रविवार, 26 अप्रैल 2009

मरी हुई इच्छाओं की तरह

भटकाव के इस दौर में
जब
नीति, सिद्धांत, वाद और विचार
यहां तक कि नदी-समुद्र-हिमनद और पहाड़
अचानक अपने-अपने रास्ते छोड़ रहे हैं
तब
कीचड़-सने हमारे ये गुस्से स्थिर हैं
आदमी के असल आक्रोश लंबित हैं
टोपरों में बंद बदबूदार सूअरों की तरह
गड्ढों में जुगाली करतीं निश्चंत भैंसों की तरह
जब
जंग और शांति में कोई फर्क न हो
हर जंग जैसे पहले से फिक्स हो
सारी क्रांतियां अभूतपूर्व ढंग से जड़ हों
तब
रक्तहीन-भावविहीन हमारे ये चेहरे जीवित हैं
अल्लाह-ईश्वर में बंटी भीड़ मृत है
मरी हुई इच्छाओं की तरह
अतृप्त आत्माओं की तरह

1 टिप्पणी:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

अद्भुद रचना संसार...........जब सब कुछ परिवर्तन शील है.............तो हमारा गुस्सा, अक्रोच क्यों स्थिर है ............सारी क्रांतियाँ जड़ हैं........बहुत खूब