गुरुवार, 9 अप्रैल 2009

लालू नहीं जानते किशनगंज को

राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष और देश के रेल मंत्री लालू प्रसाद शायद कोशी इलाके के पूर्वी जिले किशनगंज को ठीक से नहीं जानते। अगर उन्हें किशनगंज और कोशी इलाके के समाज की जमीनी सच्चाई मालूम होती, तो वह " रोलर ड्राइवर' बनने की भीष्म प्रतिज्ञा नहीं करते। वरुण गांधी के सीने पर रोलर चलाने वाले लालू के बयान को मैं इसी रूप में देखता हूं, क्योंकि मैं किशनगंज को जानता हूं, वहां के समाज को जानता हूं और वहां की जमीनी सच्चाई से अवगत हूं। दरअसल लालू प्रसाद जैसे नेता, जिन्हें जनता के दुख-दर्द से कभी कोई नाता-रिश्ता नहीं रहा है, अक्सर ऐसी गलतियां कर बैठते हैं। उनकी नजर में किशनगंज का मतलब है मुस्लिमागंज और मुसलमानों से वोट लेने का तरीका है उनका तुष्टिकरण इसलिए उन्होंने किशनगंज की उस सभा में उपस्थित सभी लोगों को मुसलमान मान लिया और वरुण के सीने पर रोलर चलाने की बात कह दी। यह अलग बात है कि किशनगंज और अररिया के लोग आज भी इसका मतलब पूछ रहे हैं। यकीन मानिए, राजनीतिक अधोपतन के इस दमघोंटू दौर में भी कोशी इलाके में आज भी धार्मिक उन्माद आम लोगों तक नहीं पहुंच पाया है। यह उस क्षेत्र का सौभाग्य है। अगर अयोध्या प्रकरण को छोड़ दिया जाये, तो आजतक कोशी इलाके में कभी दंगा-फसाद नहीं हुआ। अयोध्या और बाबरी मस्जिद प्रकरण के दौरान अररिया, फारबिसगंज जैसे जगहों में जो एक-आध दंगे हुए, वे सभी प्रायोजित थे, जिनमें न तो एक आम मुसलमान शरीक था और न ही एक भी आम हिन्दू। एक बात और जान लीजिए कि कोशी इलाके के अधिसंख्य मुसलमान मौलाना इमाम बुखारी जैसे नेताओं के बयान पर अपना दिमाग नहीं खपाते और उन्हें नहीं मालूम कि सांप्रदायिकता, सेकुलर, कम्यूनल आदि किस चिड़िया का नाम है। इसी तरह कोशी इलाके के आम हिन्दू प्रवीण तोगड़िया और केपी सुदर्शन के बारे में दो वर्ष के बच्चे जैसे अनजान हैं। दरअसल वहां का समाज प्राकृतिक रूप से एक धर्मनिरपेक्ष समाज है।
लेकिन दिल्ली-पटना के अपने वातानुकूलित बैठकखाने में वोट पाने के लिए तरह-तरह के षड़यंत्र रचने वाले नेता को कौन समझाये। वे तो बांटो और वोट बटोरो की नीति से ऊपर उठ ही नहीं पाते हैं। इसलिए लालू ने रटे-रटाये अंदाज में उक्त बयान दे डाला, गोया वह किशनगंज में नहीं पाकिस्तान में हो । उन्होंने तो वर्षों से यही सुन रखा है कि किशनगंज इलाके में मुस्लिमों की संख्या काफी है। उन्होंने सोच लिया कि अपने वोट बैंक को अटूट रखने और किशनगंज जैसे इलाके में तुष्टिकरण और भड़काऊ भाषण से बेहतर कोई औजार हो ही नहीं सकता। लेकिन लालू प्रसाद भूल गये कि कभी यही बात बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के नेता मोहमद शहाबुद्दीन ने भी सोचा था और चुनाव जीतने के लिए यहां भागे चले आये थे। लेकिन इतिहास गवाह है कि यहां उनका सांप्रदायिक उन्माद का मंसूबा टांय-टांय फिस्स हो गया। उन्हें मुंह की खानी पड़ी थी, फिर जो वे यहां से चंपत हुए दोबारा कभी नजर भी नहीं आये।
जो लोग किशनगंज को अच्छी तरह जानते हैं, वे इस बात को समझते हैं कि यहां लोगों को रोलर नहीं रोड की जरूरत है। रोजगार की जरूरत है। मजबूत प्रशासन की जरूरत है। खेतों को पानी की जरूरत है और घरों को बिजली की। अपराधियों और भ्रष्टाचारियों से मुक्ति चाहते हैं, किशनगंज के लोग। बांग्लादेशी घुसपैठिये से भी वे काफी चिंतित हैं, क्योंकि इसके चलते उनकी रोजी-रोटी मारी जा रही है और सदियों पुराना सामाजिक तानाबाना बिगड़ रहा है। नेपाल और बांग्लादेश के रास्ते होने वाली तस्करी और बढ़ती आपराधिक गतिविधियों से भी किशनगंज के आम लोग परेशान हैं। लेकिन लालू प्रसाद जैसे नेता को यह सब शायद मालूम नहीं है। दो महीना पहले जब मैं वहां गया था, तो लोग मुझसे कोशी बाढ़ की बात कर रहे थे। हालांकि इस जिले तक कोशी का कहर नहीं पहुंचा, लेकिन वे लोग बाढ़ की आपदा पर सरकारी निष्क्रियता से काफी आक्रोश में हैं। क्योंकि इस जिले के लगभग हर गांव के लोगों की बाढ़ से उजड़े सुपौल, अररिया, मधेपुरा जिलों में रिश्तेदारी है। बाढ़ ने कई लोगों के रिश्तेदारों को छिन लिया। आज भी बाढ़ प्रभावित जिले के लोग किशनगंज जिले के अपने रिश्तेदारों के यहां शरणार्थी का जीवन जी रहे हैं। लेकिन इस सच से राजनेता शायद अवगत नहीं है और शायद होना भी नहीं चाहते। वे तो बांटो और वोट बटोरे के अपने अमोध शस्त्र से ही जग जीतने का सपना देख रहे हैं।

शनिवार, 4 अप्रैल 2009

जो पुल बनाएंगे

अज्ञेय

जो पुल बनाएंगे
वे अनिवार्यत:पीछे रह जाएंगे।

सेनाएँ हो जाएंगी पार
मारे जाएंगे रावण
जयी होंगे राम,
जो निर्माता रहे
इतिहास में बन्दर कहलाएंगे

गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

बाढ़ के समय कहां थे नेताजी ?

दहाये हुए देस का दर्द -41
मनोज कुमार गुरमैता, सुपौल
आज भी कोशी-कुसहा के कोप से टूटे लाखों लोग आंसू बहा रहे हैं । उन्हें आज भी अपनों के बेगाने होने का दर्द साल रहा है। उन्हें आज तक पुनर्वास की राशि नहीं मिल पायी है। वे आज भी सपना देखने के बाद उठकर बैठ जाते हैं । धन के साथ-साथ जन खोने वाले लोग आज भी आंखों पोंछ रहे हैं।। इधर, चुनाव क्या आया सबकी असलियत खुलने लगी है। बाढ़ के समय घर में दुबके रहने वाले नेता भी आज की तारीख में बाढ़ पीड़ितों का सच्चा शुभ चिंतक होने का दावा कर रहे है। लेकिन बेअसर ।
हर पार्टी के नेता पीड़ितों के बीच फरियाद लेकर आ रहे हैं। इस आशा के साथ कि पीड़ितों का मत शायद उन्हे मिल जाए ।यह अलग बात है कि पीड़ितों को सबकुछ मालूम है कि किसने विपदा की घड़ी में साथ दिया था और कौन घर में दुबके हुए थे। कौन हवा फायरिंग कर रहे थे और कौन- कौन सरजमीं पर काम। कुछ स्थानों पर नेताओं को विरोध का भी सामना करना पड़ रहा है। पीड़ित यह पूछने से नहीं हिचकते कि बाढ़ के समय कहां थे नेताजी ? बहरहाल, क्या होगा यह तो आने वाले समय में ही पता चल पाएगा लेकिन यह तय माना जा रहा है कि बाढ़ पीड़ितों का मत इस बार यहाँ निर्णायक होगा । प्रभावितों को बातों से रिझाने में लगे नेता फिलहाल मुह की खा रहे हैं। वैसे, यह तय है कि दुख की घड़ी में जिस किसी ने इन लोगों को साथ दिया, उसी को लोग वोट देंगे , लेकिन सवाल यह भी अनुतरित है की साथ दिया ही किसने ?

बुधवार, 1 अप्रैल 2009

कोशी से मुंह छिपाते नेता

दहाये हुए देस का दर्द-40
आठ महीने में पहली बार कोशी नदी को बधाई देने का मन करता है। लेकिन यह सकारात्मक नहीं नकारात्मक बधाई है। बधाई इसलिए क्योंकि गत अगस्त में आयी कोशी की प्रलयंकारी बाढ़ ने राजनेताओं के असली चेहरे सामने ला दी है और नकारात्मक इसलिए कि यह हर्ष नहीं, बल्कि विषाद भरी अभिव्यक्ति है। कुछ वैसे ही जैसे छद्म दोस्तों और शुभचिंतकों की पहचान कराने के लिए हम दुर्दिन को बधाई देने लगते हैं। मैं भी राजनेताओं के असली चेहरे और जनता के प्रति उनके दिखावे के प्रेम को उजागर करने के लिए अगस्त की कोशी-बाढ़ को बधाई देता हूं।
आज जब पूरे देश में चुनावी बयार बह रही है और राजनीतिक पार्टियां एवं उनके नेता सड़कों की खाक छान रहे हैं, तब कोशी क्षेत्र में ऐसा कुछ भी दिखाई नहीं देता। बिहार की वर्तमान राजनीति के चारों महारथी खगड़िया जिले से पूर्व -उत्तर की ओर जाने की हिम्मत नहीं बटोर पा रहे हैं। क्या लालू क्या रामविलास, क्या नीतीश, क्या मोदी, सबों की दौड़ खगड़िया की सीमा में पहुंचकर खत्म हो जा रही हैं। अगर यह सच नहीं होता, तो लालू इस बार भी यादवों के रोम के नाम से प्रख्यात मधेपुरा से फिर चुनाव लड़ रहे होते और कोशी क्षेत्र के जदयू क्षत्रप विजेंद्र यादव सुपौल से टिकट लेकर मैदान में पसीना बहाते नजर आते। साल भर पहले वे चुनाव लड़ने का मंसूबा बना रहे थे और आज चर्चा तक नहीं कर रहे।
दरअसल, बिहार के नेताओं को यह अच्छी तरह पता चल चुका है कि कोशी क्षेत्र अब उनके पहुंच से बाहर जा चुका है। उन लोगों ने बाढ़ से पहले, बाढ़ के समय और उसके बाद अपनी भूमिका नहीं निभायी। उस पर तुर्रा यह कि वहां कि जनता भी उनकी हकीकत पहचान गयी। जनता को पता चल चुका है कि नेताओं ने उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया। जनता किसी एक दल से गुस्सायी नहीं है। उसने प्रलय के इतिहास को खंगाल दिया है। उन्हें यह जानकारी हासिल हो चुकी है कि सभी सरकारों ने इस प्रलय की पृष्ठभूमि तैयार की। वर्षों तक कोशी के रखरखाव व तटबंध मरम्मत की राशि को लूटा गया और नदी को खूंखार बनने के लिए छोड़ दिया गया। इसलिए कोई भी माफी के काबिल नहीं। ईश्वर को छोड़ बाकी सब ने उनके साथ मजाक किया है। उनकी छह दशकों की कमाई, घर-द्वार, खेत-मवेशी को स्वाहा होने का रास्ता बनाया है । हम उन्हें कभी माफ नहीं करेंगे।
यही कारण है कि जब बिहार में हर एक सीट के लिए , हर एक टिकट के लिए, हर एक पार्टी में कुश्ती हो रही है, कोशी में कोई बड़े नेता चुनाव लड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। न ही इस क्षेत्र में टिकटों की मार है। यह किसी एक पार्टी की स्थिति नहीं, बल्कि सभी पार्टियों का हाल है। जो नेता चुनाव लड़ रहे हैं, वे भगवान के भरोसे हैं। किन्हीं पार्टी के किन्हीं नेता को अपनी जीत का विश्वास नहीं है। अगर दूसरे शब्दों में कहें तो वह यह मानकर चलने लगे हैं कि कोई एक तो जीतेगा ही, शायद वह लॉटरी मेरे नाम लग जायें!
मुझे नहीं लगता कि भारत के चुनावी इतिहास में ऐसी स्थिति कभी देखने को मिली होगी जब हर पार्टी एक हारे हुए मुकाबले को लड़ रही है। जनता की मजबूरी है, इसलिए कोई एक तो चुनाव में विजयी होगा ही, लेकिन वह कौन होगा, इसके बारे में कोई नहीं जानता। क्या यह प्रजातंत्र की सीमा नहीं है ? क्या यहां आकर प्रजातंत्र की सारी खूबियां खत्म नहीं हो जाती हैं ? जनता को एक भी ऐसा उम्मीदवार नजर नहीं आ रहा, जिन पर वे विश्वास करें और जिनसे वे उम्मीद करें कि वह हमारे बारे में सोचेगा। यह यक्ष सवाल है, जो कोशी ने उठाया है ? अगर हमारी राजनीति नहीं सुधरी तो शायद देश के अन्य भागों में भी यह सवाल आगे उठता रहेगा, क्योंकि हमारी राजनीति लोक-विमुख हो चुकी है।

रविवार, 29 मार्च 2009

बात पते की/ किसान को 21 सौ, चपरासी को 15 हजार

देविंदर शर्मा
सरकारी कर्मचारियों के वेतन आयोग की तर्ज पर किसान आय आयोग गठित करने की मांग जोर पकड़ रही है. तीन वर्ष पूर्व सबसे पहले मैंने किसानों के लिए सुनिश्चित मासिक आय के प्रावधान की मांग की थी. अब धीरे-धीरे देश हताश किसान समुदाय की आय सुरक्षा के बुनियादी मुद्दे पर ध्यान दे रहा है. अर्थव्यवस्था के आधार स्तंभ किसानों को सुनिश्चित आय प्रदान कर हम वास्तव में अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने के लिए जरूरी टानिक दे रहे हैं.
कुछ समय पहले जींद में एक रैली में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने साफ-साफ कहा था कि अगर उनका दल सत्ता में आया तो वह किसानों को प्रत्यक्ष आर्थिक सहायता प्रदान करेंगे. तेलगूदेशम पार्टी के चंद्रबाबू नायडू भी किसानों समेत तमाम गरीबों के लिए काफी कुछ देने की घोषणा कर चुके हैं. इस बात का अहसास होते ही कि भारतीय राजनीतिक नेतृत्व किसानों को सीधे-सीधे आर्थिक सहायता की जरूरत के संबंध में सचेत हो रहा है, अर्थशास्त्रियों और नीति निर्माताओं में बेचैनी शुरू हो गई है. कुछ ने कहना शुरू कर दिया है कि किसानों को धन देने से वे आलसी हो जाएंगे.
इस प्रकार के विश्लेषण से मैं विचलित नहीं हूं. हममें से बहुत से लोगों को, जो किसानों को करीब से जानते हैं, यह पता है कि केवल किसान ही धन का सही इस्तेमाल करना जानते हैं. इसीलिए हम चाहते हैं कि वित्त मंत्री केवल उन्हीं के लिए अपनी तिजोरी खोलें. अन्य सभी इन संसाधनों को बर्बाद कर डालेंगे.
वैश्विक कृषि की समझ के आधार पर कहा जा सकता है कि आधुनिक कृषि में खेती की दो तरह की अवधारणाएं हैं. पहली है, पाश्चात्य देशों में उच्च अनुदान प्राप्त खेती और दूसरी अवधारणा गुजारे की खेती में देखने को मिलती है, जो विकासशील देशों में प्रचलित है.
गुजारे की खेती को बचाने का एकमात्र उपाय यही है कि विकसित और धनी देशों की तर्ज पर उन्हें भी प्रत्यक्ष आर्थिक सहयोग दिया जाए. अगर आप सोचते हैं कि मैं गलत हूं तो धनी और विकसित देशों में प्रत्यक्ष आर्थिक सहयोग बंद करके देख लें, इन देशों की खेती ताश के पत्तों की तरह भरभराकर ढह जाएगी. इसलिए समस्या कृषि की इन व्यवस्थाओं के प्रकार की है, जिन्हें अपनाने के लिए विश्व को बाध्य किया जा रहा है.
पहली हरित क्रांति औद्योगिक कृषि व्यवस्था में फली-फूली, जिसने हमें उस संकट में फंसा दिया है, जिसका हम आज सामना कर रहे हैं. इसने भूमि की उर्वरता खत्म कर दी, कुपोषण को बढ़ाया, भूजल स्तर सोख लिया और मानव के स्वास्थ्य व पर्यावरण पर तो कहर बनकर टूटी पड़ी. इससे कोई सबक सीखने के बजाय हम दूसरी हरित क्रांति की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं.
यह हरित क्रांति वर्तमान संकट को बढ़ाएगी और जैसा कि विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संघ की मंशा है, किसानों को खेती से बेदखल कर देगी.
दूसरी हरित क्रांति जीएम फसलों के घोड़े पर सवार होकर आ रही है. यह कड़े आईपीआर कानूनों में बंधी हुई है. इसके तहत बीजों पर निजी कंपनियों का नियंत्रण हो जाएगा. साथ ही बाजार व्यवस्था में भारी बदलाव कर किसानों की जेब में बची-खुची रकम भी निकाल ली जाएगी.
कृषि को फायदेमंद बताने के नाम पर इस व्यवस्था में अनुबंध खेती, खाद्य पदार्थों की रिटेल चेन, खाद्य वस्तुओं का विनिमय केंद्र और वायदा कारोबार आदि आते हैं. अगर ये व्यवस्थाएं कारगर होतीं और किसानों के लिए लाभदायक होतीं तो फिर अमेरिकी सरकार किसानों की मुट्ठी भर आबादी को किसी न किसी रूप में भारी-भरकम प्रत्यक्ष आर्थिक सहायता क्यों देती?
तकलीफदेह बात यह है कि कृषि का यह विफल माडल ही भारत में आक्रामक तरीके से स्थापित किया जा रहा है. मुझे कभी-कभी हैरत होती है कि कृषि वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री और योजनाकार वास्तव में कर क्या रहे हैं? 40 साल से असरदार नौकरशाह और प्रौद्योगिकीविद किसानों को यही बताते आ रहे हैं कि वे जितना ज्यादा अन्न पैदा करेंगे, उनकी उतनी ही आमदनी बढ़ेगी. इस तरह चालीस सालों से वे किसानों को गुमराह करते आ रहे हैं.
ऐसा उन्होंने क्यों किया, इसकी सीधी-सी वजह है. वास्तव में वे किसानों की मदद नहीं कर रहे थे, बल्कि किसानों की आड़ में खाद, कीटनाशक, बीज और कृषि संबंधी यांत्रिक उपकरण बनाने वाली कंपनियों के व्यापारिक हितों को बढ़ावा दे रहे थे. इसीलिए एनएसएसओ के इस आकलन पर हैरानी नहीं होती कि इन 40 साल के बाद एक किसान परिवार की मासिक आय मात्र 2115 रुपये है. किसान परिवार में पांच सदस्यों के साथ-साथ दो पशु भी शामिल हैं.
छठे वेतन आयोग में सरकारी सेवा में कार्यरत चपरासी को 15 हजार रुपये वेतन का वायदा किया गया है. एक राष्ट्र के रूप में क्या हम यह नहीं सोच सकते कि किसान की कम से कम इतनी आय तो हो जितना कि एक चपरासी वेतन पाता है? जब एक किसान परिवार की मासिक आय 2115 रुपये है तो नौकरशाहों और प्रौद्योगिकी के धुरंधरों को शर्म क्यों नहीं आनी चाहिए? यदि वे शर्मिंदा नहीं होते तो हमें उन्हें अपनी गलती स्वीकारने को बाध्य करना चाहिए.
उन कृषि अर्थशास्त्रियों के बारे में सोचिए जो शोध प्रबंधों, अध्ययनों और विश्लेषणों के माध्यम से हमें यह घुट्टी पिला रहे हैं कि आधुनिक कृषि लाभप्रद है. अब वे कहां हैं? क्या उनकी कोई जवाबदेही नहीं है. उनके गलत आकलनों की वजह से ही लाखों छोटे और सीमांत किसानों का जीवन उजड़ गया है.
इन बीते वर्षों में किसानों को गुमराह किया गया. उन्हें इस बात का विश्वास दिलाया गया कि अगर वे और प्रयास करते हैं तो उन्हें और लाभ होगा. यही नहीं, ये अर्थशास्त्री, वैज्ञानिक और नौकरशाह अब मुक्त बाजार, कमोडिटी एक्सचेंज, वायदा कारोबार और खाद्य रिटेल चेन की दुहाई देने लगे हैं कि इससे कृषि आर्थिक रूप से समर्थ होगी. अमेरिका और यूरोप में यह प्रयोग सफल नहीं रहा है. भारत में भी यह सफल नहीं हो पाएगा.
यह ध्यान देने योग्य है कि किस तरह एक दोषपूर्ण नीति को भारत में इतनी तेजी के साथ बढ़ावा दिया जा रहा है. वायदा कारोबार, कमोडिटी एक्सचेंज का फायदा किसानों को नहीं, बल्कि सट्टेबाजों, परामर्शदायक संस्थाओं, रेटिंग एजेंसियों और व्यापरियों को होगा.
विडंबना यह भी है कि किसान नेता किसानों के लिए एक निश्चित मासिक आय की मांग नहीं कर रहे हैं. वे केवल अधिक न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग कर रहे हैं.
इनमें से कोई इस बात को नहीं समझ पा रहा है कि मुश्किल से 35 से 40 प्रतिशत किसान ही ऐसे हैं जो अंतत: सरकारी खरीद का लाभ उठा पाते हैं. शेष किसान समुदाय, जो वास्तव में बहुसंख्यक है, खाद्यान्न का उत्पादन करता है. अगर उनके पास थोड़ा-बहुत बेचने के लिए है तो भी उन्हें कम से कम भोजन की पूर्ति तो करनी ही है. अगर वे खुद के लिए अनाज नहीं उगाते तो देश को उतनी मात्र में खाद्यान्न आयात करना पड़ेगा.
दूसरे शब्दों में वे आर्थिक समृद्धि पैदा कर रहे हैं. इसलिए उन्हें भी देश के लिए पैदा की जा रही आर्थिक समृद्धि के बदले में क्षतिपूर्ति मिलनी चाहिए।
(प्रतिष्ठित पोर्टल रविवार डाट काम से साभार। समसामयिक मुद्दे पर सम्यक दृष्टि के लिए इस साइट पर जरूर जायें, यूआरएल है http://www.raviwar.com/ )

शुक्रवार, 27 मार्च 2009

सुने हैं कि वोटा-वोटी होने वाला है

मुझे नहीं मालूम कि आगामी आम चुनाव को लेकर आम शहरी मतदाता क्या सोच रहे हैं। हालांकि रोज टेलीविजन पर चुनावी-बहस सुनता हूं और अखबारों-पत्रिकाओं में छपे लंबे-लंबे लेख पढ़ता हूं। ये लेख, ये टेलीविजन के कार्यक्रम नेताओं के बारे में तो बहुत कुछ बताते हैं, लेकिन आम जन के बारे में कुछ नहीं कह पाते। शहरी समाज में शायद यह संभव भी नहीं है । यहां ऐसा कोई माध्यम नहीं है जिससे आप आम जन के नब्जों को पढ़ सकें। हालांकि शहर में हर दिन सेमिनार और गोष्ठियां होते रहते हैं। अब कहने की जरूरत नहीं कि सेमिनार में भाग लेने वाले कभी "आम' नहीं हो सकते, सेक्यूलर होने का तो सवाल ही नहीं उठता है। यहां सेक्यूलर से मेरा मतलब वास्तविक सेक्यूलरिज्म से है। और वास्तविक सेक्यूलरिज्म का जो मतलब मैं जानता हूं उसके अनुसार, जहां दो मानव के बीच में किसी आधार पर कोई भेद-भाव न हो। क्या सेमिनारों में, गोष्ठियों में ऐसा होता है ? वहां भाग लेने के लिए एक शर्त होती है, कभी घोषित कभी अघोषित। आप आयोजकों द्वारा निर्धारित खास योग्यता, खास वाद, खास गठबंधन, खास गुट और खास मकसद में फिट बैठें तो उनके आयोजन का हिस्सा है अन्यथा नहीं। तो फिर इन्हें सेक्यूलर कैसे माने ?
हां, गांव में ऐसा माध्यम आज भी उपलब्ध है। गांव के हाट में, गांव के चौराहे पर, पोखर के महार पर, गांव के रेलवे-हॉल्ट और खास-खास दलान पर आम लोग बैठते हैं, जहां सेक्यूलर बहस चलती रहती है। पिछले दिनों मुझे एक ऐसी ही लंबी बहस सुनने का अवसर मिला। मैं बिहार के सुपौल जिले के एक गांव के रेलवे स्टेशन पर गाड़ी की प्रतीक्षा में बैठा था। मेरे अलावा वहां करीब पचास-साठ लोग और बैठे हुए थे। गाड़ी दो घंटे विलंब से चल रही थी। खुले आसमान वाले उस कच्चे प्लैटफार्म की हरी दूब पर लोगों के बीच बहस चल रही थी। बहस का मुद्दा था, आगामी संसदीय चुनाव। बहस में शामिल अधिकतर लोग इस बात पर एकमत थे कि कोई भी जीते, उनका भला नहीं होने वाला। लेकिन वोट तो देना ही है, चलो किसी को दे देंगे। हालांकि बहस में कई मुद्दों पर वे एक-दूसरे से असहमत भी थे। इस दो घंटे की बहस को सुनने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि ग्रामीणों का सभी पार्टियों, सभी नेताओं से मोह-भंग हो चुका है। और वे यह मानकर चल रहे हैं कि यह व्यवस्था उनके लिए कुछ नहीं कर सकती। गौरतलब है कि सुपौल लोकसभा क्षेत्र (परिसीमन से पहले सहरसा) के मतदाताओं ने लगभग सभी दलों के प्रत्याशियों को संसद भेजा है।
गांव के हाट में एक किसान दूसरे किसान से बात कर रहा था। पहले ने सवाल किया, सुने हैं कि वोटा-वोटी होने वाला है ?
दूसरे का जवाब था- अभी बहुत टेम है। जब तीन-चार दिन बचेगा, तब पूछियेगा इ सवाल।
सो काहे ?
तबे न नेतवन सब कें गाड़ी गांव में दौड़ेगी। झूठ-सांच बोलेगा। हाट-बजार में भाषण देगा। कहीं-कहीं हेलिकाप्टर उतार देगा। और कहेगा, वोट हमको ही दीजियेगा। जीतेंगे तो फलां काम कर देंगे। हियां रेल चला देंगे, हुआं बस चला देंगे, इंदिरा आवास देंगे तो जवाहर योजना देंगे । लेकिन हमको पता है, सब ठगबाज है। जीतकर अपना घर भरेंगे और कुछो नहीं करेंगे। उधर देखिये। लूच्चा सबको। झकास कुर्ता-पायजामा पहन कें अभिये से मूंछ टेर रहा है। यही सब नेताओं के कार्यकर्ता बनेगा। दस-दस, पांच-पांच हजार टका टानेगा कंडीडेड सब सें। एके महीना में गांजा-दारू में उड़ा देगा सब टका आउर फेर चोरी-छिनतई करने लगेगा।
हं- हं, ठीके कहते हैं, ऊ सरवा जलेश्वरा के बेटा को देखिये न ? ड्रेस से तो लगता है कि जैसे सुभाष बोस हो। लेकिन हम से पूछिये ओकर सच। सरवा पॉकेटमारी में पकड़ा गिया था, कटिहार टीशन पर। छह मास जेल काटकर आया है। कहता है लालटेन पार्टी का प्रचार कर रहे हैं।
हेंहेंहें....
सही बात। अच्छे, हाट-बजार हो गिया?
क्या होगा हाट बजार ? जेब में तो भूजी भांग नहीं है, चौराहा पर पान कहां से खायेंगे। बस नोन-तेल लिए हैं।
राम-राम !
राम-राम !

गुरुवार, 26 मार्च 2009

इस दलदल में प्रेम-क्रीड़ा करो प्रिये

बेकार झगड़ा न करो प्रिये
इस अगाध आकर्षण को निष्काम न करो
चलो, उठो अपने बालों को संवारो
और इस दलदल में
प्रेम का क्रीड़ा करो
तबतक
जबतक, दलदल ठस्स नहीं होये
तबतक
जबतक, नगंई ढक नहीं जाये

हम बहुत नग्न हो चुके हैं प्रिये
चलो मैं आलिंगन करूं तुम्हें
और तुम मुझे
और चुंबन के ताप से पैदा करें कोई चिंगारी
इस जंगली बेहयाई को जला देने के लिए
सफेदपोशों की अनैतिकता की नाश के लिए
भ्रष्टाचार की इस समुद्र को सूखा देने के लिए

बेकार झगड़ा न करो प्रिये
प्यार में अगर आग होती है
तो जलन भी होनी चाहिए
हाथों की लकीर नहीं होती दरिद्रता
शर्त यह है कि क्रांति होनी चाहिए
बेकार झगड़ा न करो प्रिये
हाथों में ले लो मेरा हाथ
प्यार करने वाले देंगे हमारा साथ
हम करेंगे क्रांति की क्रीड़ा
इन मक्कार सत्तालोलुपों की छाती पर
एक दिन
क्योंकि हम हैं मनुज, मनुज, मनुज

मंगलवार, 24 मार्च 2009

नेपाल आठवां सबसे खतरनाक देश

पत्रकारों के लिए नेपाल विश्व का आठवां सबसे खतरनाक देश बन गया है। हाल में ही अंतरराष्ट्रीय मीडिया संगठन, कमेटी टू प्रोटेक्ट जनर्लिस्ट (सीपीजे) ने यह घोषणा की। गौरतलब है कि यह संस्था हर साल दुनिया में प्रेस की स्थितियों और पत्रकारिता के अन्य पहलुओं पर इंडेक्स जारी करती है। संस्था ने अपने हालिया इंडेक्स में कहा है कि दुनिया के 14 देशों में पत्रकारों के जानमाल पर गंभीर संकट है और इन देशों की सरकार पत्रकारों पर हमला करने वालों के खिलाफ कार्रवाई करने में या तो असक्षम है या फिर वे जानबूझकर उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं करना चाहती। इस इंडेक्स में इराक सबसे ऊपर है। इसके बाद क्रमशः सियरालियोन, सोमालिया, श्रीलंका, कोलंबिया , फिलीपिंस और अफगानिस्तान हैं। इस सूची को जारी करते हुए सीपीजे ने कहा है कि नेपाल में पिछले एक साल में एक दर्जन पत्रकारों की हत्या हुई तथा कई दर्जनों केऊपर हमले हुए । इसके अलावा अन्य तरीकों से भी पत्रकारों का उत्पीड़न हुआ, लेकिन किसी भी मामले में सरकार की ओर से कोई संतोषजनक कार्रवाई नहीं हुई। सबसे हैरत की बात यह है कि इस सूची में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र का दावा करने वाले भारत का नाम भी शामिल है। भारत सूची में सबसे नीचे यानी 14वें नंबर पर है। इसके बावजूद यह भारत के लिए शर्मनाक बात है, क्योंकि सूची में शामिल अन्य देशों में राजनीतिक अस्थिरता के साथ-साथ गृह यृद्ध जैसे हालात हैं और वहां कानून -व्यवस्था का कमजोर होना लाजिमी है। लेकिन भारत, जहां के राजनेता अंतरराष्ट्रीय मंचों पर राजनीतिक और प्रशासनिक स्थिरता की बात करते नहीं थकते, तब भारत का इस सूची में शामिल होना काफी चिंता की बात है।

गुरुवार, 19 मार्च 2009

आखिरी अहाते में

सत्ता की राजनीति में डूबे हमारे नेता अब शायद अंतिम अहाते में पहुंच गये हैं। उस अहाते में,जहां सरपट दौड़ा जाता है। जहां किसी को किसी चीज की फिक्र करने की कोई आवश्यकता नहीं होती। धोती खुल जाती है, दौड़ जारी रहती है। पैर टूट जाते हैं, लेकिन भागते जाने का सिलसिला नहीं थमता। किसी बात पर शर्म नहीं होती, किसी पतन का परवाह नहीं रहता। सिर्फ एक ही चीज उन्हें याद रहती है, वह है कुर्सी और सत्ता। सत्ता और कुर्सी के लिए उन्हें हर बात हर शर्त मंजूर है। जनता कह रही है आप बेहया हैं, आपको कुछ याद नहीं। एक घंटे पहले तक आप उस पार्टी के सबसे कर्मठ कार्यकर्ता थेअचानक उसके विरोधी कैसे हो गये। आप तो कसम खाकर कहते थे कि मरूंगा तो इस पार्टी के झंडे के तले और जीऊंगा तो इसी के बैनर तले। एक टिकट क्या नहीं मिली कि आप उसके दुश्मन नंबर वन हो गये। पटना में आप उनसे कुश्ती करेंगे और दिल्ली में गलबहिया ? यह कैसे संभव है ? कल तक आप जिसको शैतान की औलाद कह रहे थे पलभर में वह आपके इतने प्यारे कैसे हो गयेकि आज उनके गले में हाथ डालकर फोटो खींचवा रहे हैं ?
नेता जी का जवाब होता है- सब आपके लिए जनता जनार्दन । ये सारे बेहयापन, सारी कुर्बानियां, ये रंग बदलना, ये चोला उतारना और पहनना; सब आपके लिए सरकार। आप कुछ मत पूछो तो ही भला है। मानो जनता वैद्यनाथ धाम का भोला बाबा हो और नेता उनके पंडे। भोला बाबा का नाम लो और चढ़ावा पंडों के हवाले कर दो। इसलिए नेता कह रहे हैं- आप तो सिर्फ वोट देने के दिन घर से निकलना और हमारे निशान के सामने बटन दबा देना। देश को हम चलायेंगे। आपको चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। जनता एक से नजर उठाकर दूसरे की ओर उम्मीद भरी दृष्टि से देखती है कि शायद कोई मिल जाये। लेकिन नहीं मिलता। अहाते में दूर-दूर तक बेशर्मों की फौज खड़ी है। सभी जाने-पहचाने, एक से गिरकर एक। कोई मंदिर को गलिया रहा है तो कोई मस्जिद को। कोई जाति को गलिया रहा है तो कोई मजहब को। कोई भाई बहन को ,तो कोई बहन भाई को शपिया रहे हैं। जनता इस बदबूदार अहाते से दूर भाग जाना चाहती है, लेकिन नहीं भाग पाती। टेलीविजन वाले उनका पीछा नहीं छोड़ रहे। वे अहाते को पैकेट में पैक कर जनता के बैठक खाने में भेज रहे हैं। कहां जाये जनता, क्या करे जनता। जनता की माने तो राजनीति अपनी आखिरी अहाते में दाखिल हो चुकी है। लेकिन उन्हें इससे आगे जाना होगा। इस अहाते को बंद करना होगा। नये अहाते बनाने होंगे। पता नहीं जनता इस बात को कब समझेगी।

बुधवार, 18 मार्च 2009

कूको न कोयल

दहाये हुए देस का दर्द-39
अगर वह हादसा नहीं हुआ होता,तो नजारा पिछले बसंत के माफिक ही होता। बसंत का महीना। होली का जोगीरा और कोयल की कूक। ये तीनों मिले तो किनका मन नहीं हूलस जायेगा । अगर कुसहा प्रलय नहीं हुआ होता तो उषाकाल की सुबह में पीपल के पेड़ पर कौअॆ और कोयल के बीच चोंच-युद्ध का दृश्य आम होता। उनके मल्लयुद्धों से आजिज आकर दूसरी चिड़िया पेड़ छोड़ देती। और अल्हड़, मनफेंक नौजवानों का समवेत स्वर गुंजता- जोगीरा सरारारा ... और डोयढ़ी बुहाड़ती नवविवाहिता, नजरें नींचाकर चौअन्नी मुस्की में मन-ही-मन गातीं, ननदिया अपने भैया को भेजो संदेश कि कोयल कूके सगर देस...
भैंस चराकर लौटते चरवाहे, ढेले फेंकते और दुष्ट कौअॆ को भदेस गाली देते- ""तोरा बहि के... देखही रे झिरवा, इ सरवा कोयली कें। सरवा अपन अंडा कौआ के खोता में राखे ले (रखने के लिए) कौन-कौन आसन कर रहा है। पहले एक ठो कोयली (कोयल) आकर कौआ को भड़कायेगा और जब कौआ उसको दबाड़ने (खदेड़ने) लगेगा तो दूसरा कोयली मौका पाबि कर चुपके-से ओकर खोता (घोंसला)में अपना अंडा छोड़ देगा। जब कौआ घूइम-फिर के आवेगा, तो ऊ कोयली के अंडा को अपना समझकर खूब जतन से सेवेगा। मूरख कौआ-कौआइन को डेढ़ महीना तक पतो नाहीं चलेगा कि ऊ अपन नाहीं कोयली कें बच्चा को पाल रहा है। जब गेल्हा (कोयल का बच्चा) काउ-काउ के बदले कूउउ-कूउउ राग शुरू कर देवेगा तब ओकर (उसका) माथा ठनकेगा। इ तो हम दोसर के बच्चे को पाल रहे थे! फिर देखना, इ गेल्हा के हाल! सरवा के नसीबे में चोंच-मार लिखा है। एतना चोंचियायेगा कौआ-कौआइन कि बेचारा पर दया आ जावेगा। ''
" लेकिन दोष त कोयलिया कें है। ऊ कुकर्म करता है और भोगता है गेल्हा।''
" ... फेर आया रे। हूआं देखो। मार साल कोयली के ढेला।''
" ... ओ हो हो, हुइस(चूक) गिया, थोड़े से हुइस गिया। हमर निसान तें पक्का था। हो हो हो...''
इस बार मैं यह नजारे देखने के लिए तरस कर रह गया हूं। इसे देखने के लिए पिछले कुछ दिनों से सुबह पांच बजे उठ जाता हूं। खेत-मैदान में दूर-दूर तक निकल जाता हूं। न किसी कोयल की कूक सुनाई देती है और न ही कौअॆ का काउं-काउं। भैंसवार इक्के-दुक्के जरूर दिख जा रहे हैं, मगर कौअॆ-कोयल का चोंच-युद्ध कहीं देखने को नहीं मिलता। भैंसवारों से पूछता हूं- "" एहि बेर कोयली नहीं आया, कि हो झिरो ? हम तो एको बेर कूक नहीं सुने हैं ? ''
झिरवा शरमा जाता है। फिर कहता है- "हं भैया, हमहूं सब एहि बेर कोयली कें कुनू (कोई) सून-घान (आभास) नहीं पाये हैं। लगता है कोयली सब भी कोशिकी के प्रलय से डर गिया है।''
घर लौटकर विचार करता हूं। प्राणि विज्ञान की पुरानी किताबों को उलटता हूं। उनमें कोयल के स्वभावों को ध्यान से पढ़ता हूं। स्पष्ट तौर पर यहां कुछ नहीं बताया गया है, लेकिन चिड़ियों के स्वभावों के बारे में कहा गया है कि मौसमी चिड़िया पारिस्थितिकी के प्रति अत्यंत संवेदनशील होती हैं। उन्हें बिगड़ी हुई पारिस्थितिकी को परखने की तीक्ष्ण शक्ति होती है।
तो क्या कोयल को पता है कि इधर के हालात ठीक नहीं हैं ? शायद हां। कोशी क्षेत्र में हालात बहुत खराब हैं। बाढ़ ने पेड़ों को सूखा दिया है। रेत ने हरियाली को। क्या खाये कोयल और किस पेड़ पर वह बिठाये बसेरा। आम की मंजरी हुई कुछ डालियां उनका इंतजार कर रही हैं, लेकिन कोयल लापता है। उसकी कूक सुनाई नहीं देती, बाढ़ग्रस्त इलाकों में।
सूर्योदय की पहली किरण जब रेत से नहाये खेतों पर पड़ती है, तो दृश्य बहुत मनोरम लगता है। लेकिन यह मनोहरी भाव ज्यादा देर तक नहीं टिकता। सुबह के नौ बजते-बजते तेज सूखी पछवा हवा चलने लगती है। हवा में धूल का साम्राज्य स्थापित हो जाता है। ऐसा लगता है जैसे मानो किसी रेगिस्तान में पहुंच गये हो। शाम तक यही स्थिति रहती है। वैसे आजकल कोशी इलाके में शाम से पहले ही अंधियारा छा जाता है। रात से पहले ही रात आ जाती है ! मन तरस कर रह जाता है, लेकिन कोयल नहीं कूकती।

सोमवार, 16 मार्च 2009

इस नकाब पर मर-मर जाऊं

बचपन में जब गांव का देसी नाच (नाटक) देखकर घर लौटता, तो कई दिनों तक एक ही सवाल मन-मस्तिष्क में कौंधता रहता था। डांट के डर से घर और स्कूल में किसी से पूछ नहीं पाता था कि कल रात नाच के स्टेज पर जिसने नकाब पहन सबको खूब डराया था, वह आखिर था कौन ? उसका क्या नाम है ? वह कहां रहता है ? गांव-बस्तियों में तो वह कभी कहीं दिखाई नहीं देता? अक्सर नौकरों से पूछता ? दलित बस्तियों के हमउम्र बच्चों से पूछता- अच्छा, बताओं तो आल्हा-उदल के नाच में उस दिन लठैत कौन बना था? तब वे नौकर, वे हमउम्र गरीब बच्चे मेरी मुर्खता पर खिलखिलाकर हंस पड़ते और कहते- धत तेरी के ! अरे ऊ तो कैला मुसहर का बेटा छुतहरूवा था। वही जो ठाकुर साहेब की हलवाही करता है। जवाब सुनने के बाद अचानक सवाल से दिलचस्पी खत्म हो जाती थी। छुतहरूवा का चेहरा याद करके ही खौफनाक जिज्ञाशों पर मानो ठंडा पानी पड़ जाता था। मन ही मन तब खुद से कहता- अरे छुतहरू मुसहर ? वह क्या डरायेगा किसी को ? उसे तो ठाकुर साहेब की पांच वर्ष की पोती भी मां-बहन की गाली देती रहती है और वह सिर झुकाकर सबकुछ सुनते रहता है।
वह नाच का नकाब था, जो रात के बाद हमेशा के लिए उतर जाता फिर अगले नाच तक उसे कोई नहीं पहनता था। लेकिन आज उस नकाब को देखता हूं जिसे हर किसी ने अपने चेहरे पर लगा लिया है। अक्सर इस नकाब के पीछे का चेहरा नहीं दिखता। जिस शख्स से हम अभी-अभी मिले, वह वास्तव में कौन है और उसका असली सूरत कैसी है, हम नहीं पहचान पाते। इन नकाबों के पीछे छिपे हुए इंसान का पता कोई नहीं जानता।
बहुत सारे पेशे के बहुत सारे लोगों से मिला हूं। कुछ स्वनामधन्य, कुछ स्वकामधन्यों से भी। कुछ कला प्रेमी, कुछ सेवा प्रेमी, कुछ साहित्य प्रेमी, तो समाज प्रेमी। किसी ने समाज सेवा को अपना धर्म बताया तो किसी ने कला की उपासना को अपने जीवन का ध्येय गिनाया। किसी ने नैतिकता का पाठ पढ़ाया तो किसी ने क्रांति को अनिवार्य बताया। जबकि वे सभी झूठे थे। संयोग से मैंने पत्रकारिता को अपना पेशा बनाया और जिसके कारण यह सूची लंबी होती गयी और नित नयी हो रही है। दुनिया को लोगों का अता-पता बताता हूं, लेकिन सच्चाई यह है कि मैं खुद वैसे लोगों की सच्चाई नहीं जानता, जिनके बारे में मैं अधिकारपूर्वक लिखता हूं। कितनी झूठी हो गयी है यह दुनिया? कितने झूठे हो गये हैं हम? जिनसे एक व्यक्ति भी प्रेम नहीं करता, हम उन्हें समाजसेवी कहकर संबोधित करते हैं। जो अपने सिवा किसी के बारे में नहीं सोचता, हम उसे एक्टिविस्ट कहते हैं।
कुछ लोगों को जानता हूं, जो सचमुच बहुत खूबसूरत हैं क्योंकि वे नकाब नहीं लगाते। लेकिन ऐसे लोगों को अक्सर हाशिए पर पाता हूं। एक मित्र हैं, जो इंजीनीयर, मैनेजर, आइएएस, डॉक्टर कुछ भी बन सकते थे। उसने मैट्रिक की परीक्षा में राज्य में प्रथम सौ में स्थान लाया था। लेकिन उसे शिक्षक बनने का जुनून था। बन भी गया। लेकिन केंद्रीय विद्यालय की राजनीति उसे शिक्षण-कार्य नहीं करने देती। हमेशा ही उसका तबादला होते रहता है, क्योंकि प्राचार्य और ऊपरी अधिकारियों के भ्रष्ट-व्यवसाय का वह हिस्सा बनना नहीं चाहता। एक सप्ताह पहले उसे अंडमान भेज दिया गया। एक पत्रकार को जानता हूं , जो सच लिखता है। बेहद काला है, लेकिन मुझे सुंदर दिखता है। उसने बीच कॉरियर में पत्रकारिता को अलविदा कह दिया है। ऐसे नकाबपोश समाज से जब मेरा मन ऊब जाता है, तो लौटकर गांव चला जाता हूं। छुतहरूवा मुसहर के नकली नकाब को देखने। दलित बस्तियों के उन हमउम्रों से मिलने, जो मुझे बहुत विद्वान समझते हैं। लगता है मेरे चेहरे पर भी नकाब आ गया है। अगर यह सच नहीं होता, तो वे आज भी मुझे उल्लू समझते और हंसते और कहते, अरे ऊ तो छुतहरूवा था, हेंहेंहें...

शनिवार, 7 मार्च 2009

क्या जंगल भी हमारे दुश्मन बन जायेंगे

जीवन और जंगल के मध्य सनातन काल से गहरी दोस्ती चली आ रही है। प्राचीन मानवों के लिए जंगल आवास और भोजन का का अकेला स्रोत था, तो आधुनिक मानव के लिए लकड़ी, फल, कंद-मूल के साथ-साथ शुद्ध वायु का अनन्य स्रोत। लेकिन नवीनतम अनुसंधान बताते हैं कि जंगल के चरित्र में बदलाव आ रहा है और अगर पर्यावरण असंतुलन का वर्तमान सिलसिला यों ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब जंगल दोस्त के बदले दुश्मन हो जायेंगे। पर्यावरण वैज्ञानिकों के एक दल ने हाल में ही इस बात से दुनिया को अगाह किया है। इस दल का कहना है कि सतत सूखा के कारण एशिया, दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका महादेशों के विशाल वर्षा वनों की प्रकृति में बदलाव आ रहा है। इसके कारण हमेशा से कार्बनडाइऑक्साइड गैस जैसे हानिकारक गैसों का अवशोषण करने वाले ये वन अपनी भूमिका निभाने में असमर्थ हो रहे हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि सूखा, आग और प्रदूषण के कारण इन वनों की पारिस्थितिकी में परिवर्तन हो रहा है। और अगर यह सिलसिला यों ही चलता रहा तो आने वाले समय में जंगल कार्बनाडाइऑक्साइड को सोखने के बदले कार्बनडाइऑक्साइड का उत्सर्जन की करने लगेंगे। ऐसी परिस्थिति में पर्यावरण में कार्बनडाइआक्साइड गैस की मात्रा बढ़ती चली जायेगी। जिसके परिणाम सृष्टिनाशक भी हो सकते हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह प्रवृत्ति आमेजन घाटी के विशाल वर्षा वन में भी देखी जा रही है, जो दुनिया का विशालतम वर्षा वन है।
शोधकर्ताओं के अनुसार, आमेजन घाटी के वन के एक हिस्से में वर्ष 2005 में भारी सूखा पड़ा था। तीन वर्ष बाद जब सूखे प्रभावित हिस्से में वैज्ञानिकों सर्वेक्षण किया तो पाया कि वन के इन क्षेत्रों में कार्बनडाइऑक्साइड की मात्रा सामान्य से कहीं ज्यादा है। इसके आधार पर वैज्ञानिकों ने कहा कि सूखा प्रभावित हिस्सा अब कार्बन सोखने के बदले इसका उत्सर्जन कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि पिछले दो दशकों से लगातार यह देखा जा रहा है कि दुनिया के वर्षा वन सूखा की चपेट में आ रहे हैं। इसकी मुख्य वजह पर्यावरण असंतुलन है।
शोधकर्ताओं ने कहा कि दुनिया में प्रदुषण और ग्रीनहाउस गैसों के कारण जो पर्यावरण असंतुलन की स्थिति पैदा हो रही है उसका शिकार जंगल भी हो रहा है। जबकि आज भी वर्षा वन मानवीय गतिविधियों द्वारा पैदा की जा रही कार्बनडाइआक्साइड गैस का सबसे बड़ा अवशोषक है। दुनिया के कुल कार्बनडाइऑक्साइड गैसों का 10 प्रतिशत अकेले वर्षा वन द्वारा अवशोषित किये जाते हैं। एक आंकड़ा के मुताबिक, अभी दुनिया में प्रति वर्ष मानवीय गतिविधियों के कारण कुल 1.2 खरब टन कार्बनडाइऑक्साइड गैस का उत्सर्जन होता है। इस शोध में आगे कहा गया है कि वर्षा वनों में एक हेक्टेयर में 100 मिलीमीटर बारिश की कमी होने से उसके कार्बनडाइआक्साइड अवशोषण में प्रति हेक्टेयर 5.3 टन की घटोतरी हो जाती है। वैज्ञानिकों का कहना है कि मानवीय हस्तक्षेप के कारण ऐसे भी दुनिया भर में जंगल के रकबा में कमी आ रही है। सूखा, आग और प्रदुषण जैसी घटनाएं जले में नमक छिड़कने का काम कर रही हैं ।

बुधवार, 4 मार्च 2009

रात वाली गाड़ी (पहली कड़ी)

इयन जैक्स
आज से तीस वर्ष पहले इंग्लैंड निवासी इयन जैक्स भारत आये थे। भारत भ्रमण के दौरान वे भारतीय रेल पर इतना मोहित हुए कि तीस साल यहां की रेलगाड़ियों में ही गुजार दिये। इस दौरान वे देश के कोने-कोने की रेल गाड़ियों में घूमते-विचरते रहे। जैक्स हाल में ही अपने देश लौट गये हैं। उन्होंने अपनी रेल-यात्राओं पर एक यात्रा वृतांत भेजा है जो काफी दिलचस्प है। यहां मैं मूल अंग्रेजी में लिखे उनके यात्रा वृतांत का हिन्दी अनुवाद रख रहा हूं ।
दिल्ली से कोलकाता जा रही रात की इस गाड़ी में मैं सोने का प्रयास कर रहा हूं, लेकिन नींद नहीं आ रही। इसलिए मैं भारत की अपनी पिछली रेल-यात्राओं का स्मरण कर रहा हूं। करीब एक सौ यात्राओं को याद कर चुका हूं। यादों का यह सिलसिला बहुत लंबा है, मन थक रहा है। जो यात्राएं अभी याद नहीं आ रहीं उसे फिर कभी पर छोड़ रहा हूं। लेकिन अजीब-अजीब बातें और चीजें याद आ रही हैं- यात्राओं की अनगिनत सुबहें, सुबह के समय चाय के कुल्हड़ में डाली गयी सिगरेट की राखें, स्टेशन के प्लैटफार्म पर बैठकर दूसरी रूट की गाड़ियों का इंतजार वगैरह-वगैरह... भारत में गोल्ड फ्लैक सिगरेटों का नामी ब्रांड है और कोयले वाली इंजन की धुआं बेहतरीन धुआं है और इंजन की सिटी सबसे बेहतरीन शोर और चाय सबसे उत्तम पेय... सहयात्रियों से की गयी बातचीत भी मुझे सिद्दत से याद आ रही है। कानपुर के खोमचे वाले की आवाज- केमको, केमको... हाथ देखने वाले ज्योतिषी की भविष्यवाणी, बैरक से घर लौट रहे भारतीय सैनिकों के अल्हड़ विचार और सहयात्रियों के साथ एक रात की दोस्ती। कभी-कभी यह अल्पकालिक दोस्ती भी काफी रागात्मक रूप ले लेती थी।
तीस वर्ष पहले जब मैं यात्रियों से मिलता था, तो वे रेलगाड़ियों से भली-भांती परिचित होते थे। इस कारण नहीं कि वे रेलगाड़ियों के प्रति विशेष रूचि रखते थे, बल्कि इसलिए कि रेल भारत में आवागमन का सबसे प्रमुख साधन है। वहां की सड़कें खतरे से खाली नहीं हैं और विमान-यात्रा तो आज भी खास व्यक्तियों के लिए ही है। भारत के लोग ट्रेनों के बारे में काफी जानकारी रखते हैं। मसलन कि कौन-सी गाड़ी वाहियात है, कौन-सी गाड़ी की टाइमिंग अच्छी है और कौन तेज चलती है और कौन-कौन सी गाड़ियां बेहद सुस्त रफ्तार से चलती हैं। लोग आपको बतायेंगे कि बरकाकाना जाने वाली गाड़ी के 9 नंबर के डिब्बे में अगर आप बैठेंगे तो आपको गोमो में गाड़ी बदलनी नहीं पड़ेगी। यह असाधारण ज्ञान है। यहां इंग्लैंड में लोग आपको ट्रेन के बारे में इतने विस्तार से नहीं बता सकते। इसके लिए आपको रेलवे कार्यालय से संपर्क करना पड़ेगा, लेकिन भारत के स्टेशनों पर ये बातें आपको साधारण यात्री भी बता देंगे। लोग कहेंगे- ओह श्रीमान आप तो अपर इंडिया से मत ही जाइये, इससे तो आप गंतव्य तक पहुंचते-पहुंचते बुढ़े हो जायेंगे। लोग आउटर सिगनल, लूप लाइन, अप ट्रेन, डाउन ट्रेन की भी सूचना दे देते हैं। वे मेल, एक्सप्रेस, सुपर फास्ट, पैसेंजर ट्रेनों के अंतर को समझते हैं। मानो उनके पास न्यूमैन की किताब हो। जब 1976 में मैं पहली बार भारत गया था तो न्यूमैन की किताब का 110वीं वर्षगांठ मनायी जा रही थी। इसमें आपको बताया जाता है कि अगर आपको पटना से पूणे जाना है तो आपके लिए कौन-कौन से मार्ग और कौन-कौन सी गाड़ियां हो सकते हैं। भारतीय लोग कहते हैं- रेल भारत को जोड़ती है, कि रेलवे ब्रिटिशों द्वारा भारत को दी गयी सर्वोतम उपहार है।
मार्क्सवादियों द्वारा शासित बंगाल में कम्युनिस्टों के बीच इस मुद्दे पर मतांतर है। कुछ लोग मार्क्स के कट्टर समर्थक हैं तो कुछ उनकी धारणा में संशोधन चाहते हैं। कट्टर मार्क्सवादियों का कहना है कि भारतीय रेल पर मार्क्स के विचार बिल्कुल ठीक थे कि ब्रिटिश ने भारत में रेलवे की स्थापना कर इस देश में क्रांति की नींव रख दी। क्योंकि रेलवे के कारण यहां औद्योगिक विकास ने गति पकड़ी जिसके कारण कामगार पैदा हुए और फिर क्रांति। लेकिन मार्क्स के विरोधियों का कहना है कि ब्रिटिश ने अपने स्वार्थ में रेलवे की स्थापना की और अगर इसमें भारतीयों को लाभ हो गया तो वह महज एक संयोग है।
मैं अब अपने कंपार्टमेंट की ओर देख रहा हूं। यह दो बर्थ का एक केबिन है। कभी यह नवविवाहितों के लिए होता था। यह राजधानी एक्सप्रेस है जिसे भारत की बेहतरीन ट्रेन कही जाती है। इसके सभी डिब्बे वातानुकूलित हैं और भारत के हिसाब से तेज भी । मैं प्रथम श्रेणी के डिब्बे में हूं जो ट्रेन का सर्वश्रेष्ठ क्लास है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि इसमें आधुनिक लग्जरी की कोई निशानी भी है। इसी बात से मुझे 1977 की फ्रंटियर एक्सप्रेस की याद आ रही है। वर्ष 1977 में मैंने इसमें यात्रा की थी। उस समय इस गाड़ी के वातानुकूलित डिब्बे के शीशे से प्लैटफार्म का दृश्य स्पष्ट दिखते थे। वह दृश्य देख मेरा मन द्रवित हो जाता था। लोग प्लैटफार्म पर गंदे चादर में लिपटकर सोते रहते थे, मानो वह जिंदा इंसान नहीं बल्कि चादरों में लपेटी हुई लाश हो। हालांकि इस ट्रेन के शीशे पर डार्क पालिश चढ़ी हुई है और अंदर की रोशनी व्यवस्था एवं साज-सज्जा बेहतर है, लेकिन अब भी प्लैटफार्म पर 1977 के दृश्य वैसे ही दिखते हैं। भारत में गरीबी और अमीरी की खाई लगातार चौड़ी हो रही है, ये प्लैटफार्म उसी का सबूत है। हालांकि समाजशास्त्री इसे भारतीय समाज के भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं मानते। बावजूद इसके अमीरी और गरीबी की खाई यहां बढ़ती ही जा रही है।
भारतीय रेलवे की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि कभी भी यहां कि सरकार ने रेलवे के प्रति उदासीनता नहीं दिखायी। इसी का परिणाम है कि भारत में रेल सेवा लगातार विकसित की है। अब जबकि भारतीय अर्थव्यवस्था की सीरत बदल रही है और साथ ही जनसंख्या का विस्फोट भी जारी है तो रेलवे को सतत विकसित करते जाना अनिवार्य है। अन्यथा भारत की नागरिक परिवहन व्यवस्था चौपट हो जायेगी और एक मात्र इस वजह से भी देश के अंदर भारी बबंडर उठ सकता है।
रेलवे भारत का सबसे बड़ा नियोजन संस्था है। लगभग 14 लाख लोग रेलवे में कार्यरत है जोकि विश्व का रिकॉर्ड है। एक ही प्रबंधन के तले इतनी बड़ी संख्या में कर्मी अन्यत्र कहीं नहीं है। हाल के दिनों में भारतीय रेलवे ने उन्नयन के लिए कई योजनाएं शुरू की हैं, विदेशी निवेश भी हुआ है, लेकिन अभी भी यहां की ट्रेनें कई चीजों से महरुम हैं।
(शेष अगली कड़ी में )

मंगलवार, 3 मार्च 2009

कहती हैं लड़कियां- मैं प्रेम नहीं करता

रक्तों से सने और आंसुओं से नहाये
इस अतिरोमाण्टिक दौर में
जब ईश्वर
सीजोफ्रेनिक भक्तों से डरकर मंदिर-मस्जिद छोड़ गये हैं
और बड़े-छोटे पर्दों ने मिलकर
प्रेम का आखिरी अर्थ खोज लिया है
कि प्यार-मोहव्वत और इश्क
अंततः नितंबो-वक्षों-कुल्हों-शिश्णों का मेल ही है
तब
जानना चाहती हैं लड़कियां
कि प्रेम के प्रति मुझमें कोई रूचि क्यों नहीं है
कि क्यों मैं उनके बीच रहते हुए भी कहीं और रहता हूं
मेरे बासी चेहरे पर भेदती निगाह डाल
पारित कर देती हैं प्रस्ताव- लड़कियां
कि मैं एक हृदयविहीन प्राणी हूं
कि मैं बहुत ठस्स और रूखड़ा हूं
कि मैं वह नहीं जो दिखता हूं
एक लड़के का प्रेमिकाविहीन होना
कितनी बड़ी बात है, शहर में
गलबहिया डाले बगैर पार्क में बैठने के
के कितने मायने हो सकते हैं
तब और भी ज्यादा
जब आप परीक्षा में प्रथम आ रहे हों
और सेमिनार व सभा में
भूख-बेरोजगारी, मौत-आतंक और
भ्रष्टाचार पर कुछ बोल गये हों
प्रेम में डूबने को आतुर लड़कियां
नहीं डूबना चाहती कोसी की बाढ़ में
सेहरावत और धूपिया से सम्मोहित लड़कियों को
स्माइल पिंकी की चर्चा से चिढ़
26/11 से झुंझलाहट
3/3 से अकुलाहट
और मंदी से बौखलाहट होती है
हालांकि
ये यूनीवर्सिटी के लाइब्रेरी में अक्सर
टॉपर लड़कों के साथ बैठती हैं
कॉमरेड - टाइप कुर्ता भी इन्हें पसंद है
बारूद-भूख, बाढ़-कराह के मुद्दे से भी इन्हें परहेज नहीं
लेकिन महज उतना
जितने से एक क्षणिक रोमांच हो जाये
कुछ-कुछ वैसा ही जैसा
नजर बचाकर किस करने के दौरान होता है
लड़कियां , जो अभी-अभी ग्रेजुएट की हैं
अभी-अभी ब्याय फ्रेंड के साथ सिनेमा हॉल से निकली हैं
अभी-अभी दोपहिये बाहन के पीछे बैठी हैं
मुझसे कहती हैं- मैं प्रेम नहीं करता




शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

बचे हुए लोग /एक लघु कथा

दहाये हुए देस का दर्द-38
दहाये हुए देश के उस हाट में तीन लोगों के चेहरे ही दमक रहे थे। भीड़ में ज्यादातर लोगों की आंखें धंसी हुई थी, आधा वदन नंगा था और बटुए में चंद रेजगारी के सिवा कुछ भी नहीं था। कुछ लोग नमक खरीद रहे थे और कुछ दिए जलाने के लिए मिट्टी का तेल। लेकिन उस भीड़ में तीन लोगों के चेहरे दूर से ही दमक रहे थे। वे तीनों चमचमाती तवेरा जीप से हाट पहुंचे। उतरकर हाट के एक कोने की ओर चले गये, जो खाली था। अमूमन यहां गोस्त का बाजार लगता था, लेकिन पिछले कुछ महीनों से यह बंद था। कसाईयों का कहना था कि बाढ़ ने धंधा चौपट कर दिया,न खस्सी है न खवैया (खाने वाले)। चूंकि वे वर्षों से यहां दुकान लगाने के आदि थे, इसलिए हाट की शाम इसी कोने में निठल्ला बैठकर बिताते थे। उन तीनों ने एक कसाई से बात की। एक खस्सी का आर्डर दिया। गोस्त पैक करवाया और गाड़ी में बैठ गये। लेकिन कुछ दूरी पर जाने के बाद उनकी जीप सड़क के एक कटान में फंस गयी। उन्हें बगल के एक किसान के घर में रात बितानी पड़ी। सुबह में लोगों ने किसान से पूछा वे तीनों कौन थे, तो पता चला- एक कोसी प्रोजेक्ट का इंजीनियर था, एक इसी प्रोजेक्ट में काम करने वाला ठेकेदार था और एक विधायक का भतीजा था।

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2009

कुसहा में फिर बाधा

कुसहा तटबंध का मरम्मत स्थल
दहाये हुए देस का दर्द - ३७
कोशी तटबंध की मरम्मत कार्य में फिर बाधा उत्पन्न हो गयी है। बिहार सरकार ने इसके लिए केंद्र सरकार को त्राहिमाम संदेश भेजा है। मिली जानकारी के मुताबिक कुसहा (नेपाल) में असामाजिक तत्वों ने एक बार फिर कार्य कर रहे ठेकेदारों और मजदूरों को धमकी दी और जबर्दस्ती कार्य बंद करा दिया। पिछले तीन दिनों से वहां काम रूका हुइआ है। मालूम हो कि कुसहा तटबंध का मरम्मत कार्य में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी और यंग कम्युनिस्ट लीग द्वारा विगत में भी बाधा उत्पन्न की जाती रही है। सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार, ये संगठन ठेकेदारों से लगातार अवैध मांग करते रहता है। मांग पूरी नहीं किए जाने की स्थिति में यह जबर्दस्ती कार्य को रुकवा देते हैं। बिहार सरकार ने कई बार इस बात की शिकायत केंद्र सरकार और स्थानीय नेपाली प्रशासन से की, लेकिन कभी भी संतोषजनक कार्रवाई नहीं की गयी। गौरतलब है कि कुसहा तटबंध के हादसे में इन संगठनों की कारगुजारी प्रमुख वजह रही थी। लेकिन आज तक भारत सरकार नेपाल सरकार पर दबाव बनाने में नाकामयाब रही। उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों कोशी को उसकी वास्तविक धारा में मोड़ी जा चुकी है और अब तटबंध की मरम्मत की जा रही है। जानकारों के अनुसार, मार्च-अप्रैल तक इसे हर हालत में पूरा किया जाना निहायत जरूरी है। अगर किन्हीं कारणों से अप्रैल से पहले तटबंध की मरम्मति का कार्य पूरा नहीं हुआ, तो अबतक के काम पर भी पानी फिर जायेंगे और लाखों लोगों को अगले साल बरसात में पुनः जलप्रलय का समाना करना प्रड़ेगा।

सोमवार, 23 फ़रवरी 2009

वाह आदमी, आह आदमी

वाह आदमी, आह आदमी
इस दौर का खासम-खास आदमी
उस आदमी के दो हाथ हैं और एक जबान
दोनों में कौन ज्यादा लंबा
वह उसके हृदय के रक्त को ही है पता
ईर्ष्या-द्वेष, घूटन-टूटन, प्यार-मोहव्वत के घोल से ?
पैदा करता है वह एक हवा
अद्‌भूत हवा, भयावह हवा, सम्मोहक हवा
और कर लेता है हर महफिल पर कब्जा
वाह आदमी, आह आदमी
इस दौर का खासम-खास आदमी
हर भले मानुष को समझता है मुर्ख
क्योंकि वह भी है सत्ता की तरह पुष्ट और दुष्ट
कायनात के सारे प्रतिभा-उपलब्धि, सुयश पर है उसका एकाधिकार
जो
भीड़ में मुखर
एकांत में जर्जर
वह आदमी
हर सवाल के प्रति सशंक
हर जवाब के प्रति निश्चंत
लेकिन पहचानता है वह समय के क्रांतिक विंदु को
और तलाशता है इंसानी कंधा
जिसे प्रजातंत्र की सबसे बड़ी पूंजी मानी जाती है
वाह आदमी, आह आदमी
इस दौर का खासम-खास आदमी
कंधे, भीड़, प्रजातंत्र, सत्ता...
मीडिया के मार्फत या भाया मीडिया के शार्ट-कट रास्ते से
वह बना लेता है सीढ़ी
जिसे सुविधानुसार मोड़ा जा सके
जैसे मुड़ते हैं विचार और वाद
और पलटते हैं पारे, देह की गर्मी से
रंडियां पॉकेट की गर्मी से
वह अवगत है अपने समय के व्यसन से
उसे मालूम है
कि इस नशेड़ समय की जेब में
कब, कहां, किस समय
कितना डालना है - नशा
वाह आदमी, आह आदमी
इस दौर का खासम-खास आदमी
उसे मालूम है
कि किसे किस बात से तोड़ा जा सकता है
कि किसे किस बात से मोड़ा जा सकता है
कि किसे किस बात से जोड़ा जा सकता है
उसके हैं अनेक रूप
जैसे वह आदमी नहीं चाक हो
जैसे वह आदमी नहीं परमाणु बम हो
जैसे वह आदमी नहीं कोई विज्ञापन हो
वाह आदमी, आह आदमी
इस दौर का खासम-खास आदमी

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009

इन अभियंताओं से तो वे अघोरी अच्छे

दहाये हुए देस का दर्द-36
पूर्वी बिहार, असम, उत्तरी बंगाल और नेपाल के इलाके में एक खानबदोश आदिम जनजाति पायी जाती है जिसे अघोरी कहते हैं। इस समुदाय के लोग अत्यंत असभ्य और अमानवीय प्रवृत्ति के होते हैं और प्रेतात्मा की अराधना करते हैं। अस्मसान, कब्रिस्तान, मूर्दा घाट इनका प्रिय स्थल होता है। ये इतने अमानवीय होते हैं कि इन्हें अधजली लाशों के भक्षण में भी कोई हिचकिचाहट नहीं होती। मूर्दा घाट की अधजली लकड़ी, लाश दहन के कपड़े आदि का यह प्रेम से इस्तेमाल करते हैं। यही कारण है कि अधोरी समुदाय सदियों से समाज से बहिष्कृत है और असभ्य एवं अमानवीयता के प्रतीक माना जाता है। लेकिन कोशी नदी परियोजना के कुछ अभियंताओं ने इन अघोरियों को भी पीछे छोड़ दिया है। अघोर समुदाय तो लाश का शिकार करते हैं लेकिन कोशी परियोजना के अभियंता तो लाश पर कमाई कर रहे हैं। इनकी आत्मा मर चुकी है। अघोर समुदाय तो प्रेतात्मा की उपासना करते हैं और उनके भी कुछ उसूल होते हैं। लेकिन इन अभियंताओं का शायद कोई उसूल नहीं है और ये अवैध धन के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं।
मैं शुरू से कहता आ रहा हूं कि कोशी नदी ने खुद धारा नहीं बदली, बल्कि भ्रष्टाचारियों ने इस नदी को मार्ग बदलने के लिए मजबूर कर दिया। और पिछले अगस्त के ऐतिहासिक कोशी हादसे के लिए अगर कोई जिम्मेदार है तो वह है- कोशी प्रोजेक्ट के भ्रष्ट अभियंता एवं भ्रष्ट सरकारी मशीनरी । भ्रष्टाचारियों का यह गठबंधन पिछले 20-30 वर्षों से कोशी तटबंध के रखरखाव, गाद की सफाई और मरम्मत के कार्य में अरबों रुपये का घोटाला करते आ रहा है। जिसके परिणामरूवरूप कोशी धारा बदलने के लिए मजबूर हुई। लेकिन जो बात कल सामने आयी उसने यह साबित कर दिया कि ये अभियंता इंसान हैं ही नहीं। ये तो धनलोलुप जंतु हैं, जो रुपये खाते हैं, रुपये पीते हैं, रुपये को ही पूजते हैं और रुपये को ही सोते हैं ।
कल कुसहा तटबंध के मरम्मत कार्य के दो प्रभारी अभियंताओं की गिरफ्तारी हुई। इनमें एक कार्यकारी अभियंता हैं जबकि दूसरे सहायक अभियंता। कार्यकारी अभियंता का नाम कामेश्वर नाथ सिंह है जबकि सहायक अभियंता का नाम है- विजय कुमार सिन्हा। दोनों ने कुसहा में तटबंध के मरम्मत-कार्य में जमकर लूट मचाई । महज दो महीने में ही इन्होंने लाखों रुपये का अवैध धन संचय किया। कहने की जरूरत नहीं है कि यह धन तटबंध की मरम्मत कर रहे ठेकेदारों से वसूली गयी। ऐसी स्थिति में यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि इन्होंने घूस लेकर कार्यों के जो प्रमाणपत्र दिए होंगे वे कैसे होंगे। जाहिर सी बात है कि इन्होंने पैसे के लिए तटबंध की गुणवत्ता से समझौता किया है। बिहार सरकार की निगरानी टीम ने कल इन्हें 11 लाख 36 हजार रुपये की नकदी राशि के साथ रंगे हाथ गिरफ्तार किया। ये दोनों रुपये लेकर कोशी प्रोजेक्ट के वीरपुर स्थित मुख्यालय से पटना जा रहे थे।
वीरपुर और कुसहा के कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने मुझे बताया है कि ये राशि पिछले सात दिनों की वसूली है। इससे पहले भी उन्होंने लाखों रुपये वसूले और उन्हें ठिकाने लगाने में कामयाब रहे, जिसका पता निगरानी अभी तक नहीं लगा पायी है। वैसे निगरानी विभाग ने इन अभियंताओं के घर से जो दस्ताबेज बरामद किए हैं उनसे खुलासा हुआ है कि इन लोगों के पास करोड़ों रुपये की नामी-बेनामी संपत्ति के प्रमाण मिल रहे हैं। जिनमें शहर में जमीन, कारखाना, मील आदि शामिल है।
घिन्न आती है ऐसे अभियंताओं पर! कोशी हादसे से बर्बाद हो चुके लाखों लोगों के कष्टों को देखकर भी इनका दिल नहीं पिघला। वीरपुर शहर के जिस कार्यालय में ये बैठते हैं उसके खिड़की से ही कोशी की बर्बादी साफ दिखाई देती है। शहर में चौबीसो घंटे उजड़े हुए लोगों की कराह गुंजती रहती है। लेकिन इन्हें लोगों के कष्टों से क्या लेना! ये तो अपना घर भर रहे हैं। भले ही इसके चलते कुसहा-2 की पृष्ठभूमी तैयार हो जाय तो हो जाय, इन्हे कोई फर्क नहीं पड़ता। बात लौटकर फिर अघोर समुदाय की ओर आती है। भले ही अघोरी अमानवीयता के प्रतीक हों, लेकिन कहा जाता है कि ये जब अपने देवता (प्रेत) की अराधना करते हैं तो दुआ मांगते हैं- भगवान आर्शीवाद दो कि हमें कभी किसी अकाल मौत का शिकार लाश न मिले।

ढाई कोस की विकास यात्रा

पंजाबी भाषा की एक लोक कथा है- आज मैंने सबेरे उठकर खुद को भोजन पर आमंत्रित किया। दोपहर में पूरे जतन से स्वादिष्ट खाना बनाया। फिर पूजा-पाठ करके भर पेट भोजन किया । और इस तरह हमने ब्राह्मण भोजन कराने का पुण्य अर्जित किया । बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की विकास यात्रा पर यह कहावत बहुत सही बैठती है। नीतीश कुमार पिछले एक माह से बिहार के गांवों में विकास यात्रा कर रहे हैं, जो आज पूरी होने वाली है। मुख्यमंत्री खुश हैं। उन्हें इस बात की खुशी है कि वह शायद इस राज्य के पहले ऐसे मुख्यमंत्री हैं जो सच्चे दिल से प्रदेश का विकास चाहते हैं, जो कैंसर का रूप ले चुके भ्रष्टाचार के रोग से प्रदेश को मुक्त कराना चाहते हैं और जो जनता को सरकार से श्रेष्ठ समझते हैं। नीतीश कुमार को इस बात पर भी फक्र हो रहा है कि उसने बिहारवासियों के बिहारीपन को जगा दिया है । अब बिहार के लोग बड़े गौरव से कहेंगे कि हम बिहारी हैं।
शिक्के का यह एक पहलू है, जिसमें मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ-साथ उनके राजनीतिक-प्रशासनिक अमले भी शामिल है। शिक्के के दूसरे पहलू में प्रदेश की 10 करोड़ जनता है जिसे न तो विकास का अर्थ मालूम है और न ही यात्रा का । उसकी नजर में यात्रा एक जगह से दूसरे जगह जाने को कहते हैं, जिसमें काफी परेशानी होती है। लेकिन यात्रा से विकास भी हो सकता है, यह बात पहली बार उनके समक्ष आयी है। वे इन दिनों आपस में बात कर इस अतर्सबंध को जानने की कोशिश में लगे हुए हैं। उधर मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि उनकी विकास यात्रा का मुख्य उद्देश्य भ्रष्टाचार से प्रदेश को मुक्त कराना है। इस कार्य के लिए लोगों का समर्थन चाहिए , बिना उनके सहयोग के हम विकसित बिहार का ढांचा खड़ा नहीं कर सकते। संक्षेप में कहें तो नीतीश कुमार ने एक ऐसा बीड़ा उठाया है जो आजतक किसी राजनेता ने नहीं उठाया। वे चरित्रवान बिहार बनाना चाहते हैं और इस नाते समाज सुधारक की भूमिका में हैं। वे मूल्य, उसूल, सिद्धांत की पुनर्स्थापना करना चाहते हैं और इस नाते वह शिक्षक और संन्यासी की भूमिका में भी हैं।
कितनी सुंदर लगती हैं ये बातें। बिल्कुल सिनेमा की तरह। लेकिन जैसा कि सिनेमा का खुमार हॉल से कदम बाहर रखते ही उतर जाता है, कुछ उसी तरह नीतीश कुमार का सब्जबाग भी उनके काफिले की गाड़ियों के स्टार्ट होते ही छू-मंतर हो जा रहा है। नीतीश कुमार को क्या यह मालूम नहीं कि जिस जनता को वह मंच पर बुलाकर, अपने बगल में खड़ा कर भाषण दिलवा रहे हैं, वह उनके जाते ही फिर से वैसा ही बेचारा हो जायेगा जैसा पहले था।
आम जीवन से भ्रष्टाचार दूर करने की बात करते हैं, मुख्यमंत्री, लेकिन उन्हें दिन के उजाले में भी लुटेरे नजर नहीं आते। मूल्यों की बात करते हैं, मुख्यमंत्री! क्या उन्हें मालूम नहीं कि मूल्यों का निर्माण पाठशाला में होता है और बिहार के पाठशालाओं में नौकरी करने वाले शिक्षक कितना समय स्कूल में बिताते हैं। मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव से जानता हूं कि राज्य के किसी भी सरकारी स्कूल में महज दो घंटे भी पठन-पाठन का काम नहीं होता। 80 प्रतिशत शिक्षक महीना में पांच दिन भी स्कूल नहीं जाते। इस सच से बिहार का बच्चा-बच्चा अवगत है, लेकिन मुख्यमंत्री को नहीं मालूम! अगर मालूम रहता, तो कम से कम जिन जिलों से वे विकास यात्रा कर लौटे हैं वहां शिक्षक स्कूलों में दिखाई देते। सभी को मालूम है कि शिक्षक नियुक्ति के मामले में भारी अनियमितताएं हो रही है, लेकिन मुख्यमंत्री इससे अनभिज्ञ हैं। वे जनता को पूछ रहे हैं कि बताइये आपके गांव में कौन-कौन अधिकारी चोर है। हास्यास्पद यह कि नरेगा के किसी भी मजदूर को उसकी पूरी मजदूरी नहीं मिलती। पीएमजीएसवाइ के तहत पिछले साल बनी सड़कें इस साल टूट गयी हैं, लेकिन मुख्यमंत्री गांव के अपढ़ ग्रामीणों से कह रहे हैं कि सड़क के काम पर ध्यान रखें। मुख्यमंत्री जी, दो जून की रोटी के लिए हलकान रहने वाली अपढ़ जनता को क्या मालूम कि किस सड़क के लिए कितना पैसा आवंटित हुआ है और इसके लुटेरे कौन-कौन हैं। लेकिन आपके एमएलए, अधिकारी और मंत्री को सब पता है। आप कार्रवाई क्यों नहीं करते ?
अगर जनता को भावुक बनाकर वोट लेने से ही बिहार का विकास हो जायेगा तो निश्चित रूप से यह विकास यात्रा सफल है। अगर इस यात्रा का निहितार्थ बदलाव लाने का है तो छह माह बाद एक बार फिर आप इन गांवों का दौरा कीजिएगा। जो शिकायत लोगों ने की थी, उन पर क्या कार्रवाई हुई, थोड़ा इस पर नजर घूमा लीजिएगा। सब पता चल जायेगा। अन्यथा कहावत तो है ही- भर दिने चले, ढाई कोस । जैसा कि सीतामढ़ी में उनकी सभा से लौट रही एक युवा महिला अपनी आक्रोशित माता को समझा रही थी- सब तमाशा छिये वोट कें, हम काहे शिकायत करतिये मुखिया, वार्ड सदस कें ? इ सब तें चल जेतिन्ह पटना-सटना , हम गरीब कें त एहि जंगल में रहै कें छै। पानी में रहि कें मगर स बैरी ! नय गे माय नै ! कहियो नै !!

रविवार, 15 फ़रवरी 2009

जो वर्षों से गुमनाम है

वह आदमी बहुत उदास है
क्योंकि वह भ्रष्टाचार के खिलाफ है
वह दुकानदार बेहद परेशान है
ठीक सिनेमा घर के सामने उसकी एक किताब दुकान है
वह जो चौराहे पर बेहाल खड़ा है
शहर का आखिरी ईमानदार है
हमेशा निर्दल ही रहा वह नेता
पार्टियों की माने तो वह बेविचार है
वह पत्रकार आज फिर बेरोजगार है
संपादकों की नजर में वह बड़ा बेवाक है
मुअत्तल होकर बिस्तर पर पड़ा है वह अधिकारी
कहते हैं कि वह एक झक्खी नाम है
सच कहूं तो दोस्तों
एक ही शख्स की ये सारी दास्तान है
जो वर्षों से गुमनाम है

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

वो घास की कताई वो कास की बुनाई (अंतिम कड़ी)

लगभग ग्यारह साल पहले की बात है। पटना के महेंद्रू मोहल्ला में छात्रों ने एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया था। गोष्ठी का विषय था- वैश्विक बाजारवाद और स्वदेशी। इसमें आजादी बचाओ आंदोलन के एक अत्यंत समर्पित कार्यकर्ता, संजय ने काफी विचारोत्तेजक भाषण दिया था। लेकिन यह गोष्ठी मुझे इसलिए आज तक याद है क्योंकि इसमें दसवें वर्ग के एक छात्र ने एक क्रांतिकारी बात कही थी। उसने कहा था- बाजारवाद पहले हमारे मूल्यों, संस्कृतियों, कलाओं और साहित्य को साफ करती है और उसके बाद पॉकेट को। बाजारवादी व्यवस्था में ऐसी तमाम चीजें बेमौत मर जाती हैं, जिनकी कीमत नहीं होती।
आज जब गुम हो रहे लोक शिल्प, लोक तकनीक, लोक कला आदि के बारे में सोचता हूं, तो उस छात्र का कथन बरबस याद आ जाता है। कोशी अंचल और उत्तरी बिहार के खत्म होते हस्त शिल्प और लोक तकनीक की सबसे बड़ी वजह यही है। पिछले दिनों मैंने अपने गांव के एक बांस बुनकर से जब पूछा कि उसने बांस के बर्तन बनाने क्यों छोड़ दिये, तो उसका जवाब था- गुजारा नहीं होता मालिक। कुछ ऐसा ही जवाब दिया था फिंगलास गांव के माधवलाल कुम्हार ने । उसने कहा था- आब त स्टील, प्लास्टिक के जमाना आबि गेले ये, माटि के वर्तन कियो नै किनै (खरीदते)छै । अब माधवलाल को कौन समझाये कि एक दिन स्टील खत्म हो जायेगा और प्लास्टिक को अगर खत्म नहीं किया गया तो वह हमें खत्म कर देगा। तब माटी ही साथ रहेगी, शायद माधवलाल जैसे माटीकार रहे या न रहे।
अब लौटता हूं कोशी अंचल की घास-कास की कताई कला के पतन की ओर। हालांकि मैंने इसकी वजह पता करने के लिए हर ओर दिमाग दौड़ाया। इस कला के जानकार बुजुर्गों से बात की। प्रादेशिक भाषा के प्रोफेसरों से जानना चाहा। यहां तक कि मिट्टी की महक सूंघने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों से राय ली, लेकिन कहीं से कोई संतोषजनक उत्तर नहीं आया। एक शाम को जब अपने गांव की गलियों से गुजर रहा था, तो अचानक इसका एक संकेत-सूत्र मिल गया। दरअसल, उस शाम एक बुढ़िया अपनी वहु से झगड़ रही थी और इस क्रम में वह उसे कामचोर, बेलूरी आदि-आदि की संज्ञा दे रही थी। बुढ़िया कह रही थी- पड़ोस की औरतों के साथ गप्प लड़ाने से तो अच्छा है घर में बैठकर कुछ कढ़ाई-बुनाई करना। क्या जमाना आ गया है। आज की लड़कियों को तो कुछ कातना-बुनना भी नहीं आता। टेलीविजन क्या आ गया, सारी कढ़ाई -बुनाई खत्म हो गयी।
इस बुढ़िया ने गुस्से-गुस्से में ही मेरे सवाल का जवाब दे दिया था। अगर सच कहें तो लोक शिल्प और लोक तकनीकों को खत्म करने में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का बहुत बड़ा हाथ रहा है। एक तो यह पश्चिमी और शहरी जीवन-शैली का प्रचार-प्रसार कर रही है, दूसरा यह समय व्यतीत करने का सबसे बड़ा माध्यम बन गया है। पहले गांवों में जब लोगों को खाली वक्त मिलता था, तो वे शौकिया तौर पर ही सही कुछ न कुछ कलात्मक काम करने लगते थे। दोपहर के समय लगभग हर महिलाएं कोई-न-कोई कढ़ाई-बुनाई करती दिखती थी। यह एक कलात्मक रूचि जैसी बात थी। विभिन्न मौकों पर वे इसका प्रदर्शन कर वाहवाही भी लूटती थीं। लेकिन जैसे-जैसे पश्चिमी जीवन शैली का प्रचार-प्रसार हुआ, सभी महिलाओं ने एक साथ अपनी लोक कलाओं, शिल्पों से तौबा कर ली। कताई-बुनाई के बदले उन्होंने टेलीविजन पर बैठकर सीरियल देखने को वरीयता दी। गांवों में देखा-देखी का रोग बहुत तेजी से फैलता है। उच्च और मध्यम वर्गों की देखा-देखी में निम्न मध्यम और निम्न वर्गों ने टेलीविजन खरीदना शुरू कर दिया। कढ़ाई-बुनाई उनके जीवन से गायब होते चली गयी।
पहले अगर किसी लड़की की ससुराल से विदाई के वक्त कलात्मक सामग्री नहीं भेजी जाती थी, तो यह पूरे गांव में चर्चा का विषय बन जाता था और लड़की के घरवालों की भद्द पीट जाती थी। लेकिन आज इस बात का मलाल किसी को नहीं होता कि विदाई में कढ़ाई-बुनाई का कोई समान नहीं आया है। आज बवाल तब मचता है जब लड़की अपने मायके से टीवी, फ्रीज, वाशिंग मशीन आदि लेकर ससुराल नहीं आती।
किसी भी लोक कला, लोक शिल्प, लोक तकनीक के पतन की पहली शर्त है कि वह अपने लोगों के बीच में ही अपना कलात्मक महत्व को खो दे। कद्रदानों के बिना कला जिंदा नहीं रह सकती। उत्तर बिहार की लोक कला इसी का शिकार है। दुखद बात यह है कि हमारी मानसिकता पराधीन होती जा रही है। हम अपने ही किसी कला, शिल्पों और कीर्तियों को तब तक महत्व नहीं देते जब तक उसे विदेश में महत्व न मिल जाये। मिथिला पेटिंग पिछले दो दशकों से इसलिए चर्चा में है क्योंकि इसे विदेशों में महत्व दिया गया। जबकि हकीकत यह है कि खुद मिथिला में यह वर्षों से उपेक्षित थी। मिथिला पेटिंग तो एक नमूना है, उत्तरी बिहार में ऐसी कलाओं की संख्या कभी सैंकड़ों में थी। लेकिन इसके कद्रदान नहीं थे। घास ,कास, बांस, जूट मिट्टी आदि की शिल्पकारी भी इन्हीं प्रवृत्तियों की शिकार है।

बुधवार, 11 फ़रवरी 2009

कहीं पठान-पठान तो कहीं हसी-हसी

यूं तो अब क्रिकेट में हर दिन नया-नया कारनामा हो रहा है और हो भी क्यों नहीं, क्योंकि अब क्रिकेट खेल तो रहा नहीं; वह तो दैनिक व्यवसाय हो चुका है। कोई ऐसा-वैसा व्यवसाय नहीं, बल्कि करोड़ों-अरबों काबिजनेस। इसलिए हर दिन कोई न कोई रिकॉर्ड बनना लाजिमी है और बनता भी रहता है। कभी मैदान के अंदर तो कभी मैदान के बाहर। मसलन पिछले दिनों जब वेस्टइंडीज ने इंग्लैंड को महज 51 रनों पर धूल चटा दी तो एक नया रिकॉर्ड बन गया। उसी तरह जयसूर्या का 39 साला बुढ़ा कंधा ने पांचवें वन डे पठान की गेंद पर छक्का लगाया तो एक रिकॉर्ड यह बना कि आज तक इतने उम्रदराज किसी खिलाड़ी ने इतना लंबा छक्का नहीं लगाया था। ये तो मैदान के अंदर का रिकॉर्ड है, पिछले सप्ताह क्रिकेट में मैदान के बाहर भी एक अद्‌भूत रिकॉर्ड बना। इस रिकॉर्ड को बनाया आइपीएल के संचालकों ने। वह यह कि पहली बार इतिहास में क्रिकेटरों के वस्तुओं की तरह बोली लगी और उन्हें ऊंची कीमत लगाने वालों के सुपुर्द कर दिया गया। हालांकि यह काम पिछले साल ही शुरू हो गया था, लेकिन रिकॉर्ड इस लिहाज में बना कि पहली बार इस ऑक्सन प्रक्रिया को आम लोगों ने देखा,बिल्कुल नगर निगम की स्क्रैपों की नीलामी की तरह।
अब मूल विषय पर आते हैं जो दिलचस्प भी है और विशुद्ध रूप से क्रिकेटिंग भी है। कल यानी 10 फरवरी को यह अनोखा रिकॉर्ड बना। वह यह कि क्रिकेट के इतिहास में 10फरवरी का दिन इसलिए दर्ज हो गया क्योंकि इस दिन दो सगे भाइयों की जोड़ियों ने अकेले अपने दम पर विपक्षी टीम को धूल चटा दी। पहली जोड़ी भारतीय क्रिकेटर बंधु इरफान पठान और युसूफ पठान की थी जिसने कल अकेले अपने दम पर श्रीलंका के हाथ से मैच छिन लिया। कल जब भारत टी-20 मैच में हार की कगार पर पहुंच गया था, तो पठान बंधुओं ने मोर्चा संभाल लिया। पहले बड़े भाई युसूफ ने तगड़े हाथ दिखाये उसके बाद इरफान ने। बड़े भाई के छक्के ने छोटे में ऐसा जोश भरा कि वह फनार्डो और मलिंगा जैसे तेज गेंदबाजों को गली का बबलुआ समझकर पीट बैठा। इरफान ने कल मलिंगा की गेंद पर जो छक्का लगाया वह उसके बैटिंग क्षमता से कई गुना ज्यादा बड़ा और मोहक छक्का था। इस सीन को देखकर मेरे मुंह से बरबस निकल गया- बड़े मियां तो बड़े मियां, छोटे मियां सुभान अल्लाह!
दूसरी जोड़ी ऑस्ट्रेलिया के हसी बंधुओं की थी। ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेटर बंधु माइक हसी और डेविड हसी ने कल ही न्यूजीलैंड के हाथ से मैच छिन लिया और लगातार हार की सामना कर रही अपनी टीम के हाथ से निकल रही सीरिज को बचा लिया। प्रतिभा के लिहाज से माइक हसी, डेविड हसी से कहीं श्रेष्ठ हैं, लेकिन कल डेविड ने माइक से भी बढ़िया खेल दिखाया । वैसे तो विश्व क्रिकेट के इतिहास में कई ऐसे क्रिकेटर बंधुओं का नाम दर्ज है जिसने साथ-साथ अपने देश का प्रतिनिधित्व किया, लेकिन यह पहला अवसर है जब एक ही दिन दो अलग-अलग टीमों के बंधुओं ने विपक्षी दल को दिन में ही तारे दिखा दिये।

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

अंतर्राष्ट्रीय मीडिया संगठन की अच्छी पहल

(पत्रकारों पर बढ़ते हमले के खिलाफ सिर मुंडाकर प्रदर्शन करते नेपाली पत्रकार, लेकिन सरकार पर कोई असर नहीं हो रहा)
अंतर्राष्ट्रीय मीडिया संगठन (आइएफजे - इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट) ने एक अच्छी पहल की है। कल इस संगठन का एक दल नेपाल पहुंचा है। नेपाल में पत्रकारों पर लगातार हो रहे हमले, अपहरण, हत्या आदि की बढ़ती घटनाओं के संदर्भ में यह संगठन नेपाल आया है। इस दल में पूरी दुनिया के कई वरिष्ठ पत्रकार शामिल हैं। यह दल नेपाल की सरकार से स्थानीय पत्रकारों की सुरक्षा और प्रेस पर हो रहे हमले के संदर्भ में बात करेगा। इसने आज से ही अपना काम चालू कर दिया है। जनकपुर से मेरे एक पत्रकार मित्र ने आइएफजे की पहल की सूचना देते हुए कहा कि वे पहले चरण में स्थानीय पत्रकारों के साथ बैठकें करेंगे। इस क्रम में उन्होंने कल जनकपुर के पत्रकारों के साथ एक बैठक की भी। इसके बाद यह दल नेपाल की विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के नेता से मिलेंगे। इनमें नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष और नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोइरला, मधेशी जनाधिकार फोरम के अध्यक्ष उपेंद्र यादव, नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी के नेता झालनाथ खनाल और कुछ माओवादी नेता भी शामिल हैं। इसके अलावा यह दल नेपाल के राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन एवं संयुक्त राष्ट्र मिशन के अधिकारियों से भी विचार-विमर्श करेंगे। अंतर्राष्ट्रीय मीडिया संगठन के हस्तक्षेप से नेपाली पत्रकार काफी राहत महसूस कर रहे हैं।
ज्ञातव्य है कि पिछले एक साल से नेपाल में प्रेस और पत्रकारों पर लगातार हमले किए जा रहे हैं। गत दिनों यह मामला तब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में आया जब एक महिला पत्रकार को अराजकतावादियों ने गोली मार दी। ऐसा माना जाता है कि प्रेस और पत्रकारों पर हो रहे हमले को सरकार का समर्थन प्राप्त है। इस कारण हिमालय की वादी में मौजूद इस नवलोकतांत्रिक देश में प्रेस की आजादी खतरे में पड़ती दिखाई दे रही है। चूंकि नेपाल की सरकार स्थानीय प्रेस संगठनों के प्रदर्शन और विरोध को सुन नहीं रही थी, इसलिए अंतर्राष्ट्रीय हस्तक्षेप आवश्यक हो गया था। उम्मीद की जानी चाहिए कि नेपाल की सरकार इस मसले को गंभीरता से लेगी और अपने पत्रकारों पर हो रहे जुल्मों को बढ़ावा नहीं देगी। यह नेपाल में लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए अनिवार्य है क्योंकि प्रेस की स्वतंत्रता के बगैर कोई भी लोकतंत्र आगे नहीं बढ़ सकता।

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009

वो घास की कताई, वो कास की बुनाई (पहली कड़ी)

दियों-सदियों तक संघर्ष करती हैं पीढ़ियां, तो कहीं जाकर एक सभ्यता आकार लेती है। ऐसी सभ्यताएं अपनी जरूरतों और उपलब्ध संसाधनों के बीच में गजब का संतुलन बनाकर आगे बढ़ती है। एक ऐसा संतुलन जो मानव और प्रकृति के बीच संघर्ष की स्थिति पैदा नहीं करती। ऐसी सभ्याताएं परमुखापेक्षी भी नहीं होती। वे अपने आसपास की आवोहवा से निर्देशित होती है। वे अपनी मिट्टी में उपजने वाले अन्न से अपने भोजन व्यवहार, रीति-रिवाज, भेष-भूषा, पहनावे-ओढ़ावे आदि विकसित करती है। उनके पास स्वदेसी तकनीकें होती हैं, जिनसे वे अपनी सारी जरूरतों को पूरी कर लेती हैं। लेकिन आधुनिक सभ्यता ने इस कांसेप्ट को तहस-नहस कर दिया है। बाजार ने वस्तु मात्र का वैश्वीकरण नहीं किया है, बल्कि इसने मनुष्य की आदतों का भी वैश्वीकरण कर दिया है। हम ऐसे खानपान के आदि हो रहे हैं, जिसका निर्माण हमसे हजारों किलोमीटर दूर होता हो। हम ऐसे कपड़े पहनने लगे हैं, जो कहां बनते, हमें नहीं पता। हम ऐसे सामान के इस्तेमाल के अभ्यस्त हो गये हैं, जिन्हें सिर्फ बड़े कारखाने और विकसित देशों में ही बनाये जा सकते हैं। इसका नतीजा सामने हैं। हमारे सदियों पुराने लोक-तकनीक लापता हो रहे हैं। बुनाई-कताई का हमारा पारंपरिक ज्ञान खत्म हो रहा है। स्थिति तो यह हो गयी है विगत 25-30 वर्षों में ही हमने करीब चार दर्जन लोक-तकनीकों को खो दिया है और जो कुछ बची-खुची लोक-तकनीकें हैं वे भी तेजी से खत्म होने की ओर अग्रसर हैं। आने वाले वर्षों में अगर हमारी कोई पीढ़ी इन देसी-तकनीकों का पुनर्ज्ञान हासिल करना भी चाहे तो नहीं कर पायेगा। क्योंकि हमारे देश में लोक-तकनीकें और लोक-हुनर स्मृतियों के माध्यम से ही आगे बढ़ते रहे हैं। कभी कोई सरकार ने इन तकनीकों और इन कौशलों के डाक्यूमेंटेशन का प्रयास नहीं किया। इसका मतलब यह हुआ कि अगर बीच की कोई एक पीढ़ी किन्हीं कारणों से अपने पारंपरिक लोक-तकनीक को त्याग दे तो वे तकनीक, वे कला, वे प्रौद्योगिकी सदा के लिए समाप्त हो जायेंगे और हमारे देश में यही हो रहा है।
इस क्रम में मुझे पूर्वी और उत्तरी बिहार खासकर कोशी अंचल की कुछ लोक-तकनीकें याद आ रही हैं। महज 15-20 वर्ष पहले तक इस अंचल में दर्जनों लोक-तकनीकें जिंदा थीं। कृषि आधारित कोशी अंचल की सभ्यताएं अपनी जरूरतों के लिए लगभग हर समान खुद बना लेते थे। चाहे वह दैनिक जरूरत का समान हो या फिर दूरगामी जरूरत के कृषि यंत्र हों। इसलिए यहां बांस, पटसन, घास, कपास, लकड़ी आधारित हस्तक रघा उद्यम घर-घर में प्रचलित थे। बांस, लकड़ी, फूस और पटसन की मदद से यहां के लोग एक-से-एक बड़े आलीशान बंगले बनाते थे। इसकी कभी इतनी प्रसिद्धि थी कि अंग्रेज अधिकारी को जब कोशी अंचल में भेजा जाता था, तो वे इलाके के कारीगरों को बुलाकर आरामदायक बंगले बनवाते थे। ये बंगले प्राकृतिक रूप से एयरकंडीसंड होते थे, जो गर्मी के मौसम में ठंड और सर्दी के मौसम में गर्म होते थे। लेकिन आज टॉर्च जलाकर खोजें, तो भी इन बंगलों के कारीगर नहीं मिलें। बांस से बनने वाले दैनिक घरेलू जरूरतों के सामान मसलन सुप,टोकरी, कुर्सी आदि बनाने की देसी तकनीकें भी गुम हो रही हैं। लेकिन सबसे तेजी से जो लोक-तकनीक खत्म हुई है वह है - कास और घास से बनने वाले विभिन्न प्रकार के बर्त्तन बनाने की हस्त-तकनीक।
ज्यादा समय नहीं बीते हैं-जब वर्षा ॠतु के खत्म होते ही कोशी अंचल की युवतियां-महिलाएं कास की कोंपलें बटोरने मैदानों में निकल जाती थीं। कास के इन कोंपलों को मूंज कहा जाता था। इन मूंजों को सूखाकर और लंबी-सूखी घास के तने से जो बर्त्तन तैयार होते थे, उनकी गुणवत्ता और खूबसूरती को शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। इन बर्त्तनों में गहने रखने के लिए पौती (आभूषण केस), रुपये-पैसे रखने के लिए बटुआ (बटुआ), बच्चों के खाने के लिए कटोरानुमा वर्त्तन- मउनी, फूल रखने के लिए फूलडाली, अनाज ढोने-उठाने और उन्हें पसारने के लिए दौरी, मवेशियों के गोबर उठाने और फेंकने के लिए दाउरा आदि शामिल है। इन वर्त्तनों पर तरह-तरह की छवियां उकेरी जाती थीं। मूंजों और घासों को विभिन्न प्रकार के जड़ों,कंद-मूल, फल-फूलों से तैयार किए गये रंगों से रंगीन बनाया जाता था। लोग इन छवियों को देखकर हैरान रह जाते थे। इनमें देवी-देवताओं, परियों, जंतुओं की मोहक तस्वीर दिखती थी। यह एक प्रकार की लोककला थी, जिसे हमारे पुरखों ने दैनिक जरूरतों में जोड़कर विकसित किया था। हस्त शिल्प का यह अनोखा उदाहरण था, जो दुनिया में कहीं भी देखने को नहीं मिलता। इन तकनीकों और हस्त कलाओं पर महिलाओं का एकाधिकार होता था। युवतियांें को अपनी मां-चाची, मौसी और पड़ोसिनों से यह कला विरासत में मिलती थी और इनमें माहिर होकर ही वह दक्ष स्त्री का दर्जा पाती थी। यही कारण है कि मां-पिता अपनी बेटियों को ससुराल विदा करते समय उनके द्वारा तैयार की गयी हस्तनिर्मित शिल्पाकीर्ती साथ में देते थे ताकि ससुराल वाले भी दुल्हन की कला से रूबरू हो सकें। लेकिन आज ये कलाएं और ये शिल्प लगभग खत्म हो चुके हैं। घास और कास की जगह स्टील और प्लास्टिक ने ले ली है। कुछ बुढ़ी औरतों को अगर छोड़ दिया जाय तो अब एक भी ऐसी महिला नहीं मिलती जिन्हें यह कला आती हो। नई पीढ़ी में तो अधिकांश को यह भी पता नहीं कि मउनी किसे कहते हैं और पौती की शक्ल कैसी होती है।
कोशी अंचल में जूट (पटसन) की उपज बहुत अच्छी होती है। इसलिए यहां सदियों से पटसन आधारित हस्त शिल्प की तकनीकें चलती आ रही हैं। पटसन से तरह-तरह की रस्सियां बनाने की तकनीकें इस समाज में मौजूद रहे हैं। इन रस्सियों में ऐसे-ऐसे गांठ बनाये जाते थे कि जैसे ये गांठ नहीं बटन हो। इन रस्सियों से खटिया बुनने, घर बनाने से लेकर तमाम तरह के कृषि कार्य किए जाते थे। लेकिन आज रस्सी बुनने की कला भी इलाके से खत्म हो रही है। पटसन की रस्सी की जगह तेजी से प्लास्टिक और मशीन निर्मित नारियल की रस्सी ले रही है।
लोक-कला और देसी तकनीकों के इस पतनोन्मुख प्रवृत्ति को देखकर रोने का मन करता है। जिसे हमारे पुरखों ने वर्षों-वर्षों में हासिल किया उसे हम चंद वर्षों में भूला बैठे। अतीत की इन थातियों का ऐसा अंजाम भी होगा, शायद हमारे पुरखों ने सोचा भी न होगा।
(दूसरी कड़ी में हम उन वजहों को ढ़ूंढने की कोशिश करेंगे जो हमारे पारंपरिक ज्ञान, कौशल, कला और शिल्पों को निगल रही हैं। अगर आपके पास भी इस संबंध में कोई जानकारी या खोज या अनुसंधान हों तो उन्हें यहां जरूर रखें। हम आपका स्वागत करते हैं)

बुधवार, 4 फ़रवरी 2009

बंद हुई नदी, कहां जायें डॉल्फिन

(नेपाल के कुसहा के समीप श्रीपुर गांव में एक भटके डॉल्फिन को निकालते नेपाली सेना के जवान )

(बिहार के सुपौल जिले में कोशी की परिवर्तित धारा में मृत पाये गये डॉल्फिन)

दहाये हुए देस का दर्द 35

नदी और इंसान के अहं के टकराव में बेचारे डॉल्फिन हलाल हो गये। उन्हें क्या पता था कि जिस धारा में वे सैर कर रहे हैं वह वास्तव में नदी नहीं , बल्कि उसकी बहकी हुई धाराएं हैं, कि कभी भी ये धाराएं बांध दी जायेगी और वे अचानक बेगाने हो जायेंगे। लेकिन पिछले दस-पंद्रह दिनों से ऐसा ही हो रहा है। कोशी नदी की परिवर्तित धारा में इन दिनों डॉल्फिन मछलियों के सामने अजीब संकट खड़ा हो गया है। बड़ी संख्या में डॉल्फिन मछली जहां-तहां फंस गयी हैं।

जैसे ही कोशी के कुसहा कटान से पानी को पुराने प्रवाह में मोड़ा गया वैसे ही उसकी परिवर्तित धारा में पानी का प्रवाह बंद हो गया। नदी के अपने पुराने प्रवाह में लौटते ही परिवर्तित धारा में पानी तेजी से घटने लगा। उसका बहाव और वेग भी स्थिर होने लगे। लेकिन धारा के विपरीत सैर करने वाले डॉल्फिनों को नदी के चरित्र में अचानक आया यह बदलाव समझ में नहीं आ रहा। वे वेग की खोज में इधर-उधर भटकते फिर रहे हैं। क्योंकि ये नदी की करेंट को पढ़कर ही दिशा का ज्ञान हासिल करते हैं। लेकिन जब से पानी स्थिर हुआ है उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा। आगे जायें या पीछे। परिणामस्वरूप वह नदी से नाले और नहर की ओर भटकते फिर रहे हैं। भटक-भटक कर सुपौल और मधेपुरा जिले के कुछ पोखरों और तालाबों में भी डॉल्फिन मछलियां पहुंच जा रही हैं। कोशी की मार से मूर्छित ग्रामीणों को समझ में नहीं आ रहा कि वह इस विशालकाय प्राणी का करें तो क्या करें। किंकर्त्तव्यविमूढ़ ग्रामीणों के बीच तरह-तरह की टिप्पणियां हो रही हैं। कोई कहता है कि भगीरथ रो रहा है। कोई कहता है - यह अनिष्ट का सूचक है। पिछले दिनों सुपौल के ललितग्राम रेलवे स्टेशन के नजदीक परिवर्तित धारा के किनारे में एक मृत डॉल्फिन पाया गया। आसपास के ग्रामीण उसे देखने के लिए उमड़ पड़े। एक बूढ़ा उसे प्रणाम कर रहा था और कह रहा था- हे भगीरथ माफ करूं। पृथ्वी पर पाप बहुत बढ़ि गेल ये, ताहि सं अहांक संग-संग हम सब कें ई हाल भ गेल अछि।

ज्ञातव्य हो कि पूर्वी बिहार के लोग समुद्र के रास्ते गंगा से होकर कोशी में दाखिल होने वाले डॉल्फिन को भगीरथ कहते हैं। नेपाली लोग इसे गोह कहते हैं। बरसात के दिनों में जब नदी उफान पर होती है, तो इसके करतब देखते ही बनते हैं। ये डॉल्फिन पानी की सतह पर अजीब तरह की क्रीड़ा करते रहते हैं। ऐसा लगता है जैसे पानी में शरारती बच्चों की टोली उतर आयी हो और लुकाछिपी का खेल खेल रहे हों। दूसरी ओर कॉफर तटबंध के सहारे कोशी को पुराने प्रवाह में मोड़ने के बाद परिवर्तित प्रवाह में पानी तेजी से घटने लगा है और जैसे-जैसे पानी की मात्रा में कमी आयेगी वैसे-वैसे भटके डॉल्फिन की समस्या बढ़ती जायेगी। देश के संरक्षित जीवों की सूची में दर्ज और विलुप्ति की आशंका वाले प्राणियों में गिने जाने वाले इन डॉल्फिनों को बचाने के लिए प्रयास होना चाहिए। लेकिन कहीं कोई प्रयास नहीं हो रहा। वैसे भी कोशी इलाके में लाखों लोगों के सामने जान रक्षा की समस्या मुंह बाये खड़ी है, लेकिन उनका सुध लेने वाला कोई नहीं है। जब इंसान का यह हाल है तो अन्य जीवों के बारे में क्या बात की जाय!

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

बसने-उज़डने की अकथ कहानी (दूसरी क़डी)


दहाये हुए देस का दर्द-34

धारा को पार करने के बाद उसने मेरे आने का इंतजार नहीं किया और धूल भरे खेत में गुम होते चला गया। जाते-जाते उसने हाथ हिलाकर मेरी ओर अजीब तरह का इशारा किया था। एक ऐसा इशारा जिससे कोई अर्थ नहीं िनकलता। ऐसे इशारे दो ही स्िथतियों में िकए जा सकते हैं। एक तब जब व्यक्ित के सामने अचानक कोई ऐसी परिस्िथति उत्पन्न हो जाय िक उसे पलक झपकते स्थान बदलना प़ड जाय; दूसरा तब जब व्यक्ित कोई कायराना हरकत कर रहा हो या फिर अपने नैितक कत्त्र्ाव्य से िवमुख हो रहा हो। तब वह सामने वाले को िनरर्थक इशारा कर अपनी कायरता को छिपाने की कोिशश करता है।

उसका संग छूटते ही मैं िनस्संग हो गया, सामने से बह रही कोशी की उस उथली धारा की तरह। मैं देर तक उसके इस अप्रत्यािशत व्यवहार की वजह को समझने में लगा रहा, लेकिन िकसी िनर्णय पर नहीं पहुंच सका। यह तो बाद में पता चला कि वह मफलरधारी युवक वास्तव में एक डाकू था, जिसने अपने साथियों के साथ पिछली रात एक गांव में डाका डाला था और पुलिस से बचने के लिए कोशी िदयारा की ओर भागा चला जा रहा था। लेकिन मेरी समझ से वह अपनी नजर में काफी नीचे तक िगरा हुआ एक कायर शख्स था, जिसके िलए जीवन एक वेश्या के समान होता है; िजससे रति-सुख तो िमलता है, लेिकन प्रेम नहीं होता। उसके करतब बहादुरी नहीं, बल्िक बेसुधी थी; उसके मफलर मफलर नहीं वरन नकाब थे।

खैर! उस भगो़डे डाकू के भाग जाने के बाद मैंने अपने पतलून उतारे और धारा को पार कर िलया। बचपन की तैराकी के कारण मुझे यह आत्मिवश्वास था कि चाहे वेग कितना भी हो वह मुझे डूबा-भसा नहीं सकती। बचपन में हरदा-बो के पन-खेल में हम लोग इससे कई गुना ज्यादा तेज धारा और गहराई में डूबकी लगाते थे। धारा के उस पार जाने के बाद एक नजर दसों िदशा में दौ़डाई। दूर-दूर तक कहीं कोई बस्ती, कोई मानव, यहां तक जीवन-आहट सुनाई नहीं दे रहा था। हां, जेब से मोबाइल निकालकर देखा, तो उसमें नेटवर्क के टॉवर मौजूद थे। मुझे एक मोबाइल कंपनी के िवज्ञापन का स्लोगन याद आया- पानी नहीं, लेिकन टॉवर हैं, हवा नहीं लेकिन मोबाइल है। अगर मुझे उस कंपनी के एमडी मिल जायें तो अनुरोध करूं- अपने स्लोगन में एक पंक्ित और जो़ड दीजिए-- इंसान नहीं पर टॉवर है...

अब तक सुबह के लगभग सा़ढे दस बज गये थे । सुबह से छाये कुहासे धीरे-धीरे छंट रहे थे और धूप िखलने लगी थी। लेिकन मेरे पास दो ही िवकल्प थे या तो ऐसे ही बिना कुछ सोचे-िवचारे पश्िचम की ओर ब़ढ चलूं या फिर कहीं बैठकर मानव दर्शन का इंतजार करूं। मुझे दूसरा िवकल्प ही ठीक लगा। रेतीले खेतों के मध्य एक जगह मुझे थो़डी-सी हरियाली नजर आयी, वहीं जाकर बैठ गया। बैठने के साथ ही दिमाग में यादों-िवचारों के बादल मंडराने लगे। कोश्ाी तटबंध के अंदर के जीवन की सुनी हुई बातें एक-एक कर याद आने लगीं। कोशी नदी की विनाश-लीला के देखे-अनदेखे इतिहास की काल्पनिक तस्वीरें मस्ितष्क में चलने लगी। पिछले साल सहरसा से अपने गांव, फिंगलास जाते समय रास्ते में एक मिहला द्वारा सुनी दास्तान... वह महिला सहरसा के सदर अस्पताल से अपनी वहु की लाश लेकर लौट रही थी। पंचगछिया रेलवे स्टेशन पहुंचते-पहुंचते रेलवे के वेतनभोगी िगद्धों को बॉगी में लाश होने की भनक लग गयी थी। उन्होंने अचानक धावा बोल िदया।

एई बुिढया ! किसको सुताई हुई है सीट पर ? एकरा यहां उठाओ ।

बेराम (बीमार) है हुजूर ! इस्पीताल से घर ले जा रहे हैं। डागडर लोग िनरैश (असाध्य मान लेना) िदया, बहुते बेराम है सरकार, एही से (इसिलए) सुतल है।

मरीज है िक लाश है ? सा... बुि़ढया, हमको बु़डबक बना रही है ! हटाओ तो इसके ऊपर से चादर !

जनी-जात (स्त्री) है हुजूर, दजा कीिजए...

तोरा मालूम नहीं है िक ट्रेन में लाश ढोना मना है। अपन बाप की गा़डी समझ रखी है क्या? हटाओ इसको िहयां से, कि फेंकवा दे बाहर ...

ऐसा अनयाई (अन्याय) नहीं कीजिए सरकार ! इ रख लीिजए ।

केतना है ? सब बेमारी में खरीच हो िगया हुजूर, बस यैह पचस टक ही (पचास रुपये की नोट) ठो बचल है !

हमको ठगती है, उ खूट में क्या है ?

ई डागडर के पूर्जा (पर्ची) है, हेई लीजिए, खोलकर देख लीजिए ...

बस-बस। सब कल्लर-मच्छ़ड सब इसी ट्रेन में बैठ िगया है, हें-हें-हें...

ठीक है। सुन लो, पब्िलक से नहीं कहना कि ई लाश है। समझी।

हरो-हरो (एक-एक कर) सभी रेल-िगद्ध उतर गये। गा़डी खुल गयी। मानो गार्ड बाबू इन िगद्धों के वसूली अिभयान की प्रतीक्षा में ही रूके हों, जैसे ही वे उतरे, उन्होंने हरी झंडी िदखादी ।

उधर छुक-छुक कर इंजन ने सरकना चालू किया, इधर बुि़ढया का विलाप-कथा का आप-राग चालू हो गया । वह रो-रोकर अपना दुख़डा सुनाये जा रही थी। लेकिन किसे ? शायद किसी को नहीं, या फिर शायद सभी को... उन सबको िजनके कान बहरे हो चुके हैं और सुनकर भी कुछ नहीं सुनते और देखकर भी अंधे बने रहने को आधुनिक जीवन का नीयित मान चुके हैं।

बुि़ढया के विलाप-राग का सारांश यह थािक परसों रात आधी रात को उसकी छोटी वहु को पेट में दर्द शुरू हुआथा। जब दाई-लोगों से प्रसव का यह केस नहीं संभला, तो गांव के लोगों ने उसे खटिया पर लिटाकर भपिटयाही अस्पताल पहुंचाया। कोशी तटबंध के अंदर से भपिटयाही अस्पताल पहुंचने में ही पांच घंटे लग गये। आठ कोस की दूरी खिटया पर तय की उस प्रसवासन्न महिला ने । भपिटयाही में भी डॉक्टर ने हाथ ख़डा कर िदया। सहरसा के सदर अस्पताल ले जाते-जाते मिहला और अजन्मे िशशु दोनों की मौत हो गयी। मृत महिला का पित और देवर दोनों पंजाब में हैऔर ससुर को मरे वर्षों हो गये।

आब अकेले हम की करबै हो, महादेव ! कुन लगन में इ कपरजरी(अभागी) घर आयल हो भोला बाबा !!

रेत की दौ़डती लट्टू ने मुझे अपने आगोश में ले िलया। परिणामस्वरूप उस बुि़ढया का िवलाप-राग का कैसेट कहीं अटक गया। लेिकन इससे भी ज्यादा तेजी से जो दृश्य मेरे दिमाग आकर अटका वह था- सामने से गुजरती महिलाओं का एक झुंड। ये ग्रामीण महिलाएं थीं, जो शायद घास काटने के लिए घर से िनकली थी। मैंने जोर से अावाज लगायी, तो वे सभी महिला ठिठक कर रूक गयीं।

(अगले पोस्ट में जारी)