शनिवार, 6 दिसंबर 2008

एहसानफरामोशी नहीं तो क्या ?

यह सुनकर शर्म आती है। मन व्यथित हो रहा है। चुल्लू भर पानी में डूबने का जी करता है। आखिर हम इतने एहसानफरामोश कैसे हो गये ? कि सप्ताह भर पहले जिसे हम पलकों पर बैठाये थे आज उनकी सुध लेने तक की हमें फुर्सत नहीं। जी हां, मैं कैप्टन एके सिंह की बात कर रहा हूं। मुंबई पर आतंकी हमलों में घायल हुआ राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड एनएसजी का जांबाज कमांडो पिछले कई दिनों से अस्पताल में पड़ा है। लेकिन, उसकी सुध लेने वाला कोई नहीं। कैप्टन एके सिंह 27 नवंबर को ओबेराय-ट्राइडेंट होटल में आतंकियों से लोहा लेने गये थे। उन्हें भनक लगी कि 18वीं मंजिल के एक कमरे में आतंकी मौजूद हैं। एनएसजी कमांडो ने कमरे के दरवाजे को विस्फोट से उड़ा दिया। लेकिन, कैप्टन सिंह कमरे के भीतर घुसकर कार्रवाई करने ही वाले थे कि आतंकियों ने उन पर हथगोला फेंक दिया। कैप्टन सिंह उस धमाके की जद में आ गये। उनके शरीर में अनगिनत छर्रे लगे और वह बेहोश हो गये। उन्हें बांबे हास्पिटल ले जाया गया, जहां उनके शरीर में धंसे छर्रे, तो निकाल दिए गये, लेकिन उनकी बायीं आंख में लगा एक छर्रा नहीं निकाला जा सका।
मुंबई में आपरेशन खत्म होने के बाद एनएसजी टीम हर्षोल्लास दिल्ली लौट आयी। लेकिन खबर है कि अस्पताल में भर्ती कैप्टन सिंह की आंख से अब भी खून बह रहा है। उनकी आंख इस कदर चोटिल हुई है कि अब उसके ठीक होने की संभावना कम ही है। कैप्टन सिंह अपना बेहतर इलाज कराना चाहते हैं और सेहतमंद होकर फिर सेना को अपनी सेवाएं देने के इच्छुक हैं। उनके माता-पिता को सूझ नहीं रहा कि वे करें तो क्या करें? कैप्टन व उनके परिवार को तसल्ली देने के लिए एनएसजी का कोई अधिकारी उनके पास मौजूद नहीं है। वह सेना की जिस बटालियन से एनएसजी में आए थे उसके कमांडिंग अफसर ने भी अभी तक उनसे मुलाकात करना जरूरी नहीं समझा। कैप्टन सिंह के एक करीबी ने एक पत्रकार को बताया है कि जब इस मामले को सेना के एक शीर्ष अधिकारी के संज्ञान में लाया गया, तो उन्होंने कुछ मदद करने के बजाए हिदायतें जारी कर दीं कि वह मीडिया को कोई इंटरव्यू न दें।
हाय रे देश ! हाय रे सरकार ! हाय रे समाज ! एक पल में हीरो बनाते हो दूसरे पल ही आंखें फेर लेते हो! यह अवसरवादिता नहीं, एहसानफरामोशी है। कोई हमारे लिए जान की बाजी लगाता है और हम उनका इलाज तक नहीं करा सकते। यह तो भारत का परम्परागत चरित्र नहीं था ! वीर पूजकों यह देश ऐसा कैसे हो गया ? कुछ भी समझ में नहीं आता ...
मुक्तिबोध बाबू! आपने ठीक कहा था- लिया बहुत ज्यादा, दिया बहुत कम / मर गया देश बचे गये तुम

6 टिप्‍पणियां:

mehek ने कहा…

ye bahut hi sharmanaak baat hai,ke bade pad par jo shahid huye unke liye dheron ruiye aur jo chote pad par rehkar sachhijung ladhe unhe aaj koi na puche,haira hai ke nsg ke log bhi nahi puchte apne jawan ko,sena to achhi hospital seva deti hai suna tha.wo ek jawan militri man hai iska usse garv hoga magar aie nikkame logo ke iye (hum bhi) apni ankh gawayi aaj usse afsos ho raha hoga.kaah hum kuch kar pate?

Arun Arora ने कहा…

भाई हम भारतीय है चाहे गरियाना हो या फ़िर धन्यवाद देना . हम अगले दिन कुछ याद नही रखते .अब अगली बार कोई हमला होगा तभी नेता भाषण देकर और हम मोम बत्तिया जलाकर अपनी जिम्मेदारी कैमरे के सामने पूरी कर देगे .
अब हम अपना रोजमर्रा का काम देखे या इनको देखे ? जो पुलिस वाले अपनी ड्यूटी छोडकर अपने घायल पुलिसिया दोस्त को देखने जा रहे थे . हमने तो उन्हे भी शहीद के बराबर इज्जत दी . आप हमारे से और ज्यादा उम्मीद मर रखे

आपका एक पक्का भारतीय बंदा

सागर नाहर ने कहा…

लगा था महीने दो महीने बाद इस तरह के समाचार सुनने को मिलेंगे, पर इतने जल्दी इसकी आशा नहीं थी।
अहसानफरोशी में हम भारतीयों का कोई सानी नहीं।

mala ने कहा…

अत्यन्त गंभीर विचार और सुंदर प्रस्तुतीकरण , अच्छा लगा !

रंजीत/ Ranjit ने कहा…

bhai Mehak,pangewazaur Sagar achhee khabar hai ki sarkar aur militry dono ne Capt.Singh ke ilaz ko lekar idhar gambhirta dikhaee hai. ham log dua karen.
Bahan mala, Tarif ke liye dhanyawad.

aabhar sahit
Ranjit

Shastri JC Philip ने कहा…

"जब इस मामले को सेना के एक शीर्ष अधिकारी के संज्ञान में लाया गया, तो उन्होंने कुछ मदद करने के बजाए हिदायतें जारी कर दीं कि वह मीडिया को कोई इंटरव्यू न दें।"

हमारी अवस्था अब ऐसी हो गई है कि नायकों के बदले खलनायकों को अधिक आदर मिलता है.

आलेख के लिये आभार !!

-- शास्त्री

-- हर वैचारिक क्राति की नीव है लेखन, विचारों का आदानप्रदान, एवं सोचने के लिये प्रोत्साहन. हिन्दीजगत में एक सकारात्मक वैचारिक क्राति की जरूरत है.

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