अंग्रेजी में एक कहावत है- साइलेंसी इज द बेस्ट आंसर। मुझे नहीं मालूम कि कितने लोग इस कहावत से सहमत हैं और कितने लोग असहमत। लेकिन मुझे यकीन है कि जो लोग उत्तर देने के लिए बाध्य होते हैं और जिन्हें जवाब देने के लिए ही नियुक्ति किए जाते हैं और बदले में वेतन, पद और सुविधाएं मुहैया कराये जाते हैं, वे निश्चित रूप से इस कहावत के मुरीद होंगे। हालांकि कहावत का वास्तविक संदर्भ तब बनता है जब सवाल पूछने वाले अचानक खामोशी की चादर ओढ़ ले और बोलने वाले चुपी साध ले। शोर मचाने वाले गूंगे और चुप कराने वाले मुखर हो जायें, तो समझ लीजिए कुछ अप्रत्याशित होने वाला है।
प्रजातंत्र के सबसे बड़े सवालकर्ता जनता होती है। जनता ही इसके असल वक्ता होते हैं और वास्तविक प्रश्नकर्ता। लेकिन इस बार ये प्रश्नकर्ता खामोश हैं। मैं समूचे भारतवर्ष की बात नहीं कर रहा, क्योंकि इसका मुझे इल्म नहीं है। लेकिन बिहार और झारखंड की जनता इस बार खामोश हैं। अंग्रेजी दां लोग इन्हें 'साइलेंट वोटरर्स' कहते हैं। लेकिन मुझे नहीं लगता कि वे वही साइलेंट वोटर्स हैं, जो अमेरिका-ब्रिटेन आदि देशों में पाये जाते हैं और जिनके बारे में कहा जाता कि ये चुपचाप अपने मत डालते हैं और किसी पार्टी या नेता के लिए नारे नहीं लगाते। इनके बारे में कहा जाता है कि ये काफी परिपक्व वोटर्स होते हैं और उत्तेजना में या आक्रोश में आकर कभी मतदान नहीं करते, बल्कि वे बहुत सोच-समझकर अपने मत का इस्तेमाल करते हैं और बेस्ट को चुनते हैं। लेकिन जिस खामोश वोटर्स की मैं बात कर रहा हूं, वे इन पश्चिमी साइलेंट वोटर्स से थोड़े भिन्न लग रहे हैं।
ये चुप हैं, लेकिन शांत नहीं हैं। ये खामोश हैं और निराश भी। इनके भीतर आक्रोश है, लेकिन वह जम गया है, फ्रिज हो गया और बहुत उदासी से रिस रहा है। इनकी खामोशी की तुलना आप काला पत्थर फिल्म के नायक (अमिताभ बच्चन ) की चुपी से कर सकते हैं।
पिछले कुछ दिनों में मैंने बिहार और झारखंड के कई क्षेत्रों का दौरा किया है। यूपीए, एनडीए, राष्ट्रीय जनता दल, झारखंड मुक्ति मोर्चा, जनता दल युनाईटेड और बहुजन समाज पार्टी के लगभग सभी बड़े नेताओं के सभाओं में मौजूद रहा हूं। जो एक बात मैंने लगभग हर सभाओं में नोट किया वह यह कि इस बार नेताओं के सभाओं में लोग नहीं पहुंच रहे। चाहे वह लालकृष्ण आडवाणी या नरेंद्र मोदी की सभा हो या फिर सोनिया गांधी और राहुल गांधी की। हर नेता हवा को संबोधित कर रहे हैं। जनता दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहीं। जो गिने-चुने लोग सभा में पहुंच भी रहे हैं, उनमें भी नेताओं के प्रति, उनके भाषणों के प्रति कोई दिलचस्पी नहीं दिखती। यहां तक कि हेलीकॉफ्टर से उतरकर मंच पर चढ़ने के समय भी नेताओं के नाम और जिंदाबाद के स्वर सुनाई नहीं पड़ते, जोकि पहले की चुनावी-सभाओं में आम हुआ करते थे। भद्द तो तब पीट जा रही है, जब नेताओं के चंद चमचे राहुल गांधी, सोनिया गांधी, नरेंद्र मोदी, लालू यादव, रामविलास पासवान आदि जिंदाबाद बोलते-बोलते थक जाते हैं, लेकिन जनता नहीं बोलती। पांच-दस बार प्रयास करने के बाद चमचे भी चुप हो जाते हैं । चमचे यह कहकर कि "क्या हो गया है लोगों को, एको ठो नहीं जवाब दे रहा है', अपने माथे ठोक ले रहे हैं। हजारीबाग के कांग्रेस प्रत्याशी सौरभ नारायण सिंह ने चंद दिनों पहले रामगढ़ शहर में राहुल गांधी को बुलाया था, लाखों बहाकर कुछ भीड़ भी जुटायी, लेकिन जब राहुल पधारे, तो जनता में कोई लहर नहीं, कोई सिहरन, सभी लोग ऐसे खड़े थे जैसे अभी-अभी नींद से उठे हों। ऐसा ही नजारा नरेंद्र मोदी की रांची सभा, आडवाणी की जमशेदपुर सभाओं में भी देखने को मिला। यह अपूर्व है और अप्रत्याशित भी।
मुझे याद आते हैं 1988 का चुनाव, 19991 का चुनाव, 1998 का चुनाव । यहां तक की 2004 का चुनाव भी मुझे याद आ रहे हैं। उन दिनों नेताओं को सुनने हजारों-लाखों की संख्या में लोग पहुंचते थे, बिल्कुल स्वेच्छा से। जब नेता सभा-स्थल में दाखिल होते थे तो जिंदाबाद, इंकलाब के नारे से शहर दहल उठता था। लोगों में एक उत्तेजना, एक जोश दिखता था। लेकिन इस बार ऐसा कुछ दिखाई नहीं दे रहा। पिछले 15 दिनों में मैंने दो दर्जन से ज्यादा सभाओं को कवर किया है, लेकिन कहीं भी किसी भी सभा में मुझे वे दृश्य दिखाई नहीं दिये।
मुझे नहीं पता कि जनता इतना र्निजान, इतना ऊर्जाहीन, इतना सुस्त, इतना खामोश क्यों है। क्या उनका नेताओं से मोहभंग हो गया है। क्या वे नेताओं की बेवफाई से टूट गयी है या अंदर ही अंदर उनके अंतस में कुछ उबल रहा है ? मुझे नहीं पता ? लेकिन एक बात जो मैं समझ रहा हूं वह यह कि इस बार वे कुछ भिन्न करने वाली है। लेकिन उनके इस बदले एपरोच का परिणाम क्या होगा, यह तो 16 मई को पता चलेगा। कहीं यह भारतीय मतदाताओं की परिपक्वता की निशानी तो नहीं ???