शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

आप का ताप


आप
और आपे का ताप
तपने से क्या होता है
हमने लोहे को चटकते देखा है।
चैत्य की दूब से पूछो
सावनी अहंकार के बारे में
हां,
रोशनी पकाता और परोसता है सूरज
प्रकाश खाने वालों को ब्लैकहोल कहते हैं ।

शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

नयी आदत


 ताले जितने थे
 सबके सब तोड़े जा चुके
 और हम अब भी चाबी संभाल रहे 
 जवाब नहीं हमारा
 पहले खाते हम थे
 मेमियाता था मेमना
 अब हम खाते भी हैं, मेमियाते भी हैं

मंगलवार, 25 सितंबर 2012

भरोसा

  
   अपने वजूद की  पतंग में
   अक्सर भरोसे की डोरी बांधता हूं
   और
   उस मैदान का आंसू पोंछता हूं
   जिसका धावक दौड़ हार गया है
   भरोसा जरूरी है
   आदमी के लिए
   मैं भटकी नदी को समुद्र का पता बताता हूं
   बछड़ा जरूर कूदेगा  
   मैं उख़ड़े खूंटे गाड़ रहा हूं

सोमवार, 24 सितंबर 2012

पेट और प्रजातंत्र


पड़ोसी पेटजरूआ न कहे
पानी पीकर डकारते  रहे बाप
कई-कई  रात
कई-कई  साल
पेट को कोई कितना परतारे
पानी पीकर कब तक कोई डकारता  रहे
अब आती है भूख, तो चलते हैं हाथ
जलता है दिमाग
 
आप कह सकते हो मुझे द्रोही
राजनीतिक विरोधी
या बहका हुआ कोई अलोकतांत्रिक
नहीं, मुझे नहीं है विश्वास
मैं प्रजातंत्र को कान में नहीं
हाथ में महसूसना चाहता हूं

रविवार, 23 सितंबर 2012

बढ़ता भोग उजड़ते मठ

बिहार की धरती दर्शन और अध्यात्म के लिए सदियों से प्रसिद्ध रही है। आदि काल में बुद्ध, महावीर, नागार्जुन, गार्गी, मैत्रयी और याज्ञवलक्य ने बिहार का मान बढ़ाया तो प्राचीन काल में चाणक्य ने अपने तत्व ज्ञान से दुनिया को चकित किया। आधुनिक काल में महिर्षी मेंही ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। यही कारण है कि बिहार में संन्यासियों और मठों की संस्कृति हमेशा से रही है। लेकिन अब मठ अध्यात्म और साधना नहीं, बल्कि भोग, व्यभिचार, यहां तक कि हिंसा के केंद्र बन रहे हैं। भागलपुर का साध्वी कांड इसकी ताजा नजीर है। इस मुद्दे पर द पब्लिक एजेंडा ने पिछले अंक में एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। ऊपर की तस्वीर क्लिक कर इसे आप पढ़ सकते हैं। मैग्जीन की वेबसाइट पर भी रिपोर्ट उपलब्ध है। - रंजीत

शनिवार, 8 सितंबर 2012

कहीं किस्सा न बन जाये जूट


दहाये हुए देस का दर्द-85
बिहार के कोशी अंचल को जूट की खेती के लिए भी जाना जाता है। उत्पादन के लिहाज से यह इलाका पश्चिम बंगाल और असम के बाद देश का तीसरा सबसे बड़ा जूट उत्पादन केंद्र रहा है। कोशी अंचल के पूर्णिया, कटिहार,मधेपुरा,सुपौल,अररिया और किशनगंज के लाखों किसानों के लिए जूट नकदी आमदनी का प्रमुख स्रोत रहा है। सच तो यह है कि कोशी के किसानों के लिए जूट (जिसे स्थानीय लोग पटुआ या पाट कहते हैं) महज एक फसल ही नहीं, बल्कि जिंदगी और संस्कृति का हिस्सा है। यहां पटुओं की दर्जनों कहावत और अनगिनत किस्से प्रचलित हैं। एक कहावत का उल्लेख प्रासंगिक होगा,"ज उपजतो पाट तें देखिअ ठाठ अर्थात जब जूट की अच्छी पैदावार होगी, तो आनंद देखने वाला होगा।' यही कारण है कि तमाम मुश्किलात और विपरीत हालात के बावजूद इलाके के लाखों खेतिहर आज भी जूट की खेती जारी रखे हुए हैं।
लेकिन विडंबना यह है कि पिछले कुछ सालों से स्थितियां लगातार जूट खेती के प्रतिकूल होती जा रही हैं। अगर हालात ऐसे ही रहे, तो वह दिन दूर नहीं जब जूट की खेती भी मड़ुआ, जौ,काउन,अल्हुआ, भदई धान (कभी कोशी अंचल में इन फसलों का खूब उत्पादन होता था) की तरह कोशी का किस्सा बन जायेगी। इसके कई कारण हैं। सबसे बड़ा कारण सरकार की जूट नीति है, जिसने धीरे-धीरे किसानों की रीढ़ तोड़ दी । हाल में ही केंद्रीय इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा ने कहा कि उन्हें महंगाई से खुशी है, क्योंकि इससे किसानों को फसलों के ज्यादा दाम मिल रहे हैं। वैसे तो वर्मा का यह बयान दर्शाता है कि हमारे मंत्री जमीनी हकीकत से पूरी तरह नावाकिफ हैं। लेकिन जूट के मूल्यों के हालिया इतिहास के मद्देनजर देखें तो वर्मा का बयान किसी जहर-सिक्त तीर की तरह चूभता है। सन्‌ 1984 में देश में जूट के मूल्य 1400 रुपये क्विंटल था। आज 2012 में यानी 28 वर्षों के बाद यह घटकर 1200 रुपये प्रति क्विंटल पर आ गया है। पिछले 28 वर्षों में रुपये में हुए अवमूल्यन को ध्यान में लेते हुए कोई भी व्यक्ति जूट उत्पादक किसानों के दर्द का अंदाजा लगा सकता है और जूट की मूर्छित खेती का मर्ज आसानी से समझ सकता है।
जुल्मो-सितम की यह नीम-तीर कहानी समर्थन मूल्य नामक मिसाइल की मार तक ही सीमित नहीं है। सच तो यह है कि पिछले चार दशक में जूट उत्पादकों को तरह-तरह के हथियारों से पीटा गया है। सबसे घातक वार था, बेलगाम प्लास्टिक नीति। गौरतलब है कि जूट के किसानों को बचाने के लिए एक जमाने में सरकार के पास संरक्षण नीति थी। तब चीनी, चावल, सीमेंट समेत तमाम फैक्ट्रियों के लिए कम-से-कम तीस प्रतिशत जूट की बोरी का इस्तेमाल अनिवार्य था। लेकिन उदारीकरण की आंधी में ये नीतियां तिनकों की तरह उड़ गयीं और किसी को चीख तक नहीं सुनाई दी । प्लास्टिक बोरियां सस्ती थीं (अभी भी हैं), इसलिए उत्पादकों ने जूट बोरी का इस्तेमाल बंद कर दिया। इसके कारण देसी बाजार में जूट की मांग कम होती गयी। तकनीक के बल पर वस्त्र उद्योग इतना आगे निकल गया कि जूट से बने मोटे कपड़े को पिछड़ेपन का प्रतीक मान लिया गया और पहनावे से जूट से सदा के लिए समाप्त हो गया। यह बात और है कि अब ये प्लास्टिक धरती पर भी भारी पड़ने लगी है। कहने की जरूरत नहीं कि प्लास्टिक के बेइंतिहा इस्तेमाल ने पर्यावरण और पारिस्थितिकी को गंभीर रूप से बिगाड़ दिया है, जिसे पर्यावरण-प्रिय जूट ही ठीक कर सकता है। जूट की खेती को तीसरी मार जूट रिसर्च इंस्टिट्‌यूटों से पड़ी, जो जानलेवा साबित हुआ। इन संस्थाओं ने पुरानी नस्ल को खत्म किया और उन्नत नस्ल के नाम पर जो बीज तैयार किया उससे पैदावार बढ़ने की बजाय घटती चली गयी।
जलवायु परिवर्तन भी जूट की खेती पर कहर बरपा रहा है। गौरतलब है कि जूट मौसम के प्रति अत्याधिक संवेदनशील पौधा है। मौसम की थोड़ी-सी प्रतिकूलता  पौधे को चौपट कर देती है। लेकिन हाल के कुछ वर्षों से मौसम चक्र लगातार असंतुलित हो रहा है, जिसके परिणामस्वरूप जूट की पैदावार मारी जा रही है। जलाशयों की कमी भी जूट की खेती को बुरी तरह प्रभावित कर रही है। जूट से रेशे निकालने के लिए इसे स्थिर पानी में सड़ाना पड़ता है, लेकिन स्थिर पानी के परंपरागत स्रोत मसलन झील, ताल,चौर, पोखर आदि तेजी से कम और खत्म हो रहे हैं।
संक्षेप में कहें, तो आज जूट की खेती सिर्फ किसानों की जिद और देसी उपयोगिता के बल पर जिंदा है। वह युग बीत गया जब किसान इसे "हरा नोट'' कहते थे। उस दौर में जूट  कोशी अंचल के किसानों के लिए दुर्गापूजा, दीपावली, मुहर्रम का सौगात लेकर आता था। सितंबर में इसके रेशे तैयार होत थे। हर किसान को त्योहारों के लिए अच्छी-खासी नकदी मिल जाती थी। अब तो लोग जूट के डंठल (सोंठी) और रस्सी के लिए जूट बोते हैं। कोशी इलाके के लोग आज भी जूट के डंठल से ही घरों के टाट बनाते हैं। सोंठी यहां के लोगों के लिए जलावन का महत्वपूर्ण स्रोत भी है।

शनिवार, 1 सितंबर 2012

दहशत का दियारा

बिहार के विभिन्न दियारा और टाल क्षेत्रों में मध्य बिहार से भी ज्यादा खून बहे हैं, लेकिन इस पर बहस नहीं होती । शायद सरकारों  ने दियारा को अलग दुनिया मान रखी है। दियारा की हिंसा पर "द पब्लिक एजेंडा'' के हालिया अंक में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। ऊपर की तस्वीर डाउनलोड कर यह रिपोर्ट पढ़ी जा सकती है। मैग्जीन की वेबसाइट पर भी रिपोर्ट उपलब्ध है, क्लिक करें। - रंजीत

मंगलवार, 28 अगस्त 2012

काला कोयला, उजला धुआं


जलना कोयले की नियति है। यह बात दीगर है कि जलने की कहानी हमेशा एक जैसी नहीं होती। बाहर जलने पर यह काला धुआं देता है, लेकिन बंद खदानों में जले तो धुएं का रंग झक-झक सफेद हो जाता है। झारखंड की आगग्रस्त झरिया, कुजू आदि कोलियरी के विशाल भू-भाग में कोयले की यह लीला आज भी जारी है। सफेद धुओं के घने मेघ के साथ हजारों टन कोयले हर दिन भभक-भभककर जल रहे हैं और इलाके को जहरीली सफेद गैसों की टरबाइन में बदल रहे हैं। वैसे झारखंड कोयलांचल के लाखों लोग कोयले के इन काले और सफेद धुओं के साथ जीने-मरने को अभिशप्त हैं। लेकिन किसे पता था कि एक दिन देश की सियासत भी कोयले की राह पर चल पड़ेगी और उसके  सफेद धुएं में समूचे देश का दम घुटने लगेगा।
इन दिनों देश में कोल ब्लॉक आवंटन को लेकर सियासी बवंडर मचा हुआ है। कांग्रेस कोल ब्लॉक के आवंटन को सही बताकर सीएजी की रिपोर्ट को ठेंगा दिखा रही है, जबकि भाजपा ने इस घोटाले के विरोध में जमीन-आसमान को सिर पर उठा लिया है। कांग्रेस का कहना है कि आवंटन में कोई अनियमितता नहीं हुई, जबकि भाजपा के नेता सीएजी की रिपोर्ट को सच ठहराते हुए भारी घोटाले का आरोप लगा रहे हैं। लेकिन सच कुछ और है, जिसके बारे में न तो कांग्रेस के नेता बोल रहे हैं और न ही भाजपा के । सच यह है कि दोनों पार्टियां आम लोग को दिग्‌भ्रमित कर रही हैं।
यह सियासत के बंद खदानों की आग है। अजीब संयोग यह कि इससे उठने वाले धुएं का रंग भी सफेद है। अगर ऐसा नहीं होता तो हंगामा पिछले साल ही बरपा होता जब सरकार ने "खान और खनिज (विकास और नियमन) विधेयक-10' को मंजूरकर नये कानून बनाये थे। ध्यान से देखने पर पता चलता है कि यह कानून खनिज और खनन प्रक्षेत्र में में निर्बाध निजीकरण के लिए ही बनाये गये थे । कुछ विशेषज्ञों ने उस समय कहा था कि यह कानून खनिज व खनन प्रक्षेत्र को निजीकरण के नये दौर में लेकर जायेगा, जिससे सरकार की भूमिका में व्यापक बदलाव होंगे। निर्बाध निजीकरण के नये कानूनों से खनिजों के उत्पादन, प्रसंस्करण, वैल्यू एडिशन और विपणन में सरकार की भूमिका कम होती जायेगी और वह धीरे-धीरे नियंत्रक और नियामक की भूमिका में सीमित होती जायेगी। यही हो भी रहा है। अब सरकार प्राकृतिक संसाधनों के सर्वाधिकारी की भूमिका में नहीं, बल्कि नियंत्रक और नियामक की भूमिका में आ चुकी है। स्वाभाविक रूप से मंत्रालय में बैठे लोग लोगीदार हो गये हैं और उनकी जेब खूब गरम हो रही है, लेकिन देश की प्राकृतिक संपदाएं दोनों हाथों से लूटी जा रही हैं।
ऐसा नहीं है कि 2010 का खनन कानून एक झटके में बन गया। यह सब 2008 की नयी खजिन नीति के ही विस्तार थे, जिसके जरिये देश की खनिज संपदा को निजी हाथों में सौंपने के लिए व्यापक रास्ते तैयार किये गये थे। लेकिन भाजपा ने कभी भी इन नीतियों और विधेयकों का कड़ा विरोध नहीं किया। यह जानते हुए कि निर्बाध निजीकरण की नीतियां देश को भ्रष्टाचार के समंदर में डूबो देंगी, भाजपा समेत अधिकांश विपक्षी दल चुप ही रहे। कहने की जरूरत नहीं कि "मधु कोड़ा', "रेड्डी बंधु',"टू-जी' हो या "कोल-गेट' आदि  महाघोटाले प्राकृतिक संसाधनों को निजी हाथों में सौंपने की नीतियों के कारण ही संभव हो सके। भाजपा प्रधानमंत्री से इस्तीफा तो मांग रही है, लेकिन निर्बाध निजीकरण की नीतियों पर खामोश है।
बात फिर घुमकर कोयले की आग पर आती है। विशेषज्ञ मानते हैं कि झरिया, कुजू,रानीगंज कोलियरी के सैंकड़ों एकड़ में लगी भूमिगत आग के लिए "स्लाउटर माइनिंग'' अर्थात अवैज्ञानिक खनन जिम्मेदार है। स्लाउटर माइनिंग ऐसे खनन को कहते हैं, जिसमें खनन की बुनियादी तकनीक का पालन नहीं किया जाता। अतिरिक्त कोयला निकालकर पैसे बनाने की चाहत में अभियंता, अधिकारी खदान को आग के मुहाने पर ले जाकर छोड़ देते हैं। जब आग लग जाती है, तो उसे बुझाने के नाम पर करोड़ों रुपये का वारा-न्यारा होता है। इसलिए अगर खनन अभियंत्रण की शब्दावली में कहें, तो कोल ब्लॉक का आवंटन ही नहीं, बल्कि इस पर मचा सियासी घमासान भी "स्लाउटर'' ही है।

शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

कोख चुराते डॉक्टर

धन अर्जित करना अब चाहत नहीं, बल्कि हवश हो गयी  है। इसके लिए लोग हर हद को पार कर रहे हैं। डॉक्टर को धरती का भगवान कहा जाता है। लेकिन बिहार में धरती के इन भगवानों ने पैसों के लिए हजारों महिलाओं के गर्भाशय बेवजह निकाल डाले। द पब्लिक एजेंडा ने अपने हालिया अंक में इस हैरतअंगेज घोटाले पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। आप ऊपर की तस्वीर डाउनलोड कर यह रिपोर्ट पढ़ सकते हैं। मैग्जीन की वेबसाइट पर भी यह रिपोर्ट पढ़ी जा सकती है।- रंजीत

गुरुवार, 16 अगस्त 2012

थोड़ी स्त्री होकर

                   1
विश्व का नक्शा बहुत पेचीदा है
आड़ी-तिरछी  रेखाओं की "ओझरी" है दुनिया
एटलस पर छड़ी रखकर
बताया था विद्यालय के "मास्साब" ने
यह अमेरिका और यहां रहा सीरिया
कांगो, सोमालिया,वाशिंगटन,जेनेवा से वियतनाम तक
देश-देश, दरिया-दरिया
समंदर से ज्वालामुखी तक
घूमती थी ''मास्साब'' की छड़ी
पर हर बार छूट जाती थी धरती
धरती का नमक
धरती की गमक 
जीवन
राग-द्वेष और क्रंदन
हालांकि पिघलती बर्फ
उजड़ते अफ्रीका
सूखती दरिया
उसर  होती जमीन
धूसर होते रंग
और बढ़ते क्रंदन के बावजूद
धरती अब तक बची हुई थी
बूढ़ी, बीमार, उपेक्षित मां की तरह
                 2
ग्लोब पर कान लगाओ
कान  फट जायेगा
''एक्स-एक्स''  की  चीख से
दिल दहल जायेगा
अजन्में भ्रूणों की  मृत्यु-कराह
वियतनाम से वेंकूवर तक फैली हुई है
स्त्री-लिंगी कोंपलें कट रही हैं
''बांसों'' में बहस है
लेकिन स्त्री-कोंपलों की कटाई पर मौन सहमति है
                 3
कविता की आंख से देखो
तो  कलई खुल जाती है
विश्व की
विश्व महिला दिवस की
जिसे मनाने के लिए
जेबी में एक पुड़िया "महिला-रंग" ही काफी है
संपादकों की सूची तैयार है
"महिला-पुरुषार्थों" की कुछ गाथाएं
प्रकाशित होंगी, ऐन महिला दिवस पर
वे महिलाएं जो सफल होकर "पुरुष" हो गयीं
सबको बतायी जायेंगी
सबको दिखायी जायेंगी
सरकारें और संस्थाएं घोषणाएं करेंगी
महिला दिवस पर
और ग्लोब मारे गये महिला-भ्रूणों से भर जायेगा
                4
महिला दिवस मनाने के लिए
एक चुटकी "महिला-रंग" की जरूरत न पड़े
इसलिए मैंने खुद को थोड़ी स्त्री की
स्त्री होकर देखा
दिखाई दी धरती
जो जनना छोड़ रही है
दिखाई दिया बीज
जो अंकुरना भूल रहा  है
दिखाई दी बेटियां
जो जवान होना नहीं चाहतीं
याद आये ''मास्साब''
और ''मास्साब'' की छड़ी
एक दीवार
दीवार पर लगे निर्जीव एटलस
और एटलस पर टंगे देश
पीली बांस की तरह निष्प्राण और आर्कषण-हीन
ताकि अनिद्रा न हो
मैंने स्मरण की ग्लोब छोड़ चुकी दादी को
भूली हुई लोरियों को
और इस तरह
मैंने बचा ली एक कविता
और
मानस की महिला
थोड़ा-सा दिवस
कुछ परियां 
परियों की कहानियां
और
थोड़ी-सी दुनिया

सोमवार, 13 अगस्त 2012

"जरूरत का नाम भारत''


नेपाल की समकालीन राजनीति में बाबू राम भट्टराइ शायद अकेले नेता हैं, जो जमीनी हकीकत को समझते हैं। अन्य नेपाली माओवादी नेताओं की तरह भट्टराइ किसी यूटोपिया में नहीं जीते। नेपाल-भारत के संबंधों पर वे दूसरे नेताओं की तरह अपनी जनता को गुमराह नहीं करते। आज जब नेपाल के तमाम बड़े नेता भारत के खिलाफ प्रोपगंडा कर अपनी राजनीतिक रोटी सेंक रहे हैं, तो भट्टराइ ने कटु सच को स्वीकार किया है। अधिकतर नेता भारत को "चौधरी'' कहकर आरोप लगाते हैं कि वह नेपाल के अंदरुनी मामलों में जबर्दस्ती हस्तक्षेप करता है। हालांकि भट्टराइ ने बहुत-सी बातें नहीं कही हैं, जो कहना जरूरी था। मसलन  उन्होंने यह नहीं बताया कि नेपाल का भारत के साथ वर्षों से बेटी-रोटी का संबंध है, जिसे राजनीति के चश्में से नहीं समझा जा सकता। इसके बावजूद उन्होंने नेपाली दैनिक 'काठमांडू पोस्ट' को हाल में दिये गये एक साक्षात्कार में कई मिथकों पर से पर्दा उठाया है। यह साक्षात्कार मुझे महत्वपूर्ण लगा, क्योंकि इससे भारत-नेपाल के तथाकथित विशेषज्ञों की बहुत-सी गलतफहमियां  और पूर्वग्रह दूर हो सकते हैं। प्रस्तुत है यह साक्षात्कार - (रंजीत)

Most of Nepal’s Prime Mini-sters have faced accusations of lacking nationalist credentials. Why?
There are historical reasons. Especially after the Treaty of Sugauli where Nepal had to compromise with a weaker position, the hegemony of the British increased. Their role was visible in all changes of government here. With time, in terms of political economy, our relationship with India became increasingly unequal. Because of the Himalayas and difficulty of transport, we remained distant from China. Nepal was capable of having equal relationships with both India and China before the Sugauli treaty. During the Rana regime, our relationship with the north became almost non-existent. That made keeping a balanced relationship with India difficult. Political economy-wise, we were transitioning towards industrial capitalism before Sugauli. That process was halted. And we turned into exporters of labour, and importers of goods from British India. Today, if you look at the political economy, we’re so dependent on India that it’s not possible to halt foreign intervention even if one wants it.
But some actors have been more skillful than others at the balancing act?
Practically speaking, the role of individual does not have much bearing. During the Cold War in the 60s, king Mahendra tried to balance the relationship to run his autocratic regime. In the 80s, the situation changed, and Mahendra’s policy was no longer possible: Nepal was compelled to tilt towards the south. It’s because of this reason that a psychology of insecurity continued among the Nepalis. When a country is dependent with another country economically, making the relationship favourable politically, is impossible.
Was there a fundamental shift in the relationship between India and Nepal after India was decolonised?
There were no real changes in terms of the political economy. Nepal had a movement for democracy, and the worldwide movements for national independence also affected us in some ways. A slightly modified version of the 1923 treaty Nepal had signed with the British India was inked in 1950, but it was a continuation. Without a change in political economy, other changes in relationship were not possible.
Your party sometimes says that we’re a semi-colonial country. Why?
Political economy-wise, it’s still semi-colonial but that semi-colonial form is changing into a neo-colonial form. You can call the current situation a neo-colonial relationship with economic and financial domination. In the language of dependency theorists, it’s a dominant-dependent relationship. Many other countries like ours in the developing world are tied in this type of relationship.
Your party regarded India as the ‘principal enemy’, now critics accuse you and your party of being ‘pro-India’ (Bharat-parast). Can you explain? 
This is a shallow analysis made by people who don’t understand the history and political economy. Since Nepal’s communist party was established in 1949, and especially at the height of Maoist movement, the policy has been to end semi-feudal relationships internally and semi-colonial/neo-colonial relationships externally. Only then can Nepal become fully sovereign and democratic.
at a certain stage of the movement, we raised the issue of nationalism more vocally. But after the People’s War took a new height, and when the monarchy started asserting itself, we shifted our policy: we put on hold the external aspect and focused on the internal aspects.  People who don’t understand this say we’re Bharat-parasta.
Many Nepalis worry the rivalries between two rising powers, China and India, is being played out in Nepal.  Comments?
Both China and India are developing countries. They shouldn’t consider each other as rivals. Historically, China was an empire but it shouldn’t think along those lines. During the British rule, India  adopted a colonial policy in South Asia. China and India should think of themselves as complements, not competitors, and focus on the welfare of their people. But unfortunately, they tend to understand each other as competitors, and a kind of tussle appears in Nepal. Nepal shouldn’t be a yam between two boulders, but a vibrant bridge between two vibrant economies. 
Has the rivalry between India and China affected Nepal’s development?  
The Indian psyche is such that it considers itself insecure if any power increases its activities in the south of the Himalayas. India has that mentality. Similarly, China is sensitive that instability in Tibet might come from south of the Himalayas. There’s a third factor as well. Western powers want to keep some kind of a foothold between two giant economies and they take up interventionist roles. As a result, Nepal appears to be in a triangular contention. If we want to truly maintain our national sovereignty, we should be capable of moving forward and manage this triangular contention. 
Given the previous imbalance, and the rise of China, many say we should expand our relationship with China. Your views?
Given the way China is rising as an economic great-power, it’d be mutually beneficial if we could expand our economic relationship. But a qualitative change in relationship is not possible: at the moment only about 10-15 percent of our trade is with China, whereas about 65 percent of it is with India. So my perspective is that we should adopt a policy of establishing a balanced relationship between China and India to develop our infrastructure. For historical reasons, in the early stages, our ties with India will be stronger. That’s why I’ve wanted to have agreements like BIPPA with both India and China. The goal for us is to attract inv-estment from both countries for rapid economic growth, and keep a balanced relationship. I believe only then will Nepal’s nationalism be protected.
Have you noticed increased Chinese engagement in Nepal?
It’s natural for a rising power like China to make public its concerns. I don’t think the Chinese interest has grown in an unnatural way. For historical reasons, our traditional relationship with China has been weak. That has grown quantitatively, but not qualitatively. Today, our dependency is toward the south and that’ll continue to be the case for some time. For that reason, we shouldn’t be alarmed by a small, quantitative change in the level of China’s engagement.
Tibet obviously is a big issue for China. Has the Nepal government been in a dilemma as to how to address Nepal’s international obligations simultaneously with China’s security interests?
China is naturally sensitive about Tibet and has security concerns. We have to give those concerns a  priority, especially because they come from a big power and a neighbour. It’s not in our interest to anger China or to arouse its suspicions. If some of them [Tibetans] are genuine refugees, and are proven to be so after investigation, we have to recognise them as such. If they’re not real refugees and come here because of economic crimes or other reasons, or because they are deceived into coming here, then we don’t have to recognise them as refugees.
Finally, there is a lot of public resentment against covert operations carried out in Nepal in the name of foreign policy. Your views?
In today’s interconnected world, you can’t completely stop overt and covert activities by international power centres. But we cannot accept any activities that are in violation of domestic and international laws.

मंगलवार, 7 अगस्त 2012

रिक्शे पर एक अमर प्रेम

हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं, जहां हर अच्छी और जरूरी बात महज एक स्लोगन है। यत्र नार्यस्तु पूज्यते के आदिम मंत्र से लेकर नारी सशक्तिकरण के आधुनिक सरकारी जुमले तक के सफर की उलटबांसी यह है कि साल-दर-साल देश में महिला उत्पीड़न की घटना बढ़ती जा रही है। आश्चर्य की बात यह कि आज भी महिलाओं का सर्वाधिक उत्पीड़न और शोषण घर-परिवार में ही होता है। ऐसे समय में सुरेंद्र यादव की  कहानी मन को कुछ सुकून देती है, जो कैंसरग्रस्त पत्नी की दवा के लिए रिक्शा kखींचता है। द पब्लिक एजेंडा ने अपने हालिया अंक में इस युवक की मिसाल पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। ऊपर की तस्वीर पर क्लिक कर यह रिपोर्ट पढ़ी जा सकती है। आप द पब्लिक एजेंडा वेबसाइट पर भी यह रिपोर्ट पढ़ सकते हैं- रंजीत


शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

गांव तक गैंग्रीन


" चुनाव जीतने के बाद, कोई काका-काकी-पड़ोसी नहीं। तुम मुखिया और लोग पब्लिक। पांव पकड़कर या आंख दिखाकर, जैसे भी हो चुनाव के वक्त वोट ले लो। इसके बाद सब कुछ भूल जाओ, तो कुछ कमा-धमा सकोगे वरना हाथ मलते रह जाओगे। पांच साल निकल जायेगा और तुम ठन-ठन गोपाल ! माल रहेगा तो फिर जीतोगे, नहीं तो झाल बजाना पड़ेगा। बेटा-बेटी और घरवाली जीवन भर ताना मारती रहेगी कि मुखिया बनकर भी कौन-सी तीर मार ली ?  वही  खप़ड़ैल मकान और टूटी हुई पंजाबी साइकिल। हाथ में ठेल्ला, पांव में बेमाई।'' 
यह किसी घाघ राजनेता का पुत्र-उपदेश नहीं है। आपको यह जानकार हैरत होगी कि जिस व्यक्ति ने मुझे यह सब सुनाया उसका जन्म किसी पुश्तैनी राजनीतिक खानदान में नहीं हुआ । उसकेपिता मेहनतकश किसान थे। हम बचपन में साथ पढ़ते थे और आज वह अपने गांव का मुखिया है। मैंने उसे मुखिया होने का कर्त्तव्य याद दिलाया, तो उसने मुझे दोस्त जानकर यह पाठ पढ़ा दिया। मैं हतप्रभ रह गया। पुराने दिन याद आ गये। इसी शख्स के साथ कभी हमने गांव के कमजोर और वंचितों के लिए शहीदी अंदाज में आंदोलन चलाया था। हमारा एक गुट था, जो बिना किसी स्वार्थ के गरीब और कमजोर के पक्ष में लाठी लेकर खड़ा रहता था। इसके लिए हमें घर में ताने और बाहर में धमकी सुनने-सहने पड़ते थे।  वह  शख्स मुखिया बनते ही इतना बदल गया है कि साथ उठने-बैठने वाले लोग उसे वोटर लगने लगा है। जिसे खाने के लिए दो रोटी नहीं है, उससे भी इंदिरा आवास के नाम पर पांच हजार रुपये अग्रिम रिश्वत की मांग करने में उसे कोई हिचकिचाहट नहीं होती।
दरअसल, पिछले 65 साल में हमारे राजनीतिक कर्णधारों ने जो राजनीतिक संस्कृति विकसित की है, वह अब विधानसभा और लोकसभा के ऊंचे पहाड़ों से उतर कर ग्राम सभा के मैदानों तक पहुंच गयी है। यह बात  इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि बहुतेरे विद्वान और एक्टिविस्ट पंचायती राज से बहुत उम्मीद लगाए बैठे हैं। उन्हें शायद मालूम नहीं कि जिस सत्ता के विकेंद्रीकरण का नारा दिया गया था, वह बिखर चुका है। तर्क दिया जा सकता है कि अभी पंचायती राज की उम्र ही क्या हुई है? लेकिन मुझे नहीं लगता कि यह कोई तर्क है। जिस संस्था की नींव में ही भ्रष्टाचार की अमरबेल रोप दी गयी हो, उससे छायादार बरगद नहीं जन्म ले सकता। सच तो यह है कि स्वार्थ की जो शर्महीन-असंवेदनशील राजनीति अब तक केंद्र और राज्य की सत्ता के लिए हो रही थी, वह पंचायती राज के द्वारा ग्रास रूट लेवल तक पहुंच गयी है। लेकिन इसके लिए गांवों को दोष नहीं दिया जा सकता। यह व्यवस्था ग्रामीणों ने तैयार नहीं की।  इसकी संरचना और नियमन, उन्हीं भ्रष्ट अधिकारी और नेताओं ने किया, जो राजनीति को धंधा समझते हैं। क्या कारण है कि आज भी पड़हा, पंच जैसे दर्जनों पारंपरिक व्यवस्था (अगर कहीं है तो) भ्रष्टाचार और राजनीतिक कुटीलताओं से बची हुई है ? 
ऐसा नहीं है कि सरकारें इस सब से अनजान हैं। अधूरी ही सही, लेकिन हर योजना की प्रगति रिपोर्ट सरकार को जाती है। मनरेगा को ही लें, तो यह बात केंद्र के अलावा तमाम राज्यों की सरकारें जानती हैं कि इसकी 60-70 प्रतिशत राशि पंचायती राज के प्रतिनिधि और प्रखंड-तहसील के अधिकारी लूट रहे हैं। मनरेगा ही नहीं, गांव तक जाने वाली तमाम योजनाओं का यही हाल है। हाल में ही झारखंड, छत्तीसगढ़, बिहार, मध्य प्रदेश से हाल में ही बच्चादानी निकालने के हैरतअंगेज मामले सामने आये हैं। पता चला है कि पंचायत प्रतिनिधि, दलाल और डॉक्टरों का एक नेक्सस राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना की राशि में भारी लूट मचाये हुए हैं।  इसके लिए वे अविवाहित महिलाओं के बच्चेदानी निकाल दे रहे हैं।
यह सच है कि मुखिया, पंचातय प्रमुख आदि  विधायकों, सांसदों, मंत्रियों की देखा-देखी कर रहे हैं। लेकिन यह कहना सही नहीं है कि पंचायतों-निकायों को लकवामार बनाने वाली यह  भ्रष्ट राजनीतिक संस्कृति गांवों की स्वाभाविक उपज है। अगर यह सच होता तो मुखिया अपने इलाके के विधायक और राजनीतिक पार्टियों के स्थानीय प्रमुखों के घर का त्रिपेक्षण करते नहीं दिखते। सच तो यह है कि पंचायती सत्ता को राजनीतिकदलों ने अपना स्थानीय एजेंट बना लिया है।  मुखिया पार्टी नेताओं को अपने गांव का वोट दिलवाता है, पार्टी फंड के नाम पर नेताओं को चंदा पहुंचाता है और बदले में खुल्लमखुल्ला लूट मचाता है। थाने के पास एक मौखिक सूची होती है कि किस मुखिया के खिलाफ होने वाली शिकायत को प्राथमिकी बनानी है और किसकी शिकायत को रद्दी की टोकरी में फेंक देनी है।
सवाल है कि क्या गांधी जी ने इसी ग्राम स्वराज का सपना देखा था?  भ्रष्टाचार के मुद्दे को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने के लिए अण्णा हजारे ग्राम सभा तक पहुंचने की बात करते हैं। शायद अण्णा और उनकी टीम को ग्राम सभा की असलियत नहीं मालूम। भष्ट और संवेदनाविहीन राजनीति का गैंग्रीन अब गांवों तक पहुंच चुका है। क्या कहा, दवा ! जी नहीं, गैंग्रीन की दवा नहीं, ऑपरेशन होता है।

बुधवार, 1 अगस्त 2012

देरी भी एक सबूत है, मी लार्ड (संदर्भ एलएन मिश्रा हत्याकांड )


दहाये हुए देस का दर्द- 84
आखिर किसने मारा ललित बाबू को ? करोड़ों लोग यह सवाल पिछले 37 साल से पूछ रहे हैं। एक पूरी पीढ़ी, जिसने ललित बाबू के पुरुषार्थ और इकबाल को देखा था, उनमें से अधिकतर बिना जवाब पाये ही इस दुनिया से विदा हो गये। मैं विभिन्न मौकों पर ऐसे दर्जनों वृद्धों से मिला हूं, जो अपने जीवन- काल में ललित बाबू के हत्यारों को फांसी पर चढ़ते देखने के इच्छुक थे। उनमें से अधिकतर अब इस दुनिया में नहीं हैं और वे अपनी अधूरी हसरत के साथ दुनिया से विदा हो चुके हैं। राजनीतिक हलकों में भले ही यह सवाल अब महत्वहीन हो चला है कि ललित बाबू की हत्या किसने की और क्यों की, लेकिन कोशी और मिथिलांचल के करोड़ों लोगों के जेहन में आज भी यह बात शिद्दत से उठती है। ठीक वैसे ही जैसे तीस-पैंतीस साल पहले उनके माता-पिता, दादा-दादियां व्यग्र होकर कहते थे- "माटी के पूत का खून क्यों किया ? जिसने ललित बाबू का खून किया, उसका सर्वनाश होगा।''
मुझे नहीं लगता कि भारत के ज्ञात इतिहास में किसी एक व्यक्ति की हत्या के बारे में किसी समाज ने कभी इतना सवाल किया होगा। जब हम बच्चे थे, तो अक्सर ललित बाबू के किस्से सुनते थे। हमारी उम्र की एक पीढ़ी "ललित कांड'' को सुनते-गुनते जवान हुई है। तब हम जहां जाते थे, "ललित-गान'' ही सुनते थे। उन दिनों खेत में हलवाहे, मेड़ पर घसवाहिनी, चौपाल पर बुजुर्ग, बाजार में व्यापारी और सफर में यात्री; हर कोई ललित बाबू की हत्या के बारे में बात करते थे। कुछ रोते थे, कुछ अफसोस जताते थे। कुछ शाप देते थे-" हड़हड़िया डाक, दोपहरिया ठनका खसेगा। भस्म हो जायेगा। जे जीवेगा से देखेगा, पूरा खानदान के सत्यानाश होगा। गरीबों का आह जरूर लगेगा। के नहीं जानता कि किसने मराया ललित बाबू को? अपनो कहां भोग हुआ!''
इन वाक्यों को सुनने के बाद साफ हो जाता था कि ललित बाबू के हत्यारे कौन रहे होंगे। हालांकि सबूत किसी के पास नहीं था, तर्कों का एक लंबा अनुक्रम है जिन्हें काटना अक्सर नामुमकिन होता है। तब गांव के लोग नाम लेकर शाप देते थे और हमारे जैसे बच्चे मन ही मन मान लेते थे कि लोग ठीक ही कह रहे होंगे। ''एक जुबान झूठी हो सकती है, दस जुबान एक साथ झूठी नहीं होती !'' इस मुहावरे में आज भी कोशी-मिथिलांचल के लोगों  को अकाट्‌य विश्वासस  हैं।
पत्रकारिता में आने के बाद मैंने इस हत्याकांड की जांच का हर संभव अध्ययन किया। जांच से जुड़े किसी अधिकारी से जब कभी मिलने का अवसर मिला, उनसे सवाल किये। लेकिन हर किसी ने इसे 'मर्डर मिस्ट्री' ही बताया। यह बात और है कि वे अधिकारी अब इतना जरूर कहते हैं कि जांच राजनीतिक हस्तक्षेप का शिकार हुई। अब जबकि देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी सीबीआइ ने इस जांच को लेकर इतिहास ही रच दिया है, तो यह समझना और भी आसान है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ। चार दशक के बाद भी सीबीआइ किसी को सजा दिलाने में नाकाम रहा। यही कारण है कि बीते दिनों इस ऐतिहासिक देरी को आधार बनाकर आरोपियों ने सुप्रीम कोर्ट से मुकदमा समाप्त करने की मांग कर डाली। आरोपियों ने कहा कि 37 साल से ट्रायल लंबित है। इससे उनके त्वरित न्याय पाने के मौलिक अधिकार का हनन हुआ है। इसलिए जांच और मुकदमे को निरस्त किया जाये।
सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसे गंभीरता से लिया और इस पर सुनवाई भी पूरी हो गयी है।  अदालत ने कहा है कि वह फैसला कुछ समय बाद सुनायेगी । न्यायमूर्ति एच एल दत्तू और जस्टिस चंद्रमौलि कुमार प्रसाद की खंडपीठ ने हत्याकांड के आरोपी 65 वर्षीय वकील रंजन द्विवेदी की याचिका पर विस्तार से सुनवाई के बाद कहा कि फैसला बाद में सुनाया जायेगा। रंजन द्विवेदी का कहना है कि चूंकि 1975 में हुई इस हत्या के मुकदमे की सुनवाई में अभूतपूर्व विलंब हो चुका है,  इसलिए अदालत को सारी कार्रवाई निरस्त कर देनी चाहिए। गौरतलब है कि हत्याकांड के समय रंजन द्विवेदी 24 साल के नौजवान थे, जो अब बुजुर्ग हो गये हैं। लेकिन सीबीआइ ने द्विवेदी के दलीलों का विरोध करते हुए कहा कि सुनवाई अंतिम चरण में है, इसलिए निचली अदालत को निष्कर्ष तक पहुंचने की अनुमति मिलनी चाहिए।  उल्लेखनीय है कि इस मामले में रंजन द्विवेदी के अलावा  सुदेवानंद अवधूत, संतोषानंद अवधूत  और गोपाल जी नामक शख्स अभियुक्त हैं।
गौरतलब है कि अपने जमाने के करिश्माई कांग्रेसी नेता और केंद्रीय मंत्रिमंडल में रेल और विदेश मंत्रालय संभालने वाले ललित नारायण मिश्र की तीन जनवरी, 1975 को समस्तीपुर जंक्शन पर बम विसफोट में हत्या कर दी गयी थी। जब उनकी हत्या हुई थी, वे संसद के अलावा समाज में भी लोकप्रियता के सातवें आसमान पर थे। आलम यह था कि दो तिहाई से ज्यादा सांसद पहले मिश्र से मशविरा करते थे, बाद में सात रेस कोर्स की ओर जाते थे। 

मिश्र कोशी अंचल और बिहार के सच्चे सपूत थे। वह बिहार के पहले नेता थे, जो हर जाति, हर समुदाय और संप्रदाय में समान रूप से लोकप्रिय थे। बढ़ती लोकप्रियता के कारण राजनीति में उनके बहुत सारे दुश्मन हो गये, लेकिन जनता में उनके आलोचक खोजे नहीं मिलते थे। कमिश्नरी मुख्यालय का निर्माण हो, रेलवे या कोशी पर तटबंध का निर्माण हो, मिश्र के प्रयास से कोशी अंचल के आम लोगों को इसके दर्शन हुए। उनसे पहले इलाके के अधिकांश लोग रेलवे के टिकट के बारे में सिर्फ सुनते थे कि वह कूट का होता है, जिस पर लिखी तारीख को पढ़ना सबके बस की बात नहीं। ललित मिश्र के कारण ही इलाके के हजारों बच्चों को उच्च शिक्षा नसीब हुई और कई लोगों को पहली बार ट्रेन पर बैठने का अवसर प्राप्त हुआ। मिश्र के निधन के बाद एक बार फिर यह इलाका उपेक्षा के अंधकार में डूब गया। उसके बाद इलाके से नेता तो बहुत हुए, लेकिन  मिश्र जैसा इकबाल किसी का न हो सका। बहुत कम लोग जानते हैं कि मौजूदा प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ललित नारायण मिश्र की ही खोज हैं।
बहरहाल,अदालत का फैसला जो भी हो। मुकदमा निरस्त हो या आरोपियों को सजा मिले या न्यायालय इसे नये सिरे से जांच करने का आदेश दे, लेकिन कोशी के लोगों का इसमें अब खास दिलचस्पी नहीं बची है, क्योंकि उनके लिए ललित नारायण मिश्र हत्याकांड कोई रहस्य नहीं है।खुला सच है
  वे कहते हैं, "ऊपर वाले का न्याय हो चुका है। अब बाकी क्या है होने को ?''

रविवार, 29 जुलाई 2012

अलौकिक और अदभुत

अदभुत  ! लंदन ओलंपिक के उद्‌घाटन समारोह को वर्षों तक याद रखा जायेगा। ओह ! रोशनियों की इन रंगीनियों के क्या कहने !! हालांकि दुनिया की असल तस्वीर ऐसी नहीं है। वह भीषण गरीबी, भयानक अन्याय, पाश्विक हिंसा से अटी पड़ी है, लेकिन इन तस्वीरों को देखकर दुनिया सच में बहुत सुंदर लगती है, क्योंकि इसमें भोपाल नहीं है। इराक नहीं है। अफगानिस्तान और तिब्बत भी नहीं है। पिघलते हिमनद,काले कार्बन,सूखती दरिया, सिमटते जंगल और लुप्त होते जीव भी नहीं हैं। वे  सब कुछ नहीं हैं, जो कटु सच है। यहां सब  कृत्रिम  है वही है, जो नहीं है। इन सबके बावजूद इन तस्वीरों को देखकर सुंदर की उम्मीद जरूर जगती है। आलम मनोरम लगने लगता है... 











शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

जाना एक आनंद का (अंतिम यात्रा की कुछ तस्वीरे)

पर्दे पर हमेशा आनंद परोसने वाला वह शख्स अभिनय की दुनिया का अवतार था। उनकी अभिनय यात्रा अमर प्रेम कथा की तरह है, जो जनता हवलदार  की यादों में हमेशा चलती रहेगी।

बुधवार, 18 जुलाई 2012

दर्द न मिले, तो दुखता है

  

  दर्द !
  अब न मिले
  तो दुखता है

  नहीं बंधु !!
  घाव नहीं है यह
  हथेली का ठेल्ला (गांठ) है
  कुदाली दो पारने को
  पत्थर दो तोड़ने  को
  बस यही एक दवा है

  नहीं !!!
  नहीं लगती चोट
  इस बात को लेकर
  जी अक्सर कचोटता है
  

सोमवार, 16 जुलाई 2012

... तो पैदल हो जायेंगे कोशीवासी

फनगो हाल्ट के पास कोशी का कटाव 
दहाये हुए देस का दर्द- 83
डुमरी पुल के बेकाम होने के बाद से सहरसा, खगड़िया, सुपौल, मधेपुरा, पूर्णिया, अररिया जिलों के करीब 30-35 लाख लोगों को बाहर ले जाने का एक मात्र रास्ता सहरसा-मानसी रेल-लाइन है। यह एक लूप लाइन है, जिसकी उपेक्षा की अपनी अलग कहानी है। एक बार फिर इस लाइन पर कोशी मैया का कोप टूटा है। कोई छह गाड़ियां रद्द की जा चुकी हैं और अगर मैया नहीं मानी तो एक-दो दिनों में ही पटरी पर गाड़ी नहीं नदी की धारा चलेगी। मिली जानकारी के अनुसार, कोपरिया और धमारा स्टेशन के बीच फनगो हॉल्ट के समीप नदी की एक धारा राह भटक गयी है। वह अपने निर्धारित रास्ते से बहने से कतरा रही है। विशेषज्ञों का कहना है कि सिल्ट के कारण निर्धारित चैनल में शायद कोई बड़ा डेल्टा बन गया है, जो धारा को पार्श्व की ओर जाने के लिए मजबूर कर रही है। लेकिन पार्श्व में रेलवे लाइन अवरोधक बन रही है। इसलिए नदी इसे जोर-जोर से खुरच रही है। आलम यह है कि करीब 50 मीटर की लंबाई में नदी और पटरी के बीच मीटर-दो मीटर का फासला ही बचा है। रेलवे के इंजीनियर बोल्डर और क्रेटर के जरिये इसे रोकने का प्रयास कर रहे हैं। इसके लिए भारी संख्या में मजदूर लगाये गये हैं। बावजूद इसके इंजीनियर साहेब लोग यह कहने में असक्षम हैं कि वे पटरी को बचा पायेंगे या नहीं।
प्राप्त जानकारी के अनुसार, छह  सवारी गाड़ियों का परिचालन रद्द किया जा चुका है। इनमें  सहरसा-मधेपुरा (55555/56), सहरसा-मानसी (55569/70) और सहरसा-समस्तीपुर सवारी गाड़ियां शामिल हैं। जनसेवा एक्सप्रेस, हाटे बजारे एक्सप्रेस, कोशी एक्सप्रेस तथा राज्यरानी एक्सप्रेस का परिचालन तो हो रहा है, लेकिन ये गाड़ियां तय समय से कई घंटे विलंब से चल रही हैं। अब जबकि रेलवे और राज्य सरकार के विशेषज्ञ इंजीनियर आगामी स्थिति को लेकर अनिश्चित हैं, तो मैंने अपने कोशी विशेषज्ञों से जानना चाहा कि आगे क्या संभावना बन सकती है। लगभग सभी ने कहा कि अगर चार-पांच दिनों तक पानी के स्तर में तेजी से बढ़ोतरी या घटोतरी नहीं हुई तो संभव है कि पटरी बच जाये। पानी अगर तेजी से कम या ज्यादा हुआ, तो बोल्डर और क्रेटर के पहाड़ भी रेल लाइन को नहीं बचा पायेंगे। पानी का लेवल गिरेगा तो नदी को मुख्य धारा में बने डेल्टा को पार करने में भारी दिक्कत होगी, लेकिन उसकी बहाव-शक्ति में इजाफा होगा। परिणामस्वरूप पटरी की ओर बहने का प्रयास कर रही धारा और जोर से कटाव करने लगेगी। अगर लंबे समय तक स्तर बरकरार रहा, तो संभव है कि नदी डेल्टा को तोड़कर मुख्य धारा में बहने लगे और पटरी को बख्श दे। समस्तीपुर मंडल कार्यालय के अनुसार, कटाव रोकने के लिए 109 बैगन बोल्डर उझला जा चुका है। 500 मजदूर दिन-रात कटाव निरोधक काम में लगे हैं। अभियंताओं की 15 टोली लगातार स्थिति का मुआयना कर रहे हैं।
गौरतलब है कि कुछ साल पहले ही सहरसा-मानसी के बीच पटरी का अपग्रेडेशन हुआ था। पुरानी छोटी लाइन से अलग हटकर बड़ी लाइन के लिए पुल बनाये गये थे। उस समय भी गैर-सरकारी नदी विशेषज्ञों ने पटरी और नदी के अलाइनमेंट को लेकर सवाल खड़े किये थे। लेकिन उनकी बातें नहीं सुनी गयीं। यही कारण है कि हर साल बरसात के मौसम में मानसी से लेकर सिमरी बख्तियारपुर तक भारी जल-जमाव होता है। कोशी और बागमती की विभिन्न धाराएं पटरी और पुलों की इस "रामसेतु' के बीच अटक सी जाती हैं। लेकिन ऐसी नौबत पिछले कुछ वर्षों में नहीं आयी थी। जब से कुसहा कटाव हुआ है, तब से कोशी की प्रकृति में विचित्र बदलाव देखने को मिल रहे हैं। कोशी महासेतु के कारण भी इसके प्रवाह डिस्टर्ब हुए हैं, क्योंकि इस पुल के कारण लिंक बांध बनाये गये हैं। कोशी महासेतु के बाद भी दो और पुल कोशी में बन रहे हैं। इसलिए यह कहना अब असंभव हो गया है कि कोशी की मौजूदा प्रकृति क्या है और उसकी मुख्य धारा कहां है। ऐसी परिस्थिति में आम लोगों के अलावा विशेषज्ञ भी कुछ बोलने की स्थिति में नहीं हैं। शब्द भले भिन्न हों, लेकिन वे भी घोर अंधविश्वासी की तरह कहते हैं- "सब कुछ कोशी पर है। हम कुछ नहीं कह सकते।' कोई संदेह नहीं कि कोशी और अभियंताओं का यह द्वंद्व आगे नये-नये गुल खिलाते रहेंगे। पटरी टूटे या तटबंध, अभियंता मालामाल होंगे। कहर तो हमेशा आम लोगों पर ही बरपेगा।

गुरुवार, 12 जुलाई 2012

सूअर बनकर खुश हूं, मत मारो (एक लघु कथा)

उस व्यक्ति को अचानक अपने अगले जन्म का दिवज्ञान हुआ। जब वह बूढ़ा हो चला और मौत की घड़ी नजदीक आयी, तो वह अचानक बहुत परेशान हो उठा। जोर-जोर से विलाप करने लगा। पिता को तड़पते देख बेटों को चिंता हुई। वे अस्पताल जाने की  तैयारी करने लगे। लेकिन बूढ़े ने मना कर दिया। बोला, मुझे कोई कष्ट नहीं है। बेटों ने पूछा, तो आप तड़प क्यों रहे हैं पिता जी ? तब बूढ़े ने पूरी कहानी विस्तार से सुनाई। कहा, बेटा मैं किसी व्याधि के दर्द से नहीं रो रहा हूं, बल्कि अगले जन्म की तस्वीर देख कर मुझे मरने की इच्छा नहीं होती। बेटों ने पूछा, अगले जन्म की ऐसी कौन बात है कि उसे लेकर आप अभी से खौफ खा रहे हैं ? बूढ़े ने कहा, बेटे, मैं देख रहा हूं कि मेरा अगला जन्म एक सूअर के वंश में होगा। मैं सूअर बनकर धरती पर आना नहीं चाहता, लेकिन इसे टाल भी नहीं सकता। पिता की बात सुन सभी बेटे गहरी चिंता में डूब गये। लंबे समय तक खामोशी पसरी रही। तब बूढ़े ने कहा, मैंने उपाय खोज लिया है। मैं तुम लोगों को उस सूअर मालिक का नाम और पता बताता हूं, जिसकी पालतू सूअरनी की  कोख से ठीक साल भर बाद आज के ही दिन मेरा जन्म होगा। तुम लोग कुछ समय बाद  वहां पहुंच जाना और सूअरपालक से मुझे खरीदकर मार डालना। बेटे ने कहा, आप चिंता नहीं करें पिताजी, हम ऐसा ही करेंगे।
कुछ दिन बाद बूढ़े ने प्राण त्याग दिये। जल्द ही वह दिन भी आ गया। गांव से दस मील दूर एक सूअरपालक के यहां बूढ़े का पुनर्जन्म हुआ। ठीक एक महीने बाद तीनों बेटे सूअरपालक के पास पहुंचे। पूछा कि कुछ दिन पहले आपकी सूअरनी ने जो बच्चा जना है, वह मुझे दे दीजिए। बदले में आप जो राशि चाहें, मांग ले। सूअरपालक खुश हुआ और उसने मुंहमांगी कीमत पर सूअर के बच्चे बेच दिये। जैसे ही सूअर के बच्चे को लेकर वे लोग एक सुनसान जगह पर पहुंचे और उसे मारने की कोशिश की, सूअर का बच्चा जोर-जोर से रोने लगा। प्राण बख्शने की गुहार करने लगा। बेटे को अचरज हुआ, कहा- आपने ही तो कहा था पिता जी कि मुझे मार देना। सूअर ने जवाब दिया- मैं गलत था। अब मेरा मन इस जीवन में ही रम गया है। मुझे साथी सूअरों के साथ गंदे कीचड़ों में नहाना, मल खाना, गंदगी में घूमना अच्छा लगने लगा है। मुझे बख्श दो, मैं मरना नहीं चाहता !!! तीनों बेटे ने सिर पीट लिया और वापस लौट गये।

बुधवार, 4 जुलाई 2012

एक लोकप्रिय सरकार की नोज डाइविंग



ज्ञानी अक्सर कहते हैं- अति आत्मविश्वास आत्मघाती होता है। लेकिन विधि का विधान यह कि अप्रत्याशित सफलता आदमी को अति आत्मविश्वासी बना ही देती  है। इससे बचना बहुत कठिन होता है।  अति विश्वास एक संक्रामक रोग की तरह है, जो पहले इंसान को अहंकारी और बाद में लापरवाह बनाकर निष्क्रिय कर देता है। जमीन पांव के नीचे से खिसक जाती है, लेकिन आत्म-श्लाधा के नशा में चूर व्यक्ति को कुछ दिखाई नहीं देता। शुभचिंतकों की सलाह उन्हें बेवकूफी और आलोचना दुस्साहस लगती है। जी हां, मैं बात बिहार की नीतीश सरकार का कर रहा हूं। यह सरकार तेजी से अलोकप्रिय हो रही है, लेकिन सरकार के मुखिया और सत्तारुढ़ दलों के नेताओं को शायद इसका कोई इल्म नहीं है। हाल के दिनों में मैंने मध्य बिहार और उत्तर बिहार के कई गांवों का दौरा किया है। मुझे माहौल बदले-बदले से लगे। 
महज डेढ़-दो साल पहले तक गांवों में नीतीश और उनकी सरकार का गुणगान होता था। क्या किसान, क्या मजदूर ! शिक्षित से लेकर अशिक्षितों तक, लगभग हर जाति-समुदाय में नीतीश के समर्थक मिल जाते थे। लेकिन अब नीतीश-समर्थक आसानी से नहीं मिलते। कुछ समय पहले तक नीतीश और उनकी सरकार की चर्चा लोगों के चेहरे पर सकारात्मक भाव पैदा कर देती थी, लेकिन अब स्थिति पलट चुकी है। अब लोगों के चेहरे शिकायती हो चले हैं। मुखिया, सरपंच, बिचौलिया, कर्मचारी, अधिकारी को छोड़ दें, तो सरकार की तारीफ के शब्द सुनने के लिए आपके कान तरस जायेंगे। 
सवाल उठता है कि लोकप्रियता के सातवें आसमान पर विराजमान एक सरकार, महज एक-डेढ़ साल में इतने नीचे क्यों आ गयी है ? विस्तृत परिप्रेक्ष्य में देखें, तो इसकी कोई एक वजह नहीं है। दरअसल, जिन कामों के बदौतल इस सरकार ने लोगों के दिलों में जगह बनायी थी, अब उसकी रिवर्स करेंट उठने लगी है। मजबूत कानून-व्यवस्था, इस सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि थी। लेकिन अब कानून-व्यवस्था की स्थिति तेजी से लचर हो रही है। आलम यह है कि उत्तर बिहार के गांवों में लगभग तीन दशकों के बाद एक बार फिर लोग डकैतों के आतंक के साये में रतजग्गा कर रहे हैं। कोशी अंचल में हाल के महीनों में डकैती की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं, लेकिन पुलिस इसे रोकने में नाकामयाब है। सुपौल, अररिया, मधेपुरा जिलों में तो जिला परिषद और प्रखंड समिति के नेताओं तक के नाम डकैतों के संरक्षक के रूप में सामने आये हैं। जिस भ्रष्टाचार के टॉनिक के बल पर सरकार ने ग्रामीण इलाकों में खूब पैसे खर्च किये और कुछ काम कराने में सफलता हासिल की थी, वही भ्रष्टाचार अब सरकार की छवि को नेस्तनाबूद कर रही है। सरकारी योजनाओं में हो रही लूट जनता को साफ नजर आने लगी है। दफ्तरों में व्याप्त रिश्वतखोरी की संस्कृति इतनी मजबूत हो चली है कि दफ्तर जाने के नाम से आम आदमी के पसीने छूट जाते हैं। 
इन सब बातों के इतर सत्तारुढ़ दलों की हालिया राजनीति भी लोगों को हजम नहीं हो रही। राष्ट्रीय राजनीति में पैठ बनाने की महत्वाकांक्षा के कारण जद(यू) ने हाल के दिनों में जो करतब दिखाये हैं, लोगों को उसके मायने समझ में नहीं आ रहे। और जो मायने समझ में आ रहे हैं, उसका "न्याय के साथ विकास'' के नारे से कोई रिश्ता नहीं बनता। इस सब के अलावा आम लोगों की समस्याओं को लेकर सरकार की घटती दिलचस्पी ने भी लोगों का दिल तोड़ा है। गौरतलब है कि पिछले कुछ समय से प्रदेश भाजपा और जद(यू) के नेताओं ने खुद को जमीनी राजनीति से दूर कर लिया है। दोनों दल के कार्यकर्ता जनता से कटते जा रहे हैं। शुरू-शुरू में प्रशासनिक मशीनरी ने प्रो-पीपुल होने का संकेत दिया था। लेकिन अब प्रशासन का रुख पहले की तरह एंटी-पीपुल हो गया है। प्रशासन पर सरकार की पकड़ हाल के दिनों में लगातार ढिली होती गयी है। तीसरी और सबसे बड़ी वजह अधूरी घोषणाएं हैं। गौरतलब है कि बीते वर्षों में नीतीश सरकार ने प्रदेश में रोजगार, विकास आदि की घोषणाओं की बरसात कर दी थी। इसके कारण आम आदमी की अपेक्षा काफी बढ़ गयी थी। लेकिन जैसे-जैसे समय बीत रहे हैं, लोग खुद को ठगे महसूस कर रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं कि सरकार की अधिकांश घोषणाएं कागज पर ही दम तोड़ रही हैं। लेकिन इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि सत्ताधारी दल के नेता इन सबसे अनजान है। जनता ने इस सरकार को एक मजबूत राजनीतिक समीकरण दे रखा है। लेकिन राज्य के नेता किसी तीसरे समीकरण की खोज में मशगूल है। जनता को ऐसी अनावश्यक कसरतों के मायने भी समझ में नहीं आ रहे हैं। दिल्ली के लिए दुबले होते जा रहे नीतीश को शायद मालूम नहीं कि यहां पटना में ही उनकी जमीन धीरे-धीरे खिसक रही है। 

मंगलवार, 3 जुलाई 2012

दर्द का अपरूप : एक कोशी, एक बह्मपुत्र

ब्रह्मपुत्र की पीड़ा कोशी ही समझ सकती है। दोनों नदियां धारा बदलती हैं। दोनों अब बाढ़ नहीं, सुनामी लाती हैं। दोनों ही दोषपूर्ण अभियंत्रण का शिकार है। इन दिनों ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों से असम में जो बाढ़ आयी हुई है, उसने नौ लाख से ज्यादा लोगों को बेघर कर दिया है। ये तस्वीरें मुझे 2008 की कुसहा त्रासदी की याद दिला गयीं। इसलिए यहां सबके साथ शेयर कर रहा हूं। कहते हैं कि बांटने से दर्द कम हो जाता है...

शनिवार, 16 जून 2012

सींग पकड़कर मरखा बनाने की फितरत


दहाये हुए देस का दर्द-82
गांव के बड़े-बुजुर्ग कहते हैं- "अगर सींग पकड़कर बार-बार छेड़ोगे तो धीमड़(शांत और सुस्त) बैल भी मरखा (मारने वाला यानी आक्रामक) हो जायेगा।'' बैलों के संदर्भ में कही जाने वाली यह कहावत इंसान पर भी हू-ब-हू लागू होता है। बिहार के कोशी अंचल का समाज मौलिक तौर पर शांत और अमनपसंद है। इतिहास साक्षी है कि हिंसा-उपद्रव यहां के समाज की फितरत नहीं है। लगातार असहिष्णु होती दुनिया में कोशी अंचल एक अपवाद है, जो विपरीत हालात और तमाम मुश्किलात के बावजूद सहनशीलता में विश्वास रखता है। लेकिन सहने की भी एक सीमा होती है। यह संयोग नहीं है कि पिछले कुछ समय से कोशी अंचल में भी उपद्रव की घटना बढ़ती जा रही है। पिछले एक-दो  साल से पुलिस और आम लोगों के बीच लगातार भिडंत हो रही है। फारबिसगंज में जो कुछ हुआ उसके बारे में अब कुछ कहने की जरूरत नहीं है। इस गोलीकांड के घाव को भरने में मुद्दत लग जायेंगे।
कुछ महीने पहले सहरसा में आम लोग और पुलिस के बीच हुए टकराव के घाव अभी भरे भी नहीं थे कि बीते दिनों सुपौल जिले के चुन्नी गांव में पुलिस और ग्रामीणों के बीच हिंसक भिड़ंत हो गयी। तीन दिन बाद ही सहरसा रेलवे स्टेशन पर यात्रियों और रेलकर्मियों के बीच हिंसक टकराव हो गया। यात्रियों की शिकायत थी कि बुकिंग क्लर्क अतिरिक्त पैसा लेकर यात्रियों को ट्रेन में जगह दिला रहे थे, जिसके कारण आम यात्रियों को भारी परेशानी उठानी पड़ी। हमेशा की तरह उस दिन भी सहरसा से अमृतसर जाने वाली जनसेवा एक्सप्रेस में पांव रखने की जगह नहीं थी। यह ट्रेन हर दिन औसतन चार हजार मजदूरों को ढोकर पंजाब ले जाती है। उस दिन भी स्टेशन पर पांच हजार से ज्यादा मजदूर गाड़ी के इंतजार में खड़े थे। यात्रियों की तुलना में जगह कम पड़ने लगी। रेलकर्मियों को लोगों की इस परेशानी में कमाई का जरिया नजर आया और उसने अपना गोरखधंधा शुरू कर दिया। बवाल मचना था, जमकर मचा। कई कंप्यूटर तोड़ डाले गये। स्टेशन परिसर में खड़ी गाड़ियों को आग के हवाले कर दिया गया। लेकिन उन कर्मियों के खिलाफ न तो कोई शिकायत दर्ज हुई और न ही कोई कार्रवाई हुई।
यह सच है कि किसी भी समाज की प्रकृति रातों-रात नहीं बदलती। कोशी के लोग भी रातों-रात नहीं बदले हैं। इलाके की अधिकांश आबादी गरीब और मेहनतकश है। साबिक जमाने से ही वे गरीबी, अशिक्षा, बदहाली से अपनी तरह से लड़ते रहे हैं। बेरोजगारी ने उन्हें पंजाब-हरियाण, दिल्ली, मुंबई, सूरत के रास्ते दिखाये। यह सिलसिला अस्सी के दशक में शुरू हुआ और अब तो इलाके की आर्थिक व्यवस्था पलायन के अर्थशास्त्र पर आश्रित हो चली है।
लेकिन पिछले पांच-दस साल में एक बड़ा परिवर्तन यह हुआ है कि अब सरकार की मशीनरी गांवों तक में प्रवेश कर गयी है। एक जमाना था जब लोग गरीबी के बावजूद स्वतंत्र थे। वे भूखे पेट रहते थे, लेकिन निश्ंिचत होकर सोते थे। गांवों में नेता, बिचौलिया, ठेकेदार, पुलिस, अधिकारियों का आगमन नहीं होता था। लेकिन जब से सरकार ने कल्याण, विकास योजनाओं के नाम पर प्रखंडों-गांवों में रुपये भेजने शुरू किये हंै, इन तत्वों का हस्तक्षेप बढ़ता गया है। लोग मूक दर्शक बने हुए हैं। नेता, अधिकारी, दलाल उनकी नजरों के सामने लाखों रुपये का  वारा-न्यारा कर रहे हैं। आम लोगों को लूट की इस प्रहसन से कुछ हासिल तो नहीं हो रहा है, लेकिन उनकी परेशानी बढ़ रही है। उनके काज-रोजगार, जीवन-यापन में सरकारी मशीनरी अनावाश्यक रूप से हस्तक्षेप कर रही है। टकराव लाजिमी है।
यह जानकर अचरज होता है कि मीडिया-क्रांति के इस युग में भी शासक वर्ग का मनोविज्ञान अठारहवीं सदी जैसा है। सरकार का मतलब सिर्फ शासन करना नहीं होता, बल्कि लोगों के प्रति उसकी जिम्मेदारी भी बनती है। चंद लोगों के लिए लूट का अवसर तैयार करने का नाम विकास नहीं होता है। लूट के आयोजन पर जनता का नाम चस्पा कर देने से वह जन-योजना नहीं हो जाता। अगर शासक वर्ग को लगता है कि सतत उपेक्षा के बावजूद कोई हमेशा शांत बना रहेगा, तो यह उसकी नासमझी है। बगल का नेपाल इसका उदाहरण है। सन्‌ 1990 तक नेपाल की गिनती दुनिया के सबसे शांत देशों होती थी। वहां के राजा को इसका गुमान हो गया था। वक्त ने ऐसी पलटी मारी कि सन्‌ 2000 आते-आते नेपाल दुनिया के सबसे अशांत देशों में शुमार होने लगा और 2006 में राजा को गद्दी छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा।

गुरुवार, 14 जून 2012

सोने के बाद कोई नहीं आया : एक लघु कथा



उस साल बहुत बारिश हुई थी। नदी-खेत एकारनल हो गये थे। कोशी के कछार में बनैया सूअरों का प्रकोप कुछ ज्यादा ही हो गया था। रात में सूअर के झूंड आते और मकई की फसल उजाड़ देते । किसानों को मचान बनाकर रात भर पहरा देना पड़ता था। उस किसान के घर में दो ही समांग थे- बाप और बेटा। शाम से रात 12 बजे तक बेटा खेत पर पहरा देता और उसके बाद अगली सुबह तक बाप। सदा की तरह रात के 12 बजे किसान बेटे का खाना लेकर खेत पहुंचा। उसने पूछा- "कोई सूअर तो नहीं आया था, बेटा ? '' बेटे ने कहा,"बाबू जी, जब तक मैं जगा रहा , चार-पांच आये थे। मैंने सबको दूर खदेड़ दिया। लेकिन सोने के बाद एक भी नहीं आया।'' किसान ने माथा पिट लिया।

शुक्रवार, 1 जून 2012

छूटना


गांव में था
गाड़ी छूट जाती थी
गाड़ी में हूं
गांव छूट गया है
पर  सांसें अब तक फुल रही हैं
गांव हो या गुड़गांव

'छूटहों'  के लिए
दोनों समानार्थक होते हैं

निरर्थकता का एहसास !
जैसे पटरी जमीन पर नहीं
देह पर बिछी  हो
हजारों सफर के बाद
जिन्हें पड़े रहना है
नहीं !
यह बिछुड़न नहीं 
विरह के गीत भी नहीं
छूटना
लुप्त होना है
फोन मां को लगाओ
बात मैने से होगी
बेटा परदेश में
बाड़ी के आम कौए खा रहे
कोंटी की लीची, 'खरुवान'
छूटना !!
अंततः दुखना है
कहा था, पेड़ों ने
जिन्हें शाखाविहीन कर दिया था
ज्येष्ठ की आंधी 

लाल-लाल लस्से निकल आये थे
पेड़ की देह पर
लस्से का सच कौन बताये 

इस तूफानी समय में
सब कुछ लस्सा है

जो छूट गये हैं, जड़ से
लस्से उनकी देह में भी हैं
पेड़ों की तरह बेजुबान
और अव्यक्त


(शब्दार्थ- छूटहा- जो पीछे छूट गये हो। खरुवान- आवारा बच्चों की टोली )

रविवार, 27 मई 2012

एक और पूर्वोत्तर की आहट

कंधार विमान अपहरण कांड और नेपाली-भारतीय माओवादियों के बीच तथाकथित गठजोड़ की खुफिया-रिपोर्टों के बाद रक्षा मंत्रालय ने मई 2001 में 1800 किलोमीटर लंबी भारत-नेपाल सीमा पर सुरक्षा बल तैनात करने का फैसला लिया था। हमेशा की तरह सरकार ने फैसला लेने से पहले स्थानीय लोगों की राय लेने की जरूरत महसूस नहीं की। तब कहा गया था कि सुरक्षा बल नेपाल के जरिये होने वाली हथियार, जाली नोट, उर्वरक, खाद्यान्न आदि की तस्करी और आइएसआइ की आतंकी गतिविधियों पर नजर रखेगा और इस पर रोक लगायेगा। शुरुआत में जोगबनी, बीरपुर, कुनौली, राजनगर, बैरगनिया, गौर, रक्सौल, बाल्मिकीनगर जैसे संवेदनशील चेक पोस्टों पर अर्धसैनिक बल-  स्पेशल सर्विस ब्यूरो (एसएसबी जिसे अब सशस्त्र सीमा बल कहा जाता है) की तैनाती की गयी थी। बीते ग्यारह साल में पश्चिम बंगाल के पानी टंकी से लेकर उत्तराखंड के पिथौरागढ़ के बीच सैकड़ों चेक पोस्ट और दर्जनों बैरक बनाये गये और जवानों की तादाद बढ़ाकर लगभग 50 हजार कर दी गयी।
पिछले ग्यारह साल में एसएसबी के हजारों जवान खुली सीमा से होने वाली अवैध गतिविधियों पर काबू पाने में कितना सफल हुए हैं, इसकी कोई आधिकारिक रिपोर्ट सरकार आज तक पेश नहीं कर सकी। वैसे सीमाई इलाके के लोगों का कहना है कि "एसएसबी की प्रतिनियुक्ति के एक-दो साल तक सब कुछ बेहतर था। लेकिन अब स्थिति बेहद खराब हो गयी है। तस्करी बेलगाम हो गयी है।' सच तो यह है कि खेती के मौसम में कोई भी पर्यवेक्षक तस्करी का ' खुला खेल फर्रुखावादी ' का नजारा आराम से देख सकता है। दिन की रोशनी में सैकड़ों की तादाद में साइकिलें सब्सिडीयुक्त उर्वरक की बोरियां लेकर सीमा-पार जाती रहती हैं। स्थानीय लोगों का आरोप है कि "जवानों को बोरी के हिसाब से रिश्वत पहुंचा दी जाती है।''
जहां तक आतंकी गतिविधियों की बात है, तो पिछले पांच साल में अररिया, मधुबनी, दरभंगा, किशनगंज से लगभग 17 लोग आतंकवादी गतिविधियों के आरोप में गिरफ्तार हुए हैं। इसे आश्चर्य ही कजा जायेगा कि किसी भी गिरफ्तारी में एसएसबी की कोई भूमिका नहीं रही। जाली नोटों और मवेशियों, मानव तस्करी की घटनाएं भी बीते सालों में बढ़ती गयी हैं। विभिन्न मौके पर स्थानीय जिला प्रशासन के कई अधिकारियों ने इस पंक्ति के लेखक को अपना दुखड़ा सुनाते कहा कि एसएसबी उन्हें सूचना मुहैया नहीं कराते।
सीमा की निगरानी में एसएसबी भले ही फिसड्डी साबित हो रहा हो, लेकिन बदनामी बटोरने में पीछे नहीं है। सीतामढ़ी का बैरगनिया गोली कांड इसका ताजा उदाहरण है। सीतामढ़ी जिले के बैरगनिया के हजारों लोगों ने पिछले दिनों एसएसबी के कैंप पर हमला बोल दिया। लोगों का कहना था कि जवान उनकी बहू-बेटियों के साथ अक्सर छेड़खानी करते रहते हैं। जवानों के कारण बहू-बेटियों का सड़क पर चलना मुश्किल हो गया है। दरअसल, 25 मई को बैरगनिया बैरके के दो जवानों ने स्कूल से घर लौटती दो छात्राओं के साथ बीच सड़क पर बदतमीजी कर डाली। जब लड़कियों ने विरोध किया, तो वे जोर-जबर्दस्ती पर उतर आये।  इसे देखकर आसपास के लोगों का दबा गुस्सा फूट पड़ा। हजारों लोग बैरक के सामने जमा हो गये और पत्थरबाजी करने लगे। इसके बावजूद जवानों ने स्थानीय प्रशासन को खबर नहीं दी और आक्रोशित लोगों पर गोलियां बरसानी शुरू कर दी। इसमें नीरस पासवान नामक एक दलित युवक की मौत हो गयी और दो महिला समेत तीन अन्य लोग बुरी तरह घायल हो गये। 
 बैरगनिया की घटना कोई अपवाद नहीं है, बल्कि सच तो यह है कि समूचे  सीमाई उत्तर बिहार की स्थिति कमोबेश बैरगनिया जैसी ही है। डेढ़ साल पहले अररिया जिले के कुरसाकाटा में भी बैरगानिया जैसी घटना घटी थी, जिसमें जवानों की गोली से चार ग्रामीणों की मौत हो गयी थी। यहां भी जवानों पर महिलाओं के साथ छेड़खानी करने के आरोप लगे थे। । कुछ समय पहले इस पंक्ति के लेखक ने रिपोर्टिंग के सिलसिले में रक्सौल से जोगबनी तक की यात्रा की थी। अमूमन हर जगह के लोगों ने एसएसबी के जवानों के व्यवहार के प्रति गहरे रंजो-गम का इजहार किया था। सुपौल, अररिया, किशनगंज में पिछले 11 साल में एसएसबी और स्थानीय लोगों के बीच लगभग 20 बार हिंसक टकराव हुआ है।
सीमाई इलाकों के बाशिंदे दबी जुबान से "कमीशनखोरी' की दास्तान भी सुनाते हैं। लोगों का आरोप है कि शादी-विवाह के मौके पर जवान बेवजह बारात-गाड़ियों को रोक देते हैं और भारी रकम वसूल कर ही जाने की इजाजत देते हैं।  सच तो यह है कि जवान चेक पोस्ट और बैरक में कम और सीविलियन एरिया में ज्यादा समय व्यतीत करते हैं।  कभी वे ट्रॉफिक पुलिस की भूमिका में दिखते हैं, तो कभी पंच बनकर लोगों के आपसी मामले में टांग अड़ाते हैं। जिला प्रशासन को ठेंगा पर रखते हैं। उनके कामों में जबर्दस्ती हस्तक्षेप करते हैं। सिविलयन क्षेत्र में गैर-जरूरी आवाजाही करते हैं। संक्षेप में कहें, तो वैरगनिया की घटना एक पूर्व चेतावनी है। संदेह नहीं कि अगर सरकार ने समय रहते सख्त कार्रवाई नहीं कि तो उत्तर बिहार के सीमाई इलाके में भी हालात पूर्वोत्तर जैसे हो जायेंगे।

बुधवार, 16 मई 2012

'' कोशी की उपेक्षा नहीं ''


दहाये हुए देस का दर्द-81
बिहार के कानून मंत्री नरेंद्र नारायण यादव जमीनी नेता हैं। वे ग्रास रूट की राजनीति से बिहार विधानसभा और कैबिनेट तक पहुंचे हैं। पिछले दिनों अपनी पत्रिका "द पब्लिक एजेंडा'' के लिए उनसे इंटरव्यू करने का मौका मिला।  नरसंहारों  की सुनवाई में हो रही देरी और बथानी टोला मामले में आये फैसले पर उनसे लंबी बातचीत हुई। यह इंटरव्यू "द पब्लिक एजेंडा'' के ताजा अंक में प्रकाशित हुआ है। लेकिन इसी मुलाकात के दौरान मैंने उनसे कोशी के मुद्दे पर भी बातचीत की। उनसे कई जमीनी सवाल पूछे। कोशी मुद्दे पर उनके विचारों और जवाबों को यहां आपके सामने रख रहा हूं। - रंजीत
सवाल- पिछले कुछ सालों से मैं कोशी अंचल की सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर लगातार अनुसंधान कर रहा हूं। मैं तथ्यों के साथ कह सकता हूं कि जिस तरह केंद्र सरकार ने बिहार की उपेक्षा की, ठीक वही व्यवहार बिहार की विभिन्न सरकारों ने कोशी के साथ किया, जबकि इस इलाके से कई बड़े राजनेता उभरे। राजेंद्र मिश्र, ललित नारायण मिश्र, जगन्नाथ मिश्र, अनूप लाल यादव, विनायक प्रसाद यादव, भूपेंद्र मंडल, तारिक अनवर, बीएन मंडल, रमेश झा, लहटन चौधरी, शंकर टेकरीवाल, शरद यादव, विजेंद्र यादव जैसे बड़े नेताओं के रहते कोशी की ऐसी उपेक्षा क्यों हुई ?
नरेंद्र ना यादव - नहीं, मुझे नहीं लगता कि कोशी के साथ उपेक्षा हुई है। मेरी सरकार ने कोशी के विकास के लिए हर संभव प्रयास किया है। कुसहा त्रासदी के बाद युद्ध स्तर पर राहत और पुनर्वास के कार्यक्रम चलाये गये। हम लोग आगे भी प्रयासरत हैं। हमने कोशी के लिए केंद्र सरकार से मदद मांगी थी, जिसे अस्वीकार कर दिया गया। इसके बाद हमारी सरकार ने विश्व बैंक की मदद से इलाके के लिए कई योजना बनायी है। यह कई करोड़ रुपये का पैकेज है। इसके तहत इलाके में लगभग 125 पुल-पुलिये बनाये जायेंगे। कुछ के टेंडर भी हो चुके हैं। गांवों की सड़कें पक्की की जायेंगी। बाढ़ के समय राहत के लिए हर पंचायत में ऊंचा टीला बनाया जायेगा। तटबंधों को मजबूत किया जायेगा। अगले वर्षों में लगभग 400 करोड़ रुपये कोशी इलाके में इंफ्रास्ट्रक्चर के निर्माण पर खर्च किये जायेंगे।
 सवाल- लंबे समय से कोशी की जीवन-रेखा डुमरी पुल क्षतिग्रस्त है, लेकिन अब तक सरकार इसकी मरम्मत नहीं करा सकी। क्या अगर यही समस्या अन्य हिस्से में होती, तो आपकी सरकार का रवैया ऐसा होता ?
नरेंद्र ना यादव-  सन्‌ 2014 तक वहां तीन पुल होंगे। एक पुल बीहपुर और नौगछिया के बीच होगा। डुमरी पुल के बगल में ही बनाये गये आइरन ब्रीज को भी ऐसा मजबूत बना दिया जायेगा कि लंबे समय तक उससे हल्की गाड़ियां पास करेंगी। डुमरी पुल की मरम्मत के लिए भी सरकार ने विशेषज्ञों से राय ली है। विशेषज्ञों ने कहा है कि इसके डिजाइन में हल्का परिवर्तन लाकर ठीक किया जा सकता है। कुछ उसी तरह जैसे हावड़ा ब्रीज है। दो साल के बाद आप देखेंगे कि डुमरी के सामांतर तीन पुल होंगे।
सवाल- ऐसा हो जाये, तो क्या कहना ! क्या ऐसा हो पायेगा ? हमने तो कुसहा हादसा के समय भी ऐसी बातें सुनी थीं, लेकिन हुआ क्या ? जिनके घर दहाये, खेत बंजर हुये, परिजन मरे, उन्हें तो कुछ खास नहीं मिला। लेकिन अधिकारियों, नेताओं,दलालों की चांदी हो गयी। मुआवजा राशि में जमकर लूट-पाट हुआ। छातापुर में एक बीडीओ धराये भी। लेकिन अंततः समय के साथ सब कुछ शांत हो गया। लोगों के दिन नहीं फिरे। वे आज भी पंजाब-दिल्ली के भरोसे ही हैं।
नरेंद्र ना यादव-  इन सब सवालों के जवाब हैं। कार्रवाई हुई है। हम आपको बाद में इसका विस्तृत ब्यौरा उपलब्ध करा देंगे।
सवाल- आप गांव से आते हैं। खेत-खेतिहरों की तकलीफ समझते हैं। आप लोग कोशी के लिए कुछ करते क्यों नहीं ?
नरेंद्र ना यादव- (लंबी खामोशी। सवाल का जवाब नहीं मिला)
सवाल- ऐसा कोई सेक्टर बतायें जहां कोशी अंचल को प्राथमिकता में रखा गया हो। यहां सबसे बाद में विश्वविद्यालय खुले। सबसे बाद में मेडिकल कॉलेज खुला, वह भी निजी। इंजीनियरिंग कॉलेज तक आज तक खुल ही नहीं सका। देश में अब कहीं भी छोटी रेल-लाइन नहीं है, लेकिन कोशी में अब तक मौजूद है। हर इलाके में रेलवे का विद्युतीकरण हो गया है, लेकिन कोशी में अभी तक नहीं हुआ है ? उद्योग-धंधा लगाने की तो चर्चा करना ही बेकार है।
नरेंद्र ना यादव- इन सब सवालों पर बात करने के लिए हमें आराम से बैठना होगा। इस पर बहस होनी चाहिए।
सवाल- क्या ऐसा इलिए तो नहीं हुआ क्योंकि यहां के लोग साधारणतया अमन पसंद और मासूम हैं ?
नरेंद्र ना यादव- (जवाब में चुप्पी)

मंगलवार, 27 मार्च 2012

मन न रंगाये जोगी, रंग लेयो कपड़ा



असल बात तो सरकार ही जाने, लेकिन दरबार आने-जाने वाले विश्वस्त दरबारियों का अनुमान है कि बिहार की सौवीं सालगिरह पर यही कोई 15-16 करोड़ रुपये खर्च किये गये हैं। मास भर पहले भी इसी तरह के एक पंच सितरिया भोज-भात पर 4-5 करोड़ रुपये खर्चे गये थे। उसे बिहार ग्लोबल मीट का नाम दिया गया था। सरकारी "माई-बापों'' का कहना है कि यह सब बिहार की खोयी हुई अस्मिता को फिर से प्राप्त करने के लिए किया जा रहा है- टू रीगेन द लॉस्ट प्राइडऑफ बिहार ।
वे "माई-बाप' हैं, देश-दुनिया घूमते-विचरते हैं। बड़े लोगों के साथ खाते-पीते, उठते-बैठते हैं, झूठ थोड़े ही बोलेंगे।  बिहारी अस्मिता प्राप्त करके ही दम लेंगे। भूमि-पूत्रों को छोड़कर देश के तमाम स्वनामधन्य लेखक, संगीतज्ञ, मर्मज्ञों को सम्मानित करेंगे। वे तारीफ करेंगे। प्लेन की दोनों पीठ का मासूल लेंगे और लौट जायेंगे। अपनी अस्मिता दौड़ी चली आयेगी। जो थोड़ी बहुत अस्मिता बची रहेगी, उसे लाने के लिए दिल्ली जायेंगे, बंगलुरु, मॉरीशस, त्रिनिदाद जायेंगे। रोजी-रोटी के लिए जन्म-भूमि छोड़ने वालों से मिलेंगे और कहेंगे अगर आप काम करना बंद कर दें, तो इस शहर/देश का भट्टा बैठ जायेगा। बस, अस्मिता दौड़ी चली आयेगी।
मैं मजाक नहीं कर रहा। अजी, सौवें बरस में कोई मजाक क्या करेगा। मैं रंग में भंग भी नहीं करूंगा। जन्म दिन का मौका है, इसलिए उत्सवी होना हम सब का धर्म है। वैसे मैं नहीं मानता कि हमारा बिहार महज सौ साल का ही है। हम तो मगध से हिसाब लगाने के आदि हैं और अंधेरे में भी नालंदा, विक्रमशीला, पाटलिपुत्र, वैशाली, अशोक, चाणक्य, भिखारी ठाकुर, कुंवर सिंह आदि को देख लेते हैं। लेकिन दिक्कत यह है कि मेरे जैसे लोग पटना से गांव को नहीं देख पाते। गांव से पटना देखने की कोशिश करते रहते हैं। क्योंकि ऊपर से नीचे देखने पर चीजें मनभावन ही लगती हैं। गांव नीचे है, पटना ऊपर।
हमारे जैसे लोगों की सबसे खराब आदत यह है कि हम भोजघरा में भी भनसा घर की युक्ति लगाते हैं। हम गीतहार के सम्मान को लेकर हमेशा चौकन्ने रहते हैं। दुल्हा तो दूसरे गांव से आ जायेगा, लेकिन गीतहारि तो गांव की ही होगी। उसके मान-सम्मान की उपेक्षा हमारी माटी में नहीं है। लेकिन सरकारी उत्सव की फितरत ही कुछ और है। राज्य गीत को एक नहीं पांच बार पढ़ गया। दस-बारह बार सुन गया। मन प्रसन्न हुआ,लेकिन कुछ कमी-सी महसूस हुई। ऐसा लगा जैसे परिवार का कोई महत्वपूर्ण सदस्य अनुपस्थित है। ये क्या ? कोशी-मिथिला निपता। न गौरव गान में, न ही प्रार्थना में, कहीं भी शामिल नहीं किया गया। बड़ा आश्चर्य हुआ कि लोग बिना कोशी और बिन मिथिला के भी बिहार की सांस्कृतिक तस्वीर बनाने की कोशिश कर लेते हैं। न रेणु, न राजकल, न नागार्जुन, न विद्यापति,  न दीना, न भदरी, न कारू खिरहर, न मंडन, न अयाची, न सलहेस। न कोशी, न बागमती। न नवाण्य, न सिरूआ।
अब इन्हें कौन बताये कि कोशी-मिथिलांचल बिहार का गहना है। बिहार की छाती अगर मगध है, तो भोजपुर, कोशी, मिथिलांचल, अंग उसके पैर-हाथ, दिल-दिमाग हैं। कोशी की बाढ़ में जो जिजीविषा सदियों से जिंदा है, उसको आप विदर्भ तो नहीं कहेंगे न ? क्योंकि जीवटता और जिंदादिली का ही दूसरा नाम तो बिहार है। जो गरीबी में भी इंसानियत को बचा ले जाये, जो सदियों के सौतेले व्यवहार के बाद भी फूटानी न झाड़े, उसी तासीर को तो लोग बिहार कहते हैं। वरना बिहार और कांगो-सोमालिया में अंतर ही क्या है? सर्वे देखें, अगर बिहार को एक देश मान लिया जाये, तो यह दुनिया का तीसरा सबसे निर्धन 'देश' होगा।
अचरज है! कोशी-मिथिला को सभी ने हाशिये पर रखा। अब यहां की लगभग दो करोड़ आबादी को बेहद चालाकी से कारागार में डाला जा रहा है। एक ऐसे कारागार में जहां, रोशनदान भी न हो। दावा यह कि अस्मिता जरूर आयेगी। हकारने से अस्मिता आती, तो कब के आ गयी होती । ऐसे ही अवसर पर किसी ने कभी कहा होगा, "मन न रंगाये जोगी रंग लेयो कपड़ा।''
 

राज्य गीत


मेरे भारत के कंठहार

तुझको शत-शत वंदन बिहार

तू वाल्मीकि की रामायण

तू वैशाली का लोकतंत्र

तू बोधिसत्व की करूणा है

तू महावीर का शांतिमंत्र

तू नालंदा का ज्ञानदीप

तू हीं अक्षत चंदन बिहार

तू है अशोक की धर्मध्वजा

तू गुरूगोविंद की वाणी है

तू आर्यभट्ट तू शेरशाह

तू कुंवर सिंह बलिदानी है

तू बापू की है कर्मभूमि

धरती का नंदन वन बिहार

तेरी गौरव गाथा अपूर्व

तू विश्व शांति का अग्रदूत

लौटेगा खोया स्वाभिमान

अब जाग चुके तेरे सपूत

अब तू माथे का विजय तिलक

तू आँखों का अंजन बिहार

तुझको शत-शत वंदन बिहार

मेरे भारत के कंठहार

प्रार्थना


मेरी रफ्तार पे सूरज की किरण नाज करे

ऐसी परवाज दे मालिक कि गगन नाज करे

वो नजर दे कि करूँ कद्र हरेक मजहब की

वो मुहब्बत दे मुझे अमनो अमन नाज करे

मेरी खुशबू से महक जाये ये दुनिया मालिक

मुझको वो फूल बना सारा चमन नाज करे

इल्म कुछ ऐसा दे मैं काम सबों के आऊँ

हौसला ऐसा हीं दे गंग जमन नाज करे

आधे रस्ते पे न रूक जाये मुसाफिर के कदम

शौक मंजिल का हो इतना कि थकन नाज करे

दीप से दीप जलायें कि चमक उठे बिहार

ऐसी खूबी दे ऐ मालिक कि वतन नाज करे

जय बिहार जय बिहार जय जय जय जय बिहार