भारत और नेपाल के बीच लगभग 1800 किलोमीटर की सीमा-रेखा है। यह दुनिया की अकेली अंतरराष्ट्रीय-सीमा है जिसे पार करने के लिए वीजा और पासपोर्ट की जरूरत नहीं होती। भारत और नेपाल केबीच सदियों से "बेटी-रोटी' का रिश्ता है, जिसके कारण यह व्यवस्था आज भी चल रही है। दोनों देशों की सरकार चाहकर भी इसे खत्म नहीं कर सकती। लेकिन अब शायद यही बात सरहदी वाशिंदों के लिए अभिशाप साबित हो रही है। खासकर कोशी इलाके के सरहदी वाशिंदों के लिए, जो वर्षों से सड़कविहीन हैं। उल्लेखनीय है कि कोशी इलाके के चार जिले मसलन मधुबनी, सुपौल, अररिया और किशनगंज की उत्तरी सीमा नेपाल से लगी हुई है। इन जिलों के लगभग 400 पंचायत सीधे नेपाल से लगे हुए हैं।
इन पंचायतों के लोगों का अक्सर नेपाल आना-जाना होता है। नेपाल जाना और आना उनके दैनिक गतिविधियों का हिस्सा है। वे काज-रोजगार से लेकर वैवाहिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जरूरतों के लिए हर दिन नेपाल जाते-आते रहते हैं। लेकिन उनकी विडंबना यह है कि इसके लिए उन्हें पैदल चलना पड़ता है, क्योंकि इन गांवों में आज तक राज्य या केंद्र सरकार ने सड़कें नहीं बनायी। प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के अस्तित्व में आने के बाद इन गांवों के लोगों को काफी आस जगी थी, लेकिन आज इस योजना के अस्तित्व में आये हुए आठ वर्ष से ज्यादा होने वाले हैं, लेकिन इन गांवों की सड़कें नहीं बनायी गयी। पक्की सड़क की बात तो छोड़िए, इन गांवों में कच्ची सड़कें तक नदारद है। अगर आप सीमा तक जाना चाहते है तो हर जगह पीच रोड से चार-पांच किमी की दूरी पगडंडियों के सहारे तय करनी पड़ेगी।
इलाके के लगभग पांच लाख लोग वर्षों से सड़कों की मांग कर रहे हैं, लेकिन सरकारें ध्यान नहीं देती। यह बात समझ से परे है कि आखिर सरकार इन गांवों को आदिम युग में क्यों रखना चाहती हैं। अगर अंतरराष्ट्रीय सीमा वजह है, तो सरकार इस बात का खुलासा क्यों नहीं करती। वैसे यह तर्क भी अपने आप में बेतुका लगता है कि सड़कें रहने से क्षेत्रों में गैरकानूनी गतिविधियां बढ़ेंगी। क्योंकि यह स्थापित तथ्य है कि जहां आवागमन का साधन जितना कम होता है और जो क्षेत्र बीहड़ होते हैं, वहीं सबसे ज्यादा गैरकानूनी गतिविधियां होती है। जंगली बीहड़ों में ही नक्सली भी रहते हैं और चंबल घाटी से आजतक लुटेरे खत्म नहीं हुए। दूसरी बात यह कि सड़क नहीं होने की स्थिति में उन इलाकों में सुरक्षा बल भी जरूरत पड़ने पर नहीं पहुंच सकते। जिसका अपराधी और असमाजिक तत्व जमकर फायदा उठाते हैं।
चुनावी मौसम में जब नेता इन इलाकों में वोट लेने जाते हैं, तो वे लोगों से सड़क का वादा करते हैं। लेकिन हर नेताओं के वादे झूठे साबित हो चुके हैं। इस इलाके के लोगों ने एक-एक कर लगभग सभी प्रमुख दलों के नेताओं को जीताकर देख लिया, लेकिन उनकी पीड़ा किसी ने नहीं सुनी। आजतक किसी भी नेता ने इस मसले को विधानसभा या लोकसभा में नहीं उठाया।
इलाके के लोगों ने दावे बहुत सुने, न सिर्फ अररिया बल्कि किशनगंज, सुपौल व अन्य सीमावर्ती क्षेत्र के सांसदों से शीघ्र निर्माण का आश्वासन भी पाया। पर, सीमा से लगने वाली सड़कें नहीं बननी थी और नहीं बनीं।
भारतीय सियासत में सीमापार की भूमिका की बात हमेशा चर्चा में रही है। बहुत पहले आम चुनाव में विराटनगर, नेपाल में बैठे एक अमेरिकी कूटनीतिज्ञ व अंडरव्र्ल्ड डान हाजी मस्तान की भूमिका को ले खूब सवाल उठे थे। उसी वक्त से सीमा से सटे गांवों में सड़क, बिजली,पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं की बहाली को ले आवाज उठती रही है। इसके उलट सीमापार के नेपाली गांवों में चकाचक सड़कें बन गयी हंै, जिसमें भारत सरकार का भी धन लगा हुआ है, लेकिन कोशी इलाके आज भी रास्ताविहीन है।
ऐसे में अब लोग जानना चाहते हैं कि आखिर सरकार की मंशा क्या है। क्या सरकार सरहदी वाशिंदों को े खुली सीमा की सजा दे रहे हैं ? इस बार के चुनाव में कोशी इलाके के सरहदी लोग नेताओं से यही सवाल पूछ रहे हैं, जिनका जवाब किन्हीं के पास नहीं है।
तो भाइयों यह है भारत सरकार, इसकी डपोरसंखी घोषणाओं और बड़बोलापन का एक नमूना। ऐसी सरकार अपनी विदेशी नीति को आले दर्जे का करार देती है और हमें लगता है कि भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना रसूख बढ़ा रहा है। जबकि सच्चाई यह है कि आज वह नेपाल तक को कनविंस करने में सक्षम नहीं है। कुसहा हादसा के पहले, हादसा के दौरान और उसके बाद यह सच सबके सामने आ गया। दरअसल सरहदी इलाकों में सड़क नहीं बनाना भारत सरकार की अस्पष्ट और कंफ्यूज्ड विदेशी नीति द्योतक की ही है।
इन पंचायतों के लोगों का अक्सर नेपाल आना-जाना होता है। नेपाल जाना और आना उनके दैनिक गतिविधियों का हिस्सा है। वे काज-रोजगार से लेकर वैवाहिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जरूरतों के लिए हर दिन नेपाल जाते-आते रहते हैं। लेकिन उनकी विडंबना यह है कि इसके लिए उन्हें पैदल चलना पड़ता है, क्योंकि इन गांवों में आज तक राज्य या केंद्र सरकार ने सड़कें नहीं बनायी। प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के अस्तित्व में आने के बाद इन गांवों के लोगों को काफी आस जगी थी, लेकिन आज इस योजना के अस्तित्व में आये हुए आठ वर्ष से ज्यादा होने वाले हैं, लेकिन इन गांवों की सड़कें नहीं बनायी गयी। पक्की सड़क की बात तो छोड़िए, इन गांवों में कच्ची सड़कें तक नदारद है। अगर आप सीमा तक जाना चाहते है तो हर जगह पीच रोड से चार-पांच किमी की दूरी पगडंडियों के सहारे तय करनी पड़ेगी।
इलाके के लगभग पांच लाख लोग वर्षों से सड़कों की मांग कर रहे हैं, लेकिन सरकारें ध्यान नहीं देती। यह बात समझ से परे है कि आखिर सरकार इन गांवों को आदिम युग में क्यों रखना चाहती हैं। अगर अंतरराष्ट्रीय सीमा वजह है, तो सरकार इस बात का खुलासा क्यों नहीं करती। वैसे यह तर्क भी अपने आप में बेतुका लगता है कि सड़कें रहने से क्षेत्रों में गैरकानूनी गतिविधियां बढ़ेंगी। क्योंकि यह स्थापित तथ्य है कि जहां आवागमन का साधन जितना कम होता है और जो क्षेत्र बीहड़ होते हैं, वहीं सबसे ज्यादा गैरकानूनी गतिविधियां होती है। जंगली बीहड़ों में ही नक्सली भी रहते हैं और चंबल घाटी से आजतक लुटेरे खत्म नहीं हुए। दूसरी बात यह कि सड़क नहीं होने की स्थिति में उन इलाकों में सुरक्षा बल भी जरूरत पड़ने पर नहीं पहुंच सकते। जिसका अपराधी और असमाजिक तत्व जमकर फायदा उठाते हैं।
चुनावी मौसम में जब नेता इन इलाकों में वोट लेने जाते हैं, तो वे लोगों से सड़क का वादा करते हैं। लेकिन हर नेताओं के वादे झूठे साबित हो चुके हैं। इस इलाके के लोगों ने एक-एक कर लगभग सभी प्रमुख दलों के नेताओं को जीताकर देख लिया, लेकिन उनकी पीड़ा किसी ने नहीं सुनी। आजतक किसी भी नेता ने इस मसले को विधानसभा या लोकसभा में नहीं उठाया।
इलाके के लोगों ने दावे बहुत सुने, न सिर्फ अररिया बल्कि किशनगंज, सुपौल व अन्य सीमावर्ती क्षेत्र के सांसदों से शीघ्र निर्माण का आश्वासन भी पाया। पर, सीमा से लगने वाली सड़कें नहीं बननी थी और नहीं बनीं।
भारतीय सियासत में सीमापार की भूमिका की बात हमेशा चर्चा में रही है। बहुत पहले आम चुनाव में विराटनगर, नेपाल में बैठे एक अमेरिकी कूटनीतिज्ञ व अंडरव्र्ल्ड डान हाजी मस्तान की भूमिका को ले खूब सवाल उठे थे। उसी वक्त से सीमा से सटे गांवों में सड़क, बिजली,पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं की बहाली को ले आवाज उठती रही है। इसके उलट सीमापार के नेपाली गांवों में चकाचक सड़कें बन गयी हंै, जिसमें भारत सरकार का भी धन लगा हुआ है, लेकिन कोशी इलाके आज भी रास्ताविहीन है।
ऐसे में अब लोग जानना चाहते हैं कि आखिर सरकार की मंशा क्या है। क्या सरकार सरहदी वाशिंदों को े खुली सीमा की सजा दे रहे हैं ? इस बार के चुनाव में कोशी इलाके के सरहदी लोग नेताओं से यही सवाल पूछ रहे हैं, जिनका जवाब किन्हीं के पास नहीं है।
तो भाइयों यह है भारत सरकार, इसकी डपोरसंखी घोषणाओं और बड़बोलापन का एक नमूना। ऐसी सरकार अपनी विदेशी नीति को आले दर्जे का करार देती है और हमें लगता है कि भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना रसूख बढ़ा रहा है। जबकि सच्चाई यह है कि आज वह नेपाल तक को कनविंस करने में सक्षम नहीं है। कुसहा हादसा के पहले, हादसा के दौरान और उसके बाद यह सच सबके सामने आ गया। दरअसल सरहदी इलाकों में सड़क नहीं बनाना भारत सरकार की अस्पष्ट और कंफ्यूज्ड विदेशी नीति द्योतक की ही है।
2 टिप्पणियां:
हमारी सरकारें सोई हुई हैं।उनकी नीदं मे खल्ल मत डाले:))
सही कहा सरकार सोई है.......
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