सिंह सत्ता छोड़
ठगमोहन सिंह सत्ता छोड़, हठमोहन सिंह सत्ता छोड़
सत्ता छोड़, सत्ता छोड़, सत्ता छोड़, सत्ता छोड़ ...


मंगलवार, 1 मार्च 2011

फैज साहेब आपने ठीक कहा था- तख्त गिर रहे हैं, ताज भी उछल रहे हैं और हम देख भी पा रहे हैं। जय हो क्रांति कवि ! जन्मशती पर बार-बार नमन।

हम देखेंगे

जब जुल्मो-सितम के कोहे-गरां
...रूई की तरह उड़ जाएंगे
हम महकूमों के पांव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहले-हिकम के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी

जब अर्ज़े-खुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएंगे
हम अहले-सफा मर्दूदे-हरम
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख्त गिराए जाएंगे

बस नाम रहेग अल्लाह का
जो गायब भी है, हाज़िर भी
जो मंज़र भी है, नाज़िर भी
उठ्ठेगा अनलहक़ का नारा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
और राज़ करेगी खल्क़े-खुदा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो

शब्दार्थः
अहले-सफा pure people; अनलहक़ I am Truth, I am God. Sufi Mansoor was hanged for saying it; अज़ल eternity, beginning (opp abad); खल्क़ the people, mankind, creation; लौह a tablet, a board, a plank; महकूम a subject, a subordinate; मंज़र spectacle, a scene, a view; मर्दूद rejected, excluded, abandoned, outcast; नाज़िर spectator, reader

गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

इस बसंत के बाद

चार कट्ठे का वह पीला खेत
सरसों के कुछेक पौधे
अब तक संभाल रखे हैं
बचे-खुचे बसंत को

इस बसंत में
शायद आधे हो गये हैं चाक
आधा कुम्हार
कोने में सिमट चुका है बीधहों में फैला खमहार
मेमनों की बेधड़क हलाली के बाद
शराफत लगभग समाप्त हो चली है

अकेला कवि
आधा कुम्हार
चार कट्टे का खेत
छोटे-छोटे मेमने
आखिर कब तक बचा पायेंगे
समूचे गांव का पूरा बसंत

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

यह ओलावृष्टि नहीं, गोलावृष्टि है


दहाये हुए देस का दर्द-71
इंटरगवर्मेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज यानी आइपीसीसी ने पिछले साल अपनी एक रिपोर्ट में बहुत बड़ी बात कही थी। उसने कहा था कि जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों का पहाड़ सबसे ज्यादा उनके ऊपर टूटेगा, जिनका पर्यावरण को बिगाड़ने में सबसे कम योगदान है। वैसे आइपीसीसी का यह सचोद्‌घाटन रइसों को रास नहीं आयी थी। इसके बाद अमीरों ने वही किया जैसा वे ऐसे मामलों में हमेशा से करते आ रहे हैं। इससे पहले कि गरीबों के हक में कहा गया यह दूरगामी सच आम लोगों तक तक पहुंच पाता, अमीरों ने घिनौनी चाल चल दी। उन्होंने आइपीसीसी की विश्वसनीयता पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया। अमीर देशों के अगुवा और विश्व के स्वयं-भू नेता अमेरिका और उसके पिछलग्गुओं ने आइपीसीसी को ही कटघरे में खड़ा कर दिया। उनका षड्‌यंत्र रंग लाया जिसके परिणामस्वरूप दुनिया के बहुसंख्यक गरीबों के भविष्य को बचाने का एक प्रयास, सतह पर आने से पहले ही ओझल हो गया। लेकिन हाल के कुछ प्राकृतिक आपदाओं ने आइपीसीसी की रिपोर्ट पर अपनी मुहर जरूर लगा दी है।
कल पूर्वोत्तर बिहार के कोशी अंचल में बिन मौसम भारी ओलावृष्टि हुई। जी नहीं, इसे गोलावृष्टि कहना मुनासिब होगा, क्योंकि ओलों के वजन पांच से दस किलो तक थे। सूचना है कि आसमान से गोले की शक्ल में बरसे ओले ने एक दर्जन लोगों को मौके पर ही खेत कर दिया और करीब चार दर्जन लोगों को मरनासन्न अवस्था में पहुंचा दिया। सैकड़ों घर टूटे और भारी संख्या में मवेशियों के मरने और बड़ी मात्रा में रबी फसलों की तबाही की भी सूचना है। टीन की छत(कोशी इलाके में टीन की छत वाले घर काफी प्रचलित हैं) चलनी में बदल गये। उनमें बड़े-बड़े छेद हो गये। फूस से बने गरीबों के घर तो इन गोलों को दस मिनट भी बर्दाश्त नहीं कर सके।
इन दिनों गेहूं और अन्य शीतकालीन फसलों की सिंचाई-निराई चल रही है, सो किसान अपने-अपने खेतों में थे। शाम का समय था। पहले आसमान का रंग बदला। फिर पश्चिम की ओर से आये बादलों ने इलाके को घेर लिया और मूसलाधार बारिश होने लगी। यहां तक सब कुछ ठीक था, किसानों ने सोचा कि चलो पटवन के डीजल-पेट्रोल से कुछ राहत मिली। वे आसमान के खौफनाक इरादों से पूरी तरह अनभिज्ञ थे। उन्हें कहां मालूम था कि चंद ही मिनटों के बाद आसमान, बर्फ बरसाने वाले तोप में बदल जायेगा। बर्फों के गोले बरसने लगे, जो भाग सके वे बच गये। बांकी या तो अस्पताल या अश्मशान घाट पहुंच गये। किशनगंज में दो बच्चों समेत सुपौल और पूर्णिया में एक-एक महिला और मधेपुरा और अररिया में चार लोगों की मौत की पुष्टि हो चुकी है। घायलों के बारे में ठोस सूचना प्रशासन के पास नहीं है, लेकिन स्थानीय लोगों का कहना है कि हर गांव को डॉक्टरी मदद की जरूरत है। लगभग हर गांव में दस-बीस लोग घायल हैं।
जी हां, यह जलवायु परिवर्तन का ही दुष्परिणाम है। लेकिन इसमें कोशी इलाके के लोगों का कोई योगदान नहीं। कार्बनडाइआक्साइड उत्सर्जन के मामले में यह इलाका दुनिया में सबसे न्यूनतम पायदान पर है। लेकिन जब पर्यावरण बिगड़ेगा, तो भौगोलिक सीमाओं का ख्याल नहीं करेगा। आइपीसीसी ने भी अपनी रिपोर्ट में यही बात कही थी। उसने कहा था कि पर्यावरण के मामले में करेगा कोई और भरेगा कोई और। आइपीसीसी ने कहा था कि अमीर मुल्क और अमीर लोग पैसे और संसाधन के बल पर पर्यावरण असंतुलन से होने वाले आपदाओं से बहुत हद तक बच जायेंगे, लेकिन गरीब मरने के लिए बाध्य होगा। कल की ओलावारी इसी का एक छोटा उदाहरण है।

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

मेरी पसंद : महान कप्तानों की महान पारियां

आज तक ताज़ा , वे १६ चौके और छक्का: जिम्बाबे के विरुद्ध कपिल का नवाद १७५
सौरव की आतिशबाजी : श्रीलंका के खिलाफ १८३ रनों की अद्भुत कप्तानी पारी


इन दिनों क्रिकेट विश्व कप की ऐतिहासिक पारियों की खूब चर्चा हो रही है। इनमें ऐतिहासिक कप्तानी पारी भी शामिल की जा रही है। दो भारतीय कप्तानों की दो ऐतिहासिक पारी मुझे भी याद आ रही है। सन्‌ 1983 के विश्व कप में कपिल द्वारा विपरीत परिस्थिति में जिम्बाब्बे के खिलाफ खेली गयी 175 रन की नाबाद पारी मेरी पहली पसंद है। दूसरी पसंद है- सौरव गांगुली की सिक्सरमय 183। यह अलग बात है कि सौरव के साथ-साथ उनकी इस सनसनाती पारी को भी लगभग भूला दिया गया है। सन्‌ 2003 के विश्व कप में सौरव ने यह लाजवाब पारी खेली थी। दोनों ही बार भारत को जीत मिली और दोनों बार भारतीय टीम फाइनल तक पहुंचने में कामयाब रही। वैसे कपिल और गांगुली के अलावा भी देश में कई नामचीन कप्तान हुये, लेकिन उनके बल्ले से ऐसी पारी कभी नहीं निकल सकी।

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

बाजार के हवाले खेत, भूख के हवाले पेट

सभी संकेत यही बता रहे हैं कि देश की कृषि तेजी से कॉरपोरेट हाथों में जा रही है। इससे जहां एक ओर बेरोजगारीबढ़ेगी तो वहीं दूसरी ओर खाद्यान की आत्मनिर्भरता भी गंभीर संकट में फंस जायेगी , लेकिन अपनी नीतियों के हाथ की कठपुतली हो चुकी सरकार को ये खतरे समझ में नहीं रहे हैं कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा ने नई दुनिया में इस विषय पर एक गंभीर आलेख लिखा है। आप भी खेत और खलिहानों पर मंडराते बाजार के इस मकड़जाल को समझने की कोशिश कीजिये,ताकि समय रहते हम जाग जायें। रंजीत

देवेंद्र शर्मा

इक्कीसवीं स
दी का पहला दशक इतिहास में थोड़ा धुंधला सा गया है। समय की सुई एक बार फिर वापस घुम रही है अंतर्राष्ट्रीय खाद्य मूल्य एक बार फिर अपने चरम पर है और वैश्विक मूल्य सारे रिकार्ड तोड़ते हुए एक बार फिर उसी स्तर पर पहुंच गये हैं जो वर्ष 2008 में थे। अगला दशक भी संभवत: ऐसा ही होगा।
जनवरी के प्रथम साप्ताह में अल्जीरिया पहले ही खाद्य पदार्थों को लेकर दंगे से गुजर चुका है। उधर संयुक्त राष्ट्र को डर सता रहा है कि 2011 में कहीं 2008 जैसी स्थिति फिर से न आ जाये, जब दुनिया के 37 देशों ने भूख के लिए दंगों का सामना किया था। मुझे डर है कि कहीं अगले दशक में भारत सहित विकासशील देशों के अन्य गुटों को खाद्य पदार्थ आयात न करना पड़े। भारत में कृषि के क्षेत्र में तेजी से बढ़ती कार्पोरेट संस्कृति और पानी, जंगल व कृषि भूमियों के निजीकरण देश को एक बार फिर तेजी से गुलामी के पुराने दिनों में पहुंचा रही है। देश को अपने लाखों भूखे पेटों को भरने के लिए खाद्य पदार्थ का आयात करना पड़ रहा है। नीति निर्माता और योजना बनाने वाले इस दिशा में काफी काम कर रहे हैं कि किसान अपनी खेती की जमीन को छोड़कर शहरों की ओर पलायन कर जायें।
उत्तरप्रदेश का उदाहरण लें। यह देश का सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला प्रदेश है और साथ ही यह देश का सबसे ज्यादा आनाज उत्पादन करने वाला भी प्रदेश है। उत्तर प्रदेश का पश्चिमी भाग जिसमें गंगा से लगे मैदानी इलाकों की उपजाऊ जमीन भी शामिल है, हरित क्रांति का बेल्ट कहलाता है। यहां हर साल 410 लाख टन अनाज पैदा होता है। इसके अलावा यह प्रदेश 1.30 करोड़ टन गन्ना तथा 1.05 करोड़ टन आलू का भी उत्पादन करता है।
लेकिन यह सब जल्द ही बदलने की संभावना है और इसी बात का मुझे डर सता रहा है। इस रूट पर आठ हाईवे और टाउनशिप प्रस्तावित हैं। साथ ही उद्योग, रियल एस्टेट व इन्वेस्टमेंट प्रोजेक्ट के लिए अधिकांश जमीनों पर कब्जा होने लगा है। इसके दायरे में 23 हजार गांव आ रहे हैं। एक मोटे आंकड़े के अनुसार 66 लाख हेक्टेयर कृषि की जमीन पर खतरा पर मंडरा रहा है। इसका सीधा असर 140 लाख टन अनाज के पैदावार पर पड़ेगा। दूसरे शब्दों में कहे हैं तो उत्तरप्रदेश आने वाले सालों में अनाज की भीषण कमी से जूझेगा। उत्तरप्रदेश की यह कहानी दरअसल पूरे देश की है।
भारत में हरित क्रांति के दौरान कृषि में जो विकास हुआ था उसका सबसे बड़ा नुकसान पर्यावरण को उठाना पड़ा, क्योंकि इस दौरान रासायनिक खाद्य का बेतरतीब तरीके से उपयोग किया गया। वैज्ञानिक शब्दावली में इसे दूसरी पीढ़ी का पर्यावरणीय प्रभाव माना गया । कृषि वैज्ञानिकों की नजर में यह क्रांति प्राकृतिक संसाधन के लिए नुकसानदेह थी।
टेक्नोलॉजी के विफल होने का संयुक्त प्रभाव कृषि उपज पर पड़ा और इसमें भारी गिरावट देखी गई। सन्‌ 1990 के बाद से भारत में कृषि की पैदावार में लगातार गिरावट बनी हुई है। हरित क्रांति के बाद पहली बार ऐसा हुआ कि कृषि की विकास दर जनसंख्या वृद्धि दर से प्रभावित हुई। उसके बाद इसमें कोई बड़ा बदलाव नहीं देखा गया। यह प्रक्रिया कई सारी सामाजिक-आर्थिक समस्याएं भी लेकर आई। हरित क्रांति टेक्नोलॉजी की विफलता भी किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या की एक बड़ी वजह बनी।
पर इनसे भी भारत ने कुछ नहीं सीखा। भारत वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ कृषि के क्षेत्र में ज्यादा कुछ नहीं कर सका। भारत ने आयात दर कम कर दी या फिर हटा ही दी। यह विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) को खुश करने से ज्यादा कुछ नहीं था। सबसे ज्यादा चिंता की बात क्या है ? कृषि में लगातार आ रही गिरावट से कुछ नहीं सीखना या फिर यूपीए सरकार द्वारा दूसरी हरित क्रांति को फास्ट ट्रैक पर लाने की तैयारी करना जो किसानों को खेती से दूर करने का काम कर रही है।
किसानों को कृषि से पूरी तरह अलग रखने की तैयारी की जा रही है। अर्थशास्त्रियों के अनुसार विकास के लिए इससे अलग कोई दूसरा रास्ता नहीं है। लेकिन कोई यह नहीं बता रहा कि आखिर ये किसान जाएंगे कहां ? अमेरिका सहित ऐसा कौन सा देश है जो आज 10 मिलियन लोगों को रोजगार देने की स्थिति में है ? कौन- सी कंपनी या उद्योग एक मिलियन लोगों को आज रोजगार देने का वायदा करने की स्थिति में है ?
भूमि किराया नीतियों जिन्होंने भूमि अधिग्रहण, विशेष आर्थिक क्षेत्रों आदि को बढ़ावा दिया है और साथ ही कृषि के बढ़ती कारपोरेट संस्कृति जिसकी वजह से बढ़ती हुई कांटेक्ट फार्मिंग और कमोडिटी ट्रेडिंग है, की वजह से भारत दूसरी हरित क्रांति की स्थिति में प्रवेश कर रहा है जो कि अंतत: कृषि से किसानों को बाहर फेंक देगी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी समय-समय पर ग्रामीण इलाकों से शहरों की ओर जनसंख्या के स्थानांतरण की जरूरत पर बल दिया है।
अगले दशक में हम देखेंगे की कृषि पूरी तरह से कारपोरेट के चंगुल में आ गई है। बीज तकनीक वाली कंपनियों के साथ ही कुछ प्रमुख बड़ी कंपनियां भारत में अपनी दुकानें खोलने जा रही हैं। यह एक तरह से रिटेल के क्षेत्र में मल्टी ब्रांड बन चुकी है। हाल ही में जो कीमतों में वृद्धि हुई है वे भारत में बड़े रिटेल बाजार के प्रवेश को साफ दर्शा रही है।
अब जबकि खाद्य पदार्थों का आयात बढ़ता जा रहा है और कृषि क्षेत्र से किसान बाहर होते जा रहे हैं, भारत बहुत तेजी से उस स्थिति की ओर बढ़ रहा है जहां से उसने शुरूआत की थी। पिछले साठ वर्षों में देश ने उन नीतियों को उलट दिया है जो खाद्य के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की ओर ले गई थी। अगले दशक में आर्थिक वृद्धि के नाम पर खाद्य आत्मनिर्भरता की बलि दी जा सकती है।
कृषि की आधारभूत संरचना को जानबूझकर पहुँचाई गई क्षति के परिणामस्वरूप सामने आई सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिक स्थितियों को समझना अत्यंत ही मुश्किल है।

(देवेंद्र शर्मा कृषि मामलों के विशेषज्ञ हैं। आलेख नई दुनिया से साभार)