मंगलवार, 30 दिसंबर 2008

ओ नव वर्ष, ओ नौ वर्ष !

ओ नव वर्ष, ओ नौ वर्ष !
दे नव हर्ष, दे नव विमर्श

खेत को नव खाद दे, अन्न को नव स्वाद
मेहनत को मान दो, खलिहान को अनाज
मंदिर दो, तो पूजा भी दो
दिल दो ऐसा जिसमें दूजा भी हो
नभ को सीमा दो, वन को विस्तार
आंखों को कल्पना दो , प्यार को संसार
ओ नव वर्ष, ओ नौ वर्ष !
दे नव हर्ष, दे नव विमर्श

नदी में जल हो, जल में हो जीवन
पर्वत में प्राण हो, आंगन में बचपन
धन को धैर्य दो, लोभ को लगाम
दारिद्रय के जंगल से निकले हर इंसान

ओ नव वर्ष, ओ नौ वर्ष !
दे नव हर्ष, दे नव विमर्श

रविवार, 28 दिसंबर 2008

नेपाल में मीडिया संकट जारी


कांतिपुर पब्लिकेशन ग्रुप के समाचार पत्रों में तालेबंदी और पत्रकारों पर बढ़ते हमले के खिलाफ नेपाल में मीडियाकर्मियों का आंदोलन राष्ट्रीय स्तर पर पहुंच गया है। राजधानी काठमांडू समेत अन्य शहरों और कस्बों में मीडियाकर्मी आंदोलन कर रहे हैं। लेकिन सरकार की उदासीनता में कोई कमी नहीं आयी है। यह बहुत निराशाजनक है।

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008

भारत के लिए एक ग्रीटिंग

जब 365 बार पूर्वी क्षितिज का ललाट लालिमय होता है, तो कहीं पूरा होता है एक साल। एक वर्ष की अवधि छोटी नहीं होती; मानव जीवन को सार्थक करने के लिए; निर्दिष्ट या अनिर्दिष्ट पथों पर एक दूरी तक पहुंच जाने के लिए; निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचने के लिए । शायद यही वजह है कि लोग हर वर्ष के अंतिम दिनों में नये साल के प्रथम उषाकाल का आह्वान करते हैं। एक-दूसरे के शुभ की कामना के साथ नवप्रभात का स्वागत करते हैं। शुभ की यह कामना भांती-भांती माध्यमों से प्रकट होती है। कोई गुलदस्ता भेजकर अपने भावों को प्रकट करता है, तो कोई ग्रीटिंग कार्ड भेजकर । अब तो एसएमएस से भी नववर्ष की नवभावना भेजने और प्राप्त करने का दौर आ गया है। ये सभ्य होती सभ्यता का सामान्य व्यवहार है जो ज्यातादर निज- संबंधों के प्रति समर्पित रहता है। लेकिन क्या एक ग्रीटिंग ऐसा नहीं बनाया जा सकता, जिसमें समूचे समाज को संबोधित किया जा सके, जिसमें देश के प्रति हृदयाशीष हो सके, वृहत सामुदायिक सरोकारों का संदेश हो। एक्टिविस्ट पिनाकी राय के दिमाग में भी शायद यही सवाल उठा होगा। इसलिए उन्होंने फैसला किया कि वह हर वर्ष ऐसे ग्रीटिंग कार्ड बनायेंगे, जो देश और समाज को समर्पित किया जा सके ; जो व्यक्ति-से-व्यक्ति की छोटी संबंध-वृत्त को लांघकर देश-काल-पात्र के विरॉट वृत्त को परिलक्षित करे। और पिनाकी अपने इस प्रयास में काफी हद तक सफल हैं। उनके बनाये ग्रीटिंग कार्ड में भारत के लिए दुआ है। देश के उन तमाम उद्यमों, कौशल और संसाधनों के प्रति शुभाकांक्षा है, जो शस्य श्यामलाम्‌ एवं शुभलाम्‌ सुजलाम्‌ भारत की तस्वीर गढ़ती है। पिनाकी देश-काल-पात्र की उन छोटी-छोटी बातों को, प्रवृत्तियों को भी अपने ग्रीटिंग थीम में उतारते हैं, जिनकी हम अक्सर अनदेखी कर जाते हैं। मसलन देश में किसान आत्महत्या की घटना उन्हें दुखी करती है और वह इसे गिरते-बढ़ते सेंसेक्स के साथ खड़ा करते हैं। ताकि बढ़ते-घटते सेंसेक्स के नशेमन में हम अपनी असफलता को भूल न बैठें। पिनाकी के ग्रीटिंग में गांव की याद दिलायी गयी है, जिसे विस्मृत करने की एक फितरत-सी हो चली है। पिनाकी सम्यक विकास की याद दिलाते हैं और विकास के साथ पारिस्थितिकी के संतुलन की आवश्यकता को भी चिह्नित करते हैं। इसके लिए संसाधनों के यथोचित प्रयोग को वह अपने कार्ड में रेखांकित करते हैं। उनके कार्ड में सामाजिक सौहार्द का संदेश भी है।
यह भारत को भेजा गया एक बेहतरीन ग्रीटिंग कार्ड है और मैं खुद को धन्य मानता हूं कि शांति निकेतन से शिक्षित व दीक्षित पिनाकी ने मुझे यह कार्ड प्रेषित किया। पिनाकी के रचनात्मक कौशल का मैं कायल हूं और मुझे विश्वास है कि वह शांति निकेतन के रचनात्मक परंपरा को बहुत आगे तक ले जायेंगे। मुझे उनके द्वारा बनाये गये वर्ष 2008 के कार्ड का भी इंतजार रहेगा, क्योंकि यह देखना लाजिमी होगा कि 2008 को पिनाकी कैसे सम-अप करते हैं और 2009 के लिए क्या संदेश छोड़ते हैं।

गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

अभूतपूर्व संकट में नेपाली मीडिया



कहने के लिए तो नेपाल में लोकशाही है, लेकिन उसके सारे लक्षण तानाशाही के हैं।हालांकि यह बात और है कि ये लक्षण नेपाल से बाहर नहीं आ रहे हैं। जबसे नेपाल में नई सरकार का गठन हुआ है तब से वहां मीडिया , न्यायापालिका और प्रशासनिक तंत्रों पर हमले बढ़ गये हैं। पिछले तीन महीने में दो दर्जन पत्रकारों पर हमला हुआ है। चार पत्रकारों की हत्या हुई है और यह एक सिलसिला-सा बन गया है। तीन महीने पहले एक क्षेत्रीय अखबार को माओवादी कार्यकर्ताओं ने जबर्दस्ती बंद करवा दिया था। चार माह पहले बीरगंज में एक पत्रकार की हत्या कर दी गयी। दो सप्ताह पहले राजधानी काठमांडू में हिमाल पब्लिकेशन ग्रुप के एक पत्रकार की हत्या की गयी। और हद तो 25 दिसंबर को गयी जब विरॉटनगर में नेपाल के सबसे बड़े प्रकाशन समूह, कांतिपुर ग्रुप के सभी प्रकाशनों को जबरन बंद करवा दिया गया। नेपाली पत्रकारों का कहना है कि यह अभूतपूर्व अराजकता है। ऐसी स्थिति तो निरंकुश राजतांत्रिक शासन व्यवस्था में भी नहीं हुई थी। वे लोग कांतिपुर पब्लिकेशन ग्रुप के किसी पत्रिका और अखबारों को बिकने नहीं दे रहे। सभी दुकानदार, एजेंट्‌स, हॉकरों को अखबार-पत्रिका आदि बेचने से मना कर दिया गया है, जो इस फरमान को नहीं मान रहे उन्हें मौत के घाट उतार दिया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि खुद देश के प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड ने चार महीने पहले एक आम सभा में मीडिया को धमकी दी थी और कहा था कि सरकार बनने के बाद सबको सबक सिखाया जायेगा। एक सप्ताह पलहे ही उन्होंने एक आम सभा में माओ के बयान को दुहराया- सत्ता बंदूक के नाल से निकलती है। जबकि नेपाली पत्रकारों का कहना है कि माओवादी लड़ाके पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। जिलों और कस्बों में उनकी ही सरकार चल रही है। वे जहां मन करे वहां हथियारों के साथ सभा एवं प्रशिक्षण शिविर चला रहे हैं। अब जब अखबारों का प्रकाशन जबरन बंद हो रहा है, तो पुलिस मूक दर्शक बनकर सबकुछ देख रही है। इससे साफ है कि नेपाल की सर्वोच्च शक्ति ही मीडिया के मूंह पर टेप चिपकाने के लिए आमदा है। पता नहीं नेपाल किस ओर जा रहा ? भारत सरकार को इस पर गंभीरता से विचार करनी चाहिए।

बुधवार, 24 दिसंबर 2008

साधारण डब्बे की असाधारण बात (अंतिम)

दहाये हुए देस का दर्द -26
2001 की बात है। तब बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में छात्र-छात्राओं के बीच विश्वविद्यालय की एक खबर की बड़ी चर्चा चल रही थी। विश्वविद्यालय के हर कैफे व कैंटीन में छात्र-छात्राओं के बीच वह खबर महीनों तक मनोरंजन का विषय बनी रही थी। दरअसल , उन दिनों विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के एक छात्र ने खैनी और रचनाधर्म विषय पर डॉक्टरेट के लिए अर्जी दी थी और उसका कहना था कि यह अनुसंधान का विषय है। छात्र समुदाय के बीच खबर थी कि उसने हिन्दी के कुछ चोटी के साहित्यकारों की बकायदा सूची तक जमा की थी और उसका तर्क था कि इस सूची के साहित्यकारों की अमर रचना में खैनी का बहुत बड़ा योगदान था।
लेकिन उस वृद्ध की खैनी का असर था या फिर कोशी के विनाश-नाटक का हैंग ओवर ; मैं विचारों के समुद्र में डूबता चला गया। इस बीच गाड़ी कहां रूकी और किस वक्ता ने क्या कहा; मुझे कुछ सुनाई नहीं दिया। मैं तो बचपन के एक देहाती नाटक, सती बिहला के दृश्यों में खोया हुआ था, जिसे स्थानीय लोग नाच कहते हैं। पता नहीं इस नाटक की पटकथा किसने लिखी, लेकिन जिसने भी लिखी होगी वह युगदृष्टा रचनाकार रहे होंगे। नाटक के एक दृश्य में नायिका अपने पति की प्राण के लिए यमराज के सामने नाना प्रकार की अग्नि परीक्षा देती है, जिसमें एक परीक्षा है सुई की नोंक पर चलने का। सुई की नोंक पर उतरना भी उसे मंजूर है, लेकिन यमराज उसे बहकाता है। होनी और होतब , विधि और विधान, करम की गति आदि के बारे में समझाता है। कहता है- विधना के विधान को मत बदलो। लेकिन नायिका के लिए पति के प्राण से बड़ा कुछ नहीं। कोई विधि नहीं, कोई गति नहीं ! पति ही नहीं रहेंगे, तो वह क्यों ? किस लिए और किसके सहारे जियेंगी। वह यमराज से तर्क करती है- मेरे गांव को देखो महाराज! कोशी नदी की प्रचंडता को देखो, आखिर कोई महिला ऐसे बीहड़ गांवों में पति के बिना जिंदा रह सकती है। हर वर्ष नये घर के लिए फूस, मिट्टी, बांस-बल्ली, डोरी-काठी इकट्‌ठे करने पड़ते हैं। कोशी हर साल बहा ले जाती है घरों को, मवेशियों को, खेत और खलिहानों को... अकेली मैं कैसे लड़ पाऊंगी , मुझे तो डोरी कातना भी नहीं आता , मिट्टी की टोकरी उठा सकती हूं, लेकिन कुदाली कोई स्त्री कैसे चलाये ? ??
मंच पर कलरव होता है। ढोल-नगाड़े बंद हो जाते हैं। दर्शक दीर्घा में सन्नाटा छा जाता है। स्त्रियों की आंखें भर रही हैं। साड़ी के आंचल भींग रहे हैं । सती बिहला सुई की नोंक पर उतर आती हैं... पार्श्व गान उभरता है- हमरो के घरवा जे देखियो, अहि साल बहि गेले, गैया -महिंसियो बहले आब घरवाला चलि जेते ते हो महाराज... जेजेजेतेतेते होओओओ मअहअहाराअजजज...
एक जोरदार कोलाहल से मेरी तंद्रा भंग हो गयी। गाड़ी सुपौल स्टेशन पर आ लगी थी। डब्बे में कई नये चेहरे दिखने लगे थे कुछ देखे हुए चेहरे उतर चुके थे। खैनी वाले वृद्ध ने कहा- जिनगी में बहुत कुछ देखे, लेकिन एैसा भीषण पानी कभी नहीं देखे थे। मैंने पूछा आपके गांव में भी पानी पहुंचा था क्या ?
पहुंचा था कोनो ऐसन-वैसन ? सांझ के बेर (वक्त) था। लोटा लेकर मैदान की ओर जा रहा था। आंख के सामने करीब आध कोस सामने में लगा जैसे काश का फूल पाट गिया है। उजरे-उजर (उजला ही उजला)। लोगों से पूछने लगे कि ऊ का है ? सबने कहा बोचहा धार (एक छोटी नदी) में पानी बढ़ गया है उसी का पलारी (अतिरिक्त) फेंका है। लेकिन रात तक हमारे टोला में सबके घर में पानी पहुंच गया था। जिसको जैसे हुआ भागा। अब के बचा और के मरा, किसी को कुछ नहीं पता।
बातों का सिलसिला फिर चालू हो गया था। नहीं पढ़े लिखे वाले युवक ने कहा- ई सरकार के बारे में एक ठो बात हम बतायें ? कहते हैं न कि जाने ढोड़िया के मंतर नै आर गेहुमन से खेलावाड़, वही बात है। नीतीश कुमार कहता है फिर से इलाका को बसायेंगे। अरे क्या खाक बसायेंगे? पहले भूखल-भागल और भासल के पेट में दाना तो पहुंचाओ। इतना सुनना था कि थोड़ा पढ़ा लिखा वाला युवक ने राजद नेताओं की पोल खोलनी शुरू कर दी। दोनों लड़कियां सबकी बात सुन रही थीं, लेकिन किसी की बात पर उनके सिर नहीं हिलते थे। उसकी दादी ने साड़ी के एक कोने में बंधी पांच रुपये का एक मुड़ा-तुड़ा नोट निकालकर थोड़ी मूड़ही खरीदी। दादी, पोती को खिलाने का प्रयास करती रही और पोतियां दादी को...खैनी वाले वृद्ध ने हस्तक्षेप किया- भूखे में गुल्लर मीठा ! खा ले बचिया ! हम बूढ़े लोगों की अंतड़ी बड़ी ठोस है, तुम लोग नया खून-पानी के हो, तुमसे भूख बर्दाश्त नहीं होगा ? (मैंने देखा कि लड़की के पिता की आंख पूरी तरह पनिया गयी )
इस दौरान गाड़ी पंचगछिया स्टेशन पार कर चुकी थी। रात के ग्यारह बज गये थे। गाड़ी में पुलिस के जवानों ने प्रयास किया। अगर और समय होता तो शायद वह बेटिकट और दैनिक मजदूरी करने वाले यात्रियों से वसूली करने में मशगूल हो जाते। लेकिन आज वे अपनी वीर गाथा सुनाने के मूड में थे। एक ने कहा- हम तो पंद्रह दिन में कम-से-कम पांच सौ लोगों को पानी से बाहर निकाला होगा। एक सब्जी वाली ने उसका जवाब दिया- ...और खूब लूटपाट भी किया ?
क्या बकती हो?
बकेंगे क्या, हमरे गांव में तो फी आदमी सौ-सौ टका तक लेते थे, पुलिस वाले, तब नाव में बैठने देते थे । नहीं देने वालों को चलती नाव से पानी में फेंक देने की धमकियो देते थे।
तू दी थी किसी को रुपया-पैसा ? और नहीं तो क्या, डेढ़ सौ टका था खूछ (साड़ी में बंधा) में , ऊ में से एक सौ टकही वाला नोट छीन लिया, उ पुलिसवन ! बेट खउकन !!
... मादर ... ! बड़ी हरामी रहा होगा। लेकिन सचे कहते हैं भाई साहेब, हम तो पंद्रह दिन से चौबीसो घंटे लोगों को बचाने में भीड़े हैं।
थोड़ा पढ़ा- लिखा वाला युवक ने जवाब दिया- नीतीश कुमार का स्पेशल आर्डर है। आप लोग ठीक से काम करिये। हम लोग सब देख रहे हैं। सबके बारे में खबर पहुंच रही है।
क्या खबर पहुंचाइयेगा। आप ही लोग तो लोगों को मरने के लिए छोड़ दिये हैं। पब्लिक के लिए नाव लेकर जाते हैं और नेता लोग उसे कब्जिया लेता है। कहता है, पहले मेरे लोगों को निकालो। हमारे जैसे छोटा आदमी क्या करेगा ???
गाड़ी सहरसा स्टेशन के काफी नजदीक पहुंच गयी थी। अचानक सारे बहस-विवाद बंद हो गये। लोग अपने-अपने बक्शे-बोरे को डब्बे के दरबाजे की ओर खींचने लगे थे।
आंधे घंटे के बाद जब सभी यात्री डब्बे से उतर चुके तो मैं भी उतर गया। प्लैटफार्म से एक नजर पूरी गाड़ी पर दौड़ायी। मुझे यह गाड़ी बड़ी उदास और मनहूस लगी। स्टेशन से बाहर निकलते समय ओवरब्रिज की ऊंचाई से पुनः गाड़ी की ओर देखा। एक बार, दो बार, तीन बार। चौथी बार देखने की हिम्मत नहीं हुई, क्योंकि मुझे यह गाड़ी अब बहुत भयावह लगने लगी थी। कोशी से भी ज्यादा भयावह।


सोमवार, 22 दिसंबर 2008

बादल को घिरते देखा है / नागार्जुन

आज से 17 वर्ष पहले आज ही के दिन बाबा नागार्जुन से मिलने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उन दिनों बाबा बीमार रहा करते थे और आगंतुकों से कुछ ऐसे मिलते थे मानो उन्हें वर्षों से पहचानते हों। ईमानदारी से कहूं तो तब बाबा से मिलकर मैंने कोई रोमांच महसूस नहीं किया था। क्योंकि बाबा न तो कपिलदेव थे और न ही फिल्मीस्तान के कोई अभिनेता या अभिनेत्री। साहित्यकार तब मेरे लिए रोमांच के दुनिया के लोग नहीं हुआ करते थे। वैसे भी उनकी बात मेरी समझ में नहीं आयी थी। वास्तव में मैं तो अपने एक मित्र का महज संगी बनकर उनके पास पहुंचा था, इस मुलाकात से मेरा कोई लेना-देना नहीं था। बाबा से पते की बात तो उस मित्र ही ने की थी, जो उनके दूर का रिश्तेदार थाऔर जो पता नहीं आज कहां और कैसे है ? लेकिन 17 वर्ष पहले मैं नित डायरी लिखता था, जिसमें मैंने बाबा से मुलाकत की बात लिखी है। मुझे विश्वास नहीं हो रहा है कि 17 वर्ष पहले मैंने ही लिखा था - दिलीप झा के साथ मिश्राटोला मोहल्ला (दरभंगा) गया। वहां वैद्यनाथ मिश्र यात्री उर्फ नागार्जुन से मिला। उन्होंने मुझसे मेरा नाम और वर्ग (किस वर्ग में पढ़ते हो ?) पूछा। मुझे उनकी कोई बात समझ में नहीं आयी। दिलीप के कारण आज शाम मैं क्रिकेट नहीं खेल रहा।
लेकिन आज बाबा की कविताओं को पढ़ता हूं, तो मन कहता है काश 17 वर्ष पहले मुझे मालूम होता कि कोई व्यक्ति कवि कैसे बन जाता है। कितनी पीड़ाओं और व्यथा से गुजरता है इंसान एक कविता को लिखने से पहले !
बादल को घिरते देखा है / नागार्जुन
अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है।
छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों ले आ-आकर
पावस की उमस से आकुल
तिक्त-मधुर बिसतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद-मंद था अनिल बह रहा
बालारुण की मृदु किरणें थीं
अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-अलग रहकर ही जिनको
सारी रात बितानी होती,
निशा-काल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें
उस महान् सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
दुर्गम बर्फानी घाटी में
शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर
अलख नाभि से उठने वाले
निज के ही उन्मादक परिमल-
के पीछे धावित हो-होकर
तरल-तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
कहॉं गय धनपति कुबेर वह
कहॉं गई उसकी वह अलका
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योम-प्रवाही गंगाजल का,
ढूँढ़ा बहुत किन्तु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
जाने दो वह कवि-कल्पित था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर,
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
शत-शत निर्झर-निर्झरणी कल
मुखरित देवदारु कनन में,
शोणित धवल भोज पत्रों से
छाई हुई कुटी के भीतर,
रंग-बिरंगे और सुगंधित
फूलों की कुंतल को साजे,
इंद्रनील की माला डाले
शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,
कानों में कुवलय लटकाए,
शतदल लाल कमल वेणी में,
रजत-रचित मणि खचित कलामय
पान पात्र द्राक्षासव पूरित
रखे सामने अपने-अपने
लोहित चंदन की त्रिपटी पर,
नरम निदाग बाल कस्तूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मदिरारुण आखों वाले उन
उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
मृदुल मनोरम अँगुलियों को
वंशी पर फिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।


बुधवार, 17 दिसंबर 2008

विलियम ब्लेक की कालजयी पेंटिंग

विलियम ब्लेक पेंटिंग की दुनिया का एक अमर नाम है। गत दिनों उनकी कुछ कालजयी पेंटिंग को लंदन में दोबारा प्रदर्शित किया गया। 1809 में प्रदर्शित ब्लेक की तीन पेटिंग्स को आपके सामने रख रहा हूं। (तीनों पेंटिंग्स ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कारपोरेशन से साभार है)





हस्ती वापसी की हसरत

ताकत खोने का ग़म क्या होता है यह कोई रूस से पूछे। चार दशक तक दुनिया की महाशक्ति कहलाने वाला रूस पिछले लगभग सोलह वर्षों से इस ग़म को ढो रहा है। लेकिन एक बार फिर वह अपनी बिखरी हुई शक्ति को समेटने में लग गया है। रूस ने अपने पुराने पड़े हथियारों की जंग छुड़ाना शुरू कर दिया है। सुसुप्तावस्था में पड़ी रूस की सामरिक नीतियां पुनः सक्रिय होती दिख रही हैं। जैसे-जैसे उसकी अर्थ-व्यवस्था पटरी पर आ रही है वैसे-वैसे उसके हौसले बुलंद हो रहे हैं। पिछले दो वर्षों में रूस ने जिस बेफिक्री के साथ अपनी सामरिक नीतियों में बदलाव किया है उससे साफ जाहिर हो रहा है कि रूसी नेताओं को अब एक ध्रुवीय अमेरिकानीत दुनिया कबूल नहीं ।
इन्हीं वज़हों से र्स्टाट-1, स्टार्ट-2 (स्ट्रेटजिक आर्म्स रिडक्शन ट्रीटि) और आइएनएफ ट्रीटि (इंटरमीडिएट रेंज न्यूक्लियर फोर्सेस ट्रीटि-1987) जैसे समझौते में रूस की कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं रह गयी है। जबकि सोवियत संघ के पतनोपरान्त स्थगित हुए हथियार परीक्षण कार्यक्रम को उसने तेज़ी से अमलीजामा पहनाना शुरू कर दिया है। इसके कारण संयुक्त राज्य अमेरिका और नाटो (नॉर्थ एटलांटिक ट्रीटि ऑरगेनाइजेशन) के कान खड़े हो गये हैं। पश्चिमी मीडिया ने तो लिखना शुरू कर दिया है कि रूस ने शीत युद्ध-2 की शुरूआत कर दी है। वैसे इस बार रूस के मुकाबले नाटो के देशों को खड़ा किया जा रहा है। पिछले दिनों यह चर्चा और तेज़ हो गयी जब रूस का एक टोही विमान इंग्लैंड की हवाई सीमा में प्रवेश कर गया। इसके अलावा ईरान मसले पर रूस ने जब अमेरिका का साथ देने से साफ इनकार कर दिया तो अमेरिकी मीडिया ने लिखा कि रूस दूसरे शीत युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार कर रहा है। इस चर्चा में तब और गर्माहट आ गयी जब अमेरिकी मीडिया में ही ख़बर आयी कि रूस यामताउ पर्वत श्रृंखला में अवस्थित दो रहस्यमय भूमिगत शहरों में हथियारों का जखीरा जमा कर रहा है। अमेरिकी मीडिया ने रूस के एक बर्खास्त केजीबी अधिकारी के हवाले से कहा कि इन भूमिगत शहरों में नाभिकीय हथियारों को प्रतिस्थापित किया जा रहा है। ख़बरों में यह भी कहा गया कि इन दोनों शहरों के कायाकल्प के लिए रूस ने पच्चीस हजार मजदूरों को काम पर लगा रखा है। उल्लेखनीय है कि शीत युद्ध के जवाने से ही यामताउ पर्वत श्रृंखला के अंदर बने इन तथाकथित भूमिगत शहरों का जिक्र हो रहा है। लेकिन तमाम बहस और कयास के बावजूद आजतक इन शहरों की असलियत दुनिया के सामने नहीं आ पायी । सोवियत संघ या रूस ने कभी भी इस आरोप का कोई खंडन नहीं किया कि उसने नाभिकीय हथियारों के सुरक्षित इस्तेमाल के लिए भूमिगत शहर बना रखे हैं। रूसी सरकार ने उस आरोप पर भी कान नहीं दिया जिसमें कहा गया था कि रूसी राजनेताओं ने नाभिकीय युद्ध की स्थिति में ख़ुद को बचाने के लिए इन भूमिगत शहरों को तैयार किया है।
उल्लेखनीय है कि यामताउ पर्वत श्रृंखला के इन भूमिगत शहरों के बारे में तरह-तरह की किंवदंतियां मशहूर हैं। पश्चिमी मीडिया के अनुसार इन शहरों का क्षेत्रफल अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन डीसी के बराबर है। इनमें साठ हजार लोगों की ठहरने की व्यवस्था है। इस शहर के अंदर 3620 लाख टन अनाज-भंडारन की व्यवस्था है। इसके अलावा इस शहर में विभिन्न स्थानों पर आण्विक हथियारों के इस्तेमाल के लिए 200 न्यूक्लियर बेस भी हैं जहां से अंतरमहाद्वीपीय नाभिकीय मिसाइल छोड़े जा सकते हैंै। कहा जाता है कि 400 वर्गकिलोमीटर के दायरे में बनाये गये इन भूमिगत शहरों की वास्तु-तकनीक ऐसी है कि ये लगातार सात परमाणु बम की मार को झेल सकते हैं। पश्चिमी मीडिया के अनुसार 1970 के दशक में ब्रेझनेव के शासन काल में बने इन भूमिगत शहरों को सोवियत संघ के विघटन के बाद कुछ समय तक बंद कर दिया गया था। लेकिन पिछले वर्षों में रूस ने इसके पुनर्निमाण के लिए करोड़ों रुपये लगाये हैं। पश्चिमी मीडिया ने अमेरिकी खुफिया अधिकारियों के हवाले से लिखा है कि रूस ने विगत वर्षों में पुनर्निमाण की इस परियोजना पर छह अरब अमेरिकी डॉलर की राशि खर्च की है।
इन सबके इतर रूस ने बुलावा सबमैराइन मिसाइल (एसएलबीएम) का सफलतापूर्वक परीक्षण करके अमेरिका और अन्य पश्चिमों देशों की चिंता बढ़ा दी। विगत जून में किए गये इस परीक्षण पर रूसी नाव सेना के अधिकारी ने कहा कि यह उसके प्रस्तावित महा परीक्षण श्रृंखला की महज़ शुरूआत ही है तथा अभी विभिन्न प्रकार के और 14 परीक्षण होने हैं। मालूम हो कि इससे कुछ माह पहले ही रूसी नाव सेना ने यूरी डॉलगोरकी नामक मिसाइल का परीक्षण किया था। बोलावा मिसाइल के बारे में कहा जाता है कि यह नाभिकीय शक्ति से संपन्न है। इसके मुकाबले लायक मिसाइल सिर्फ अमेरिका के पास ही है। जब विदेशी पत्रकारों ऐसे परीक्षणों के औचित्य के बारे में जानना चाहा तो उन्हें बताया गया कि रूस अपनी सामरिक तैयारियों के लिए स्वतंत्र है। लगे हाथ कुछ रूसी रक्षा विशेषज्ञों ने पुतीन के उस बयान का उल्लेख कर डाला जिसमें पूर्व रूसी राष्ट्रपति ने अमेरिका पर आरोप लगाया था कि वह निरशस्त्रीकरण के प्रति गंभीर नहीं है।
इससे कुछ महीने पहले ही रसियन एकेडमी ऑफ मिलेट्री साइंस ने मिलिट्री डाक्टरीन -2000 पर पुनर्विचार के लिए एक सेमिनार का आयोजन किया था। इसमें रूस के रक्षा विशेषज्ञों, सैनिक अधिकारियों समेत कई मंत्रियों ने भी भागेदारी की । बैठक में तय किया गया कि रूस दुनिया के वर्तमान रणनीतिक समीकरण को देखते हुए अपने नाभिकीय कार्यक्रम को जारी रखे। बैठक में एकमत से फैसला लिया गया कि रूस अपनी नाभिकीय तकनीक और प्रौद्योगिकी को लगातार अद्यतन करता रहे। किसी भी स्थिति में रूस नाभिकीय कटौती न करे। यह देश और दुनिया की सुरक्षा के लिए आवश्यक है। रूसी सेना अध्यक्ष यूरी बेल्यूव्सकी ने कहा कि ऐसे तो दुनिया में अब राजनीतिक विचारों की टकराहट नहीं हो रही, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि दुनिया पूरी तरह से महफूज हो गयी है। उन्होंने कहा कि दुनिया में तनाव और टकराहट का माहौल है। अमेरिका अभी भी दुनिया को नाभिकीय हथियारों का भय दिखाता है। वह नाभिकीय हथियारों में कटौती के बारे में सोच भी नहीं रहा। ऐसे में रूस की सैनिक क्षमताओं में कटौती देश के लिए हितकारी नहीं है। बेल्यूव्सकी ने कहा कि रूस और अन्य देशों को अपनी सुरक्षा के लिए हमेशा तैयार रहने की ज़रूरत है। इसलिए मिलिट्री डाक्ट्रीन-2000 में सुधार की आवश्यकता है। उल्लेखनीय है कि कुछ वर्ष पूर्व रूसी राष्ट्रपति पुतीन ने इस योजना की घोषणा की थी, जिसके तहत रूसी सेना के पास मौजूद नाभिकीय हथियारों के में कटौती करने का प्रावधान किया गया था । हालांकि बैठक के निर्णय पर रूसी राष्ट्रपति की ओर से कोई बयान नहीं आया, लेकिन कहा जाता है कि मिलिट्री डॉक्ट्रीन-2000 पर पुनर्विचार से रूसी संसद ड्‌यूमा भी सहमत है।
उल्लेखनीय है कि मिलिट्री साइंस की इसी बैठक में एक रूसी रक्षा विशेषज्ञ ने अमेरिका और नाटो के ख़िलाफ जमकर शाब्दिक हमले किए। विशेषज्ञ ने कहा कि अमेरिका की मंशा है कि वह पूरी दुनिया को अपने इशारे पर नचाये। अमेरिका सोवियत संघ से अलग हुए देशों पर अपना नियंत्रण चाह रहा है । उसके इस नापाक इरादे में नाटो भी बराबर का साझीदार है। इसलिए हमें अपनी सुरक्षा व्यवस्था लगातार मजबूत रखने की आवश्यकता है।
पश्चिमी देशों के राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि रूस ़ज़्यादा दिनों तक खामोश नहीं रहेगा। जैसे ही उसकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होगी वह अपने पुराने गौरव को पाने का प्रयास शुरू कर देगा। इस वर्ष रूस ने तेल और प्रेट्रोलियम गैस के निर्यात से काफी धन कमाया है । उसके अन्य व्यापारिक प्रक्षेत्र भी मजबूत हो रहे हैं। इसलिए वह फिर से रक्षा बजट का आकार बढ़ाने में संलग्न हो गया है। लेकिन यह दुनिया के लिए कितना हितकर है, यह तय होना अभी शेष है।

सोमवार, 15 दिसंबर 2008

बेमिसाल/ आग में बाग

विश्व प्रसिद्ध लेखक पौलो कॉल्हो अपनी विख्यात पुस्तक द अलकेमिस्ट में एक जगह लिखते हैं- अगर इंसान की इच्छाशक्ति मजबूत हो, तो कोई कार्य असंभव नहीं होता। भूमिगत आग से बुरी तरह प्रभावित झारखंड के झरिया कोलियरी क्षेत्र के कुछ किसानों ने इस बात को चरितार्थ करके दिखाया है। उन्होंने भूमिगत आग से प्रभावित झारखंड की आग प्रभावित झरिया कोलियरियों के आसपास की जमीन पर बाग लगाकर बड़ा उदाहरण पेश किया है । सुलगती और फैलती हुई भूमिगत आग से बुरी तरह प्रभावित झरिया की जिस जमीन पर उतरने में चिड़ियां भी खौफ खाती हैं और जहां दूर-दूर तक धुआं और खानों के कचरे के सिवा कुछ भी नजर नहीं आता, वहां हरियाली और बागवानी की बात रेगिस्तान में नखलिस्तान जैसी ही है। लेकिन इन किसानों ने आग उगलती जमीन से सब्जी पैदाकर खनन वैज्ञानिकों को पुनर्विचार के लिए मजबूर किया है। ये किसान झरिया-भागा सड़क के किनारे आग प्रभावित जमीन से सटे भूखंडों पर पिछले तीन-चार वर्षों से साग-सब्जी, तो उगा ही रहे हैंसाथ ही साथ सालाना हजारों रुपये की कमाई भी कर रहे हैं।
इन किसानों ने खुद अपने बल पर ऐसी देसी तकनीकों का ईजाद किया है कि आग उनके उद्यान को छूती तक नहीं। इसके लिए उन्होंने न तो किसी प्रयोगशाला में प्रयोग किया है और न ही कोई वैज्ञानिक प्रशिक्षण लिया है। सारा कुछ व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर विकसित किया है। उन्होंने खेती वाले भूखंडों को बाहरी जमीनों से असंबद्ध कर दिया है ताकि ये आग से यह अछूता रहे। इसके लिए भूखंडों के चारों ओर एक आग-अवरोधक पतली और गहरी नाली (रिज) बनाकर उसे बालू से भर दिया गया है। नाली के ऊपरी हिस्से में हमेशा पानी भरा रहता है। यह नाली एक साथ दो काम करती है। यह एक ओर भूखंड में लगी फसलों की सिंचाई करती है, तो दूसरी ओर रिज की कुचालकता को बनाये रखती है। किसानों ने खेती के लिए ऐसे भूखंडों को ही चुना है जहां कोयले की उपलब्धता नगण्य हैं। इसका फायदा यह है कि आग की फैलने की सहज प्रवृति उस ओर नहीं हो पाती। खनन वैज्ञानिक टीएन सिंह कहते हैं ‘ ये कृषक भूमिगत आग के रग-रग से वाकिफ हैं। इन्हें पता है कि किस जमीन के नीचे कोयला है और कहां नहीं है। भू-धंसान वाले भूखंड में सामान्यता कोयला नहीं होता क्योंकि यहां के कोयला या तो जल चुके होते हैं या फिर निकाले जा चुके होते हैं। साथ ही साथ ऐसे भूखंडों के तल भी धंसे(अवतल) होते हैं। इस कारण यहां की जमीन में तुलनात्मकर रूप से ज्यादा नमी होती है क्योंकि बरसात में यहां पानी जमा होते रहता है।’
यही वजह है कि आज इस छोटे से इलाकों को लोगों ने सब्जी बगान का उपनाम दे दिया है। अदीप प्रसाद पिछले छह साल से यहां तीन कट्ठे के एक भूखंड पर साग-सब्जी उगा रहा है। वह कहता है, ‘ शुरू में लोग हम पर हंसते थे। कहते थे कि खेती का इतना शौक है तो गांव चले जाओ, आग पर क्या उगेगा। लेकिन आज हम इस जमीन से प्रतिमाह लगभग 3,000 से 4,000 रुपये की कमाई कर लेते हैं। सालों भर हमारा बगान हरा रहता है। गोबी और नेनुआ (शलजम) की पैदावर अच्छी होती है।’ अदीप झरिया के उन कुछ गिने-चुने लोगों में से है जिसकी गृहस्ती गैरकोल गतिविधियों से चल रही है। रवि सिंह भी एक ऐसा ही किसान है। ये चार-पांच कठ्ठा जमीन पर पिछले सात वर्षों से साग-सब्जी की खेती कर रहा है। 32 वर्षीय रवि इस व्यवसाय से सालाना 25 हजार से लेकर 30 हजार रुपये की कमाई कर लेता है। वह अपने बगान में परवल, मूली व गाजर समेत अन्य मौसमी सब्जी की खेती करता है। रिंकू साहू भी इस इलाके के पांच कट्ठे के एक भूखंड पर पिछले सात-आठ वर्षों से खेती कर रहा है। वह अपने बगान में मुख्यतः पालक, भिंडी, गोबी और मूली की खेती करता है। 27 वर्षीय रिंकू इससे सालाना 18 से 25 हजार की आमदनी कर लेता है। रिंकू कहता है ‘... तारीफ तो सभी करते हैं, लेकिन मदद कहीं से नहीं मिलता। अगर सिंचाई की समुचित व्यवस्था हो जाये तो हमें काफी सहूलियत होगी और पैदावार भी ज्यादा होगी।’ 30 वर्षीय सुनील बाउरी भी दो कट्ठे की जमीन पर पिछले छह वर्षों से साग-सब्जी उगा रहा है। बाउरी मुख्यतः पालक, टमाटर और मौसमी सब्जी की खेती करता है। उसे सब्जी बेचकर प्रति माह 4000 रुपये की कमाई हो जाती है। दिलचस्प बात यह है कि बाउरी जिस जमीन पर खेती कर रहे हैं वहां दो दशक पूर्व भयानक भू-धंसान हुआ था। उसके बाद जमीन का वह हिस्सा एक खड्ड में परिणत हो गया था। बाउरी ने काफी मेहनत से उस मिट्टी को उपजाऊ बनाया है। इससे थोड़ी ही दूरी पर 28 वर्षीय सुनील रवानी का सब्जी बगान है। रवानी के खेतों में भी हरियाली है। रवानी मुख्य रूप से साग की खेती करता है और सालाना 20 हजार रुपये तक की बचत कर लेता है।
लेकिन इसके बावजूद आजतक बीसीसीएल समेत किसी भी सरकारी या गैरसरकारी संस्था से इन्हें कोई मदद नहीं मिली है। स्थानीय पर्यावरणविदों का कहना है कि इनके कार्य काफी प्रशंसनीय हैं। इनके प्रयास से ही झरिया में दुर्लभ हो चुकी हरियाली का पुनर्दर्शन संभव हुआ है। साथ ही इससे झरिया के वातावरण में अत्यधिक मात्रा में मौजूद कार्बनडाइआक्साइड गैस में भी कमी आयेगी। इसलिए इन्हें बढ़ावा देने की जरूरत है।

शनिवार, 13 दिसंबर 2008

दो तस्वीर नेपाल की

( नेपाल के यान्सिला में हथियार प्रशिक्षण शिविर में जमा पी एल ऐ के लड़ाके : ये दोनों तस्वीर मेरे एक नेपाली पत्रकार मित्र ने भेजी है )


( नेपाल के सुनसरी जिला मुख्यालय में हथियार
प्रशिक्षण शिविर में जमा पी एल ऐ के महिला लड़ाके)
240 वर्षों की राजतांत्रिक बेड़ियों को तोड़कर प्रजातंत्र के पथ पर कदम रखने वाले नेपाल की स्थिति इन दिनों भुलाये हुए पथिक जैसे हो गयी है। ऐसा लगता है कि पूरा नेपाल लखनऊ की भूल-भूलैया हो गया है । नये संविधान के गठन के लिए निर्वाचित हुई संविधान सभा रास्ते से भटकती दिख रही है। सत्ताधारी नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी-माओवादी, संविधान निर्माण के गुरुत्वर दायित्व के ऊपर अपने लड़ाकों के सेना में सेट्लमेंट को ज्यादा तरजीह दे रही है। नेपाल स्थित मेरे कुछ पत्रकार मित्रों का कहना है कि प्रधानमंत्री प्रचंड को माओवादी लड़ाके यथा पीपुल्स लिबरेशन आर्मी व यंग कम्युनिस्ट लीग से सीधे धमकी मिल रही है कि अगर वह लिबरेशन आर्मी व कम्युनिस्ट लीग के लड़ाकों को सेना में शामिल नहीं करा सके तो उनके खिलाफ मौत का वारंट जारी कर दिया जायेगा। शायद यही कारण है कि कल ही प्रचंड ने काठमांडू में एक सभा में बोलते हुए कहा- बंदूक की नाल की प्रासंगिकता अभी खत्म नहीं हुई है। लेखकों द्वारा आयोजित इस सभा में प्रचंड यहीं नहीं रूके उन्होंने हिंसा को तंत्र निर्माण की अनिवार्य जरूरत तक करार दिया।
उधर कुछ दिनों से माओवादी लड़ाके एक बार पुनः कंधे पर बंदूकें टांगकर बस्ती-धौड़ा के चक्कर लगाने लगे हैं। नेपाल के कई जिलों में माओवादी हथियार बंद दस्तों का प्रशिक्षण-सत्र शुरू हो गये हैं। माओवादी लड़ाके हथियारों के साथ बेखौफ सभा कर रहे हैं और हथियारों की जंग छुड़ाने में जुट गये हैं। उल्लेखनीय है कि कोशी हादसे के लिए भी माओवादी लड़ाके दोषी रहे हैं। लेकिन आजतक नेपाल सरकार उन दोषियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जिन्होंने तटबंध को बचाने के कार्य को बलपूर्वक रोक दिया था। लेकिन भारत सरकार बेफिक्र है। भारत सरकार ने भी कभी दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करने की कोई मांग नेपाल से नहीं की। उल्टे आवाम की राय लिए बिना नेपाल को करोड़ों रुपये का हर्जाना चुका दिया। मालूम हो कि कोशी हादसे में नेपाल के सुनसरी जिले के लगभग पचास हजार लोग प्रभावित हुए थे और नेपाल ने इसकी पूरी जिम्मेदारी भारत पर ठोक दीऔर भारत की ओर से कोई विरोध नहीं हुआ। आश्चर्य की बात यह कि नेपाल ने कोशी हादसे प्रकरण में अंतर्राष्ट्रीय संधि की धज्जी उड़ा दी थी। इसी का परिणाम है कि हर पंद्रहवें दिन कुसहा में कोशी तटबंध की मरम्मत का कार्य को हथियारबंद माओवादी रोक देते हैं और तबतक कार्य आगे नहीं बढ़ने देते हैं जबतक उनकी नाजायज आर्थिक मांग पूरी नहीं कर दी जाती। कुसहा में दो महीने के दरम्यान तीन बार कार्य स्थगित किया जा चुका है। भयादोहन का ऐसा उदाहरण दुनिया में शायद ही कहीं देखने को मिला होगा जब अंतर्राष्ट्रीय संधि के तहत चल रही परियोजनाओं को बंदूक के बल पर रोक दिया जाता हो और स्थानीय सरकार तमाशा देख रही हो। यह घटना विदेश मंत्री के नेपाल प्रवास के दौरान भी घटी, लेकिन पता नहीं विदेश मंत्री ने इस पर क्या बात की या फिर उन तक सूचना पहुंची भी या नहीं। नेपाल में भारत के राजदूत राकेश सूद की सक्रियता से तो सभी परिचित हैं। कुसहा प्रकरण के दिनों में वे नेपाल का पर्यटन करते रहे और उधर कोशी का तटबंध सनै-सनै टूटता रहा। भारत सरकार की नीति पर माथा पीट लेने का मन करता है।
ऐसा नहीं है कि नेपाल में जो कुछ हो रहा है उसका असर भारत पर नहीं पड़ेगा। भारत नेपाल से सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है। दोनों देशों के बीच बेटी-रोटी के संबंध सदियों से है। अगर समय रहते भारत सरकार नहीं चेती तो देश को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।

बुधवार, 10 दिसंबर 2008

साधारण डब्बे की असाधारण बात (तीसरी कड़ी)

दहाये हुए देस का दर्द-25
सात बजे के आसपास इंजन ने एक लंबी सीटी बजायी और प्लैटफार्म से सरकने लगी। पांच-दस मीटर चली और दस मिनट के लिए खड़ी हो गयी। डब्बे के दरबाजे पर खड़े युवकों ने जोर से आवाज लगायी- वैक्यूम, वैक्यूम, वैक्यूम ... यह सिलसिला लगभग आधे घंटे तक चलता रहा और अंततः साढ़े सात बजे गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली। इस बीच बहस की गाड़ी का वैक्यूम भी कटा रहा। इस दौरान बहस के अधिकतर वक्ता खामोश ही रहे। ट्रेन की देरी को लेकर एक-दो टिप्पणी जरूर हुई, लेकिन यह एकतरफा संवाद जैसा था। जिसका आशय स्पष्ट था, डेढ़-दो घंटे की देरी भी कोई देरी है बच्चू ! आखिर समय पर कभी खुलती भी है इस मार्ग की गाड़ियां ?
मुर्लीनारायणपुर हॉल्ट पर गाड़ी रूक गयी। डब्बे के प्रवेश द्वार पर खड़े युवक, जो अब तक निजीव से दिख रहे थे, अचानक उनके चेहरे पर हरियाली सी दिखने लगी। इसका कारण मैं तत्काल नहीं समझ सका, लेकिन जब समझा तो खूब समझा और ऐसा समझा कि दोनों युवकों से गरमागरम कर बैठा। मामले को यात्री-पंचायत ने तुरंत अपने संज्ञान में लिया और आम सहमति से निर्देश दिया कि दोनों युवकों को अगले स्टेशन पर इस डब्बे से उतारकर दूसरे डब्बे में बैठा दिया जाय क्योंकि ये लफंगे हैं।दोनों युवकों ने जाते-जाते मुझे स्थानीय भाषा में गाली दी, लेकिन उसके स्वर की क्षीणता बता रही थी कि वे गाली मुझे नहीं जैसे हवा को दे रहे हैं ताकि खुद को झूठा विश्वास दिला सकें कि वे डरपोक नहीं। लेकिन युवकों के उतरते ही उन दोनों युवतियों के चेहरे के रंग बदल गये। दोनों युवतियों ने राहत की सांस ली। शायद वह यह सोचकर खुश हो रही थीं कि अब वे सहज भाव से बायें-दायें, ऊपर-नीचें झांक सकती हैं तथा यात्रा की बोरियत भरी उबासियां स्वतंत्रतापूर्वक ले सकती हैं और इस दौरान उन्हें किसी भेदक नजर का सामना नहीं करना पड़ेगा।
खैनी वाले वृद्ध ने कहा- लूच्चा है, लूच्चा ! सब सिलेमा (सिनेमा) का प्रकोफ (प्रकोप) है भैय्या। ई टीभी (टीवी) तो सब छोड़ा सबको बिगाड़ कर रख दिया है। लाज-शर्म को तो मानो शरबत बनाकर पी गये हैं ये बोंगमरने (एक स्थानीय भदेस गाली)!
अबतक गाड़ी थरबीटिया स्टेशन पार कर चुकी थी। राघोपुर में जो बहस-मंडली तैयार हुई थी उनके तीन-चार सदस्य इस बीच उतर चुके थे। लेकिन थोड़ा पढ़ा लिखा वाला भाई पूरी ऊर्जा के साथ बहस का संचालन कर रहे थे। इस बीच बहस में एक नये सदस्य शामिल हुए। उसने अपनी पीड़ा बताकर बहस मंडली में प्रवेश किया। उसकी आपबीती कुछ ऐसी थी कि हर कोई उसकी पूरी कहानी सुन लेने के लिए जैसे व्यग्र हो उठे।
वह कह रहा था ... अरे क्या कहें भैय्या ! 18 अगस्त को तटबंध टूटा, तो हमलोग अपने सुपौल जिले के कुटम्बों को अपने गांव आने का निर्देश दे रहे थे। हम लोग सोचते थे कि हमारे गांव में पानी नहीं आयेगा। मगर ! पानी क्या आया , समझिये सद्यः परलय (प्रलय) आ गया।
कहां है आपका गांव ?
गांव के नाम है- पड़वा। मधेपुरा जिला के मूर्लीगंज प्रखंड में पड़ता है।
17 तारीख के भोर में सरबा गांव में पानी प्रवेश कर गिया। हमलोग सोचते थे कि कितना पानी आयेगा- बहुत से बहुत घूठना भर! लेकिन 12 बजे दिन तक तो आंगन में डूब्बा (डूबने लायक) पानी हो गया था। गोहाली में दो गाय और तीन भैंस और नेरू-पड़ड़ू बंधल था। पानी को देखकर सब माल-मवेशी बां-बां करने लगे। अब करें तो करें क्या? घर में दो जवान बेटी! एक पत्नी, बूढ़ी मां और एक ठो छोट बच्चा। एक बेर (बार) मवेशियों की ओर देखता था दूसरा बेर बेटा-बेटी और मां को। दिमाग चकरा रहा था। अंत में कुछ नहीं फुराया (सूझा), तो सभी मवेशियों की रस्शी को काट दिया। लेकिन सच कहते हैं- भैय्या, आंख में आंसू आ गिया। गाय की बछिया बहुत छोटी थी ! हे मालिक ! ... ऊ तो घंटे-दो घंटे में दम तोड़ दी होगी। गाय और भैंस शायद कहीं पार उतर गये हों तो हों। चारों ओर अफरा-तफरी मचल था। पूरा गांव में लगता था जैसे भूकंप आ गिया है। लोग भाग रहे थे। हम भी भागने लगे। लेकिन मेरी मां पैर से लाचार है। वह तो दस डेग भी नहीं चल सकती थी। हिम्मत करके उठा लिया कंधे पर। सबको अपने पीछे लगा लिया और निकल पड़ा। पानी बढ़ते जा रहा था। धुधुवा-धुधुवा कर पानी की धार आ रही थी। लेकिन मूर्लीगंज वाली नहर तक किसी तरह पहुंच गिया। वहां से राता-राती (रातों-रात)मधेपुरा पहुंचा।
पांव पैदल ??? (सहयात्रियों की जिज्ञाशा)
... तो और कौन साधन था। रात भर चलते रहे। बीच-बीच में पानी की धार रास्ता रोक लेती थी। कभी-कभी सांप भी दिखता था। लेकिन हम अपने कमर में रस्शाी बांधे थे। कंधे पर मां को लिए रहा और बच्चों से कहता गया - कुछ भी हो जाये, रस्शी नहीं छोड़ना। सच कहते हैं भैय्या, मन में तनीकों भरोसा नहीं था कि बच कर निकल पायेंगे। मां कहती थी- हमको छोड़ दो और बच्चों को लेकर तेजी से निकल जाओ ... हमने साफ ठान लिया था, जबतक जिंदा रहेंगे मां को बचाये रखेंगे। मां को कैसे छोड़ देंगे ? कोशिकी परीक्षा ले रही है तो परीक्षा में जायेंगे ? चाहे उत्तीर्ण हों या अनुत्तीर्ण !
बगल में बैठी वृद्धा जैसे अपने भार से दोहरा रही थी और लगातार भगवानों के नाम लिए जा रही थीं।
हां-हां-हां , जननी जन्मभूमि, ई दोनों तो स्वर्ग से बढ़कर है !(खैनी वाले वृद्ध की प्रतिक्रिया)
... भोर तक मधेपुरा पहुंचे। उस दिन मधेपुरा से सहरसा वाली ट्रेन चल रही थी। वहीं से ट्रेन से सहरसा आया और उसके बाद मुर्लीनारायणपुर चला आया। यहां गांव में साढ़ू के यहां था। वे लोग कह रहे थे, अभी रूक जाइये, कहां जाइयेगा। लेकिन मन नहीं माना। सोचा कितना दिन रहेंगे कुटुम्बों के घर।
लेकिन आपके गांव में तो अभी भी पानी है? कहां जाइयेगा ? (यह सवाल मेरा था)
नहीं मालूम बाबू। लेकिन कैंफ (कैंप)में नहीं जायेंगे। वहां तो जीते जी मर जायेंगे।
क्यों ? (मेरा ही सवाल था)
खाने-पीने वाले घर से हैं। गृहस्थ (किसान)हैं, खूब खेती करते हैं। बाल-बच्चा को कभी तखलीफ नहीं हुई किसी चीज की। वहां तो भिखारियों जैसा व्यवहार किया जाता है। क्या इसे बर्दाश्त कर पायेंगे ?? बताइये आप ???
मेरे पास कोई जवाब नहीं था। इसलिए मैंने कोई जवाब नहीं दिया।
मैं सिर्फ सोचते रहा। एक निरर्थक सोच के आगोश में मैं डूब गयामैं। जिसका एक सिरा भ्रष्टाचार से जुड़ता है तो दूसरा सरकार नाम की संस्था की अकर्मण्यता से। लेकिन दोनों की जड़ें पृथ्वी की जड़ तक पहुंची हुईं हैं। मेरे सोच से न तो पृथ्वी हिलेगी और ना ही भ्रष्टाचार और सरकार की असंवेदनशीलता की जड़ेंडोलेंगी। फिर भी मैं सोचते जा रहा था। खैनी वाले वृद्ध ने पूछा- खैनी खाते हैं , देसी है, चैन मिलता है ? मैं मुस्कराये बिना नहीं रह सका।
ट्रेन चलती जा रही थी। शायद यह अब सुपौल पहुंचने वाली थी। पान-बीड़-सिगरेट वालों की आवाज मुझे अब सुनाई नहीं दे रही थी।
(अगली कड़ी में यह यात्रा शायद पूरी हो जायेगी, अपने अधूरेपन के साथ)

शनिवार, 6 दिसंबर 2008

एहसानफरामोशी नहीं तो क्या ?

यह सुनकर शर्म आती है। मन व्यथित हो रहा है। चुल्लू भर पानी में डूबने का जी करता है। आखिर हम इतने एहसानफरामोश कैसे हो गये ? कि सप्ताह भर पहले जिसे हम पलकों पर बैठाये थे आज उनकी सुध लेने तक की हमें फुर्सत नहीं। जी हां, मैं कैप्टन एके सिंह की बात कर रहा हूं। मुंबई पर आतंकी हमलों में घायल हुआ राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड एनएसजी का जांबाज कमांडो पिछले कई दिनों से अस्पताल में पड़ा है। लेकिन, उसकी सुध लेने वाला कोई नहीं। कैप्टन एके सिंह 27 नवंबर को ओबेराय-ट्राइडेंट होटल में आतंकियों से लोहा लेने गये थे। उन्हें भनक लगी कि 18वीं मंजिल के एक कमरे में आतंकी मौजूद हैं। एनएसजी कमांडो ने कमरे के दरवाजे को विस्फोट से उड़ा दिया। लेकिन, कैप्टन सिंह कमरे के भीतर घुसकर कार्रवाई करने ही वाले थे कि आतंकियों ने उन पर हथगोला फेंक दिया। कैप्टन सिंह उस धमाके की जद में आ गये। उनके शरीर में अनगिनत छर्रे लगे और वह बेहोश हो गये। उन्हें बांबे हास्पिटल ले जाया गया, जहां उनके शरीर में धंसे छर्रे, तो निकाल दिए गये, लेकिन उनकी बायीं आंख में लगा एक छर्रा नहीं निकाला जा सका।
मुंबई में आपरेशन खत्म होने के बाद एनएसजी टीम हर्षोल्लास दिल्ली लौट आयी। लेकिन खबर है कि अस्पताल में भर्ती कैप्टन सिंह की आंख से अब भी खून बह रहा है। उनकी आंख इस कदर चोटिल हुई है कि अब उसके ठीक होने की संभावना कम ही है। कैप्टन सिंह अपना बेहतर इलाज कराना चाहते हैं और सेहतमंद होकर फिर सेना को अपनी सेवाएं देने के इच्छुक हैं। उनके माता-पिता को सूझ नहीं रहा कि वे करें तो क्या करें? कैप्टन व उनके परिवार को तसल्ली देने के लिए एनएसजी का कोई अधिकारी उनके पास मौजूद नहीं है। वह सेना की जिस बटालियन से एनएसजी में आए थे उसके कमांडिंग अफसर ने भी अभी तक उनसे मुलाकात करना जरूरी नहीं समझा। कैप्टन सिंह के एक करीबी ने एक पत्रकार को बताया है कि जब इस मामले को सेना के एक शीर्ष अधिकारी के संज्ञान में लाया गया, तो उन्होंने कुछ मदद करने के बजाए हिदायतें जारी कर दीं कि वह मीडिया को कोई इंटरव्यू न दें।
हाय रे देश ! हाय रे सरकार ! हाय रे समाज ! एक पल में हीरो बनाते हो दूसरे पल ही आंखें फेर लेते हो! यह अवसरवादिता नहीं, एहसानफरामोशी है। कोई हमारे लिए जान की बाजी लगाता है और हम उनका इलाज तक नहीं करा सकते। यह तो भारत का परम्परागत चरित्र नहीं था ! वीर पूजकों यह देश ऐसा कैसे हो गया ? कुछ भी समझ में नहीं आता ...
मुक्तिबोध बाबू! आपने ठीक कहा था- लिया बहुत ज्यादा, दिया बहुत कम / मर गया देश बचे गये तुम

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

... अब क्या बताऊं आपको

दहाये हुए देस का दर्द - 24
जाने कितने मुद्दत पहले कोशीमारों ने कोई अच्छी खबर सुनी थी। अच्छी खबर सुनने के लिए कोशीमारों के कान तरस कर रह गए हैं । बाढ़ की मार से बचने वाले हर शख्स की जुबान पर इन दिनों एक ही सवाल है कि कब तक बंध जायेगा कुसहा का कटान ? बाढ़ के समय तूफान की तरह आने वाले छद्म शुभचिंतक-मददगार और छद्म फरिश्ते आंधी की तरह उड़ चुके हैं। अब तो सिर्फ उदासियों का सिलसिला ही शेष रह गया है गया है, जो बंजर हो चुके खेतों को देखकर श्मसानी हो जाता है तो कभी बहे घरों के खड़े खूंटे को देखकर मुर्दनी में तब्दील हो जाता है। शायद इसलिए या फिर इंसानी जिजीविषा की खातिर शहर से लौटने वाले हर व्यक्ति से आजकल कोशी क्षेत्र में जो पहल सवाल पूछा जाता है वह है- बाबू कि हाल छै कुसहा कें? कहिया तक बंधतै कोशी कटान ? (बाबू क्या हाल है कुसहा का ? कब तक कटाव को बांधा जायेगा)। अगर संयोग से शहर से गांव पहुंचने वाला शख्स पेशे से पत्रकार हो, तो फिर क्या कहना। गली-कूचे, चौक-बाजारों में लोग उनके रास्ते रोक लेते हैं। उनकी जिज्ञाशा कोशी से भी ज्यादा प्रचंड है। वैसे यही सवाल वे अपने मुखिया व विधायकों से भी पूछ रहे हैं, लेकिन उनके जवाब पर एक पैसा भरोसा भी नहीं करते हैं।
राह-बाट चलते मैं भी नेतानुमा बयान देकर अपना पिंड छुड़ा लेता हूं। शायद यह सोचकर कि जीने के लिए कोई उम्मीद तो हर किसी को चाहिए। अगर ये लोग यह सोचकर भी दिन गुजार लेते हैं कि अगले साल तक उनके खेतों से नदी हंट जायेगी और उनकी बिखर चुकी दुनिया फिर से संवर जायेगी, तो उनका दिल क्यों तोड़ा जाय। लेकिन कुसहा में कुछ और हो रहा है। वहां कच्छप गति से काम चल रहा है। कटाव के भराव के कार्य की गति को देखकर तो इस बात की संभावना काफी कम है कि अगामी बरसात के मौसम से पहले इसे ठीक कर लिया जायेगा और नदी को पुरानी धारा में लौटायी जा सकेगी। कटाव को बांधना तो दूर अभी तक पायलट चैनल का काम भी अधूरा है। तीन बार काम रोका जा चुका है। वशिष्ठा कंपनी को तटबंध को बांधने का कार्यादेश मिले दो महीने से ज्यादा हो चुके हैं। योजना के अनुसार नदी को पुरानी धारा में लौटाने के लिए 14 किलोमीटर के पायलट चैनल के निर्माण का कार्य 10 दिसंबर तक पूरा कर लिया जाना था। लेकिन 4 दिसंबर तक बामुश्किल साढ़े चार किलोमीटर का चैनल भी नहीं बन सका है। कटाव को भरने के लिए कंपनी और सरकार के बीच में जो समझौते हुए थे उसके मुताबिक 300 टिपर, 40 एक्सकेवेटर और 8 वाइवरेटर मशीन-संयंत्र की मदद ली जानी थी। लेकिन अभी तक कंपनी सिर्फ 50 टिपर 8 एक्सकेवेटर और दो वाइवरेटर ही हासिल कर पायी है। जब यही सवाल सरकार की ओर से कार्य की निगरानी कर रहे मुख्य अभियंता श्यामानंद प्रसाद से मैंने पूछा तो उन्होंने भी स्वीकार किया कि काम काफी सुस्त गति से चल रहा है। बकौल प्रसाद- मैंने कार्य की सुस्ती की रिपोर्ट उच्च अधिकारी को दे दी है। वास्तव में कार्य की रफ्तार काफी कम है।
अब कोई क्या बताये उन निरीहों को, जो पूछते हैं कि कब तक बंध जायेगा तटबंध ! क्या सरकार यह नहीं समझ रही कि कोशी दो बार समय नहीं देती। अगर बरसात से पहले कटाव को नहीं भरा गया तो एक और जल प्रलय तय है। हां, एक बात और है- अगर बरसात तक कार्य पूरा नहीं हुआ, तो आधे-अधूरे कार्य के नाम बेहिसाब राशि जरूर आवंटित हो जायेगी। यहां पर यह सवाल भी खड़ा होता है कि कहीं देरी जानबूझकर तो नहीं की जा रही ! कोशी के नाम पर खरबों रुपये गबन करने वाले के लिए यह कोई असंभव कार्य नहीं है। उनकी जीभ कोशी के रक्त पीने के अभ्यस्त हैं। मालूम नहीं कब उनकी जीभ लपलपाने लगे और वे कौन-सी योजना बना डालें।

गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

... जो मारे जायेंगे

देश में मोबाइल फोन चलाने वाली एक कंपनी दावा करती है कि उसके मोबाइल का नेटवर्क भारत के उन इला़कों में भी मौजूद हैं जहां शुद्ध हवा, शुद्ध पानी, स़डकें, पाठशाला और अस्पताल आदि भी उपलब्ध नहीं हैं। व्यावसायिक दृष्टिकोण से यह एक सामान्य विज्ञापनी बड़बोलापन ही लगता है। लेकिन इससे कुछ निहितार्थ भी निकलते हैं, जो देश की वर्तमान सरकारी नीति की कड़वी सच्चाई को सामने लाता है। यानी कंपनी अप्रत्यक्ष रूप से कह रही है कि देखिए -- हम वहां भी पहुंच गये हैं जहां आपकी सरकारें नहीं पहुंच पातीं ! पानी, बिजली, स़डकें, अस्पताल और जीवनयापन की अन्य मूलभूत सुविधाएं गांवों तक पहुंचाने में सरकारें भले ही असमर्थ हों, लेकिन हमारी ध्वनी-तरंगें हर जगह पहुंच रही हैं। 2004 के लोकसभा के चुनाव में इसी तरह के कुछ दावे भारतीय जनता पार्टीनीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) ने भी कियेथे । इस गठबंधन ने बढ़ते शेयर सूचकांक और टेलीकम्यूनिकेशन उद्योग के आधार पर इंडिया शाइनिंग और फील गुड का नारा दिया । लेकिन चुनाव में लोगों ने उनके दावे को खारिज कर दिये।
नेशनल सैंपल सर्वे के अनुसार आज छह सदस्यों वाला एक आम ग्रामीण भारतीय परिवार महीना भर में मात्र 502 रुपये खर्च कर पाता है। भोजन मद में 224 रुपये के खर्च पर ही वे पूरा महीना गुजार देते हैं। जबकि देश के पांच सर्वश्रेष्ठ धनिकों की सामूहिक संपत्ति 43 खरब रुपये से ज्यादा है जोकि देश के सकल घरेलू उत्पाद का 10 प्रतिशत है।
मध्य प्रदेश का एक खनिज प्रधान जिला है सिधी। सिधी के जिला मुख्यालय से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर एक गांव है -- मेतसा; जिसकी आबादी पांच हजार है। इस गांव के एक भी व्यक्ति ने आजतक रेल या कार की सवारी नहीं की, हवाई यात्रा तो कल्पना की बात है। गांव के किसी व्यक्ति ने जिला मुख्यालय से बाहर की दुनिया नहीं देखी है। इस गांव का एक शिक्षक ने दो वर्षों तक सर्वेक्षण-अध्ययन किया और उसने कई हैरतअंगेज तथ्य सामने रखे। जिसमें कहा गया कि इस गांव के 95 प्रतिशत लोगों की अधिकतम यात्रा अपने गांव से नजदीकी बाजार तक सीमित होती है। जबकि दूसरी ओर इस इलाके से प्रति वर्ष करोड़ों का खनिज और वनोत्पाद बाहर भेजे जाते हैं। देश की कोयला राजधानी धनबाद से सटे टुंडी क्षेत्र में भी ऐसे ही दर्जनों गांव हैं जहां के लोगों को एक पैकेट नमक के लिए 10 किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती है और वहां हर वर्ष भूख से मौतें होती हैं।
वास्तव में सिधी और टुंडी देश के उन सैकड़ों भारतीय खनिज बहुल क्षेत्रों में से एक है जो गांवों से शहर की ओर बहाये जा रहे प्राकृतिक संसाधनों को मूक होकर देखने के लिए अभिशप्त है। व्यतिरेक यह कि सिधी क्षेत्र से निकले अर्जुन सिंह जैसे नेता वर्षों से केंद्रीय मंत्रिमंडल की शीर्ष कुर्सी पर विराजमान रहे हैं और धनबाद के कोल माफियाओं की संपत्ति अरबों में है। ये चंद अभागे लोगों और क्षेत्रों का कोई अपवाद-आंकड़ा या प्रहसन नहीं है जिसे हासिये की बात कहकर अनसुना कर दिया जाये, बल्कि यह देश के 70 प्रतिशत उन आमलोगों का सच है जिसके बिना किसी शक्तिशाली भारत की कोई तस्वीर नहीं बन सकती। यह आर्थिक महाशक्ति बनने की राह पर अग्रसर भारत का वह वैषम्य है जो किसी भी स्वप्न को पलक झपकते दुस्वप्न बनाने के लिए काफी है। आसमान को चूमते शेयर सूचकांक और बंजर होते खेत के बीच में घिरा उदारवादी नवभारत के सामने यह वह यक्ष प्रश्न है जिसका जवाब खोजे बगैर विकास की कोई बड़ी लकीर नहीं खीची जा सकती।
वस्तुतः ग्रामीण और शहरी भारत के बीच निरंतर चौड़ी होती आर्थिक खाई को देखकर, तो लगता है कि सदियों से सामाजिक विभेद (जातिवाद, धर्मवाद) के दुष्चक्र में फंसा भारत अब अार्थिक असमानता के अंध कूप में गिरने के लिए तैयार है। भारत दुनिया का ऐसा अकेला देश बनने की ओर अग्रसर है जहां आर्थिक विषमता सर्वाधिक है। इस मोर्चे पर भारत ने ब्राजील को अब पीछे छोड़ दिया है। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रणव बर्द्धन ने कुछ दिन पहले इस विषय (रसिसटेंस ऑफ इंडियन इकोनोमिक रिफॉर्म) पर एक शोध किया था। भारतीय मूल के इस अर्थशास्त्री ने अपने शोध में जो लिखा वह एक चौंकाने वाला तथ्य है। बर्द्धन लिखते हैं -- "इसमें कोई दोमत नहीं है कि आर्थिक उदारीकरण के बाद गरीब भारतीयों की स्थिति पहले से ज्यादा खराब हुई है। लोग इसे गैरउदारवादियों की आलोचना-गान कह सकते हैं, लेकिन सच यही है। सर्वेक्षण आंकड़े बताते हैं कि भारत में शिक्षित-अशिक्षित और शहरी-ग्रामीण के बीच आर्थिक विषमता तेजी से बढ़ी है। भारतीय किसानों की संरक्षा के लिए सरकार के पास कोई स्थायी संरक्षा नीति नहीं है। जैसी नीति चीन ने पिछले 20 वर्षों में विकसित किया हैकुछ उसी तर्ज पर भारत में भी काम होना चाहिए। विविधतापूर्ण सामाजिक संरचना के कारण यहां वस्तुनिष्ठ राजनीति करना हमेशा कठिन रहा है जो आर्थिक विषमता के कारण आगे और लाचार होगी। राजनेता दूरगामी फैसला नहीं ले रहे, ऐसे में ग्रामीणों को वर्तमान प्रतियोगी अर्थव्यवस्था में शामिल नहीं किया जा सकता । पक्षपातपूर्ण विकास स्थायी और टिकाऊ विकास की इबारत नहीं लिख सकता।’’
भारत में जब ग्रामीणों की बात की जाती है तो इसका सीधा मतलब किसान से होता है। देश के 90 प्रतिशत ग्रामीण आबादी का मुख्य पेशा खेती ही है, जो दिन-प्रतिदिन अलाभप्रद, असुरक्षित और अकरणीय होती जा रही है।
असंगठित क्षेत्र के उपक्रमों के लिए काम करने वाले राष्ट्रीय आयोग (एनसीईयूएस) ने पिछले साल अगस्त-सितंबर में एक रिपोर्ट प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौंपी थी। यह रिपोर्ट कहती है कि इस देश के 41 प्रतिशत लोग आमतौर पर गरीब हैं (करीब 27 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं) और 77 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो गरीबी की दृष्टि से संवेदनशील हैं। यानी ये वो लोग हैं जो गरीबी की बस सतह पर हैं। एक अरब से अधिक की आबादी में से 83.60 करो़ड लोग इस श्रेणी में आते हैं। सरकारी संस्था की इस रिपोर्ट के अनुसार मध्य वर्ग यानी मिडिल-क्लास के लोगों की संख्या 19.3 करो़ड हैं। यही रिपोर्ट कहती है कि भारत की आबादी का यह 77 \ीसदी हिस्सा यानी 83.60 करो़ड लोगों की प्रति व्यक्ति प्रतिदिन आमदनी औसतन 20.3 रुपये हैं। हालांकि कुछ अर्थशास्त्री सरकार द्वारा परिभाषित गरीबी रेखा को ही भ्रामक ठहराते हैं। कुछ समय पहले पटना में संपन्न विश्व गरीबी सम्मेलन में कई अर्थशास्त्रियों ने वर्तमान गरीबी रेखा की कसौटी पर सवाल खड़े किये थे। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री टी एन श्रीनिवासन ने हाल में ही इस पर एक शोध किया जो ‘इकोनोमिक एण्ड पॉलिटिकल वीकली’ में प्रकाशित हुआहै। श्रीनिवासन ने अपने विस्तृत शोध में इस बात का खुलासा किया है कि कैसे गरीबी रेखा के नीचे के लोगों को आभासी मापदंडों के सहारे ऊपर बताया जाता है। उन्होंने कृषकों की अनुमानित आमदनी को निश्चित आमदनी मानने से इनकार करते हुए कहा कि प्रकृति पर निर्भर भारतीय कृषकों की खेती हमेशा असुरक्षित रहती है, जिसे निश्चित आमदनी नहीं मानी जा सकती। उन्होंने असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे कामगरों की आमदनी को भी अस्थिर(वैरियेबल) आमदनी मानते हुए गरीबी रेखा की कसौटी पर सवाल खड़ा किया है।
दरअसल विकास के जिस मॉडल पर देश के नीति नियंता इतरा रहे हैं उसमें अनगिनत छेद हैं। विकास का यह मॉडल प्रतियोगिता के बल पर खड़ा है जिसमें आम अशिक्षित ग्रामीण कहीं नहीं टिकते। लखपति, करोड़पति बन रहे हैं जबकि गरीब दरीद्र हो रहे हैं। आर्थिक उदारीकरण के फायदे सीमित प्रक्षेत्रों तक सिमटते जा रहे हैं जिनमें बामुश्किल 12-14 प्रतिशत लोगों की ही हिस्सेदारी है। लेकिन सरकार इस बात से ही खुश है कि देश का सकल घरेलू उत्पाद लगातार बढ़ रहा है और आर्थिक विकास की दर नौ फीसदी की रफ्तार पकड़ी हुई है। हर दिन कोई न कोई नयी कार बाजार में आ रही है। मोबाइल फोन, कंप्यूटर, टेलीविजन, मोटर बाइक, वाशिंग मशीन, रेफ्रिजरेटर जैसे समृद्धि-प्रतीक उत्पादों का बाजार बढ़ता जा रहा है। हवाई जहाजों और यात्रियों की संख्या बढ़ रही है। लेकिन इस सिमटे हुए सच की कलई तब खुल जाती है जब हम 14 प्रतिशत उच्च और मध्यम उच्च वर्गों से नजर हटाकर गांव के सत्तर प्रतिशत निम्न वर्ग के लोगों की ओर देखते हैं। वहां न बिजली है और न ही सड़कें, न पीने के लिए पानी है और पहनने के लिए कपड़े। वहां के लोग अपने खेतों से इतना भी फसल नहीं उगा पाते हैं कि उन्हें दो जून की रोटी नसीब हो सके। क्योंकि खेतों का जोताकार घट रहा हैंै। किसान तेजी से मजदूर बन रहे हैं। प्रति किसान कृषि योग्य जमीन का क्षेत्रफल घट रहा है। कहीं प्रदूषण के कारण उनकी जमीन बंजर हो रहे हैं तो कहीं बाढ़ व सूखा के कारण फसलें मारी जा रही हैं। कॉरपोरेट घरानों के लिए भी किसानों की जमीन छिनी जा रही हैंै। सिंचाई के सरकारी साधन लगातार ध्वस्त हो रहे हैं। फसलों के विपणन और वितरण की कोई व्यवस्था नहीं है। किसान आज भी स्थानीय व्यवसायी के रहमोकरम पर निर्भर हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य कागजी घोषणा बनकर रह गयी है। सरकार समर्थन मूल्य की घोषणा तो कर देती है, लेकिन इसे कड़ाई से पालन करने के लिए आजतक कोई सरकारी मशीनरी खड़ी नहीं की गयी।
कृषि प्रधान भारत में खेती अब कितना कठिन हो चुका है इसका कुछ अंदाजा सरकारी आंकड़ों के विश्लेषण से भी लग जाता है। योजना आयोग के आंकड़े के मुताबिक स्वतंतत्रा प्राप्ति के समय देश में कुल सिंचाई साधनों का 34 प्रतिशत साधन सरकार द्वारा मुहैया करायी जाती थी। लेकिन पच्चास वर्षों के बाद इसमें कोई इजाफा नहीं हुआ है। बल्कि यह दो प्रतिशत घटकर 32 प्रतिशत हो गया है। इस 32 प्रतिशत में 25 प्रतिशत साधन इतने पुराने हो चुके हैं कि अब इससे खेतों तक पानी पहुंचाना असंभव हो गया है। कहीं नहर है तो पानी नहीं, कहीं पानी है तो नहर गादों से भरा है। बिहार जैसे राज्य में लघु सिंचाई परियोजना दो दशक पहले ही दम तोड़ चुकी है । वैसे यह बात और है कि यह विभाग आज भी हजारों कर्मचारियों-अधिकारियों-अभियंताओं का वेतन चुका रहा है। कोशी-कमला, गंडक व बागमती नदी-नहर परियोजनाएं पूरी तरह से ध्वस्त हो चुकी हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़ की नदी आधारित सिंचाई परियोजनाओं का ऐसा ही हाल है। झारखंड में पिछले तीन दशक से कनहर नदी परियोजना लंबित है। इसके अलावा व्यवस्थागत भ्रष्टाचार ने जल संरक्षण पर आधारित सिंचाई की अन्य परियोजनाओं की हवा निकाल दी है। ऐसी योजनाएं कागज से धरतातल पर उतरते-उतरते इतना समय ले लेती हैं कि वे खुद-ब-खुद अप्रासंगिक-असामयिक हो जाती हैं। सार्वजनिक परियोजनाओं की विफलता और पेट्रोल-डीजल के बढ़ते मूल्यों की दोहरी मार के कारण किसानों की हिम्मत पस्त हो गयी है। सरकारी सर्वेक्षण में भी कहा गया है कि देश के 40 प्रतिशत किसान खेती करना नहीं चाहते।
दरअसल देश की ग्रामीण आबादी मानव विकास के तमाम बिन्दुओं पर पिछड़ी हैं। सुविधाओं के उपभोग से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य, जागरूकता के मामले में वे शहरी आबादी से काफी पीछे हैं। ग्राम्य जागरूकता का आलम यह है कि देश के 93 प्रतिशत ग्रामीणों को नहीं मालूम कि विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) किस चिड़िया का नाम है। प्रति व्यक्ति ऊर्जा की खपत (इनर्जी कंजप्शन) विकास की एक सटीक कसौटी मानी जाती हैं। लेकिन भारत में ग्रामीणों में ऊर्जा उपभोग की दर न्यूनतम है। आज भी देश के हजारों गांवों का विद्युतीकरण नहीं हो सका है। राष्ट्रीय मानव विकास रिपोर्ट-2001 के अनुसार 30 प्रतिशत ग्रामीण ही विद्युत का उपयोग कर पाते हैं। 70 प्रतिशत ग्रामीण कच्चे और असुरक्षित घरों में रहते हैं। 45 प्रतिशत ग्रामीण आबादी को शुद्ध पेयजल नसीब नहीं, तो 90 प्रतिशत आरोग्य (मेडिकल फैसिलिटी) सुविधाओं -- अस्पतलाल, प्राथमिक उपचार केंद्र, दवाई और चिकित्सक से वंचित हैं।
ग्रामीण और शहरी की प्रति व्यक्ति आय का अनुपात काफी चिंताजनक है। सैंपल सर्वे-2004 के अनुसार शहरी लोगों की प्रति व्यक्ति आय ग्रामीणों से 2.5 गुना ज्यादा है। कुछ राज्यों में यह 3.97 गुना तक अधिक है। एक ओर जहां 90 प्रतिशत शहरी आबादी सड़कों से जुड़ी हुई है वहीं 50 प्रतिशत ग्रामीण आबादी आज भी सड़कविहीन है।
(यह लेख उन लोगों को समर्पित है जो ग्रामीण भारत के दर्द को महसूस करने की शक्ति रखते हैं तथा जो इस तर्क से सहमत हैं कि ग्रामीणों के आंसू पोछे बगैर समृद्ध भारत का सपना कभी पूरा नहीं हो सकता)



शुक्रवार, 28 नवंबर 2008

आज का शोकगान

चरित्र !
किसी अपशकुनी बिल्ली की तरह
काट देता था मेरी राहें
हमेशा बाधा बन उपस्थित हो जाता था
और सारे खयालातों पर लगा देता था लगाम
अय्यास-विलास के सारे सपनों पर कर देता था वज्रपात
लेकिन
अब पतिताओं द्वार पर नहीं ठिठकते मेरे कदम
क्योंकि
अब पोटली में बंद कर दी है मैंने
लाज -शर्म , नैतिकता और कर्त्तव्यनिष्ठता की सारी बाधाओं को
और इसे आस्तीन में छुपा लिया है
अब जरूरत के हिसाब से करता हूं इसका इस्तेमाल
आज जब
पूरा देश स्तब्ध था
आदमी के दायें हाथ में था उनके बायें हाथ का जख्म
सभी आंगन रुदालियों से भर रहे थे
तो मैं भी गा रहा था- आज का शोकगान
मुंबई का शोकगान
ताज-नरीमन-ओबराय की लाल लकीरें
करोड़ों ललाटों पर स्पष्ट दिख रही थीं
हर जुबान कुछ-न-कुछ कह रही थी
मैंने भी कहा-
की मुंबई पर नहीं पूरे देश पर हमला है
शहीदों के कराहते दरबाजे पर फेरा लगा आया मैं~
सबसे पहले
आतंकवादियों कीफन कुचलने का नारा दिया मैंने
सबसे पहले
मूर्त को अमूर्त बनाया मैंने
सबसे पहले
एक बेहद बदनाम देश का नाम कुछ ऐसे लिया
जैसे वह देश नहीं कोई पहेली हो
आतंकवादियों का नाम ऐसे उच्चारा
जैसे वह आतंकवादी नहीं कोई कविता हो
जैसे उनके नामों के कई अर्थ हो
उनके बारे में ठीक-ठीक कुछ बोलना मानो सत्ता गंवाने जैसा हो
और
मैंने आज एक बार फिर सच से मुख मोड़ लिया
यह सब मैं इसलिए कर पाया
क्योंकि मेरी पोटली अच्छी तरह बंद थी

गुरुवार, 27 नवंबर 2008

दो पाटन के बीच में

दहाये हुए देस का दर्द-23
यह तस्वीर कोशी की बाढ़ से प्रभावित नेपाल के सुनसरी जिले की है। नदी की धारा ने क्या-क्या नहीं बदला ? जान , जमीन, घर-द्वार, माल-मवेशी तो खत्म हुए ही साथ-साथ इलाके के भूगोल भी बदल गये। इसलिए लोग नदी की इस धारा को पार करने के लिए रस्शी का उपयोग कर रहे हैं।

सोमवार, 24 नवंबर 2008

साधारण डब्बे की असाधारण बात (दूसरी कड़ी)

दहाये हुए देस का दर्द 22
जैसे-जैसे ट्रेन खुलने का वक्त नजदीक आते जा रहा था वैसे-वैसे डब्बे का जन घनत्व भी बढ़ता जा रहा था। रेलवे के लिखित प्रावधानों के मुताबिक छोटी लाइन की गाड़ियों के एक डब्बे में अधिकतम 64 लागों के बैठने की व्यवस्था होती है, लेकिन अगर मेरा अनुमान सही है तो उस डब्बे में गाड़ी खुलने से आधे घंटे पहले ही लगभग 300-350 यात्री प्रवेश कर चुके होंगे। लोग आ रहे थे, लोग जा रहे थे, लेकिन बहस चालू थी। लोगों के आवागमन और यात्रानीत शोर के बावजूद बहस धीरे-धीरे शिशु अवस्था से बाल्यावस्था में पहुंच चुकी थी। हर पल इसमें नये-नये प्रतिभागी शामिल हो रहे थे। कोई जोरदार स्वर के साथ, तो कोई दिललगी के अंदाज में ।
थोड़े पढ़े-लिखे युवक नहीं पढ़े-लिखे वाले के सवाल का जवाब दे रहा था। उसे पता चल चुका था कि बहस का कमान अब उसके हाथ में है, इसलिए वह अब इसे अपने मनोवांछित दिशा की ओर आसानी से ले जा सकता है। किसी किस्सागो की शैली में उसने कहना शुरू किया।
फकड़ा (लोकोक्ति) नहीं सुने हैं- खेत खाय गदहा मार खाये जोलहा ! यही हुआ है - कोशी मामले में। एक ठो कहानी सुनाते हैं। 25 साल पहले की कहानी है। अररिया में कोशी प्रोजेक्ट के एक इंजीनियर की पत्नी के साथ एक ठो ठेकेदार ने बलात्कार किया था। ऊ भी इंजीनियर की नजर के सामने, जैसे कि फिलिम-विलिम में होता है। ... जानते हैं उस इंजीनियर का कसूर क्या था ?
क्या-क्या-क्या ???? (एक दर्जन क्या एक साथ गुंज उठा)
... उसने ठेकेदार के फर्जी काम पर दस्तखत नहीं किया, इसलिए।
ओहो ! फिर ????
फिर क्या ? इंजीनियर विक्षिप्त हो गया। ठेकेदार को फलना (कांग्रेस के एक बड़े राजनेता का नाम लेकर, जो आज जिंदा नहीं हैं) का आर्शीवाद प्राप्त था। उसका कुछ नहीं बिगड़ना था, नहीं बिगड़ा।
कैसे नहीं बिगड़ा? हम बताते हैं, सुनिये।(तंबाकू बनाते खामोश बैठे एक बृद्ध का जोरदार हस्तक्षेप) भगवान के घर में देर है, अंधेर नहीं हैै। उसका निसाफ (इंसाफ) हो गिया। आजकल उ ठेकेदार के दोनों बेटा टका-टका के लिए मोहताज है। ... और हम तो सुने हैं कि उ ठेकेदार (नाम लेकर) को बाद में कुष्ठ फूट गिया था।।। आउर देखते नहीं है कि कभी एक छत्र राज करने वाली कांग्रेस पार्टी अभी कैसे एक कौर घास के लिए डिड़िया रही है। खोप सहित कबुतराई नमः हो गिया कांग्रेस का । कहवी (कहावत) नहीं सुने हैं- देव नै मारे डांग से देत कुपंथ चढ़ाये...
हं । हं। हं। एक साथ कई लोगों के सामूहिक स्वर - ई गप ते सहिये है...
(हियां साइकिल क्यों टांग रहे हैं ? इहह ! अपनो चढ़ियेगा आउर साइकिलो चढ़ायिगा !! सुरेनमा रे होहोहो , सुरेनमा रे होहोहो, मालिक काका होहोहो, आइब जा-आइब जा। एहि डिब्बा में छी रे ??? हम ताकि-ताकि कें थैक गेलयो, सरवा। एई भाई ? इंजन लग रहा है क्या ? ... लग तो रहा है।।।)
पढ़ा-लिखा भाई ने फिर कहना चालू किया। तो सुन लिए न। कोशी की कहानी बड़ी गजब है भाई। बढ़ियां हुआ कि बीरपुर शहर के नामोनिशान मीट गिया, इस बाढ़ में। ससुरी शहर कैसे बना ? जानते हैं?? कोशी को लूटकर। कोशी लूट का आधा से ज्यादा पैसा इसी शहर के लोगों ने लूटा। पैन (पानी) के धन था, पैन में बह गिया, हें-हें-हें । ई सरकार तें मुफत में बलि के बकरा बैन गिया है।
(धम-धम-धड़ाम !!! ... लगता है इंजन लग रहा है। टेम क्या हुआ भाई साहेब ? छह बज रहा है। अभी तो इंजने लगा है। फिर प्लैटफार्म पर जायेगा, तब खुलेगा, लगता है 11 बजे से पहिले सहरसा नहीं पहुंच पायेंगे)
ऊ कैसे ? (कम पढ़े-लिखे वाले का सवाल)
वही तो कह रहे हैं। सुनिये न (पढ़े-लिखे वाले युवक की नजर में अब इस युवक का वजन बहुत कम हो चुका था, वह उसके लिए अब हेतु-सूत्र का वह दर्जा भी खो चुका था जो उसने एक घंटे पहले प्राप्त किया था। क्योंकि अब यह युवक सीधे लोगों को संबोधित करने के स्तर पर पहुंच चुका था)।
राजद के सरकार में एक जल मंत्री (जल संसाधन मंत्री) हुआ करते थे। आज भी राजद के नेता हैं। उसने तो अपने मंत्रिकाल में लगातार दस बरस तक कोशी के साथ रेप किया। हर साल तटबंध की मरम्मत के लिए केंद्र से करोड़ों रुपया आया, लेकिन एक छिट्टा (टोकरी) मिट्टी तक नहीं डाला इन लोगों ने बांध पर। कोशी गोंगिया रही थी और मंत्री और इंजीनियर-ओवरसियर पटना में सोये रहे। ई सरकार तो बहुत काम कर रही है। सैंकड़ों शिविर लगाये गये हैं। लोगों के भोजन-पानी का पक्का इंतजाम किया गया है।
गलत-गलत-गलत, साफे गलत ।।। (एक साथ कई लोगों का विरोध)
पहली बार बहस में कुछ महिलाओं का हस्तक्षेप ?
याप ही देखे हैं। शिवर में भोजन-पैनि मिल रहा है। सब झूठे कह रहा है। दिन-रात में एक बेर पैन वाला खिचड़ी देता था। उहो दो करछुल। बस। कपड़ा-लत्ता तो दिया भी नहीं। खाली भाषणे देते रह गिया। हम लोगों को तो एक ठो प्लास्टिक के टुकड़ों नै मिला। हूं, कहते हैं - भोजन-पैनि का पक्का इंजाम है। हूंअअअ...
नहीं, हम कह रहे हैं कि..
क्या कहियेगा? आपका घअर-द्वार भसियाता तब न समझते...
ठीके तो कह रही है, भाई साहेब, हमहूं शिविरे से आ रहे हैं, लूट मचल है
लगता है इहो भाई साहेब खूब दाबे हैं, ई बाढ़ के मिसरी ! हें-हें हें...
क्या बोल रहे हैं भाई साहेब? जबान पर लगाम दीजिए ?
कुछ तटस्थ यात्रियों का हस्तक्षेप। अरे झगड़ा नहीं कीजिए। कोशी तो बरबाद कर ही दी। अब सिर-फुटोव्वल से का फाइदा।
देखिये जे मने में आ रहा से बोल दे रहे हैं ...
माहौल कुछ-कुछ भारतीय संसद सरीखा हो गया था। सारे स्वर अस्पष्ट हो गये थे। शब्दों का घालमेल हो गया थाऔर कौन क्या बोल रहा था यह अनुमान लगान मुश्किल हो गया था।
लेकिन पांच मिनट बाद ही फिर सबकुछ सामान्य भी हो गया। भारतीय सामान्यतया के सिद्धांत के अनुरूप । सभी लोग अपनी जगह पर कुछ इत्मीनान से बैठने लगे क्योंकि गाड़ी अब प्लैटफार्म की ओर चलने लगी थी। मेरे बगल में बैठे उस पंजाबी लड़का ने हमसे डरते-सहमते पूछा- बाढ़ इस्पीसल है, टिकटों मांगेगा, सर ??
मैंने कहा- नहीं, तो वह थोड़ा इत्मीनान हो गया। शायद वह फिर से अपने परिवार के पास चला गया था। क्योंकि पिछले दो-ढ़ाई घंटों मैं यह जान गया था कि इस लड़के का सिर्फ शरीर ट्रेन में है, उसका मन कहीं और है। वह बाढ़ से पीड़ित था। इसलिए बहस का हिस्सा नहीं था।
(पान-बीड़-सिगरेट! शिखर, तिरंगा, राजदरबार !! हेरे छोड़ा- सिंगल (सिग्नल) हुआ है रे? नहीं।। )
(आगे की बात अगली कड़ी में जारी रहेगी)

शनिवार, 22 नवंबर 2008

95 दिन बाद कुसहा

दहाये हुए देस का दर्द-21
कु-स-ह-आ ! जी हां, कुसहा !!! आज से ९५ दिन पहले यहीं पर घायल हुई थी कोशीऔर तटबंध को तोड़कर कहर बरपा गयी थी ।आज किसी गहरे जख्म की तरह लगता है यह कटान। एक ऐसा जख्म जिससे अब लहुओं का फव्वारा तो निकल रहा, लेकिन मवादें लगातार रिस रहे हैं। इस कटान ने नेपाल के सुनसरी जिले के एक दर्जन गांवों को आज भी सड़क-मार्ग से वंचित कर रखा है। लोग नावों के सहारे कटान पार करते हैं और कटान के आर-पार बसे गांव जाते -आते हैं। लेकिन कटान को पार करते समय उनकी जुबान पर एक सवाल रहता है कि कब तक बांधा जायेगा इस कटान को ? अपने गणित और भौतिकी में मस्त इंजीनियर उनके सवालों का सही जवाब नहीं देते। कोई कहता है फरवरी 2009 तक तो कोई कहता है मार्च 2009 तक। लेकिन अपना मन तो कुछ और ही कहता है। अपना मन तो कहता है- यह घाव चाहे भर जाये, लेकिन वे घावें कभी नहीं भरेंगे। वे घावें कैसे भर सकते हैं ?

रविवार, 16 नवंबर 2008

साधारण डब्बे की असाधारण बात

दहाये हुए देस का दर्द-20
जिस तरह हर इंसान की हस्ती एक समान नहीं होती उसी तरह हर रेलवे स्टेशन की आैकात भी बराबर नहीं होती। किसी स्टेशन में दर्जन भर प्लैटफार्म होते हैं तो किन्हीं-किन्हीं स्टेशनों में इंर्ट आैर मिट्टी से बनाये गये चबुतरे से ही प्लैटफार्म का काम लिया जाता है। कोशी की बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित सुपाैल जिले का राघोपुर रेलवे स्टेशन भी बाद वाली श्रेणी में ही आता है। भारतीय रेलवे की सामंती बनावट व व्यवस्था में यह स्टेशन वर्षों से सर्वहारा की िस्थति में खड़ा है। पते की बात यह कि बाढ़ के बाद इस स्टेशन पर गाड़ियों काे टर्मिनेट करना पड़ रहा है, क्योंकि यहां से पूरब की ओर जाने वाली पटरी पर पिछले तीन महीने से गाड़ियों के बदले कोशी मैय्या सरपट दाैड़ रही है; बिना किसी हार्न, वैक्यूम आैर ब्रेक के। इसलिए सहरसा से फारबिसगंज जाने वाली गाड़ियां इन दिनों राधोपुर से ही लाैट जा रही हैं। हारे को हरिराम भला की तर्ज पर...
ऐसे तो इस स्टेशन से मेरा हुक्का-पानी का नाता-रिश्ता रहा है। हजारों दफे मैंने इसकी पटरियों को पार किया है। और पंच पैसाही शिक्के को पटरी पर रखकर उसे बार-बार पिचबाया है। लेकिन गत दिनों बेलही कैंप से सहरसा आने के क्रम में मैंने इस स्टेशन को एक नई भूमिका में देखा। इस स्टेशन को देखकर ऐसा लगता है जैसे कोई बैशाखीधारी वृद्ध अपने सिर पर भारी बोझ उठाने की कोशिश में कभी दायीं तो कभी बायीं ओर लुढक जा रहा हो। आखिर कोशी के कहर के बाद लगभग बीस प्रखंडों के दस लाख लोगों को बाहर की दुनिया से जोड़ने का काम कर रहा है यह स्टेशन ।
राघोपुर में डब्बे और इंजन की पाकिंर्ग सुविधा है नहीं और आने वाले दशकों में इसकी संभावना भी नगण्य है; इसलिए ट्रेनों को पटरियों पर ही शंट कर दिया जाता है। दस-बीस लोगों की मेजबानी करने में असमर्थ यह स्टेशन सैंकड़ों लोगों को कहां बिठाये? किसी भूत पूर्व मंत्री और एक अभूतपूर्व मंत्री के करकमलों से उद्‌घाटित प्रसाधन गृह के पास फैली गंदगी और बदबू यही सवाल पूछती है। लेकिन जवाब याित्रयों ने खुद ढ़ूंढ लिया है आैर वे पटरियों पर शंटेड गाड़ियों के डब्बे से ही प्रेक्षा-गृह का काम ले रहे हैं। मैंने भी अन्य याित्रयों का अनुसरन किया आैर प्लैटफार्म से पीछे लगी अपनी शंटेड गाड़ी में बैठ गया, जो दो घंटे बाद सहरसा के लिए प्रस्थान करने वाली थी। डब्बे में कई लोग बैठे थे। अधिकतर बाढ़ पीड़ित। कुछेक दिहाड़ी रोजगारी आैर कुछ हाट-बाजार वाली िस्त्रयां... डब्बा तंग था, लेकिन वहां का माहाैल समाजवादी था, इसलिए हर नये यात्री पुराने से अपने लिए जगह की मांग कर सकता था आैर दूसरा थोड़ा आगे-पीछे, थोड़ा बायें-दायें और थोड़ा ऊपर-नीचे खिसककर उसके लिए जगह पैदा कर देताथा । कभी अनमने होकर तो कभी झुंझलाहट से, तो कभी हंसी-खुशी भी। ट्रेन खुलने में अभी काफी समय शेष था, इसलिए जैसा कि बिहार में चलने वाली रेलगाड़ियों में होता है; उन डब्बों में भी यात्रियों के बीच बहसों का दाैर चालू था।
मेरे वाले डब्बे में काफी गर्मागरम बहस चल रही थी। इसमें हर कोई अपना विचार प्रकट कर रहा था, सिवाय मेरे आैर मेरे बगल में बैठे एक लड़के का, जो पंजाब जाना भी चाहता था आैर नहीं भी। परिचय होने के बाद मैंने उससे पूछा- पंजाब जाना क्यों चाह रहे हो ? उसने जवाब दिया- घर-परिवार चलाने का दूसरा कोई चारा नहीं है। मैंने पूछा आैर नहीं जाना क्यों चाहते हो- जबतक पैसा भेजूंगा तबतक परिवार वाले खायेंगे क्या ; मेरे सिवाय घर में कमाने वाला कोई नहीं है ? मैंने पूछा- घर कहां है ? उसने कहा- घर पानी में बह गया है आैर फिलहाल उसका परिवार राहत-शिविर में है।
बहस चालू था- थोड़ा-बहुत पढ़ा प्रतीत होने वाला 30-32 वर्ष का एक युवक जोर-जोर आवाज में अपना तर्क रख रहा था। वह अपने बात को मनवाने के प्रति सौ प्रतिशत प्रतिबद्ध दिख रहा था, हालांकि वह अपने तर्कों व बातों के प्रति ईमानदार नहीं था। अपनी बात में वजन पैदा करने के लिए या फिर खुद को बुिद्धजीवी साबित करने के लिए वह देसी भाषा में भी विदेशी शब्दों का इस्तेमाल किए जा रहा था। मैंने उसके कुछ शब्द नोट किए- कोरप्शन (करप्शन), वाटर करंट, आरजेडी, डीएम-एसडीओ-बीडीओ। एक दूसरा युवक उसका जोरदार प्रतिवाद कर रहा था- वह अशुद्ध देसी भाषा में बोल रहा था, लेकिन अपनी बातों के प्रति वह पूरा ईमानदार था, इसलिए शब्दों की सतर्कता उसे नहीं आती थी। (मैंने मन- ही- मन सोचा- सा विद्या वा भ्रष्टते ! मैकाले की जय हो !! ) आैर उसने अपना सवाल उछाल दिया था- अच्छा, हमको ई बताइये बैढ़ (बाढ़) के बादे नीतीश सरकार ने क्या कअर लिया ? मान लेते हैं कि बैढ़ दैवी आपदा था, लेकिन ओकर बाद ?? फलनमा के पुतोहू के पेटे में बच्चा मैर गिया, वो भी सरकारी इस्पीताल (अस्पताल) के बरांडा पर (बरामदा) ; ओहो दैवीये आफत था क्या ? राहत सामग्री में लूट मची हुई है, जेहो गांव में पानी नहीं ढूका, उहो गांव के मुखिया रिलीफिया-माल से अपना घर भर रहा है। और जे दहायल-भासल है ऊ सब नहर-सड़क पर घुसकिनीया (घिसटना) काट रहा है ! ... ई सब पर भी देवते-पितर लगाम लगायेगा का ? कि इहो दैवीय आपदा है ??? बोलिये-बोलिये... हूह...
जैसे ही उसने अपने बोलने पर विराम लगाया वैसे ही एक साथ कई जुबानों से सहमति के स्वर फूट पड़े - हं- हं- हं ।।। गप तें ठीके कह रहे हैं ...
(भाई साहेब ! थोड़ा घसकिये !! ... पान-बीड़-सिगरेट !!! आक- थूअअ !!! हैल्लो, हं राघोपुरे में छियो,कायल भोरका गाड़ी से एबो , कि ? माय- ठीके छो, ले गप्प कर.. हैल्लो, हैल्लो, हैल्लो ... लगता है लैन कैट गिया, हैल्लो,लो,लो ... पान-बीड-सिगरेट !!! भाई साहेब, यहां पर सीट खाली है ? नहीं।। आगे बढ़िये ... )
भाई टैम क्या हुआ है ?
साढ़े तीन...
कितने बजे खुलेगा ??
पांच बजे तो लिखता है, लेकिन छह-साढ़े छह से पहले क्या खुलेगी ? आज तक कभी टैम से खुली है ?? हेंहेंहें
देखिये, बात ई है कि कोशी को तो 20 वर्ष से लूटा जा रहा था। हं, ई बात अलग है कि इस बार बांध टूट गया और सारा ठीकरा नीतीश-बिजेंद्र के माथे पर फूट गिया। लेकिन जाकर देखिये न बराज का हाल, 1988 में टें बोल चुका था। एक्सपायर हो गया था। अब एक्सपायरी दवा खाइयेगा तो मरियेगा की नहीं ???
इहो बात ठीक है। कम पढ़ा-लिखा भाई के हाथ से बहस निकला जा रहा था, क्योंकि थोड़ा-पढ़ा लिखा वाला भाई अब बहस में इतिहास, भूगोल और विज्ञान को शामिल कर चुका था। इसलिए कम पढ़ा-लिखा भाई ने मन ही मन सोचा, शायद उसकी अंडरस्टैंडिंग गलत हो। यह तो वर्ष, दवा, एक्सपायरी जैसा शब्द बोल रहा है!! इसलिए उसने अब विरोध करने के बजाय जानकारी जुटाना ही सही समझा, बोला- ठीके में भाई साहेब ? बराज बहुत पहिले (पहले) में बेकाम हो गिया था ?
तो क्या हम झूठ कह रहे हैं। कल के अखबार में भी छपा है, पढ़ लीजियेगा... तो थोड़ा खोलके बताइये ने, क्या सब छपा था अखबार में ?
(शिखर, तिरंगा, राजदरबार ... रे छोड़ा एक ठो तिरंगा दो तो... गरीबों का सुनो वो तेरा सुनेगा/ तुम एक पैसा दोगो वो दस लाख देगा... सूरदास की मदद करो भैय्या... शिखर पान-बीड़-सिगरेट...)
(आगे की बात अगली कड़ी में)

शुक्रवार, 14 नवंबर 2008

बाल दिवस पर काली खबर

भ्रष्टाचार के विषाणु से सड़ती हुई व्यवस्था में क्या नहीं हो सकता ? नैतिक पतन, कर्त्तव्यहीनता, लापरवाही अगर सामाजिक-संस्कृति में बदल जाय, तो कौन-कौन-से अनर्थ नहीं हो सकते? झारखंड की राजधानी रांची के नजदीक सरकारी आदिवासी आवासीय विद्यालय में घटी घटना शायद हमसे यही पूछती है। बेड़ो में स्थित इस विद्यालय के एक सौ से ज्यादा आदिवासी छात्र कल भयानक रूप से बीमार हो गये। पांच ने तत्काल दम तोड़ दिया और 15 की हालत नाजुक बनी हुई है। विरोधावास देखिये- राज्य के मुख्यमंत्री एक आदिवासी हैं, राज्य के शिक्षा मंत्री आदिवासी हैं और इनके विधानसभा क्षेत्र में ही यह विद्यालय अवस्थित है । विद्यालय सत्तर प्रतिशत शिक्षक व कर्मचारी भी आदिवासी हैं। लेकिन वे कुछ नहीं कर सके। यकीन मानिये वे आगे भी कुछ नहीं करेंगेसिवाय चंद आक्रामक बयान और सहानुभूतिक घोषणाओं के।
उपरोक्त बात मैं नहीं कहता, बल्कि पूर्व की घटनाएं और उन पर सरकार द्वारा की गई कार्रवाई का रिकार्ड कहता है। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब विलुप्ति की कगार पर खड़े राज्य के आदिम जनजाति समुदाय के कई लोग भूख, कुपोषण और संक्रामक रोग के कारण असमय मौत के मुंह में समा गये। चतरा, पलामू, गढ़वा और हजारीबाग जिलों से गाहे-बेगाहे इनकी मौतों की खबर आ रही है, लेकिन सरकार इन्हें बचाने में असमर्थ है। शायद वह दिन ज्यादा दूर नहीं जब राज्य की आदिम जनजातियां इतिहास के पन्नों में ही मिले।
अब सवाल उठता है कि ऐसी स्थिति क्यों है? आदिवासी कल्याण के नाम पर बना यह राज्य इतना कमजोर कैसे हो गया ? अगर यहां की सरकार चंद आदिम जनजातियों को भी संरक्षित नहीं रख सकती तो आम लोगों का क्या हाल होगा। सच्चाई यह है कि अब हमारा समाज उस दौर में पहुंच गया है जहां कर्त्तव्यपरायणता और ईमानदारी वाहियात शब्द बन गये हैं। जबकि यह स्थापित सच है कि समाज और देश इन्हीं शब्दों पर चलता है। अभी कुछ समय पहले पूरे देश में सेंथेटिक दूध को लेकर भारी हो-हंगामा हुआ था। उत्तर प्रदेश में दर्जनों सेंथेटिक दूध के कारखाने पकड़े गये थे। बिहार और झारखंड में ऐसे सेंथेटिक दूध उत्पादक फैक्ट्री की बात हुई थी। लेकिन कार्रवाई क्या हुई। हर चौराहे और मोड़ पर गैरपंजीकृत दूध के पाउच बिकते हैं, लेकिन उसकी छानबीन करने वाला कोई नहीं है। कहा जा रहा है कि बेड़ो के बच्चे शायद सेंथेटिक दूध पीने के कारण काल के ग्रास बने। लेकिन सवाल उठता है कि क्या सरकार ने आजतक ऐसा कोई प्रावधान किया जिससे ऐसे विद्यालयों में दूषित भोजन की आपूर्ति को रोका जा सके। नवोदय विद्यालय के बच्चों को पूछिये- सभी बच्चे कहते मिलेंगे कि दस लीटर दूध में छात्रावास प्रबंधन 200 छात्रों को भोजन करा देते हैं। क्या आजतक किसी भी जिले के जिलाधिकारी ने इन छात्रावासों का विजिट किया। जवाब है नहीं।
दरअसल, विजिट करना तो दूर इनके पास तो इन सब बातों पर बात तक करने के लिए समय नहीं है। हर कोई अपने स्वार्थ के पीछे अंधा है। अधिकारी को कमीशन से मतलब है, वह समय पर पहुंच जाय, बस। नेताओं का वोट से मतलब है, वह किसी तरह चुनाव जीत जाय बस। आमलोग इतना उदास हो चुका है, कि वह लड़ने से पहले ही समर्पण कर देता है, किसी तरह दिन गुजर जाय, बस। ऐसी गंधाती व्यवस्था में बाल दिवस अगर काला दिवस में बदल जाय तो किस बात का आश्चर्य। सबकुछ बर्दाश्त कर लेना शायद हमारी नियति हो चुकी है। और शायद हम इनके इतने आदि हो चुके हैं कि हमें अब किसी बात पर गुस्सा नहीं आता।

गुरुवार, 13 नवंबर 2008

सर्द-रात की सुरंग

दहाये हुए देस का दर्द -19
सामने सर्द-रात की लंबी सुरंग है
और मेरी शाम लगातार पतली हो रही है
मेरी जिंदगी की बाती
डूबते दिवाकर और चमकते चांद के बीच
दोनों सिरों से सुलग रही है
मेरी स्मृतियों से लोरियां गुम हो रही हैं
क्योंकि अब बच्चों ने इसके बगैर सोना सीख लिया है
मानव इतिहास के कलंकित पन्ने
मेरे चित के भीत पर चिपकते जा रहे हैं
कांगो, युगांडा, बुरुंडी, हैती
कहर, बेघर, बाढ़ और कोशी
भूख, भय, बेघर और बेटी
रोटी-रोटी-रोटी-रोटी
सामने सर्द-रात की लंबी सुरंग
और मेरी शाम पिघल रही है
अंधियारों में
झुग्यिां बहुत भयावह लग रहीं हैं
ऐसा लगता है जैसे ये शिविर नहीं
हंसते-खेलते घरों का कब्रगाह हों
नींद के लिए संघर्षरत आंखें
आंखें नहीं हादसे का पुनर्पाठ हों
सामने सर्द-रात की लंबी सुरंग
और मेरी शाम दफ्न हो रही है

बुधवार, 12 नवंबर 2008

साम-चके, साम-चके आवियह हे.. .

आज कोशी -मिथिला अंचल का सदियों पुराना लोक पर्व सामा-चकेवा है। आज की रात सामा-चकेवा को भसा दिया जायेगा। चांद की दुधिया रोशनी में बहनें गायेंगी- साम-चके, साम-चके आवियह हे... ढेला फोड़ि-फोड़ि जैयह हे... (ओ सामा-चकेवा की जोड़ी, आज रात तुम जरूर आना, आैर इन ढेलों को तोड़कर ही जाना...) दरअसल कोशी अंचल का यह लोक पर्व निश्छल प्रेमकथा की याद में मनाया जाता है। यह भाई आैर बहन के रिश्ते को भी एक सूत्र में पिरोता है। सामा-चकेवा का पर्व एक प्राचीन लोक कथा पर आश्रित है, जिसमें सामा-चकेवा की प्रेमकथा का जिक्र है। बहन के लिए भाई की कुर्बानी का इस कथा में मार्मिक उल्लेख है। िस्त्रयां पंद्रह दिन पहले से ही मिट्टी का सामा और चकेवा बनाती हैं। हर सुबह और शाम सामा-चकेवा की याद में गाना गाती है । दोनों के प्यार में खलनायक की भूमिका निभाने वाले चुगला की भत्र्सना करती हैं। कार्तिक पूर्णिमा की रात सामा-चकेवा का िस्त्रयां श्रद्धापूर्वक विदाई देती हैं आैर उसकी मंगलकामना करती हैं। चुगला की होली जलाती हैं आैर उसके पतन की अराधना करती हैं। तत्पश्चात ताजा धान से तैयार की गये चिउड़ा-दही का भोज किया जाता है।
बहन ! जलाओ चुगलों के पुतले.. . हर ओर चुगले बैठे हैं... पूरा समाज चुगलों की गिरफ्त में है...

सोमवार, 10 नवंबर 2008

एक गाथा का समापन

सौरव चंडीदास गांगुली। यह सिर्फ एक नाम नहीं, बल्कि प्रतीक और प्रेरणा जैसे शब्दों का पर्यायवाची है । एक ऐसा प्रतीक, जो जीतने की जिजीविषा पैदा करता है। एक ऐसी प्रेरणा जो नाउम्मीदी के घने अंधकार में भी रोशनी की आस जगाये रखती है। सौरव को कौन भूल सकता है ? सौरव, तो वह शिला-पट्ट है जिस पर घिस-घिसकर आज का यह धारदार क्रिकेट-नवदल तैयार हुआ है। जबतक इस दल में धार रहेगी, जबतक इसकी तेज रहेगी, तबतक सौरव रहेंगे। बल्कि यूं कहिए कि आने वाले वक्त में जब-जब कोई भारतीय क्रिकेट टीम जीत के लिए अपनी सबकुछ झोंकती दिखेगी तब-तब अचानक सौरव याद आयेंगे। जबतक छूरी में धार है और उसमें काटने की आखिरी शक्ति बची है, तबतक वह शिला-पट्ट भी है जिस पर घिस-घिस कर, जिसके सान पर बार-बार उस छूरी को चढ़ाया और उतारा गया और लोहे के उस भोथर पत्तर में काटने की शक्ति पैदा की गयी।
मुझे याद आता है 1996- 2008 के 12 वर्षों का सौरवनीत- समयांतराल। यह वक्त की अंतहीन नदी का वह कालखंड है, जिसमें नदी की मौज ने अपने यौवन को प्राप्त किया; जिसमें भारतीय क्रिकेट क्रिकेट का नया व्याकरण पैदा किया। चोटियों पर चढ़कर ऊंचाइयों का मतलब समझा और क्रिकेट की नई-पौध के लिए उर्वर जमीन तैयार की। मुझे याद आता है वर्ष 1996 को सहारा कप। मुझे याद आता है 1998 का एशिया कप का फाइनल। मुझे याद आता है 2001-02 का अफ्रीका दौरा। मुझे याद आता है 2003 का विश्व कप। सहारा कप में इस पतले-दुबले खिलाड़ी ने अकेले अपने दम पर पाकिस्तान को धूल चटा दी। तब के कप्तान सचिन को कहना पड़ा यह खिलाड़ी नहीं, बल्कि सेकरेट वीपन है। बैट थामा तो रन बरसाये, गेंद पकड़ी तो गिल्लियां बिखेरीं और भारत ने अपने चिरप्रतिद्वंदी पाकिस्तान को मात दे दी।
बांग्लादेश की राजधानी ढाका में फाइनल मुकाबले जीतने के लिए भारत को 318 रनों का विशाल लक्ष मिला था, सचिन रूपी चकौचोंध बिना जले ही बुत कर पवैलियन लौट चुका था। लेकिन सौरव ने रॉबिन सिंह के साथ मिलकर ढाका की पीच पर खूंटा गाड़ दिया और शानदार शतक बनाकर एशिया कप भारत की झोली में डाल दिया। यह वह खिलाड़ी था जो बड़े मैचों और तगड़ी टीमों से डरता नहीं था। जब कभी टीम को जरूरत पड़ती सौरव का बल्ला गरजने लगता था। उनके शाट बिजली की भांति ऑफ साइड की सीमा लांघ जाती और विपक्षी टीम के कप्तान निस्सहाय दिखने लगते।
यह सौरव ही है, जिसने भारतीय बल्लेबाजों को क्रीज छोड़कर बाहर निकलना और ऊंचा शाट मारना सिखाया । सौरव से पहले शायद भारतीय बल्लेबाजों को मालूम भी नहीं था कि कैसे क्रीज छोड़कर छक्के लगाये जाते हैं। नवजोत सिंह सिद्धो ने स्पीनरों के खिलाफ ऐसे कुछ शाट जरूर खेले, लेकिन वे जितने छक्के लगा पाये उससे ज्यादा दफे आउट हुए। लेकिन सौरव ! जेफ बायाकॉट ने तो एक बार कहा था- अगर सौरव ने क्रीज छोड़ दी तो गेंद सीमा रेखा के बाहर ही जायेगी, कोई भी गेंदबाज तब कुछ नहीं कर सकता। अगर वह गेंद की पीच पर नहीं पहुंच पायेगा तो इनसाइड आउट मार देगा और आप कवर बाउंड्री के बाहर से गेंद लायेंगे और अगर उसका बल्ला गेंद की पीच पर पहुंच गया तो फिर बाउंड्री कोई भी हो सकता है। सौरव जिधर चाहे उधर उसे पहुंचा देगा। वह आपको मीडविकेट के ऊपर, लांग आन, लांग आफ या फिर स्ट्रेट आफ द बालर हेड, कहीं भी भेज सकता है। सौरव के 190 से ज्यादा छक्के इस बात का प्रमाण है। मुझे याद आता है - सौरव का 2001-02 का अफ्रीका दौरा। इसमें सौरव ने अफ्रीका की नामी पेस तिकड़ी- एलन डोनाल्ड, मखाया एनतिनी और शान पोलाक के खिलाफ लगाये गये 18 छक्के । सौरव ने इस श्रृंखला में इनसाइड आउट छक्के से इन गेंदबाजों की नींद हराम कर दी थी। टीवी के एक्शन रिप्ले में इन छक्कों को देखना एक अमिट अनुभव था। मानो कोई कोई चित्रकार ग्लासी कागज पर अपने ब्रश-कुचे चला रहा हो। गेंद और बल्ले का स्पर्श सुहाना, गेंद का ट्रेजेक्टरी अनोखा और तय की गयी दूरी- सौ मीटर । एक प्रोजेक्टाइल की तरह निकलती थी गेंद और दर्शक दीर्घा में समा जाती थी।
सौरव विज्ञापन की एय्यारी-फैंटेसी दुनिया द्वारा तैयार किया गया ग्लैमर-ब्वाय नहीं था। न ही वह रूटीन मैचों और फ्लैट पीचों का शेर था। वह बड़े मैच का बड़ा खिलाड़ी था। वह बड़े मैच का अनोखा नेता था, जो 11 खिलाड़ियों से मैच जितना चाहता था। यह कैप्टनशीप के उसके अद्वितीय नेतृत्व-प्रतिभा का द्योतक है। सौरव जैसे खिलाड़ियों को जो सम्मान मिलना था वह नहीं मिला। जमाने ने हमेशा उसे अपना निशाना बनाया। परदेशियों ने मजाक उड़ाया और अपनो ने धोखा दिया। आज कोई नहीं कहता- सौरव नहीं होता तो धोनी भी न होता; दादा न होता तो युवराज भी न होता; न सेहवाग होता और हरभजन। सौरव क्या ऐसी ही विदाई का हकदार था। क्या वह बंगाली था, इसलिए या वह क्रिकेट के उस जोन से आता था- जिसे कभी बेदी जैसे लोग ननक्रिकेटिंग रीजन कहते थे, इसलिए! मैं आजतक नहीं समझ पाया।
सौरव चिंतनशील व्यक्ति हैं। वह आत्ममुखी स्वभाव के हैं। वह जान गये कि अब हिज्र की घड़ी आ गयी है, इसलिए उसने क्रिकेट को भारी मन से बाय-बाय कह दिया। लेकिन सौरव के हिज्र के साथ ही भारतीय क्रिकेट की एक गाथा का समापन हो गया। एक ऐसी गाथा, जिसे सचिन जैसे रिकार्डों के पहाड़धारी भी नहीं रच सके। सौरव की विदाई के बाद मुझे किसी शायर की चार पंक्तियां दोहराने का मन करता है
किसी के सव-ए- वश्ल हंसते कटे हैं
किसी के सव-ए- हिज्र रोते कटे हैं
यह कैसा सव है या खुदा !
न हंसते कटे हैं न रोते कटे है

बुधवार, 5 नवंबर 2008

खड़ा-खड़ा हमने सोचा

दहाये हुए देस का दर्द-18
कभी
राजधानी एक्सप्रेस की भागती हुई अपारदर्शक खिड़की को देखते हुए
कभी
राजधानी की सड़कों से गुजरते शायरन- काफिलों को निहारते हुए
और कभी
सहरसा-खगड़िया रेलवे लाइन्स के जनरल बॉगी में लटकते नदीमारों को सुनते हुए
हमने सोचा
कि इस दुनिया में हर कोई बाढ़-पीड़ित है
कि जैसे हर आदमी के सिर पर कोई-न-कोई कोशी लटकी हुई है
अभी
तीस-पैंतीस लाख लोगों की साठ-सत्तर लाख आखों में
अभी
दो-तीन पार्टियों के चुनाव-चिंतन बैठकों में
हमने देखा
कि कुछ खोने का डर कितना भयानक होता है
कि पैरों के नीचे की जमीन अगर खिसक जाय
तो जैसे कायनात ही खिसक जाती है
और आज सुबह
राहत-शिविरों को दूर से निहारते हुए
उगते प्रभाकर को अर्घ्य देकर लौटते हुए
हमने जाना
कि अब यह सूर्य भी सबका नहीं रहा
कि यह सुबह कितना अंधियारा है

रविवार, 2 नवंबर 2008

अभी-अभी विधवा हुई महिला

उसे नहीं मालूम कि उसके गांव से किस ओर है वह देस
कैसे दिखते हैं उधर के लोग
किस बात पर उन्हें आता है गुस्सा
किस बात पर लगाते हैं वे ठहाके
और उनकी सजा व इनाम के मानदंड क्या हैं
उसके पति ने पिछली बार बताया था
कि उस शहर में ऊंचे-ऊंचे अनगिनत मकान हैं
कि उस शहर में बड़े-बड़े लोग रहते हैं
कि उस शहर में लोग ही लोग रहते हैं
टीवी वाले, सिनेमा वाले
खोमचे वाले, नोमचे वाले
खंदूक-बंदूक और संदूक वाले
पर
पति ने नहीं बताया कभी
कि उस शहर में भी हैं ठाकुर जैसे नृशंस
जो एक इंच जमीन के लिए गिरवा सकते हैं दो दर्जन लाशें
नीम-बेहोशी में पड़ी वह महिला
जिसने अभी-अभी पोंछी है सिंदूर और तोड़ी हैं चूड़ियां
सोचती है --
कि वे लोग नहीं, आदमखोर होंगे
महिषासुर जैसी होंगी उनकी सूरतें
हाय ! कोई बता दे उसे
कि उसके गांव से किस ओर है वह शहर
कैसे हैं वहां के लोग, कैसा है उनका इंसाफ

शनिवार, 1 नवंबर 2008

राख में दब जायेंगे आग के सवाल

दिलों को जलाकर अलाव तापना भारत के राजनेताओं का सबसे पसंदीदा शगल है। बांटो और वोट बटोरो हमारे राजनीतिक संस्कार बन गये हैं। इस देश की लगभग सभी राजनीतिक पार्टी बांटो और वोट लो के मंच पर नाचकर वोट रूपी वाहवाही बटोरती रही है। आज अगर राज ठाकरे नाच रहे हैं, तो इसमें हैरत की कौन सी बात है ? सच तो यह है कि राज ठाकरे भारतीय राजनीतिक संस्कृति के बांटो और राज करो के अचूक हथियार की सर्वसत्ता का ही उपासना कर रहे हैं, जिसे पूज-पूजकर कई भ्रष्ट, अकुशल और क्षुद्र नेताओं ने सड़क से संसद तक की सफल यात्रा की एवं राजभोग का परमानन्द प्राप्त किया।
राज ठाकरे को नेता बनने की जल्दी है। उसे अविलंब महाराष्ट्र की सर्वोच्च् कुर्सी चाहिए। समय कम और लक्ष्य बड़ा। समाज सेवा के लंबे, श्रमसाध्य और घुमावदार रास्ते पर आजकल चलता कौन है। हर किसी को अपनी चिंता है, अपने मंजिल तक पहुंचने की हड़बड़ी है। चाहे इस शार्ट-कट और विध्वंसक राजनीति के एवज में देश और समाज हलाल हो जाय तो जाय। इसलिए राज ठाकरे ने भी शार्ट-कट रास्ता अख्तियार किया है। ठीक वैसे ही जैसे कभी उसके चाचा ने किया था। महाजनो येन गता, सा पंथा की सीख उसका मार्गदर्शन कर रहा है। वह पूरे तन-मन-धन से अपना कर्म करते जा रहा है। उनकी आंख सिर्फ अपने लक्ष्य पर है। लेकिन इधर उत्तर भारत में कोहराम मचा हुआ है। कोई उसे मानसिक रूप से विक्षिप्त कर रहा है तो कोई देशद्रोही। जबकि सभी जानते हैं कि राज उन्हीं लोगों के बताये रास्ते का अनुसरण कर रहे हैं।
राज ठाकरे की बात समझ में आती है। वह अग्नि-उपासक हैं और भस्म रमाकर महाराष्ट्र के महायोगी बनने की पुरुषार्थ कर रहे हैं। लेकिन राज के इस देशतोड़-यग को लेकर बिहार के झंडावरदार बने लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान, शरद यादव और एवं हिन्दी पट्टी के तथाकथित हितैषी नेता मुलायम सिंह यादव, अमर सिंह, मायावती की प्रतिक्रिया समझ में नहीं आती। ये तो यही बात हो गयी कि डेगची केतली से कहे तुम्हारी पेंदी हमसे ज्यादा काली। बिहार और उत्तर प्रदेश के समाज को जाति में बांटकर राजनीति के हाशिये से मुख्य पृष्ठ पर छलांग लगाने वाले नेता यह क्यों भूल जाते हैं कि जातिवाद, धर्मवाद और क्षेत्रवाद अलग-अलग खेल नहीं है। ये सभी बांटो और वोट लो खेल के ही पर्यायवाची शब्द हैं।
वास्तव में राज ठाकरे को मानसिक रूप से विक्षिप्त कहने वाले शायद अपना चेहरा छिपाने की ही कोशिश कर रहे हैं। राज द्वारा लगायी गयी आग पर हर पार्टी बस बचकर निकलने के फिराक में हैं। ये नेता और इनकी पार्टियां क्षेत्रीयता की इस आग से उठ रहे उन सवालों का जवाब भी नहीं देना चाहते जो आज आम बिहारी को रोजी-रोटी के लिए दर-दर की ठोकर खाने के लिए मजबूर कर रहे हैं।
राज के राजद्रोह की हरकत के कारण देश के संघीय ढांचों को जो चोट पहुंच रहा है और आने वाले दिनों में जो चोट लगेंगे उसकी तो शायद किन्हीं नेता को आभास भी नहीं है। अगर ऐसा होता तो अंग्रेजों को ठिकाने लगाने वाला यह देश राज के सामने यूं लाचार नहीं दिखता। लेकिन खासकर बिहार के नेताओं की संवेदनशून्यता पर तरसने का मन करता है। बिहार के नेताओं को मालूम होना चाहिए कि पिछले वर्षों में इस राज्य की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से मनीआर्डर अर्थव्यवस्था बनकर रह गयी है। उत्तर बिहार की लगभग आधी ग्रामीण आबादी आज अन्य राज्यों से भेजे गये मनीआर्डर पर ही अपना गुजारा करती है। महाराष्ट्र से अगर बिहारी निकल भी जायें तो उनका गुजारा हो जायेगा, लेकिन अगर पंजाब, हरियाण, गुजरात बिहारियों के लिए बंद हो गये तो क्या होगा, इसका अंदाजा तक नहीं लगाया जा सकता। राज ने देश के संघीय ़प्रणाली और संविधान पर जो प्रश्न चिह्न खड़ा किया है, उसका जवाब देने की जिम्मेदारी पूरे देश के नेताओं की है। बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश के लोगों की यह अकेली जिम्मेदारी नहीं है। लेकिन बिहार के नेताओं की यह जिम्मेदारी जरूर है कि वह अपने चूल्हे की फिक्र करें। लेकिन ऐसी इच्छाशक्ति बिहारी नेताओं में नहीं दिखती। जैसा कि हमेशा से होता आ रहा है वही होगा। कई मासूम और श्रमजीवी लोग इस आग में जला दिये जायेंगे, देश और समाज पहले से ज्यादा कृशकाय हो जायेगा और बचे रह जायेंगे राख और उसमें दबा दिये गये उपरोक्त सवाल। भस्मांकुरण में अंधविश्वास रखने वाला यह देश बार-बार जलता और बूझता रहेगा। अगर यह सच नहीं होता तो कभी बर्मा से अफगानिस्तान तक का भारत आज आधे कश्मीर और एक चौथाई अरुणांचल प्रदेश गंवाकर भी यूं चैन से बैठा नहीं होता।

शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2008

पानी और जोंक


दहाये हुए देस का दर्द-17
अब पानी ठहरने लगा है कुछ करो साथी
चिपके जोंकों से अपना दामन बचाओ साथी
तुलसी-चौरा की छोड़ो,बथान पर बंधे की सोचो काकी
सांझ के दीप से कुकुरमाछी को भगाओ काकी
जलदराजों की पाचन-शक्ति को मत कम समझो दादी
इनके उदर में है इस नदी की लाश दादी
इनके सूरतो-शक्ल पर न जाना मांझी
नाव डूबाकर लहू पीने के ये हैं आदि
अब पानी ठहरने लगा है कुछ करो साथी
घिरते जोंकों से अपना दामन बचाओ साथी

गुरुवार, 30 अक्तूबर 2008

आइह भ्रातिद्वितिया के दिन हे

अंगना नीप बहिना अरिपन काढ़े
आइह भ्रातीद्वतिया के दिन हे ...
डोय़्‌ढी पर टाढ़ बहिना रस्ता निहारे
एही बाट औता भैया मोर हे...
(आंगन को गोबर-मिट्टी से पवित्र कर बहन अरिपन काढ़ रही है, क्योंकि आज भ्रातिद्वितिया का दिन है। डोय़्‌ढी पर खड़ा हो के बहन रास्तों को निहार रही है और सोच रही है कि इसी रास्ते से मेरे भैया आयेंगे)
यह मैथिली का एक लोकगीत है। भ्रातिद्वितिया पर्व के अवसर पर कोशी-अंचल की बहनें यह गीत गुनगुनाती हैं। इस पर्व की शुरुआत कैसे हुई इसका कोई प्रमाणिक इतिहास नहीं है। इसे लेकर तरह-तरह की मिथकें प्रचलित हैं। लेकिन सबसे तर्कसंगत मिथक, जिससे अधिकतर विद्वान सहमत हैं वह सीधे-सीधे कोशी-अंचल के बीहड़ भूगोल से जुड़ती है। इसके अनुसार पूर्वी बिहार के लोग सदियों से हिमालय से निकलने वाली नदियों से प्रताड़ित होते रहे हैं। बरसात के चार महीने यथा आषाढ़, सावन, भादो और

आश्विन
(चाैमासा) में ये नदियां उमड़ जाती थीं। नदियों की बाढ़ के कारण रास्ता-बाट बंद हो जाते थे। लोग चार महीनों तक अपने बंधु-बांधव, हित-मीत, कर-कुटुम्बों से कट जाते थे। उस जवाने में दूरसंचार का कोई अन्य माध्यम था नहीं, इसलिए बरसात ॠतु के
खत्म होने के
बाद लोग अपने सगे-संबंधियों का हाल-समाचार जानने के लिए व्यग्र हो उठते थे। पता नहीं किस गांव का क्या हाल है ? हैजा, मलेरिया और डायरिया ने कितने को काल-कलवित कर लियाहोगा !! चूंकि कार्तिक मास आते-आते नदी-नाले उतर जाते थे और पानी कम होने के कारण आवागमन सुगम हो जाता था। इसलिए बहनों का हाल लेने के लिए भाई भ्रातिद्वितिया के दिन उनके ससुराल पहुंचते थे। इससे जहां भाई-बहन के रिश्ते तिरोहित होते, वहीं दोनों परिवार नदियों से दिए गये दुखों को भी आपस में बांटकर जी हल्का कर लेते थे। पर्व के सामाजिक महत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जिन बहनों के अपने सगे भाई नहीं होते उनके चचेरे, ममेरे, फूफेरे आैर यहां तक की मुंहबोले भाई इस रश्म को पूरा करते। कालांतर में समाज के भूगोल, अर्थशास्त्र और भावशास्त्र में बदलाव हुए और भ्रातिद्वितिया भी अनिवार्यता की स्थिति से उतरकर आैपचारिकता के खांचे में आ गया। अभिजात वर्गों ने आर्थिक और उपभोक्तावादी उन्नति की होड़ में पहले इससे किनारा किया और बाद के वर्षों में मध्यमवर्गीय लोगों ने भी इससे अलग होना शुरू कर दिया। लेकिन निम्नमध्यमवर्गीय और निम्न वर्गीय लोग इसे आजतक अपने सीने से लगाये हुए हैं। एक अमूल्य निधि की तरह।
सुबह आठ बजे मैं मधेपुरा के बस अड्डे पर खड़ा हूं। आज बस, टैक्सी, रिक्शे, टमटम वालों की चांदी है। महिंद्रा कंपनी की 12 सीट वाली जीप पर उसका चालक तीस-तीस आदमी को बिठा रहा है। ये बहनों के यहां जा रहे भाईयों की भीड़ है। हर भाई के हाथ में मोटरी (गठरी) है। मोटरी में चिउड़ा है, मूड़ही है, पिरकिया है और साड़ी भी है। लेकिन जीप वाले, बस वाले, टमटम वाले इन मोटरियों से परेशान है।
मैं मधेपुरा से भीमनगर के लिए चली जीप पर सवार हुआ हूं। मुझे बीरपुर जाना है। कोशी की काली बाढ़ के बाद भी मेरी छोटी बहिन ने इस शहर को नहीं छोड़ा। इस जीप में 20-22 अन्य भाई भी सवार हैं। किसी को नेपाल जाना है, तो किसी को
कुनौली... लेकिन बीरपुर जाने वाले भाइयों की संख्या काफी कम है। अगर कोशी-कांड न हुआ होता, तो इस जीप पर सबसे ज्यादा बीरपुर जाने वाले भाई ही होते।
इन भाइयों और बस कंडक्टर के बीच लगातार बकझक हो रहा है। भाड़े को लेकर, बैठने के लिए सीट को लेकर, ड्राइवर द्वारा जीप को बारबार रोकने को लेकर ... 45-50 किलोमीटर का यह सफर, इसके अंदर की बतकही, रगड़- झगड़ और गप्पशप मुझे काफी मजेदार और मार्मिक लगा। इसलिए आपके साथ बांट रहा हूं।
जीप वाला एक भाई से- इसका भी भाड़ा लगेगा !!!
किसका ?
इस मोटरी का...
काहे ?
गाड़ी में जगह नहीं है, मोटरिये से भर गिया है, मोटरी उघेंगे, तो सवारी को कहां बैठायेंगे ?
अपना कपार (सिर) पर बैठा लो... मोटरी के भाड़ा लेगा सरबा, इहह !!!
देखिये गैर (गाली) मत पढ़िये, सो कह देते हैं...
सहयाित्रयों का हस्तक्षेप...
अरे छोड़ो भी भाई। भरिद्धतिया (भ्रातिद्वितिया) के भार (पकवान) है। तुमको बहिन नहीं है क्या ???
कंडक्टर चुप हो जाता है। एक पल के लिए वह खो जाता है कहीं, किसी शून्य में।
मुझे लगता है शायद उसे अपने बहन की याद आ गयी । वह किसी समझदार बालक की तरह चुप हो गया।
एई बढ़ाके, बढ़ाके...
सिमराही, करजाइन, भीमनगर, रानीगंज...
सरबा आब कहां बैठायेगा रे ?? सीधे चलो, मादर... रोडो खतमे है ! अई भाई साहेब , थोड़ा खिसक के बैठिये न। कहां खिसके? सुईया घसकने जगह नहीं है आउर आप कहते हैं, घसकिये ...
एई ड्राइवर ? जल्दी-जल्दी हांको ने रे ? हमको साला, राजबिराज (नेपाल) जाना है, बहिन रास्ता देख रही होगी...
चलिये तो रहे हैं, का करें चक्का के जगह अपना मुंडी लगा दें गाड़ी में ...
आप कहां जाइयेगा भाई साहेब ?
हम बीरपुर...
बीरपुर कें कहानी तें मते पूछिये। खतम हो गिया पूरा शहर। एक ठो सेठ हमको एक दिन सहरसा में भेटाया था, बोल रहा था। दादा 2200 टका (रुपया) लेकर राजस्थान से बीरपुर आये थेआैर 2100 रुपये का सरकारी राहत लेकर अपन देस जा रहे हैं। पचास वर्षों तक बिजनेस किया। कमाकर जमीन-जगह, घर-द्वार सब बनाया। लेकिन एके राति (रात) में माय कोशिकी सब बहाकर ले गयी। बहुत खराब दृश्य है। हमर दादा अगर आज जिंदा रहते तो उनसे हम कहते- तू कि देखलह कोशी नांच, लांच ते देखलिय हम सब (आप क्या देखे थे कोशी का तांडव रूप, तांडव कोशी को तो हमलोगों ने इस बार देखा)। दोहाई माय कोशिकी ?
...मुर्लीगंज तें भाई साहेब साफे बर्बाद हो गया ?
आउर छातापुर (एक तीसरे यात्री का हस्तक्षेप) ?
हं, हं छातापुरों तें उजड़ गिया ?
गाड़ी तेज चलाओ रे मादर... कंडक्टर !!
कहते हैं गाली नहीं दीजिए। अरे सरबा तूं हमर बेटा के उमर के है, तोरा मादर.. . बोलेंगे तो तूं गाली मानेगा !!!
हा-हा-हा ... पूरी जीप ठहाका से गूंज जाती है।
सरबा तहूं कोशी जइसे गरमा रहा है रे। कंडक्टर फिर झेंप गया।
फिर कोशी की गाथाएं शुरू हो जाती हैं। बीच-बीच में लोग घड़ी की ओर देखकर चालक-कंडक्टर को गलियां देते हैं। तीन बजे जीप भीमनगर पहुंच जाती है। जो लोग बाढ़ के बाद पहली बार यहां पहुंचे हैं - वह आश्चर्यचकित होकर इस शहर को निहारने लगते हैं। उन्हें भीमनगर को पहचानने में दिक्कत्‌ हो रही है, क्योंकि कोशी ने इस शहर का चेहरा बिगाड़कर रख दिया है। लेकिन मैं उस शहर की ओर जा रहा हूं , जहां कोशी कांड के दरिंदों का मुख्यालय भी और जो शहर इस बाढ़ में पूरी तरह नेस्तनाबूद हो गया है। शहर बीरपुर ! मेरी बहन इसी शहर में है!! और आज मैं भी बीरपुर में हूं क्योंकि
आइ भ्रातिद्वितिया के दिन हे...