राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष और देश के रेल मंत्री लालू प्रसाद शायद कोशी इलाके के पूर्वी जिले किशनगंज को ठीक से नहीं जानते। अगर उन्हें किशनगंज और कोशी इलाके के समाज की जमीनी सच्चाई मालूम होती, तो वह " रोलर ड्राइवर' बनने की भीष्म प्रतिज्ञा नहीं करते। वरुण गांधी के सीने पर रोलर चलाने वाले लालू के बयान को मैं इसी रूप में देखता हूं, क्योंकि मैं किशनगंज को जानता हूं, वहां के समाज को जानता हूं और वहां की जमीनी सच्चाई से अवगत हूं। दरअसल लालू प्रसाद जैसे नेता, जिन्हें जनता के दुख-दर्द से कभी कोई नाता-रिश्ता नहीं रहा है, अक्सर ऐसी गलतियां कर बैठते हैं। उनकी नजर में किशनगंज का मतलब है मुस्लिमागंज और मुसलमानों से वोट लेने का तरीका है उनका तुष्टिकरण इसलिए उन्होंने किशनगंज की उस सभा में उपस्थित सभी लोगों को मुसलमान मान लिया और वरुण के सीने पर रोलर चलाने की बात कह दी। यह अलग बात है कि किशनगंज और अररिया के लोग आज भी इसका मतलब पूछ रहे हैं। यकीन मानिए, राजनीतिक अधोपतन के इस दमघोंटू दौर में भी कोशी इलाके में आज भी धार्मिक उन्माद आम लोगों तक नहीं पहुंच पाया है। यह उस क्षेत्र का सौभाग्य है। अगर अयोध्या प्रकरण को छोड़ दिया जाये, तो आजतक कोशी इलाके में कभी दंगा-फसाद नहीं हुआ। अयोध्या और बाबरी मस्जिद प्रकरण के दौरान अररिया, फारबिसगंज जैसे जगहों में जो एक-आध दंगे हुए, वे सभी प्रायोजित थे, जिनमें न तो एक आम मुसलमान शरीक था और न ही एक भी आम हिन्दू। एक बात और जान लीजिए कि कोशी इलाके के अधिसंख्य मुसलमान मौलाना इमाम बुखारी जैसे नेताओं के बयान पर अपना दिमाग नहीं खपाते और उन्हें नहीं मालूम कि सांप्रदायिकता, सेकुलर, कम्यूनल आदि किस चिड़िया का नाम है। इसी तरह कोशी इलाके के आम हिन्दू प्रवीण तोगड़िया और केपी सुदर्शन के बारे में दो वर्ष के बच्चे जैसे अनजान हैं। दरअसल वहां का समाज प्राकृतिक रूप से एक धर्मनिरपेक्ष समाज है।
लेकिन दिल्ली-पटना के अपने वातानुकूलित बैठकखाने में वोट पाने के लिए तरह-तरह के षड़यंत्र रचने वाले नेता को कौन समझाये। वे तो बांटो और वोट बटोरो की नीति से ऊपर उठ ही नहीं पाते हैं। इसलिए लालू ने रटे-रटाये अंदाज में उक्त बयान दे डाला, गोया वह किशनगंज में नहीं पाकिस्तान में हो । उन्होंने तो वर्षों से यही सुन रखा है कि किशनगंज इलाके में मुस्लिमों की संख्या काफी है। उन्होंने सोच लिया कि अपने वोट बैंक को अटूट रखने और किशनगंज जैसे इलाके में तुष्टिकरण और भड़काऊ भाषण से बेहतर कोई औजार हो ही नहीं सकता। लेकिन लालू प्रसाद भूल गये कि कभी यही बात बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के नेता मोहमद शहाबुद्दीन ने भी सोचा था और चुनाव जीतने के लिए यहां भागे चले आये थे। लेकिन इतिहास गवाह है कि यहां उनका सांप्रदायिक उन्माद का मंसूबा टांय-टांय फिस्स हो गया। उन्हें मुंह की खानी पड़ी थी, फिर जो वे यहां से चंपत हुए दोबारा कभी नजर भी नहीं आये।
जो लोग किशनगंज को अच्छी तरह जानते हैं, वे इस बात को समझते हैं कि यहां लोगों को रोलर नहीं रोड की जरूरत है। रोजगार की जरूरत है। मजबूत प्रशासन की जरूरत है। खेतों को पानी की जरूरत है और घरों को बिजली की। अपराधियों और भ्रष्टाचारियों से मुक्ति चाहते हैं, किशनगंज के लोग। बांग्लादेशी घुसपैठिये से भी वे काफी चिंतित हैं, क्योंकि इसके चलते उनकी रोजी-रोटी मारी जा रही है और सदियों पुराना सामाजिक तानाबाना बिगड़ रहा है। नेपाल और बांग्लादेश के रास्ते होने वाली तस्करी और बढ़ती आपराधिक गतिविधियों से भी किशनगंज के आम लोग परेशान हैं। लेकिन लालू प्रसाद जैसे नेता को यह सब शायद मालूम नहीं है। दो महीना पहले जब मैं वहां गया था, तो लोग मुझसे कोशी बाढ़ की बात कर रहे थे। हालांकि इस जिले तक कोशी का कहर नहीं पहुंचा, लेकिन वे लोग बाढ़ की आपदा पर सरकारी निष्क्रियता से काफी आक्रोश में हैं। क्योंकि इस जिले के लगभग हर गांव के लोगों की बाढ़ से उजड़े सुपौल, अररिया, मधेपुरा जिलों में रिश्तेदारी है। बाढ़ ने कई लोगों के रिश्तेदारों को छिन लिया। आज भी बाढ़ प्रभावित जिले के लोग किशनगंज जिले के अपने रिश्तेदारों के यहां शरणार्थी का जीवन जी रहे हैं। लेकिन इस सच से राजनेता शायद अवगत नहीं है और शायद होना भी नहीं चाहते। वे तो बांटो और वोट बटोरे के अपने अमोध शस्त्र से ही जग जीतने का सपना देख रहे हैं।
लेकिन दिल्ली-पटना के अपने वातानुकूलित बैठकखाने में वोट पाने के लिए तरह-तरह के षड़यंत्र रचने वाले नेता को कौन समझाये। वे तो बांटो और वोट बटोरो की नीति से ऊपर उठ ही नहीं पाते हैं। इसलिए लालू ने रटे-रटाये अंदाज में उक्त बयान दे डाला, गोया वह किशनगंज में नहीं पाकिस्तान में हो । उन्होंने तो वर्षों से यही सुन रखा है कि किशनगंज इलाके में मुस्लिमों की संख्या काफी है। उन्होंने सोच लिया कि अपने वोट बैंक को अटूट रखने और किशनगंज जैसे इलाके में तुष्टिकरण और भड़काऊ भाषण से बेहतर कोई औजार हो ही नहीं सकता। लेकिन लालू प्रसाद भूल गये कि कभी यही बात बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के नेता मोहमद शहाबुद्दीन ने भी सोचा था और चुनाव जीतने के लिए यहां भागे चले आये थे। लेकिन इतिहास गवाह है कि यहां उनका सांप्रदायिक उन्माद का मंसूबा टांय-टांय फिस्स हो गया। उन्हें मुंह की खानी पड़ी थी, फिर जो वे यहां से चंपत हुए दोबारा कभी नजर भी नहीं आये।
जो लोग किशनगंज को अच्छी तरह जानते हैं, वे इस बात को समझते हैं कि यहां लोगों को रोलर नहीं रोड की जरूरत है। रोजगार की जरूरत है। मजबूत प्रशासन की जरूरत है। खेतों को पानी की जरूरत है और घरों को बिजली की। अपराधियों और भ्रष्टाचारियों से मुक्ति चाहते हैं, किशनगंज के लोग। बांग्लादेशी घुसपैठिये से भी वे काफी चिंतित हैं, क्योंकि इसके चलते उनकी रोजी-रोटी मारी जा रही है और सदियों पुराना सामाजिक तानाबाना बिगड़ रहा है। नेपाल और बांग्लादेश के रास्ते होने वाली तस्करी और बढ़ती आपराधिक गतिविधियों से भी किशनगंज के आम लोग परेशान हैं। लेकिन लालू प्रसाद जैसे नेता को यह सब शायद मालूम नहीं है। दो महीना पहले जब मैं वहां गया था, तो लोग मुझसे कोशी बाढ़ की बात कर रहे थे। हालांकि इस जिले तक कोशी का कहर नहीं पहुंचा, लेकिन वे लोग बाढ़ की आपदा पर सरकारी निष्क्रियता से काफी आक्रोश में हैं। क्योंकि इस जिले के लगभग हर गांव के लोगों की बाढ़ से उजड़े सुपौल, अररिया, मधेपुरा जिलों में रिश्तेदारी है। बाढ़ ने कई लोगों के रिश्तेदारों को छिन लिया। आज भी बाढ़ प्रभावित जिले के लोग किशनगंज जिले के अपने रिश्तेदारों के यहां शरणार्थी का जीवन जी रहे हैं। लेकिन इस सच से राजनेता शायद अवगत नहीं है और शायद होना भी नहीं चाहते। वे तो बांटो और वोट बटोरे के अपने अमोध शस्त्र से ही जग जीतने का सपना देख रहे हैं।
1 टिप्पणी:
अच्छा लगा आपका आलेख ... पर राजनेताओं को क्या ... वे तो बांटो और वोट बटोरे के अपने अमोध शस्त्र से ही जग जीतने का सपना देख रहे हैं ... बिल्कुल सही कहना है आपका।
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